पर्यावरण संरक्षण, विकास और विकास विरोधी

Environmental protection, development and anti-development पर्यावरण संवर्धन और संरक्षण प्रत्येक व्यक्ति का प्राथमिक दायित्व और आवश्यक कर्तव्य है, यही भारतीय संस्कृति की सुदीर्घ परम्परा रही है। लेकिन दशकों से पर्यावरण संरक्षण और बजट की कमी के नाम पर हिमालयी पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को मोटर मार्गों स्कूल अस्पताल आदि सुविधाओं से वंचित रखने की कोशिशें भी होती रही हैं। जबकि मोटर सड़कें पहाड़ के जनजीवन की लाईफ लाईन हैं। रही पहाड़ों में टूट-फूट की बात तो हिमालयी पहाड़ों में कटाव धंसाव लगा ही रहता है, जहां सघन जंगल है वहां भी भू स्खलन होता रहता है। यही युगों से हिमालय के बनने और अधिक ऊंचा उठने की क्रिया-प्रकृया का प्राकृतिक क्रम है। अंटार्कटिका में तो कुछ भी विकास के काम नहीं हो रहा, लेकिन वहां भी तेजी से बर्फ पिघल रही है।

कुछ विकास विरोधी लोग कभी बांघों तो कभी मोटरमार्गों के नाम पर धंधेबाज हो गये हैं, जहां कहीं भी विकास कार्य शुरू होते हैं तो पर्यावरण, खेती बचाने या जनपक्ष के बहाने ये विकास विरोधी लोग विरोध करने धमक पड़ते हैं। अब तो भाखड़ा, टिहरी, सरदार सरोवर आदि बड़े बांधों और पूर्वोत्तर की चौड़ी चकली मोटर सड़कों ने इन विकास विरोधियों को दर्पण भी दिखा दिया है। इससे सरकारों की भी अब विकास के लिए बड़ी योजनाओं के चयन की झिझक मिट जानी चाहिए। चीन इंग्लैंड ने ऐसा किया है और वहां पेड़ भी लगे हैं, प्रदूषण भी भारत से कम है। उत्तराखंड में भी इन दिनों बन रही चारधाम राष्ट्रीय राजमार्ग सड़क और रेल परियोजनाओं पर विकास विरोधी पर्यावरण और जमीन बचाने के बहाने सक्रिय दिखेंगे। कहना समीचीन होगा कि पर्यावरण प्रदूषण का मुख्य कारण जनसंख्या विस्फोट और कागज, फर्नीचर, रैक प्लाइवुड आदि हेतु भारी मात्रा में पेड़ों का काटा जाना है। न कि मोटर सड़कें या अतिआवश्यक विकास की योजनाओं के कारण, जब लोग ही नहीं रहेंगे तो पर्यावरण किसके लिए बचाओगे? पहाड़ों में सड़कें और मूलभूत विकास की योजनाएं तो बननी ही चाहिए और यथा शीघ्र बननी चाहिए। पर्यावरण बचाना है तो इसके लिए खाली जमीनों पर बेल, बड़, पीपल, पंया, रूद्राक्ष, कदम्ब, चंदन पारिजात, जामुन भोजपत्र जैसे सदाबहार वृक्षों और तुलसी पौधों को भारी मात्रा में लगाया जाना चाहिए, लेकिन ये तेजी से धरती से विलुप्त हो रहे हैं। और इनकी जगह चीड़ एवं यूकेलिप्टस उगाना लाभ कारी समझा जाता है। मजेदार बात यह है कि ये विकास विरोधी लोग कभी जनसंख्या नियंत्रण पर बात नहीं करेंगे, कभी फैक्ट्रियों और वाहनों के धुआं उगलने के खिलाफ नहीं रहेंगे, नालियों में प्लास्टिक कचरा कूड़ा डालने या अतिक्रमण पर बात नहीं करेंगे। पशु पक्षियों के वध के खिलाफ बात नहीं करेंगे, केवल विकास कार्यों के विरूद्ध खड़े मिलेंगे और बेरोजगारी के नाम पर विधवा विलाप भी करते दिखेंगे। वहीं वन एवं पर्यावरण विभाग भी ऐसे विकास विरोधी कानूनों का अपनी सुविधा के हिसाब से गुणा भाग लगा कर फाईलें अटकाते – लटकाते रहते हैं। कुछ जगहों सड़क आदि सुविधाएं पहुंची भी हैं, पर तब तक इतनी देर हो चुकी थी कि वहां के समर्थ लोग गांव छोड़ कर चुके थे। प्रमाणिक सत्य ये है कि उत्तराखंड के पहाड़ी जनपदों के ७०% गांव आज भी मोटर सड़क व स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित हैं। खेती बाड़ी तो बंदर सुवर भालू जैसे वन्य जीवों ने चौपट कर दी है, इस कारण अधिकतर लोगों ने खेतों को बोना ही छोड़ दिया है, इससे फसल चक्र पर भी संकट आ गया है। बाघ भालू जैसे हिंसक जंगली जानवरों के आतंक से लोग त्रस्त हैं। ‘आजीविका’ ‘स्वजल’ और ‘जलागम प्रबंध’ जैसे अरबों के बजट डकारने वाले सफेद हाथी बन चुके नकारा विभाग गांवों में जंगली जानवरों से खेतीबाड़ी की सुरक्षा हेतु केवल जालीदार तारबाड़ का ही एक काम भी करें तो इसी से ग्रामीणों की आजीविका बढ़ जाती। परन्तु इन विभागों को दिल्ली देहरादून राजधानियों में डिजाइन प्रोजेक्टों की आड़ में पहाड़ के नाम पर अरबों रूपये ठिकाने लगाने से फुर्सत मिले तब ना? सरकारों की उदासीनता और विभागों ऐसी ही नाकामियों के कारण अनेक पिछड़े जगहों लोग अब अपने मोटर मार्ग खुद ही बनाने को अभिशप्त हैं …हरीश मैखुरी २४-०८-२०२०