नमो नाथ ढोल के वाहकों को कब सम्मान मिलेगा सरकार

जबरसिंह वर्मा

उत्तराखंड की धर्मनगरी हरिद्वार में राज्य सरकार के सानिध्य में इन दिनों “नमो नाथ ढोल“ कार्यशाला चल रही है। दो दिन पूर्व पर्यटन और सांस्कृतिक मंत्री सतपाल महाराज ने इसका उद्घाटन किया। मुझे मंगलवार को ही प्रसिद्ध रंगकर्मी श्री नंदलाल भारती जी द्वारा फेसबुक पर डाली पोस्ट से इसकी जानकारी मिली। पोस्ट देखते ही कुछ संक्षित लिखने को मन किया। गजल सम्राट प्रीतम भरतवाण, ढोल वादक उत्तमदास सरीखे लोग इस कार्यशाला के गवाह बने हुए हैं। बधाई। पूर्व में शिक्षा मंत्री रहे खजानदास भी इस ढोल को अपनी शान बताकर गले में लटका चुके हैं। हरीश रावत भी अक्सर नजर आते रहे हैं। हरिद्वार की कार्यशाला में सतपाल महाराज के गले में भी ढोल दिखा।

मगर, सवाल यह है कि इन नेताओं और सरकार का यह ढोल प्रेम क्या सिर्फ इसलिए है, क्योंकि इससे इनकी लोक परंपरा और संस्कृति जिंदा रहती है, मनोरंजन होता है। लगता तो यही है। वरना, ढोल के साथ ही गांवों में अमानुषिक, गरीबी, दरिद्र और अछूत का जीवन जी रहे इस विद्या धरी समुदाय के लोग, जिनके लिए यह ढोल किसी मरे हुए सांप की तरह गले में लटका हुआ है, के लिए भी हमारे आकाओं की चिंता झलकती। इसमें कोई शक नहीं कि, वादकों को सम्मान दिए बिना, उनके हितों के संरक्षण की चिंता किए बिना “ढोल बजाऊ“ संस्कृति को बढ़ावा देना तो गुलामी की इस प्रथा को और मजबूत करना ही है, जो दलित समाज और बाबा साहेब डा. अंबेडकर सपने के भी एकदम उलट है। ये बाजगी समुदाय ही नहीं, बल्कि पूरे दलित समुदाय को पीछे धकेलने और दकियानुसी-रूढ़िवादी परंपराओं में जकड़ने की कोशिश है, जिसका स्वागत कभी नहीं किया जा सकता। दलितों के लिए हिंदू जाति व्यवस्था जितनी घातक है, उतनी ही घातक यह ढोल बजाऊ व्यवस्था भी है। क्योंकि, हर रूढ़िवादी-दकियानूसी, अंधविश्वासी व्यवस्था का सूचक और वाहक ढोल भी रहा है,
जिसके फेर में पढ़कर दलित गुलाम बने।

ढोल हमारी परंपरागत लोकविद्या है। मनुष्य के जीने से लेकर मरण तक यह हमारी संस्कृति और रीति-रिवाज का अहम हिस्सा बनाया गया है। बच्चा पैदा होने पर, हर त्यौहार में, त्यौहारों की सूचना देने में, सभी धार्मिक अनुष्ठानों में, भौर में ग्रामीणों ही नहीं, बल्कि देवताओं को भी उठाने और देर शाम इनको गहरी निंद्रा में डालने, कई किलोमीटर तक पैदल बारात को नाचते-गाते लाने-ले जाने, देवताओं की डोली नचाने, धान को रौपाई-गोबर की ढूलाई से लेकर शमशान घाट तक की अंतिम विदाई तक ढोल और बाजगी का अहम किरदार रहता है। खबरी के तौर पर भी जीने-मरने, शादी-विवाह की खबर देने इनको एक से दूसरे गांवों में जाना पड़ता है। इनके नाम के आगे ही बकायदा “दास“ लगाया जाता है। इन्हें जो कहा जाए, करना ही होगा।

आज पारंपरिक रीति-रिवाज, लोक विद्या समाप्त होने की कगार पर है। इसके पीछे की वजह लोक विद्या धरी शिल्पी समाज का जाति आधारित शोषण, भेदभाव और उत्पीड़न है। सम्मान नहीं मिलने के चलते लोहार, कुम्हार, बढ़ई, चर्मकार, बुनकर, बाजगी, ढाकी आदि शिल्पियों का अपने इस परंपरागत व्यवसाय से अब मोहभंग हो चुका है। इन व्यवसायों से अब एक तो पहले जैसी आमदनी नहीं होती थी, उपर से दलित-अछूत होने का ठप्पा गांवों में झेलना पड़ता था। ढोल क्योंकि धार्मिक-सामाजिक कार्यों के लिए जरूरी माना जाता है, खासकर पहाड़ों में। इसलिए इसकी अहमियत बनी हुई है। लेकिन, ढोली समाज के लोग अपनी मर्जी या खुशी से ढोल बजाते हैं अथवा इन लोगों का इससे मोहभंग नहीं हो रहा है, ऐसा कहना और मानना एकदम गलत होगा। बल्कि, ढोल बजाने के लिए गरीबी और दूसरे समाजों की दबंगई मजबूर करती है।

हां, अनुसूचित जाति आरक्षण से प्रधान-विधायक बनने की चाह रखने वाले इस समुदाय के कुछ मुट्टीभर लोग अपनी स्वार्थसिद्ध के लिए जरूर इस विद्या का इस्तेमाल बड़ी चतुराई से कर रहे हैं। ऐसे कई नेताओं को मैं जानता हूं जो वोट मांगते समय गांवों में जाते हैं, सिर की टोपी पांव में रखकर कहते हैं “महाराज मैं तो कल भी तुम्हारा गुलाम था, ढोल बजाकर, गाकर तुम्हे नचाता था, मांगकर खाता था और भविष्य में भी ऐसा ही करूंगा। मैं आप लोगों के लिए योजनाएं लाउंगा, कोई नहीं सुनेगा तो ब्लॉक, जिले या विधानसभा में भी ढोल बजाकर जगाउंगा“ मैने हमेशा तुम्हारी सेवा की आगे भी करूंगा, बदले में बस वोट दे दो“ क्योंकि, वर्तमान आरक्षण व्यवस्था को असरविहीन और खोखला करने के लिए सवर्ण मानसिकता के लोगों को इसी तरह के आज्ञाकारी, अस्वाभिमानी गुलामों की जरूरत होती है, सो वोट खूब मिल जाता है। ये नेता तो गिर-पढ़कर ढोल के नाम पर वोट बटोर लेते हैं, लेकिन इसका खामियाजा इनके समाज के लोगों को झेलना पड़ता है। क्योंकि, गांव में कोई पढ़ा लिखा नौजवान यदि ढोल बजाने से मना करता है, तो उसे यही कहकर डराया-दबाया जाता है कि “तेरा फलां नेता-प्रधान या विधायक तो ढोल बजा रहा है, वो शर्मा नहीं रहा और तू अपनी औकात भूल गया है।“ ऐसे में, उस नौजवान के पास कोई जवाब नहीं होता, न ढोल छोड़ने का कोई बहाना। और ये नेता भी कभी इन्हें नहीं पूछते। ऐसे में, चंद नेताओं का स्वार्थ इन्हें हमेशा हमेशा के लिए गुलाम बनाने का मजबूर करता है। ढोली समाज गांवों में आज भी गुलामों की जिंदगी जी रहा है। ब्राहमण और धार्मिक कर्मकांडों के सीधे संपर्क में रहने से इनमें धार्मिक प्रवृत्ति दूसरे दलित समुदायों की अपेक्षा ज्यादा घूस गई है और अंधविश्वासी बना दिए गए हैं। इसलिए इनको धर्म के नाम पर गुमराह करके गुलाम बनाए रखना भी ज्यादा आसान है। जाने-अनजाने में ये लोग स्वयं इनमें बुरी तरह फंसे हुए हैं।

पहाड़ों में मनोरंजन का मुख्य साधन ढोल-दमाऊ ही है। तीज-त्योहार, शादी, मेला-धार्मिक अनुष्ठान प्रमुख मनोरंजन है और इनमें ढोल बजना अनिवार्य है। बाजगी समुदाय का काम सिर्फ ढोल बजाकर दूसरों का मनोरंजन करना है। इसलिए इनकी जरूरत हरेक गांव में होती है। इसलिए इन्हें एक गांव से दूसरे गांव में ले जाया जाता है। सामाजिक मान्यता के अनुसार ये अपना एक गांव छोड़कर दूसरे गांव में जाने से मना भी नहीं कर सकते। वैसे भी, इनका जीवन गांव समाज द्वारा दिए गए खाने-अनाज पर निर्भर रहता है। ऐसे में, एक गांव में ज्यादा परिवार रहने से भरण-पोषण करना मुश्किल है। एक दास परिवार के पास एक बड़ा गांव या ज्यादा से ज्यादा दो छोटे-छोटे गांव होते हैं। रंवाई-जौनपुर और जौनसारी समाज में यह बाजगी परिवार जिस गांव का दास होता है, उस गांव से ही रोटी-अनाज खाने के लिए मांग सकते हैं। अमूमन पूरे पहाड़ में यही स्थिति है। क्योंकि, सुबह-शाम ग्रामीणों और उनके देवताओं को जगाने को छोड़ कर हर रोज ढोल बजाने का काम नहीं होता, इसलिए ऐसे खाली दिनों में बाजगी परिवारों को सवर्णों के खेतों में काम भी करना होता है। पहाड़ों में
छमाई फसल आती है, इसलिए इनको सालभर ढोल बजाने, सूचना देने, बाल काटने, खेतों में काम करने के एवज में लोग दो बार फसल से आने वाला अनाज देते हैं। हर परिवार से मिलने वाला अनाज भी फिक्स नहीं होता। उपज के हिसाब से अनाज मिलता है। जिससे परिवार का भरण-पोषण संभव नहीं होता। इसलिए घरों से पका हुआ भोजन भी मांगते हैं। अनाज और भोजन मांगने इन्हें महिलाओं-बच्चों संग घर-घर जाना होता है। एक-डेढ़ दशक पहले तक तो गांव के चौक पर बाजगी समुदाय के पुरूषों को ढोल बजाकर, गीत गाकर अपनी महिलाओं को पूरे गांव के सामने नचाना होता था। मुझे अच्छी तरह याद है, इनके महिला-पुरूष देर तक और पूरे जोश से ठूमके लगाकर नाचे-गाएं, इसके लिए उन्हें हर कोई
दारू लाकर पिलाते थे। उसके बाद जाकर लोग अनाज देते थे। हालांकि, अब रोज मांगने की परंपरा काफी ढीली पड़ी है। कही जगहों पर यह परंपरा आज भी बरकरार है। क्या कोई मान सकता है कि गांव के चौक पर नाचने-गाने वाली इनकी महिलाओं को दूसरे पुरूष अच्छी नजर से देखते होंगे?

जीने से लेकर मरण तक जिस-जिस कार्य में पंडित-पुरोहित शामिल होते हैं, उसमें बाजगी और उसका ढोल भी रहता है। कही जगह तो बाजगी न हो, तो पुजारियों का काम भी न चले। बाजगी को सुबहामश् बारिश-ठंड में लोगों को जगाना-सुलाना, हर त्योहार-सुख-दुख का हर संदेश देने से लेकर खेती के काम, नाचना-नचाना आदि दिन-रात के कड़ी मेहनत के काम ब्राहमणों के अतिरिक्त करने पड़ते है। बावजूद इसके, उनके काम का दाम ब्राहमण की अपेक्षा ना के बराबर और कही मर्तबा कुछ भी नहीं है। बाजगी का पूरा परिवार एक या दो गांवों से भीख मांग कर खा सकता है, बाकी गांवों से उसे कुछ नहीं मिलेगा। जबकि, एक पंडित-पुरोहितों की जज्मानी 50 से 100 गांवों में मानी जाती है। इन सभी गांवों में होने वाले धार्मिक-सामाजिक, सांस्कृतिक अनुष्ठानों में पंडित-पुरोहितों का यही परिवार जीवन-से मरण तक काम करता है। जिससे उनकी अच्छी-खासी आमदनी हो जाती है। एक शादी या पूजा-पाठ में मखमली चटाई में बैठकर, ड्राई फू्रट, फल-फूल, दुध-घी से घिरे पंडित-पुरोहित अपने जज्मान से पूरा मान-सम्मान पाता है। पूजा-पाठ के नाम पर मंगवाई गई अथवा चढ़ाई गई यह इस सारी सामग्री और मुंह मांगे पैसों के साथ इनकी विदाई सम्मान से की जाती है। लेकिन, उसी शादी में कम से कम दो रात और एक दिन हर संस्कार-रिवाज में धूप-बारिश, सर्दी-गर्मी में ढोल के साथ खड़े बाजगी को घर में प्रवेश तक की इजाजत नहीं होती। घर के बाहर रहकर हर समय ढोल बजाने, इसकी रक्षा करने की जिम्मेदारी निभाने के साथ ही, सभी संस्कार के समय अलग-अलग सुर-ताल में ढोल बजाने, महिला, शराबी-कवाबी, बच्चे-बूढे़, नौजवानों को उनके अंदाज के मुताबिक नचाने का जिम्मा बाजगी का ही होता है। लेकिन, कार्यक्रम समाप्त होने के बाद बदले में उन्हें कुछ बचा-कूचा खाना, अनाज आदि देकर चलता किया जाता है। कई बार तो इनकी बारी आने तक शादी-समारोहों में खाना ही खत्म हो जाता है। हर किस्म के लोगों का मनोरंजन करना होता है, इसलिए भी भूखे-प्यासे रह जाते हैं। हां, बीच-बीच में इनकी दारू का जरूर ख्याल रखा जाता है, ताकि भूखे पेट ही सही, पर जोश रहे। इससे इनमें नशे की प्रवृत्ति बढ़ना, रोग ग्रस्त होना स्वभाविक है। एक तरफ कुछ भी श्रम न करने वाले ब्राहमण के लिए हर लिहाज से ठाट-बाट और दूसरी तरफ खून-पसीना बहाने वाले गरीब बाजगी की बद से बदतर हालत। जिल्लत-फजीहत, बेबसी-लाचारी। जहां एक पंडित-पुरोहित को पांच हजार मिलेंगे, वहां दो से तीन ढोलियों में पांच सो से हजार रूपये मिलेंगे। बाजगी यदि अपने गांव का ही, हो तो उसे ये भी नहीं मिलेगा।
धार्मिक अनुष्ठनों के देव-माली कहलाने वाले बाजगी के साथ खिंचा-तानी करते हैं और शादी-समारोहों में नाचने में मस्त लोग। ढोल ठीक से नहीं बजा, देव-दानव खुश नहीं हुए तो गाली-मारपीट को सब तैयार रहते हैं। फिर चाहे किसी की गर्दन टूटे या हड्डी। ज्यादातर बाजगी परिवारों के पास न तो अपनी जमीन है, न स्थायी ठिकाना। कुछ गांवों में जरूर इनको पट्टे आदि की थोड़ा जमीन मिली हुई है। मगर, अधिकांश भूमिहीन हैं या सवर्णों द्वारा ढोल-बजाने, काम करने के एवज में अपनी जमीन खाने-भाने को इन्हें दी हुई है। मगर, यह जमीन है सवर्णों के नाम पर ही। वो जब चाहे इन्हें बेदखल कर देते हैं। यही हाल घरों का भी है। बाजगी परिवारां के साथ मारपीट, गाली-गलोज, ढोल बजाने को मबजूर करने, जमीन हड़पने के दर्जनों मामले हैं, जो कभी न तो उजागर होते हैं और न ही उनकी सुनवाई होती है। इनके पढ़े-लिखे लोगों को भी ढोल बजाने के लिए मजबूर किया जाता है। बचपन से ही ऐसे माहौल में ढाला जाता है कि ये जिंदगी भर सिर्फ ढोल बजाएं, नाचने-गानें, पीने में मस्त रहें और अंधविश्वास बढ़ाने, काम करने में सहायक बने रहें। जौनसार-बाबर में तो महासू के मंदिरों में दासी प्रथा भी रही है।

मंदिर के भगवान दलित बाजगियों के ढोल बजाने पर नाचते हैं। खुश होते हैं। मगर, इन भगवानों के पास या इनके मंदिरों में ये बाजगी जा नहीं सकते। सवर्ण मानसिकता के लोगों में इनका नाचना-गाना, ढोल पर थिरकना पसंद है, पर इनको घर-मंदिर में घूसने देना, सम्मान देना मंजूर नहीं है। रणनीति के तहत गुलाम बनाकर रखे गए हैं बाजगी जाति आधारित परंपरागत काम आज लगभग लुप्तप्राय है। डा. अंबेडकर ने “गांव-छोड़ो“, “परंपरागत काम छोड़ो“ का जो नारा दिया था, उसका असर आज चारों तरफ दिख रहा है।

हालांकि, अशिक्षा, अज्ञानता और गरीबी-बेबशी के कारण पहाड़ों के दलित गांव नहीं छोड़ पाए, किंतु पारंपरिक व्वयसाय तो छोड़ ही चुके हैं। लौहार या जूते बनाने का काम कहीं होता भी है, तो नगद पर आधारित है। ये दलित समुदाय हर क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाकर हक-हकूकों के लिए संघर्ष भी कर रहे हैं। अंधविश्वास-कर्मकांडों से कुछ हद तक बाहर निकले हैं। इनके जो लोग बाहर निकलते भी हैं, उन्हें अंधविश्वासों में फंसाकर, प्रकोप का डर दिखाकर, लालच देकर वापस बुला लिया जाता है। बेहतर नोकरी पेशा वाले ये शर्मिंदगी झेलने लौटते ही नहीं है।

गांवों में बदहाल जीवन जीने को मजबूर बाजगी समुदाय हर हिंदू धार्मिक अनुष्ठनों में स्वभाविक तौर पर शामिल रहता है। पूजा-पाठ, भूत-प्रेत के अनुष्ठन आदि सभी जगह शामिल रहने से इनमें इस तरह की प्रवृत्तियां ज्यादा पैठ बना लेती हैं। पंडित-पुरोहित इन्हें बचपन से ही बताते चलते हैं कि
गुलाम बनकर अपने लोगों, देवताओं को खुश रखना उनका धर्म और कर्म है। नाच-गाकर, बजाकर इनको खुश नहीं करोगे, मांगकर नहीं खाओगे, सेवा नहीं करोगे, तो दंडित होंगे। लोगों से भी और ईश्वर से भी। ये लोग मस्त होकर नाचे-गाएं, ढोल बजाएं इसके लिए भोजन हो या न हो, दारू जरूर रखी होगी। वाह। ब्राहमण के लिए दुग्ध-घी और इनके लिए दारू। समाज द्वारा डाली गई यह बुरी लत इन्हें खोखला, लाचार, बेबस और बीमार बना रही
है। सोचने समझने की क्षमता छीण हो रही है। बचपन से मांग कर खाना, खुद खेत-खलियानों में मेहनत कर उगाकर नहीं खाना, ढोल बजाने की महारथ हासिल करना, नाचना-गाना आदि सीखने की प्रेरणा इन्हें बचपन से ही समाज द्वारा दी जाती है। पढ़ाई-लिखाई, अत्म असम्मान के बारे सोचने-समझने का समय ही   नहीं दिया जाता। जो सोचने-समझने की कोशिश भी करता है, तो उसे दबाया जाता है। चरणस्पर्श संस्कृति का वाहक बनाया जाता है। यही हालत दूसरे दलित समुदाय का भी है, मगर वो कहीं न कहीं मुखर तो है। समझ भी रहा है। मगर, बाजगी समुदाय तो इस व्यवस्था के खिलाफ जड़ बना हुआ है। वो ढोल-दमाऊ और रणसिंगा और पंडे-पुजारी-भगवान के इर्द-गिर्द ही अपनी तरक्की के रास्ते तलाशने में जुटा है। इसलिए अन्य दलित समुदायों के
साथ भी उसका तालमेल नहीं बैठ पा रहा है। जबकि, सवर्ण भी उसे नीच-अछूत से ज्यादा कुछ और समझने को तैयार नहीं है। इनको न तो स्थाई जमीन देने को तैयार हैं, न घर-बसेरा। ऐसे में, सरकार का ये “नमो नाथ ढोल“ कार्यक्रम भी “घर वापसी कार्यक्रम“ जैसे कार्यक्रम का ही एक बदला स्वरूप है। यह काम इन्हें जितना आसान लग रहा है, उतना ही अहम भी। क्योंकि, ढोल संस्कृति के जरिए शोषण के चांस काफी बचे हुए हैं। एक तो इस परंपरा के वाहक समाज में गरीबी-मजबूरी- भगवान भाग्यवादी होने के चलते गुलामी की दास्तां से बाहर निकलने को छटपटाहट नहीं है। दूसरा, ढोल-दमाऊ संस्कृति जितनी मजबूत रहेगी, समाज में फैली रूढ़िवादियां-कुरितियां, अंधविश्वास भी उतना ही मजबूत रहेगा। इसलिए इस उपक्रम को प्रमोट किया जा रहा है।
ये लोग सिर्फ ढोल संस्कृति को मजबूत करेंगे, इसके वाहक समुदाय को नहीं। क्योंकि, उन्हें उठाया। वो खुद को दास नहीं समझेंगे। उनकी हालत दीन-हीन नहीं रहेगी, तो वो आखिर इनका ढोल क्यों बजाएंगे। बाजगी जरूरत के हिसाब से एक गांव से दूसरे गांव में लाये-ले जाए जाते हैं, इसलिए इनका संगठित होना मुश्किल हो जाता है। दूसरी दलित जातियों की तरह उनके अपने भरे पूरे गांव हैं, न ही किसी एक गांव में ज्यादा परिवार। ऐसे में, अपनी सुरक्षा के लिए उन्हीं पर निर्भर रहना पड़ता है, जो इन्हें गुलाम बनाए बैठे है।

बाजगी समुदाय को सोचना होगा कि, उत्तराखंड आंदोलन बिना ढोल के नहीं हुआ। कोई भी नेता-मंत्री बिना ढोल दमाऊ के गांवों में नहीं घूसता। मगर, उत्तराखंड आंदोलन में एक भी आंदोलनकारी ढोली समाज से नहीं है। न ही इनके ढोल की थाप पर थिरकने वाले नेता ने कभी इनका भला सोचा। हां, दिखावे के लिए 50-100 रूपये जरूर ढोल पर रख दिए होंगे। उन्हें भगवान-भाग्य से उपर उठकर अपनी मेहतन पर निर्भर होना होगा। दूसरे दलित समुदायों की तरह परंपरागत काम छोड़ते हुए दलित एकता-संघर्ष के साथ पूरी इमानदारी से खड़ा होना होगा। हम 21वीं सदी में हैं और सालभर की कड़ी मेहनत के बावजूद फसलाना तक सीमित रहने से अब काम नहीं चलेगा। ये व्यवसाय छोड़ना ही एकमात्र विकल्प है।
जिनको करना भी है वो शौंक से करें, लेकिन जिस तरह से पंडित-पुरोहित अपना सम्मान और दाम पहले से ही फिक्स करके रखते हैं, उसी तरह इन्हें भी अपना सम्मान और दाम फिक्स करना होगा। धर्मशास्त्र किसी ब्राहमणों को जज्मान द्वारा मर्जी से दिया दान लेने का ही आदेश देते हैं। किंतु अपने स्वार्थ के लिए ब्राहमण ने धर्मशास्त्र की बात तक ठूकरा दी। दान के लिए इनके द्वारा लंबी लिस्ट तैयार की जाती है और फिक्स पैसा भी मांगा जाता है।
तो फिर बाजगी क्यों पीछे रहे। मैने शादी-विवाह के दौरान कई पुजारियों को कहते सुना है, “बाजगी को क्यों देते हो, तुम्हारे लिए ऐसा करना तो उसका काम है। खूब खला-पिला तो दिया है, आदत मत बिगाड़ो, देना भी है तो थोड़ा ही दो।“ ऐसे में, बाजगी समुदाय को सचेत होना जरूरी है। यह शिक्षित, संगठित रहकर की संभव है। जरा सोचो, 100 में से एक बाजगी जाति के व्यक्ति को विधायक या प्रधान बना देने से क्या पूरे समुदाय का विकास संभव है? अगर, पद दिया भी, तो उसके साथ कभी सम्मान भी दिया क्या? प्रधान बनाया विधायक बनाया, मगर साथ में ढोल भी तो बजवाया। मना करने के नतीजे भी आप जानते ही होंगे। इससे तो आप इस समाज का उद्दार होने की बजाय और गर्त में जाएगा। भाड़ में जाए ऐसी सत्ता और पद, जिसे पाने को किसी के पांव छूने पड़े, चमचागिरी-भड़वागिरी करनी पड़े। पढ़ो और बढ़ो की रणनीति अपनानी होगी।

अंतिम बात, जो नेता चंद मिनटों के लिए ढोल गले में लटका कर इस परंपरा को मजबूत करने को उतावले हैं, वो इसकी वाहक जातियां की जिंदगी जरा उतने ही मिनटों के लिए किसी गांव में जाकर जी कर देखें, तो जाने। फिर ये प्रेरक नेता चाहे इन्हीं के समाज के हों या फिर दूसरे समाज के। वरना, फालतू की बकवास और दिखावा बंद करें। इन चालबाजों का समर्थन करने वाले सम्मानित दलित रंगकर्मी-संस्कृत कर्मियों को भी सावधान रहना चाहिए। जौनसार के बाडो गांव के मेरे मित्र ध्वजवीर सिंह कहते हैं “गांव में हमारे परिवार को महासू मंदिर के ठीक बगल में रास्ते का छोटा सा घर देकर बसाया गया है। हमें महासू का “खिलौना“ या “डडवारी (दास)“ कहा जाता है। सुबह देवता को ढोल बजाकर उठाना और देर शाम सुलाना, हर पूजा-पाठ के समय ढोल-दमाऊ बजाना, झाडू-पोचा करना हमारा काम है, मगर बदले में हमें न तो बदले में वेतन मिलता है, न मंदिर में चढ़ावे की राशि में से हिस्सा। ढोल पर पांच-दस रूपये कोई रख दे तो वही हमारी पूरे दिन की ध्याड़ी होती है। इंसान तो छोड़ो, पीड़ी दर पीड़ी इतनी सेवा देने के बावजूद भगवान ने भी कभी हमारी दीन-हीन हालत पर विचार नहीं किया। ऐसे इंसान और भगवान की सेवा-भक्ति का क्या फायदा।“ वो और  भी बहुत कुछ पीड़ा बयां करते हैं, पर वो अभी इस लेख में मैं शामिल नहीं कर पा रहा हूं।

हम जिस देश में रह रहे हैं, वहां की परंपरा अजीबोगरीब हैं। हमारे तिरंगे के बीच में सम्राट अशोक का चक्र चिन्ह के रूप् में लिया गया है, वो समता, समानता, बंधुआ,भाईचारे का प्रतीक है। और तिरंगे का जो सूती कपड़ा होता है, उसे बुनने वाले “बुनकर“ अछूत (दलित) समुदाय से आते हैं। हम देश की आन-बान और शान में अपने तिरंगे को तो सिर-माथे लगाते हैं। तिरंगे को सबसे ऊंचाई पर रखना चाहते हैं। पर, सम्राट अशोक के सद्विचार और तिरंगे का कपड़ा तैयार करने वाले गरीब दलित बुनकर को सबसे नीचे का दर्जा देते हैं। ढोल और बाजगी के मामले में भी यही खेल हो रहा है। हिंदू जाति व्यवस्था में दलितों के साथ सब जगह यही नौटंगी-ढकोसलेबाजी चल रहा है। ढोल सिर माथे, किंतु ढोली समाज गर्त में। जो दलित, बढ़इ या मिस्त्री इनका घर, मंदिर-मूर्ति बनाता-स्थापित करता है, उसे ही बाद में वापस आने नहीं देते।
वाह।