मीरा बहन: एक साधिका की जीवन यात्रा 

 मीरा बहन का  महात्मा गाँधी से गहरा नाता रहा है। चौंकिए मत ! यह बापू की वही महशूर अंग्रेज शिष्या  मेडेलीन स्लेड हैं, जिनको दुनिया मीरा बहन के नाम से जानती है. मीरा बहन को यह नाम बापू ने ही दिया. जिस किसी ने मीरा बहन की ह्रदय को गद-गद करने वाली इस आत्म-कथा ‘एक साधिका की जीवन यात्रा’ पढ़ी होगी, वे जानते होंगे कि कैसे राजसी ठाठ में पली एक विदेशी युवती गाँधी जी की विचाधारा से प्रभावित होकर मानवता के लिए समर्पित हुई थी. सच में यह एक अद्भुत ग्रन्थ है. आइये उनको याद करें! आजादी के बाद के दिनों में मीरा बहन का ज्यादातर समय उत्तराखंड में ही बीता. आखरी के दिनों में वह टिहरी के ‘पक्षी कुंज’ में रहीं. मेरा सौभाग्य है की उनके ‘पक्षी कुंज’ से मेरा 30 साल पुराना नाता है. हो सकता है उसी महान आत्मा की प्रेरणा से यह पोस्ट आप तक पहुंच रही हो. 
मीरा बहन का जन्म 22 नवम्बर 1892 को इंग्लैंड के अति संभ्रात व संपन्न परिवार में हुआ था. इनके पिता सर एडमंड स्लेड नौ सेना के उच्चाधिकारी थे. जो बाद में कमांडर इन चीफ बनाये गए. मीरा बहन के बारे में कहा जाता है कि जब बच्चे बचपन में खिलौनों से खेलते हैं तो मेडेलीन उनके प्रति पूरी तरह विरक्त थी. आडम्बर भरा जीवन उनको भाता नहीं था. वह सादगी भरा सरल जीवन पसंद करती थी. अपनी आत्मकथा में मीरा बहन ने लिखा है कि 5 साल की ऊम्र से ही कभी कोई पंछी की आवाज या पेड़ों की सरसराहट मुझे दूर कहीं दूर ले जाती थी. मैं जीवन में किसी ‘अज्ञात प्रेरणा’ के वशीभूत हो उस छुपे सत्य को खोजने हेतु घोड़े की पीठ पर बैठ अपने नाना के गाँव वाले विशाल घर से खेतों, जंगलों, नदियों और सागर के आस-पास जाकर प्रकृति से अपना नाता जोड़ा करती. मुझे उस ‘अज्ञात स्वर’ में भय के बजाय अपार आनंद का अनुभव होता. मेडेलीन अपने पिता के साथ 1908 में 15 साल की ऊम्र में भारत आई और दो साल रह कर चली गईं. 1920 में युवा अवस्था आते हुए मैडलीन ने अपने उस ‘अज्ञात’ की खोज में पच्छिम के महान संगीतकार बीथोवन से नाता जोड़ लिया था. बीथोवन ने सूरदास की ही तरह अपने समस्त चिंतन को संगीत में ढाल कर आम जन के लिए सुबोध बना लिया था. मेडेलीन की आत्मा ने खुद यह रास्ता चुना था. वह बीथोवन की इतनी दीवानी हो गई थी कि जब प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी इंग्लैण्ड का परम शत्रु बना था तब मैडलीन अपने ही पैसों से बीथोवन संगीत समारोहों का आयोजन कर रही थी. इतना ही नहीं वह किसी ‘अज्ञात प्रेरणा’ से बान, जर्मनी के उस घर तक पहुँची थी, जहां बीथोवन का जन्म हुआ था और जहाँ बीथोवन की समाधि है. वह लिखती हैं कि बीथोवन की कब्र पर पहुँच मैं सुध-बुध भूल गई थी. पर इतना होने पर भी मेडेलीन को लगता था कि कोई ‘अज्ञात ताकत’ अभी भी उसको बुला रही है.
इसी बीच 1923 में मेडेलीन की मुलाकात फ्रांस के महान दार्शनिक और साहित्यकार रोमा रोलाँ से हो गई. रोमा रोलाँ ने मेडेलीन को न सिर्फ बीथोवन के संगीत की गहराइयों से वाकिफ कराया, बल्कि महात्मा गाँधी नामक उस शक्शियत के बारे में भी रूबरू कराया जिसे वो ईसा मसीह का दूसरा अवतार मानते थे. बस गाँधी जी के बारे में यह सब जान मेडेलीन को लगा कि ये वही ‘अज्ञात ताकत’ है जो मेरा इंतजार कर रही है. 
इस तरह एक दिन 1925 में वही ‘अज्ञात ताकत’ मेडेलीन को भारत खींच लाई. उन्हीं के शब्दों में मुझे बापू के पास जाना था, जो अत्याचारों से पीड़ित भारतीयों  और भारत की सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलकर भय रहित हो सेवा कर रहे थे. इस तरह पच्छिम की मेडेलीन स्लेड पूरब की ‘मीरा बहन’ बन गई. उनका बाकी का जीवन गाँधी जी की सेवा तथा गाँधी जी के आदर्शों के प्रचार-प्रसार में बीता. साबरमती पहुँच मीरा बहन आश्रम के सभी नियमों का एक अनुशासित सैनिक की तरह पालन करने लगीं. स्वालंबन का जो पहला पाठ उन्होंने बापू से सीखा था वह उनका प्रथम आधार था जिस पर उन्होंने अपने को खूब कसा. वह न केवल खान पान, रहन सहन और वेश भूषा से हिन्दुस्तानी बन गईं बल्कि उन्होंने सेवा और ब्रहमचर्य का व्रत ले लिया था. 
1932-33 में आजादी की लड़ाई चरम पर थी. सरकारी दमन पराकाष्ठा पर था. कांग्रेस को गैर कानूनी घोषित कर बापू को गिरफ्तार कर लिया गया. समाचार पत्रों पर सेंसर लगा था. मीरा बहन ने इन ख़बरों को बम्बई जा विदेशों को भेजना तय किया. वह साप्ताहिक रिपोर्टे इंग्लैण्ड, अमेरिका व फ्रांस भेजती. जैसे ही खुफिया तंत्र को जानकारी हुई उनको गिरफ्तार कर 3 माह के लिए जेल भेज दिया गया. जेल से छूट कर वह फिर बम्बई गईं और उनको 1 साल के जेल भेज गया. 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान वह तीसरी बार जेल गईं. जिस ऐतिहासिक पत्र के द्वारा अंग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन की मुहिम बापू ने जेल से की थी. उसे लेकर मीरा बेन ही नेहरु जी के पास गई थी. आजादी के आन्दोलन में उनकी सक्रियता का पूरा एक इतिहास है जिस पर लिखना यहाँ संभव नहीं है. 1944 में बापू के साथ पूना की आगा खान जेल से छूटने के बाद मीरा बहन ने उत्तर भारत में रह स्वतंत्र रूप से काम करना चाहा. बापू की इज़ाज़त के बाद वह ऐसे स्थान की खोज में निकली जो हिमालय से दूर न हो. वह खेती और पशुपालन और कताई-बुनाई करना चाहती थी. काफी खोज-बीन के बाद मुलदासपुर के प्रमुख श्री अमीर सिंह ने मीरा बहन को रूडकी हरिद्वार के बीच 10 एकड जमीन अंग्रेजों की वक्र नजर के बावजूद दान की. मीरा बहन ने इसका नाम ‘किसान आश्रम’ रखा. यहाँ रहते हुए उन्होंने बिचपुरी गाँव को पथरी राव नदी की गाद से होने वाली परेशानियों से मुक्ति दिलाई. वह 1945-46 में वह उत्तर प्रदेश के ‘अधिक अन्न उपजाओ कार्यक्रम’ में अवैतनिक सलाहकार नियुक्त की गईं. वह हिमालय के बीच रह पशु, मानव और प्रकृति के बीच गाँधी जी सोच पर एक स्थान बनाना चाहती थी. 1948 में वन विभाग ने उनको ऋषिकेश में 2146 एकड जमीन लीज पर दी. इस आश्रम को पशुलोक आश्रम के नाम से जाना जाता है. यहाँ उनसे मिलने पंडित नेहरु सरीखी हस्तियाँ आती थीं. इस जगह को ‘बापू ग्राम’ के नाम से जाना जाता है. इस बीच स्वास्थ्य ठीक न रहने से वह टिहरी के प्रतापनगर में स्वाथ्य लाभ हेतु राजा के महल में रही. 15 अगस्त 1947 को जब देश आजादी के जश्न में मगन था तो मीरा बहन टिहरी के राजा महाराजा नरेन्द्र शाह के नरेन्द्र नगर महल में थीं. देश में मची मारकाट से वह बहुत व्यथित थीं. यहाँ से वह सीधे दिल्ली बिडला हॉउस आ गईं. इन दिनों बंगाल नोआखली के दंगों से आहत हो बापू भी बिड़ला हॉउस में रह रहे थे. 18 दिसम्बर 1947 को वह पशुलोक वापस आ गईं. यहीं पर उनको 30 जनवरी 1948 को बापू की हत्या की खबर मिली. मीरा बहन के ही शब्दों में वह स्तब्ध रह गईं. वह किंकर्तव्यविमूढ़ थीं. उन्होंने दिल्ली जाने के बजाय कुटिया में ही रहने का निश्चय किया. वह बापू के इन शब्दों को याद कर रहीं थीं- ‘मेरी चिंता न करना. ईश्वर पर भरोसा रखना. वही मुझे बनाएगा या बिगाड़ेगा. वह तो सब कुछ बनाता ही है’ और फिर उनको लगा कि बापू कह रहे हों- ‘ईश्वर पर भरोसा रखो और जहाँ हो वहीँ रहो. आखरी दर्शन का कोई अर्थ नहीं है. वह आत्मा जिससे तुमको प्रेम है वह सदा तुम्हारे साथ है’. वह दिल्ली नहीं गईं. फरवरी 1948 में वह दिल्ली गईं और उस जगह पर गईं जहाँ बापू गोली लगने के बाद गिरे थे. वह राजघाट भी गईं, और पशुलोक लौट आईं. उन्होंने लिखा है दिल्ली मुझे मुर्दों का शहर लगा. नेहरु पीले और निस्तेज थे और सरदार पटेल मौन थे. सब जगह निराशा, निशब्द शून्यता पसरी पड़ी थी. 
 
पशुलोक में सरकारी अधिकारियों के रवैये से ऊबकर उन्होंने ‘पशुलोक सेवा मंडल’ नामक संस्था बनाई. लेकिन अपेक्षित सरकारी सहायता न मिलने के कारण सरकार को जमीन वापस कर दी. अब वह ऐसा स्थान चाहती थी जहाँ वह गाँव वालों और पशुओं की सेवा अपने ही ढंग से कर सकें. इस खोज में उन्होंने 200 मील यात्रा की. खोज करते हुए उन्हें टिहरी से 28 मील दूर भिलंगना नदी के ऊपर चीड़ व देवदार के जंगल में गेंवली पसंद आई. वन विभाग ने उनको दो नाली जगह लीज़ पर दी. यहाँ पर उन्होंने ‘गोपाल आश्रम’ बनाया. उन दिनों देश में सामुदायिक ग्रामीण विकास योजनायें शुरू की जा रहीं थीं. उन्होनें नेहरु जी से विचार विमर्श कर भिलंगना घाटी में काम की योजना बनाई पर नौकरशाही के लचर व्यवहार से ऊब उन्होंने गोपाल आश्रम छोड़ने का मन बना लिया. इस बीच उन्होंने ‘बापू राज’ पत्रिका मई 1952 से शुरू की पर उसे स्वावलंबी न बना पाने के कारण बंद करना पड़ा. वह 1954 से 1956 के बीच गोपाल आश्रम को छोड़ कश्मीर चली गईं. और कश्मीर के मुख्य मंत्रीं बक्शी गुलाम मुहम्मद के अनुरोध पर ‘कंगन’ नामक देवदार के सुन्दर जंगल में रहीं. इस जगह का नाम उन्होंने ‘’गऊबल रखा’’. वह यहां विदेशी नस्ल की गायों को पालना चाहती थीं पर सरकारी नीति में बदलाव के कारण इंग्लैण्ड की ‘डेक्सटर’ नस्ल की गायों को हिमांचल भेजना पड़ा. वह लिखती हैं अब मैं यहाँ क्या करूं? 
उन्होंने लिखा है कि किसान आश्रम, पशुलोक आश्रम, गोपाल आश्रम और गऊबल सब मेरे जीवन से सपनों की तरह निकल गए. तय हो गया कि अब यहाँ कोई सरकारी मदद की योजना नहीं बनेगी. इन शब्दों में उनकी पीड़ा झलकती है. कितना उत्साह था उनके मन में गाँव वालों के लिए कुछ करने का पर उस वक्त सब कुछ गड़बड़ा जाता था जब धनाभाव या सरकारी तंत्र की घुसपैठ आड़े आती थी.  
काश्मीर में 3 साल रहने के बाद मीरा बहन फिर से 1957 में टिहरी गढ़वाल में चंबा के ऊपर रानीचौरी के पास मेलधार आकर रही. यह जगह उन्हें सबसे पसंद आई. इस जगह का नाम उन्होंने ही ‘पक्षी कुंज’ रखा. यह वही पक्षी कुंज है जिसकी कहानी में मैंने आपको अपनी पहली पोस्ट में सुनाई थी. मीरा बहन के सम्पूर्ण व्यक्तित्व, उनके अदम्य साहस, उनके अथाह ज्ञान, बापू के सत्य और अहिंसा के सिधान्तों में उनके अटूट विश्वास और बापू के साथ किये कामों को जानने, उनका सही आंकलन करने और उनको समझने के लिए लिए मीरा बहन के यंग इंडिया, हरिजन आदि पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके 100 से अधिक लेखों और अलग-अलग लोगों को लिखे उनके पत्रों को पढ़कर उनके गहरे व्यक्तित्व की थाह ली जा सकती है. 
मीरा बहन के अद्भुत व्यक्तित्व और जीवन की महत्वपूर्ण बातों में एक बात यह  थी कि भारत आज़ाद होने से 10-15 साल पहले ही उन्होंने देश की उन प्रमुख समस्यों को समझ लिया था जो आने वाले दिनों में प्रकट होने वाली थीं और तो और उन्होंने इनका हल भी सुझा दिया था. पेड़ों की अंधाधुन्ध कटाई से होने वाले नुकसानों, हिमालय में बांज के पेड़ों का कम होना, खेती में जैविक खेती का महत्व, गाय पालन की महता, पश्चिम की सभ्यता की बेसमझ नक़ल, अपनी संस्कृति और भाषा के प्रति उदासीनता, कुटीर और ग्रामोद्योग की महता जैसे विषयों पर उनके तर्क संगत और स्पष्ट विचार आज बदले परिवेश में मीरा बहन को और भी प्रासंगिक बनाते हैं. सही मायने में वह विश्व नागरिक थीं. वह इस बात को शिद्दत से कहती भी थीं. मीरा बहन ने हमेशा अपने को भारतीय माना. भारतीयता से उनका मतलब उस सनातन परम्परा से है जो पूरी दुनिया को एक परिवार मानती है न की एक बाज़ार. 
मीरा बहन बापू की बेटी की तरह थी. उनका सारा जीवन बापू के ही साथ निकला. उनके निकट परिचितों में बापू के ही संगी- साथी थे. मीरा बहन के सबसे नजदीकी लोगों में डॉ शुशीला नैयर थी, जिनके साथ वह जेल में भी रही. मीरा बहन के बारे में एक जगह महादेव देसाई ने लिखा है कि लन्दन में राजसी ठाट में पली यह युवती गाँधी जी के प्रति जिस निष्ठा और समर्पण भाव से अपने जीवन को बदलने में सफल रही है उसका दूसरा उदारहण कहीं देखने को नहीं मिलता है. मीरा बहन ने न केवल गाँव के लोगों के पाखाने उठाए बल्कि अपने आचरण से उनको नेक इन्सान बनने की शिक्षा भी दी. मीरा बहन बहुत ही सौम्य थी पर पूरी शालीनता के साथ वह बेहद निडर भी थीं. जो शराबी उनके साथ बुरा बर्ताव करते वह उनके साथ भी शालीनता मगर द्रढ़ता से पेश आती. वह बारिश के दिनों में भी टूटी फटी झोंपड़ी में शांति से रहती. जब वह अपना डेरा-डंडा लेकर चलती तो एक ध्यान रत साधू सी लगती थीं. मीरा बहन 1925 से 1944 तक 20 साल बापू के साथ साबरमती और सेवाग्राम में रहीं. 1945 से 1958 तक 14 साल वह उत्तर भारत के हिमालयी इलाके में रहीं. और 1959 से 1982 तक 23 साल वह ऑस्ट्रिया व पच्छिम में रहीं. 1956 में वह कश्मीर से लौटकर पुन हिमालय में टिहरी गढ़वाल आ गईं. यह जगह पक्षी कुंज उनको बहुत पसंद था. इस जगह पर बीथोवन और रोमा रोलाँ की पुरानी यादों ने उनको झकझोर दिया और उन्होंने हमेशा-हमेशा के भारत छोड़ने का मन बना लिया था. उन्होंने अपने अप्रैल 1958 के पत्र में कृष्णा मूर्ति गुप्ता को लिखा कि मुझे एक ‘अनजानी ताकत’ फिर से बुला रही है, जिसको मुझे सुनना ही होगा, अब शायद आज के भारत से ज्यादा बापू के विचारों की जरूरत पछिम में है. भारत से 28 जनवरी 1959 में जाने से पहले वह कुछ दिन राष्ट्रपति भवन में डॉ. राजेंद्र प्रसाद के साथ रह पहले इंग्लैण्ड गईं, पर उसे अपने मनोकूल न पाकर वह वियना चली गईं. एक ऐसे स्थान पर जंगलों के निकट, बिलकुल शांत, एकांत और प्राकृतिक सौन्दर्य से भरी पूरी सुन्दर जगह पर, जो आखरी दिन तक उनका ठिकाना रही. 
अपनी जीवनी में उन्होंने कहा है कि बापू के जाने के बाद मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ. मेरी जिंदगी में शायद एक शून्य पैदा हो गया था. उन्होंने लिखा था- मेरे लिए ईश्वर और बापू दो ही थे. अब वे दोनों एक हो गए हैं. मैं अपने अतीत पर विचार करती हूँ तो पाती हूँ कि मैं बापू को अपना ‘पूरा’ नहीं दी सकी. क्योंकि कोई ऐसी चीज़ मेरे अन्दर दबी थी जिसका मेरे मन पर बोझ पड़ता था और जिसे समझ बापू ने बार-बार मुझे चेतावनी दी थी. बापू के जाने के बाद ‘पक्षी कुंज’ में बीथोवन और रोमा रोलाँ की यादों ने मुझे बैचैन कर दिया था. मैं फिर से रोमा रोला की दी बीथोवन की पुस्तकें पढनें लगी. इससे उनको नई दिशा का भान हुआ.. उन्होंने लिखा है-
कोई चीज मेरे अन्दर आंदोलित हो रही है- ‘कोई बुनियादी चीज़’. मैंने आँखें बंद कर लीं. हाँ यह ‘उसी पुरुष की आवाज’ थी जिसके संगीत से मैं तीस सालों से अलग थी. मैंने उसकी (बीथोवन) आत्मा की आवाज़ सुनी और उसके सानिध्य को अनुभव किया. मुझे उससे एक नया जीवन दर्शन और प्रेरणा मिली- मुझे उसके संगीत में डूब अपनी आत्मा के साक्षात्कार का भान हुआ. यह मेरे इस जन्म के तीसरे और अंतिम अध्याय की शुरुआत थी….
जीवन के आखरी पलों तक वो बापू के विचारों के प्रचार प्रसार में लगी रहीं. उनकी जरूरतें बहुत सीमित थीं. वो खुद टाइपिंग करतीं, कपडे धोतीं, खाना पकाती, घर की सफाई करतीं, मिलने वालों का सत्कार भी करतीं, रेडियो दूरदर्शन पर व्याख्यान देतीं और लिखतीं. धीरे धीरे उनका स्वास्थय ख़राब होता गया. रामेश्वर दत्त उनके पुराने सहयोगी आखरी तक उनकी उनकी सेवा में रहे. 20 जुलाई 1982 को एक महान आत्मा उसी ‘अनंत लौ’ में विलीन हो गई जिससे छिटककर उसने आज़ादी की, सिधान्तों की और जीवन को जीने की कला की एक लम्बी लड़ाई लड़ी थी. उनका व्यक्तित्व उन सिधान्तों, आदर्शों, मूल्यों और चिंतन का विश्वकोष था, जिसके लिए बापू इस धरा पर आये और शहीद हुए. ऑस्ट्रिया में मृत को जलने का रिवाज नहीं था पर मीरा बहन की इच्छा के मुताबिक रामेश्वर दत्त ने उनकी चिता को अग्नि दी. बाद में उनकी भस्म भारत लाकर ऋषिकेश और हिमालय में प्रवाहित कर दी गई. 
वियना जाने के बाद मीरा बहन आर्थिक परेशानियों में रहीं. 1977-78 में केंद्रीय गाँधी स्मारक निधि के मंत्री देवेन्द्र कुमार लन्दन में उनसे मिले. उन्होंने बताया कि मीरा बहन के पास इतना पैसा भी नहीं था कि वे अपने लिए गरम कपडे सिला सकें. पिछले तीन सालों से वह उन्हीं कपड़ों में गुजरा कर रही थीं, जो उनके पास थे. बाद में प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी खुद उनसे मिलीं. और इस सम्बन्ध में उन्होंने तुरंत कार्यवाही की. जिससे उनकी आर्थिक दिक्कतें ख़तम हो गईं. खुद मीरा बहन ने 3-11-1980 के पत्र में लिखा है कि इंदिरा जी की सहानुभूति पूर्वक कार्यवाही से मेरी आर्थिक दिक्कतों का समाधान हो गया. उनको 1981 में भारत सरकार ने पद्म विभूषण से सम्मानित किया. इस पर बड़ी विनम्रता से उन्होंने राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री को लिखा कि मैं यह सम्मान पाकर अत्यधिक् द्रवित हूँ. इन सालों में मैंने किया ही क्या है? यही न जिसके लिए मेरी अन्तश्चेतना ने प्रेरित किया. मैं अत्यधिक आभारी हूँ. 
मीरा बहन का उत्तराखंड सर्वोदय मंडल की ओर से भाव पूर्ण स्मरण!