महारानी द्रोपदी का एक ही पति था युधीष्ठिर, पांचाल नरेश की बेटी होने के कारण उसे पांचाली कहा जाता है : एक यथार्थ परक शोध

कौन कहता है कि द्रौपदी के पांच पति थे 200 वर्षों से प्रचारित झूठ का खंडन -👇👇👇
द्रौपदी का एक ही पति था- युधिष्ठिर

_जर्मन के संस्कृत जानकार मैक्स मूलर को जब विलियम हंटर की कमेटी के कहने पर वैदिक धर्म के आर्य ग्रंथों को बिगाड़ने का जिम्मा सौंपा गया तो उसमे मनु स्मृति, रामायण, वेद के साथ साथ महाभारत के चरित्रों को बिगाड़ कर दिखाने का भी काम किया गया। किसी भी प्रकार से प्रेरणादायी पात्र – चरित्रों में विक्षेप करके उसमे झूठ का तड़का लगाकर महानायकों को चरित्रहीन, दुश्चरित्र, अधर्मी सिद्ध करना था, जिससे भारतीय जनमानस के हृदय में अपने ग्रंथो और महान पवित्र चरित्रों के प्रति घृणा और क्रोध का भाव जाग जाय और प्राचीन आर्य संस्कृति सभ्यता को निम्न दृष्टि से देखने लगें और फिर वैदिक धर्म से आस्था और विश्वास समाप्त हो जाय। लेकिन आर्य नागरिको के अथक प्रयास का ही परिणाम है कि मूल महाभारत के अध्ययन बाद सबके सामने द्रोपदी के पाँच पति के दुष्प्रचार का सप्रमाण खण्डन किया जा रहा है। द्रोपदी के पवित्र चरित्र को बिगाड़ने वाले विधर्मी, पापी वो तथाकथित ब्राह्मण, पुजारी, पुरोहित भी हैं जिन्होंने महाभारत ग्रंथ का अध्ययन किये बिना अंग्रेजो के हर दुष्प्रचार और षड्यंत्रकारी चाल, धोखे को स्वीकार कर लिया और धर्म को चोट पहुंचाई।_
अब ध्यानपूर्वक पढ़ें। 

#विवाह का विवाद क्यों पैदा हुआ था:–

(१) अर्जुन ने द्रौपदी को स्वयंवर में जीता था। यदि उससे विवाह हो जाता तो कोई परेशानी न होती। वह तो स्वयंवर की घोषणा के अनुरुप ही होता।

(२) परन्तु इस विवाह के लिए कुन्ती कतई तैयार नहीं थी।

(३) अर्जुन ने भी इस विवाह से इन्कार कर दिया था। “बड़े भाई से पहले छोटे का विवाह हो जाए यह तो पाप है। अधर्म है।” (भवान् निवेशय प्रथमं)

मा मा नरेन्द्र त्वमधर्मभाजंकृथा न धर्मोsयमशिष्टः (१९०-८)

(४) कुन्ती मां थी। यदि अर्जुन का विवाह भी हो जाता,भीम का तो पहले ही हिडम्बा से (हिडम्बा की ही चाहना के कारण) हो गया था। तो सारे देश में यह बात स्वतः प्रसिद्ध हो जाती कि निश्चय ही युधिष्ठिर में ऐसा कोई दोष है जिसके कारण उसका विवाह नहीं हो सकता।

(५) आप स्वयं निर्णय करें कुन्ती की इस सोच में क्या भूल है? वह माता है, अपने बच्चों का हित उससे अधिक कौन सोच सकता है? इसलिए माता कुन्ती चाहती थी और सारे पाण्डव भी यही चाहते थे कि विवाह युधिष्ठिर से हो जाए।

प्रश्न:-क्या कोई ऐसा प्रमाण है जिसमें द्रौपदी ने अपने को केवल एक की पत्नी कहा हो या अपने को युधिष्ठिर की पत्नी बताया हो ?

#उत्तर:-

(1)-#द्रौपदी को कीचक ने परेशान कर दिया तो दुःखी द्रौपदी भीम के पास आई। उदास थी। भीम ने पूछा सब कुशल तो है? द्रौपदी बोली जिस स्त्री का पति राजा युधिष्ठिर हो वह बिना शोक के रहे, यह कैसे सम्भव है?

आशोच्यत्वं कुतस्यस्य यस्य भर्ता युधिष्ठिरः ।
जानन् सर्वाणि दुःखानि कि मां त्वं परिपृच्छसि ।।-(विराट १८/१)

_द्रौपदी स्वयं को केवल युधिष्ठिर की पत्नि बता रही है।_

(2)- वह भीम से कहती है- जिसके बहुत से भाई, श्वसुर और पुत्र हों,जो इन सबसे घिरी हो तथा सब प्रकार अभ्युदयशील हो, ऐसी स्थिति में मेरे सिवा और दूसरी कौन सी स्त्री दुःख भोगने के लिए विवश हुई होगी-

भ्रातृभिः श्वसुरैः पुत्रैर्बहुभिः परिवारिता ।
एवं सुमुदिता नारी का त्वन्या दुःखिता भवेत् ।।-(२०-१३)

द्रौपदी स्वयं कहती है उसके बहुत से भाई हैं, बहुत से श्वसुर हैं, बहुत से पुत्र भी हैं,फिर भी वह दुःखी है। यदि बहुत से पति होते तो सबसे पहले यही कहती कि जिसके पाँच-पाँच पति हैं, वह मैं दुःखी हूँ,पर होते तब ना ।

(3)-और जब भीम ने द्रौपदी को,कीचक के किये का फल देने की प्रतिज्ञा कर ली और कीचक को मार-मारकर माँस का लोथड़ा बना दिया तब अन्तिम श्वास लेते कीचक को उसने कहा था, *”जो सैरन्ध्री के लिए कण्टक था,जिसने मेरे भाई की पत्नी का अपहरण करने की चेष्टा की थी, उस दुष्ट कीचक को मारकर आज मैं अनृण हो जाऊंगा और मुझे बड़ी शान्ति मिलेगी।”

अद्याहमनृणो भूत्वा भ्रातुर्भार्यापहारिणम् ।
शांति लब्धास्मि परमां हत्वा सैरन्ध्रीकण्टकम् ।।-(विराट २२-७९)

इस पर भी कोई भीम को द्रौपदी का पति कहता हो तो क्या करें? मारने वाले की लाठी तो पकड़ी जा सकती है, बोलने वाले की जीभ को कोई कैसे पकड़ सकता है?

(4)-द्रौपदी को दांव पर लगाकर हार जाने पर जब दुर्योधन ने उसे सभा में लाने को दूत भेजा तो द्रौपदी ने आने से इंकार कर दिया। उसने कहा जब राजा युधिष्ठिर पहले स्वयं अपने को दांव पर लगाकर हार चुका था तो वह हारा हुआ मुझे कैसे दांव पर लगा सकता है? महात्मा विदुर ने भी यह सवाल भरी सभा में उठाया। #द्रौपदी ने भी सभा में ललकार कर यही प्रश्न पूछा था -क्या राजा युधिष्ठिर पहले स्वयं को हारकर मुझे दांव पर लगा सकता था? सभा में सन्नाटा छा गया।* किसी के पास कोई उत्तर नहीं था। तब केवल भीष्म ने उत्तर देने या लीपा-पोती करने का प्रयत्न किया था और कहा था, *”जो मालिक नहीं वह पराया धन दांव पर नहीं लगा सकता परन्तु स्त्री को सदा अपने स्वामी के ही अधीन देखा जा सकता है।”-

अस्वाभ्यशक्तः पणितुं परस्व ।स्त्रियाश्च भर्तुरवशतां समीक्ष्य ।-(२०७-४३)

“ठीक है युधिष्ठिर पहले हारा है पर है तो द्रौपदी का पति और पति सदा पति रहता है, पत्नी का स्वामी रहता है।”

यानि द्रौपदी को युधिष्ठिर द्वारा हारे जाने का दबी जुबान में भीष्म समर्थन कर रहे हैं। यदि द्रौपदी पाँच की पत्नी होती तो वह ,बजाय चुप हो जाने के पूछती,जब मैं पाँच की पत्नी थी तो किसी एक को मुझे हारने का क्या अधिकार था? द्रौपदी न पूछती तो विदुर प्रश्न उठाते कि “पाँच की पत्नि को एक पति दाँव पर कैसे लगा सकता है? यह न्यायविरुद्ध है।”

_स्पष्ट है द्रौपदी ने या विदुर ने यह प्रश्न उठाया ही नहीं। यदि द्रौपदी पाँचों की पत्नी होती तो यह प्रश्न निश्चय ही उठाती।_

इसीलिए भीष्म ने कहा कि द्रौपदी को युधिष्ठिर ने हारा है। युधिष्ठिर इसका पति है। चाहे पहले स्वयं अपने को ही हारा हो, पर है तो इसका स्वामी ही। और नियम बता दिया – जो जिसका स्वामी है वही उसे किसी को दे सकता है,जिसका स्वामी नहीं उसे नहीं दे सकता।

(5)- #द्रौपदी कहती है- “कौरवो ! मैं धर्मराज युधिष्ठिर की धर्मपत्नि हूं।तथा उनके ही समान वर्ण वाली हू।आप बतावें मैं दासी हूँ या अदासी?आप जैसा कहेंगे,मैं वैसा करुंगी।”-

तमिमांधर्मराजस्य भार्यां सदृशवर्णनाम् ।
ब्रूत दासीमदासीम् वा तत् करिष्यामि कौरवैः ।।-(६९-११-९०७)

#द्रौपदी अपने को युधिष्ठिर की पत्नी बता रही है।

(6)- #पाण्डव वनवास में थे दुर्योधन की बहन का पति सिंधुराज जयद्रथ उस वन में आ गया। उसने द्रौपदी को देखकर पूछा -तुम कुशल तो हो?द्रौपदी बोली सकुशल हूं।मेरे पति कुरु कुल-रत्न कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिर भी सकुशल हैं।मैं और उनके चारों भाई तथा अन्य जिन लोगों के विषय में आप पूछना चाह रहे हैं, वे सब भी कुशल से हैं। राजकुमार ! यह पग धोने का जल है। इसे ग्रहण करो।यह आसन है, यहाँ विराजिए।-

कौरव्यः कुशली राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः
अहं च भ्राताश्चास्य यांश्चा न्यान् परिपृच्छसि ।-(१२-२६७-१६९४)

#द्रौपदी भीम,अर्जुन,नकुल,सहदेव को अपना पति नहीं बताती,उन्हें पति का भाई बताती है।

और आगे चलकर तो यह एकदम स्पष्ट ही कर देती है। जब युधिष्ठिर की तरफ इशारा करके वह जयद्रथ को बताती है—

एतं कुरुश्रेष्ठतमम् वदन्ति युधिष्ठिरं धर्मसुतं पतिं मे ।-(२७०-७-१७०१)

“कुरू कुल के इन श्रेष्ठतम पुरुष को ही ,धर्मनन्दन युधिष्ठिर कहते हैं। ये मेरे पति हैं।”

क्या अब भी सन्देह की गुंजाइश है कि द्रौपदी का पति कौन था?

(7)- कृष्ण संधि कराने गए थे। दुर्योधन को धिक्कारते हुए कहने लगे”– दुर्योधन! तेरे सिवाय और ऐसा अधम कौन है जो बड़े भाई की पत्नी को सभा में लाकर उसके साथ वैसा अनुचित बर्ताव करे जैसा तूने किया। –

कश्चान्यो भ्रातृभार्यां वै विप्रकर्तुं तथार्हति ।
आनीय च सभां व्यक्तं यथोक्ता द्रौपदीम् त्वया ।।-(२८-८-२३८२)

कृष्ण भी द्रौपदी को दुर्योधन के बड़े भाई की पत्नी मानते हैं।
द्रौपदी का केवल एक ही पति था – युधिस्ठिर। उनका नाम पांचाली इसलिए था क्योकि वो पांचाल नरेश की पुत्री थी, न की पाँच भाइयों की पत्नी। इसके अन्य प्रमाण भी महाभारत में हैं।

अब सत्य को ग्रहण करें और द्रौपदी के पवित्र चरित्र का सम्मान करें।

कम से कम ईश्वर ने जो बुद्धि ,विवेक दिया है उसका प्रयोग भी कर लीजिए। काहे डब्बे में बंद करके धरती में गाड़ दिए है।
वेदों की ओर चले , मनुष्य बने , तार्किक बने।
बाकि आप खुद ,,,,,,,, समझ लीजिए,,,,,,,

तर्कशील बने।*
*विज्ञानवादी बने।*
*भारत को सामर्थ्यशाली बनाएँ !*

पर्दाफाश होगा।
आज नही तो कल निश्चित होगा।।

देश के लोगों का मान सम्मान स्वाभिमान छीनने वाले दुश्मनों का सत्यानाश होगा।
जब शेर जागेगा तो लुटेरा गीदड़ दम दबाकर भागेगा।।

*अंधविश्वास भगाओ*
*आत्मविश्वास जगाओ*

*शिक्षित बनो और शिक्षित करो।*

सबेरा और उजाला तब नहीं होता जब सूर्योदय होता है, उसके लिए आंखें भी खोलनी पडती है।

वर्तमान में ऐसा कोई भी शास्त्र नहीं जिसे प्रदूषित न किया गया हो। कहीं न कहीं आपको उन शास्त्रों मे वेद विरूद्ध बातों का प्रक्षेप मिल ही जाता हैं।

“मनुस्मृति” विश्व का आदि मानव धर्मशास्त्र जिसे सर्वाधिक प्रदूषित किया गया है, जिस पर समाज का एक विशेष वर्ग अपना रोष प्रकट कर रहा है, इसका एकमात्र कारण स्वार्थी पोप व विधर्मियों द्वारा शास्त्र में किये गये प्रक्षेप ही हैं।
“यदि किसी राष्ट्र को नष्ट करना हैं, तो उसके इतिहास को नष्ट कर दीजिए, वह राष्ट्र स्वतः नष्ट हो जायेगा।”
ये बात मुझे सार्थक सिद्ध होती प्रतीत हो रही है। भारतवर्ष के गौरवशाली इतिहास को इस प्रकार से दूषित कर दिया गया, कि भारतीय सर्वदा स्वयं के इतिहास के प्रति हीन भावना रखे। वे सर्वदा इस कुंठा में रहे कि उनका इतिहास घृणित इतिहास है, जिसमें गौरवान्वित होने जैसा कुछ नहीं।
 
महाभारत इस शब्द को सुनकर आपके मन मस्तिष्क में सबसे पहले क्या विचार आते हैं???  एक स्त्री जिसके पांच पति थे।। जिसका चीरहरण हुआ था।। जिसके परिणामस्वरुप एक भीषणकारी युद्ध हुआ।।
परन्तु क्या यह सत्य है??
क्या वास्तविकता में ऐसा कुछ हुआ था??
आक्षेप यह हैं कि माता कुंती ने द्रौपदी को भिक्षा समझकर बांटने के लिए कहा, परन्तु यदि मैं यह कहुं की माता कुंती को ज्ञात था कि उनके पुत्र द्रौपदी के स्वयंवर में ही नहीं गए अपितु उन्होने स्वयंवर में द्रौपदी को जीत भी लिया है, एवं पांडव भिक्षा नही मांगते थे, यदि यह सिद्ध हो जाये तो यह सारे आक्षेप निराधार सिद्ध हो जायेंगे।।
लाक्षागृह में दुर्योधन ने पांडवों की हत्या का षड़यंत्र किया था, परंतु विदूर ने लाक्षागृह के नीचे सुरंग खुदवाकर पाण्डवों की रक्षा का प्रबंध किया। दुर्योधन पहले भी भीम को विष देकर मारने का विफल प्रयास कर चूका था। इसलिये पाण्डु पुत्रों के हितैषी जन ने इस मृत्यु से बचने का उपाय किया। लाक्षागृह में मरने का नाटक किया गया, आयुधागार में आग लगाकर पुरोचन को जलाकर, इसके भीतर छः लोगो को रखकर भाग गये।
आयुधागारमादीप्य दग्ध्वा चैव पुरोचनम्।
षट् प्राणिनो निधायेह द्रवोमोऽनभिलक्षिताः।।  (१४७-४)
 

पाण्डवों को योजनाबद्ध तरीके से द्रुपद की नगरी भेजा गया। विदूर और व्यादेश जी के निर्देशन में, कुंती तो पांचाल मे आई ही इसलिये थी कि कृष्णा की प्राप्ति वधु के रूप में हो जाए और द्रुपद ही वह सहारा थे, जिनके बल पर कुंती को राज्य-प्राप्ति हो सकती थी। दूसरी ओर द्रुपद के लिए अपना प्रतिशोध पूर्ण करने का यही मार्ग था। पाण्डवों को अपना बनाये बिना द्रोण से वह आधा राज्य वापस नहीं ले सकता। अपने प्रतिशोध को पूर्ण करने के लिए वह अपनी पुत्री का विवाह पांडु पुत्र से कराना चाहते थे।

¤ द्रौपदी के स्वयंवर की घोषणा भी पाण्डवों कोे खोजने की मंशा से की गई थी।

 
जब द्रुपद को लाक्षागृह की सूचना मिली तो वह विलाप करने लगे। उनकी सारी आशाए समाप्त हो गई।
“किं करीष्यामि तू नष्टाः पाण्डवाः पृथा सह।” आदिपर्व (१६६-५६)
तब द्रुपद के गुरु पुरोधा कहने लगे की— “जो पाण्डव माता व बंधु जनों की सेवा व सम्मान करते हैं जो महाबली हैं, वो ऐसे नष्ट नहीं हो सकते। वे अवश्य ही कही सुरक्षित होंगे।
हे महात्मा द्रुपद!  मैं एक उपाय बताता हूं जिससे उन्हें खोजा जा सके। एक बार द्रौपदी के स्वयंवर की सूचना उन तक पहुंच जाये तो वे अवश्य भागे चले आयेंगे।
“यत्र वा निवसन्तस्ते पाण्डवा पृथा सह।
दूरस्थाया समीपस्थ स्वर्गस्था वापि पाण्डवाः।।
श्रुत्वा स्वयंवरं राजन समेष्यन्ति न संशयः।
तस्मात् स्वयंवरो राजन् घुष्यतां मा चिरं कृथा।। (१६६-५६)
 
पुरोधा जी के इस आश्वासन से द्रुपद ने स्वयंवर का मन बना लिया।
सोऽन्वेषमाणः कौन्तेयं पांचाल्यों जन्मेजय।
दृढ़ धनुरनानम्यं क्रियमाण भारत।।  आदिपर्व (१८४-९)
 
तब पांचाल-नरेश ने कुंती पुत्र अर्जुन को खोजने के लिए एक ऐसा दृढ़ धनुष बनवाया जिसे कोई दूसरा झुका न सके।
 
इदं सज्यं धनुः कुत्वा सज्जैरेभिश्च सायकैः।
अनित्य लक्ष्य यो येद्धा स लब्धा मत्सुतामिति।। (१८५-११)
एक कृत्रिम आकाश यंत्र भी बनवाया गया। उस यंत्र के छिद्र के ऊपर लक्ष्य रखा गया, और पण था कि इसी धनुष से और इन्ही बाणों  से लक्ष्य भेदन करना होगा।
सब कुछ एक योजनाबद्ध रुप से हो रहा था।

¤ द्रौपदी के स्वयंवर की कुंती व पुत्र को सूचना ।


एवमुक्तवा निवेश्यैनान् ब्राह्मणस्य निवेशने।
अब्रवीत् पाण्डवश्रेष्ठमृषिर्द्वैपायनस्तदा। (१५५-१७)
 
लाक्षागृह से निकलने के पश्चात महर्षि वेदव्यास ने उनको एकचक्र नगरी में एक ब्राह्मण के घर ठहरा दिया।
स तत्राकथमद् विप्रः कथान्ते जनमेजय।
पांचालेषु अद्भुताकारं याज्ञसेन्याः स्वयंवरम्।।
 
कुछ दिनों पश्चात वहां एक विप्र का आगमन हुआ, वह बड़ा विद्वान था। उसने कुन्ती सहित पाण्डवों को बताया कि पांचाल देश में याज्ञसेनी द्रौपदी का अद्भुत स्वयंवर होने जा रहा है।
उन्होने ब्राह्मण वेशधारी (कुंती पुत्रों) को पाण्डवों के मरने व द्रुपद के शोकाकुल होने वा स्वयंवर के वास्तविक उद्देश्य के विषय मे बताया।
तब पुत्राः महात्मनां दर्शनीया विशेषतः।
यदृच्छया तु पांचाली गच्छेद् वा मध्यम पतिम्।।
को ही जानाति लोकेषु प्रजापतिविधिं परम्।
तस्मात् सुपुत्रा गच्छेथा ब्राह्मण्यै यदि रोचते।।
 
तब उन विप्र ने कहा— हे ब्राह्मणी (कुंती) आपके पुत्र देखने मे अत्यंत सुंदर हैं। पांचाल कुमारी आपके पुत्रो का वरण कर सकती हैं। यदि आपको उचित लगे तो आप अपने पुत्रों के साथ अवश्य पांचाल जाये। यदि आप उचित जाने तो आप भी हमारे साथ चले।
ते वयं साधु पांचालान् गच्छाम यदि मन्यसे। (१६७-६)
 
यह सुनकर पाण्डवों को स्वयंवर में जाने की इच्छा हुई। तभी माता कुंती ने पुत्रों से पूछा यदि आप चाहो तो पांचाल जाने का प्रबंध करे।
पांचाल जाने का प्रबंध होने लगा तभी महात्मा कृष्णद्वैपायन व्यास उनसे भेंट करने आये।
पांचाल नगरे गत्वा निवसध्वं महाबलाः।
सुखिनो द्रौपदीं प्राप्य भविष्यथ न संशयः।। (१६८-१५)
व्यास जी ने कहा— हे महाबाली वीरों, अब तुम पांचाल नगर में जाकर रहो। द्रौपदी को पाकर तुम लोग सुखी होगे, इससे कोई संशय नहीं।।
उसके पश्चात मार्ग में उन्हें चित्ररथ मिले। जिसके सुझाव पर ही युधिष्ठिर ने महात्मा देवल के छोटे भाई धौम्य को अपने पुरोहित के रूप में प्राप्त किया।
ते समाशंसिरे लब्धा श्रियं राज्यं च पाण्डवाः।
ब्राह्मणं तं पुरस्कृत्य पांचाली च स्वयंवरे।। (१८२-८)
 
पाण्डवों को पूर्ण विश्वास हो गया की वो अपना राज्य और धन पुनः प्राप्त करने में अधिक समय नही है,  स्वयंवर में द्रौपदी भी उन्हें मिल जायेगी।
यहां समस्त प्रयास पुनः राज्य प्राप्ति एवं द्रौपदी की ओर हैं। पाण्डव और कुंती एक योजनानुसार द्रौपदी को प्राप्त करने के उद्देश्य से पांचाल आये थे।

स्वयंवर का दिवस आ गया था। कुंती पुत्र स्वयंवर में गये। जब सारे राजकुमार असफल हो गये तब भीड़ में से निकलकर एक ब्राह्मण (अर्जुन) ने लक्ष्य भेदन किया और प्रण को पूर्ण किया।

माता कुंती जानती थी, कि उनके पुत्र स्वयंवर में गये हैं। माता कुंती चिंतित है, उनके मन में बुरे विचार आ रहे है । की कहीं उनके पुत्रों को पहचान कर धृतराष्ट्र के पुत्रों ने उन्हें मार तो नहीं दिया। यहाँ माता कुंती का चिंतित होना और नकुल सहदेव को साथ लेकर युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन की सूचना देने से यह तथ्य पूर्णतः स्पष्ट है।
आप स्वयंवर पूर्ण होने व द्रौपदी को अर्जुन को देने के पश्चात के दृश्य की कल्पना करे। जय जयकार का उद्घोष, जनों की भीड़ है, अर्जुन द्रौपदी को ले जा रह हैं। द्रौपदी राजा की पुत्री थी, तो स्वाभाविक है कि राजकुमारी और अनेक भावी पति राजमार्ग पर जयकारों और घंटा ध्वनि, ढोल नगाड़ो के बीच चल रहे होंगे। तो क्या यह तीव्र ध्वनि उनके निवास स्थान तक नहीं पहुंची होगी?
इत्येवं चिंतयामास सुतस्नेहावृता पृथा।
ब्राह्मणैः प्रविशत् तत्र जिष्णरुर्भार्गववेश्म तत्।।(१८९-४६-४७)
 
उसी भीड़ के साथ उस मण्डली से घिरे भीम अर्जुन ने उस घर में ऐसे प्रवेश किया जेसे सूर्य बादलों से घिरा हो। उनके आने से पूर्व माता कुंती चिंतित हो उन्हीं का विचार कर रही थी।

¤ पाण्डव भिक्षा नही मांगते थे।।।

 
प्रश्न यह हैं कि पाण्डवों को भिक्षा मांग कर जीवन यापन करते की क्या आवश्यकता थी?
पाण्डवों के पास धन की कमी नहीं थी।  जब पाण्डव लाक्षागृह से भागते हैं, क्या वे दो समय की भूख को मिटाने हेतु अपने साथ धन नहीं ले गये होंगे??
तत्र ते सत्कृतास्तेन सुमहार्हपरिच्छदाः।
उपास्यमानाः पुरुपैरूपुः पुरनिवासिभिः।।(१४५-१०)
 
पाण्डवों के पास पर्याप्त धन था, उन्हें भिक्षा मानने की कोई आवश्यकता नहीं थी।
ततोविदुरवाक्येन नावं विक्षिप्त पाण्डवाः।
धनं चादाय तैर्दत्तमरिष्टं प्राविशत् वनम्।। (१४०-९-४३०)
 
“तदन्तर विदुर जी ने पाण्डवों की नाव को वही डुबो दिया एवं धन को लेकर विघ्न बाधाओं से रहित वन में प्रवेश किया।”
जिन्होंने पाण्डवों के लिए सुरंग बनवाने की योजना बनाई। जिसने उनके लिए यंत्र संचालित नाव की व्यवस्था की, क्या उस समर्थ एवं बुद्धिमान ने उनके भावी जीवन के लिये भोजन व छावन की व्यवस्था न की होगी? क्या वे इस कार्य में असमर्थ थे?

¤ पाण्डव तापस के वेश में रहते थे।

 
जटाः कृत्वाऽऽत्मनः सर्वेवल्कलाजिनवाससः।
सह कुन्तया महात्मानों विभ्रतस्तापसं वपुः।। (१५५-३)
 
एकचक्रा नगरी में जिस ब्राह्मण परिवार में ये सब रहते थे।
जो बकासुर से उनकी रक्षा के लिये अपने पुत्र भीम की बलि देने के लिये तैयार हो जाती है, इतनी स्वाभिमानी धर्मपरायणा कुंती के पुत्र भीक्षा मांगते कैसे?
¤ चित्ररथ से पाण्डवों का टकराव होता हैं। चित्ररथ उनपर आक्रमण कर देता है। जब पार्थ ने उन्हें बंदी बनाया एवं उनकी पत्नी की प्रक्रिया पर चित्ररथ को मुक्त किया तब चित्ररथ उपकार से दब गया।
गंधर्वजानामश्वानहं पुरुषसत्तम्।
भ्रातृभ्यस्तव तुभ्यं च पृथक्दाता शतं शतम्।।  (१६९-४८)
 
उसने अर्जुन से कहा की मैने आपको मित्र रुप में पा लिया है।  मैं इस मित्र के लिये चाक्षुषी नाम की विद्या देता हूँ तथा ५ भ्राताओ को गंधर्व लोक के सौ सौ उत्तम अश्व भेंट करता हूँ।
यदि प्रीतेन मे दत्तं संशये जीवितस्य वा।
विद्याधनं श्रुतं वापि न तद् गंधर्व रोचये।।  (१६९-५५)
 
अर्जुन ने कहा — गंधर्व!  यदि तुमने प्रसन्न होकर अथवा प्राण-संकट से मुक्त कर देने के कारण मुझे विद्या, धन वा अस्त्र शस्त्र प्रदान किये है तो मै ऐसा दान नहीं ले सकता।
अर्जुन ने ५०० घोड़े तब स्वीकार किये जब उनके बदले में अर्जुन ने आग्नेयास्त्र चित्ररथ को दे दिया। ये ५०० घोड़े, अर्जुन ने चित्ररथ के पास निक्षेप रख दिये।
ऐसे चरित्र के धनी पाण्डव भिक्षा मांग सकते हैं क्या?
अर्जुन ने चित्ररथ से पूछा भी था— चित्ररथ! हमारा तुम्हारा कोई बैर नहीं, आपने हम पर आक्रमण क्यों किया?
चित्ररथ ने कहा— “आपके साथ कोई ब्राह्मण पुरोहित नही चल रहा था इसलिए आक्रमण किया।
अनग्नयोऽनाहुतयों न च विप्र पुरस्कृताः।
यूयं ततो धर्षिताः स्थ मया वै पाण्डुनन्दनाः।। (१६९-६०)
 
आगे चित्ररथ ने कहा— कि पुरोहित तो अवश्य होना ही चाहिए,  आपको किसी योग्य ब्राह्मण को पुरोहित बनाना चाहिए।
तब अर्जुन के पूछने पर चित्ररथ ने महर्षि देवल के भाई मुनि धौम्य के आश्रम मे उनकी भेंट करवायी।
क्या किसी का विवेक यह स्वीकार करेगा कि एक ब्राह्मण का आश्रय ले कर वे भिक्षा मांगकर यापन करते होंगे।
भिक्षा के पीछे कोई तर्क नहीं। यह क्षत्रिय स्वभाव के पूर्णतः विरुद्ध हैं। कुंती के स्वभाव के विरुद्ध है।
¤ राजा द्रुपद की इच्छा थी, कि उनकी पुत्री का विवाह पांडु पुत्र के साथ हो, क्योंकि उनकी राजा पांडु से घनिष्ठ मित्रता थी। परन्तु राजा द्रुपद ब्राह्मण-वेशधारी पांडवों को पहचान नही पाए।

¤ स्वयंवर के पश्चात धृष्टद्युम्न का अर्जुन, भीम व द्रौपदी का पीछा करना।

 

इसलिए वे चिंतित थे, कि उनकी पुत्री का विवाह उनकी इच्छा के अनुरूप नही हुआ। राजा दु्पद के पुत्र धृष्टद्युम्न पांडवो के पीछे-पीछे उनका सही स्थान जानने और उन्हें सही प्रकार से समझने के लिए भेष बदलकर आ रहे थे, उन्होंने पांडवो की सारी चर्चा सुनी और उनका शिष्टाचार देखा।

यदि द्रौपदी को बाँटने कि वार्ता हुयी होती तो उनके भ्राता धृष्टद्युम्न जो गुप्त रूप से उन्हें देख रहे थे, क्या वे इस बात का विरोध नहीं करते ?
पांडवों के द्वारा दिव्यास्त्रों, रथों, हाथियों, तलवारों, गदाओं और अन्य अस्त्र शस्त्रों के विषय में उनका वीरोचित संवाद सुना। वे पांडु पुत्र से अत्यंत प्रभावित हो चुके थे। जिससे उनका संशय दूर हो गया और वे समझ गये कि ये पांचों ब्राह्मण वेशधारी पांडव ही हैं, इसलिए वह प्रसन्नचित्त अपने पिता के पास यह शुभ समाचार लेकर चले गये।
जब राजा द्रुपद को धृष्टद्युम्न ने सारा वृतांत सुनाया, जिससे वे अत्यंत प्रसन्न हुये और उनकी सारी चिंताये समाप्त हो गयी।
द्रुपद ने प्रसन्नचित्त होकर अपने राज-पुरोहित को संदेशा भेजा कि वे पांडवों के निवास स्थान जाये और उनको महल में ले आये।।
पांडवों व माता कुंती का राजमहल में प्रवेश होता हैं, तब वे राजा द्रुपद से भेंट करते हैं।
तब द्रुपद कहते हैं कि –
गृहणातु विधिवत् पाणिमद्यायं कुरू नंदनः।
पुण्येऽहनि महाबाहुरर्जुनः कुरुतो क्षणं।।
आदि पर्व(१९४-२०)
 
कुरुकुल को आनंदित करने वाले ये महाबाहु महान धनुर्धारी अर्जुन आज के पुण्यमय दिवस में आप मेरी पुत्री का विधिपूर्वक पाणिग्रहण करें तथा मंगलाचार का पालन करना आरम्भ कर दें।
 
तमब्रवीत् ततो राजा धर्मात्मा च युधिष्ठिर।
ममापि दारसबन्धः कार्यस्तावद् विशापते।। – (१९४-२१)
 
तब धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर ने उनसे कहा- राजन्! विवाह तो मेरा भी करना होगा।
भवान् वा विधिवत् पाणिं गृह्णातु दुहितुर्मम।
यस्य वा मन्यसे वार तस्य कृष्णामुपादिश।। – (१९४-२२)
 
अर्थात्—  द्रुपद बोले- हे वीर! तब आप ही विधि पूर्वक मेरी पुत्री का पाणिग्रहण करें अथवा आप अपने भाइयों में से जिसके साथ चाहे, उसी के साथ कृष्णा को विवाह की आज्ञा दे दें।
ततः समाधाय स वेदपारगो जुहाव मन्त्रैर्ज्वलितं हुताशनम्।
युधिष्ठिरं चाप्युषनीय मन्त्रविद्नियोजयामास सहैव कृष्णया।। 

वैशपायनजी कहते हैं— द्रुपद के ऐसा कहने पर वेद के पारंगत विद्वान् मन्त्रज्ञ पुरोहित धौय ने वेदी पर प्रज्वलित अग्नि की स्थापना करके उसमें मन्त्रों द्वारा आहुति दी और युधिष्ठिर को बुलाकर कृष्णा के साथ उनका गठबन्धन कर दिया।

प्रदक्षिणं तौ प्रगृहीतपाणिकौ समातयामास स वेदपारगः।
ततोऽयनुज्ञाय तमाजिशोभिनं पुरोहितो राजगृहाद् विनिर्ययौ।।
 
वेदों के पारंगत विद्वान् पुरोहित ने उन दोनों का पाणिग्रहण कराकर उनसे अग्नि की प्रदक्षिणा करवाई, फिर (अन्य शास्त्रोक्त विधियों का अनुष्ठान कराके) उनका विवाह कार्य सपन्न कर दिया। तत्पश्चात् संग्राम में शोभा पाने वाले युधिष्ठिर को अवकाश देकर पुरोहित जी भी उस राजभवन से बाहर चले गये।
इसी संवाद में प्रक्षिप्त श्लोक भी क्षेपकार ने भर दिये जिनमे युधिष्ठिर कहते हैं, कि द्रौपदी हम सभी भाईयों की पत्नी होंगी।
अगले ही श्लोक में वे स्वयं और भीमसेन को अविवाहित बताते है। क्या युधिष्ठिर जिन्हें धर्मराज की संज्ञा दी गयी वे ऐसी अपमानजनक,  अनैतिक एवं वेद विरुद्ध बात कह सकते है?
वास्तविकता इतनी है कि ये सब मिलावट पांडवों और द्रौपदि के चरित्र हनन करने के लिये डाली गयी।
किंतु क्षेपकार की मूर्खता यहाँ स्पष्ट है गयी। उसने धर्मराज युधिष्ठिर के मुख से झूठ बुलवा दिया। प्रक्षिप्त श्लोक में युधिष्ठिर कहते है कि मैं और भीम का अविवाहित है।  जबकि यह तो सर्वविदित है कि भीमसेन का विवाह हिडिंबा से हो चुका है, और उनका एक पुत्र घटोत्कच भी है।

¤ युधिष्ठिर से विवाह क्यों?

युधिष्ठर के थे 2 पुत्र : युधिष्ठिर के पांच भाई, अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव और कर्ण( कर्ण भी कुंती के पुत्र हैं यह बात युधिष्ठिर को बाद में पता चली) थे। उनकी दो पत्नियां थीं ‘द्रोपदी’ और ‘देविका’। दोपदी के पुत्र थे ‘प्रतिविंध्य’ और देविका के पुत्र थे ‘धौधेय’। युधिष्ठिर भाला चलाने में पारंगत थे। उनके गुरु द्रोणाचार्य ने उन्हें इस शस्त्र का उपयोग करने में उन्हें पारंगत किया था।

दरअसल द्रोपदी ने युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव से विवाह किया था लेकिन इन पांचों भाइयों की अन्य पत्नियां भी थीं। भीम ने काशीराज की पुत्री ‘बलन्धरा’ से विवाह किया था, जिससे उन्हें ‘सर्वंग’ नाम का पुत्र हुआ। भीमसेन के इनसे पहले ‘हिडिम्बा’ से ‘घतोत्कच’ नाम का पुत्र हो चुका था।

ऐसे हुआ पांडव वंश का अंत: अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बहन ‘सुभद्रा’ से विवाह किया, जिससे उन्हें वीर पुत्र ‘अभिमन्यु’ के पिता बनने के गौरव प्राप्त हुआ। अर्जुन ने ‘उलूपी’ और ‘चित्रांगदा’ से भी विवाह किया था। जिनसे दो पुत्र क्रमशः ‘इरावत’ और ‘बभ्रुवन’ जन्मे थे। हालांकि यह अपने नानाश्री के यहां ही रहते थे। (साभार)