आज का पंचाग आपका राशि फल, अद्भुत है भारतीय देवनागरी संस्कृत, बच्चों को काले अंग्रेज बनाने वाली सोच भी भारतीय संस्कृति और राष्ट्र के लिए आत्मघाती, उस हीरे का नाम कोहिनूर नहीं सुमंतक मणि है वास्तविक नाम

कुछ माता-पिता बड़े समझदार होते हैं, वे अपने को मंदिर भेजने में समय की बर्बादी समझते हैं
वे अपने बच्चों को सगाई, शादी, लगन, तेरहवीं, उठावना के फंक्शन में नहीं भेजते कि उनकी पढ़ाई में बाधा न हो.
उनके बच्चे किसी रिश्तेदार के यहाँ आते-जाते नहीं, न ही किसी का घर आना-जाना पसंद करते हैं। 
वे हर उस बात से बचते हैं जहां उनका समय बर्बाद होता हो.
उनके माता-पिता उनके करियर और व्यक्तित्व निर्माण को लेकर बहुत सजग रहते हैं, वे बच्चे सख्त पाबंदी मे जीते हैं. दिन भर पढ़ाई करते हैं, महंगी कोचिंग जाते हैं, अनहेल्दी फूड नहीं खाते, नींद तोड़कर अलसुबह साइकिलिंग या स्विमिंग को जाते हैं। 
महंगी कारें, गैजेट्स और क्लोदिंग सीख जाते हैं
क्योंकि देर सवेर उन्हें अमीरों की लाइफ स्टाइल जीना है. फिर वे बच्चे औसत प्रतिभा के हों कि होशियार,
उनका अच्छा करियर बन ही जाता है क्योंकि स्कूल से निकलते ही उन्हें बड़े शहरों के महंगे कॉलेजों में भेज दिया जाता है जहां जैसे-तैसे उनकी पढ़ाई भी हो जाती है और प्लेसमेंट भी.
अब वह बच्चे बड़े शहरों में रहते हैं और छोटे शहरों को हिकारत से देखते हैं. मजदूर, रिक्शा वालों, खोमचे वालों की गंध से बचते हैं. छोटे शहरों के गली-कूचे, धूल गंध देखकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं.
रिश्तेदारों की आवाजाही उन्हें खामखा की दखल लगती है. फिर वे विदेश चले जाते हैं और अपने देश को भी हिकारत से देखते हैं.
वे बहुत खुदगर्ज और संकीर्ण जीवन जीने लगते हैं.
अब माता-पिता की तीमारदारी और खोज खबर लेना भी उन्हें बोझ लगने लगता है. पुराना मकान, पुराना सामान, पैतृक प्रॉपर्टी को बचाए रखना उन्हें मूर्खता लगने लगती है,
वे जल्दी ही उसे बेचकर ‘राइट इन्वेस्टमेंट’ करना चाहते हैं.
माता-पिता से वीडियो चैट में उनकी बातचीत का मसला अक्सर यहीं रहता है.
इधर दूसरी तरफ कुछ ऐसे बच्चे होते हैं जो सबके सुख-दुख में जाते हैं
जो किराने की दुकान पर भी जाते हैं. बुआ, चाचा, दादा-दादी को अस्पताल भी ले जाते हैं. तीज त्यौहार, श्राद्ध, बरसी के सब कार्यक्रमों में हाथ बँटाते हैं
क्योंकि उनके माता-पिता ने उन्हें सिखाया है कि सब के सुख-दुख में सम्मिलित होना चाहिए और किसी की तीमारदारी, सेवा और रोजमर्रा के कामों से जी नहीं चुराना चाहिए.
इन बच्चों के माता-पिता, उन बच्चों के माता-पिता की तरह समझदार नहीं होते क्योंकि वे इन बच्चों का क़ीमती समय गैरजरूरी कामों में नष्ट करवा देते हैं.
फिर ये बच्चे शहर में ही रहे आते हैं और जिंदगी भर निभाते हैं सब रिश्ते, कुटुम्ब के दायित्व, कर्तव्य.
यह बच्चे, उन बच्चों की तरह बड़ा करियर नहीं बना पाते इसलिए उन्हें असफल और कम होशियार मान लिया जाता है.
समय गुजरता जाता है, फिर कभी कभार, वे ‘सफल बच्चे’ अपनी बड़ी गाड़ियों या फ्लाइट से छोटे शहर आते हैं, दिन भर ए.सी. में रहते हैं, पुराने घर और गृहस्थी में सौ दोष देखते हैं.
फिर रात को, इन बाइक, स्कूटर से शहर की धूल-धूप में घूमने वाले, ‘असफल बच्चों’ को ज्ञान देते हैं कि तुमने अपनी जिंदगी बर्बाद कर ली है.
असफल बच्चे लज्जित और हीन भाव से सब सुन लेते हैं.
फिर वे ‘सफल बच्चे’ जाते वक्त इन असफल बच्चों को, पुराने मकान में रह रही
उनकी मां-बाप, नानी, दादी का ख्याल रखने की हिदायतें देकर,
वापस बड़े शहरों को लौट जाते हैं. फिर उन बड़े शहरों में रहने वाले बच्चों की,
इन छोटे शहर में रह रही मां, पिता, नानी के घर कोई सीपेज या रिपेयरिंग का काम होता है तो यही ‘असफल बच्चे’ बुलाए जाते हैं. सफल बच्चों के उन वृद्ध मां-बाप के हर छोटे बड़े काम के लिए यह ‘असफल बच्चे’ दौड़े चले आते हैं. कभी पेंशन, कभी किराना, कभी मकान मरम्मत, कभी पूजा. जब वे ‘सफल बच्चे’ मेट्रोज़ के किसी एयर कंडीशंड जिम में ट्रेडमिल कर रहे होते हैं तब छोटे शहर के यह ‘असफल बच्चे’ उनके बूढ़े पिता का चश्मे का फ्रेम बनवाने, किसी दुकान के काउंटर पर खड़े होते हैं और मरने पर अग्नि देकर तेरहवीं तक सारे क्रियाकर्म भी करते हैं. सफल यह भी हो सकते थे, इनकी प्रतिभा और मेहनत में कोई कमी न थी, मगर इन बच्चों और उनके माता-पिता में शायद जीवन दृष्टि अधिक थी कि उन्होंने धन दौलत से ज़्यादा मानवीय संबंधों और सामाजिक मेल मिलाप को तरजीह दी. सफल बच्चों से कोई अड़चन नहीं है मगर, बड़े शहरों में रहने वाले, आपके वे ‘सफल बच्चे’ अगर ‘सोना’ हैं तो छोटे शहरों में रहने वाले यह बच्चे किसी ‘हीरे’ से कम नहीं.
आपके हर छोटे बड़े काम के लिए दौड़े आने वाले यह ‘सोनू, छोटू, बबलू’ उन करियर सजग बच्चों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण और सम्मान के अधिकारी हैं.🙏

अद्भुत है भारतीय देवनागरी संस्कृत वर्तनी का अनुपम उदाहरण तो देखिये। 

*आक्रोश में भी शब्दों का*
*चयन ऐसा होना*
*चाहिए कि जब*
*गुस्सा उतरे तो स्वयं *
*की दृष्टि में शर्मिंदा*
*न होना पड़े।*
*सुप्रभात*🌹🙏🌹

कोहनूर हीरे की वापसी

कोहनूर हीरे का इतिहास बहुत पुराना है। कुछ इसे महाभारत काल की प्रसिद्ध स्यमंतक मणि बताते हैं। गोलकुंडा की खान से निकले इस हीरे को अत्यधिक आभा के कारण प्रकाश का पर्वत (कोह-ए-नूर) कहा गया। इसे पाने की अभिलाषा हर राजा की रही। एक समय यह भारत के मुगल शासकों के पास था। इसके बाद यह नादिरशाह तथा फिर अफगानिस्तान की सत्ता के साथ क्रमशः अहमद शाह अब्दाली, तैमूर, शाह जमन और फिर शाह शुजा के पास स्थानांतरित होता रहा। आगे चलकर असली सत्ता प्रधानमंत्री फतेह खान के पास आ गयी; पर हीरा शाह शुजा और उसकी बेगम के पास ही रहा। फतेह खान ने शुजा के छोटे भाई शाह महमूद को गद्दी पर बैठा दिया।

इन दिनों पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह का शासन था। शुजा के याचना करने पर महाराजा ने अपनी सेना भेजकर उसे सत्ता दिलवा दी;पर कुछ समय बाद फतेहखान ने फिर महमूद को गद्दी पर बैठा दिया। शुजा भाग कर अटक जा पहुंचा। वहां के सूबेदार जहांदाद ने पहले उसे शरण दी; पर फिर शक होने पर उसे बन्दी बनाकर रावलपिंडी भेज दिया। उस समय उसका सबसे बड़ा भाई जमन भी वहां बन्दी था, जिसकी आंखें महमूद ने निकलवा दी थीं।

कुछ समय बाद रणजीत सिंह ने इन दोनों भाइयों को लाहौर बुलवा लिया। उधर अफगान प्रधानमंत्री फतेहखान ने कश्मीर जीतने के लिए महाराजा से सहयोग मांगा। लूट का आधा माल तथा प्रतिवर्ष नौ लाख रु0 देने की शर्त पर महाराजा तैयार हो गये। इससे शरणार्थी शाह परिवार को लगा कि महाराजा फतेहखान के प्रभाव में आकर कहीं उन्हें मार न दें। अतः शुजा की बेगम ने शुजा की जान के बदले कोहनूर हीरा महाराजा को देने का प्रस्ताव रखा।

1812 की वसंत ऋतु में योजनाबद्ध रूप से एक ओर से हिन्दू तथा दूसरी ओर से अफगान सेनाओं ने कश्मीर में प्रवेश किया; पर फतेहखान के मन में धूर्तता थी। उसने कुछ सेनाएं पंजाब में भी घुसा दीं। इसी प्रकार उसने कश्मीर के दो किलों को जीत कर वहां का आधा खजाना भी हिन्दू सेना को नहीं दिया। महाराजा को अपने सेनापति दीवान मोहकमचंद और दलसिंह से सब सूचना मिल रही थी; पर वे शांत रहकर सन्धि को निभाते रहे।

उन दिनों शाह शुजा शेरगढ़ के किले में बन्दी था। फतेहखान की इच्छा उसे मारने की थी। यह देखकर मोहकमचंद एक छोटे रास्ते से वहां गये और उसे उठाकर अपने खेमे में ले आये। फतेहखान को जब यह पता लगा, तो उसने शुजा की मांग की; पर मोहकमचंद ने यह मांग ठुकरा दी। इस पर फतेहखान ने आधा माल तथा नौ लाख रु0 प्रतिवर्ष की सन्धि तोड़ दी। इस प्रकार लूट का माल तथा कश्मीर की भूमि फतेहखान के पास ही रह गयी।

इस अभियान में भी महाराजा को काफी हानि हुई। उनके 1,000 सैनिक मारे गये तथा खजाना भी लगभग खाली हो गया। शुजा लाहौर आकर अपनी बेगम से मिला। अब महाराजा ने शर्त के अनुसार कोहनूर की मांग की; पर बेगम उसे देने में हिचक रही थी। अंततः महाराजा ने उसे तीन लाख रु0 नकद तथा 50,000 रु0 की जागीर देकर कोहनूर प्राप्त कर लिया।

इस प्रकार एक जून, 1813 को यह दुर्लभ हीरा फिर से भारत को मिला;पर दुर्भाग्यवश कुछ समय बाद यह अंग्रेजों के पास चला गया और तब से आज तक वहीं है।

(संदर्भ : खुशवंत सिह, पंजाब केसरी, 

*अखण्ड सनातन समिति🚩🇮🇳*

*क्रमांक=०१*

🕉️ *~ वैदिक पंचांग ~* 🕉️

🌤️ *दिनांक – 01 जून 2022*
🌤️ *दिन – बुधवार*
🌤️ *विक्रम संवत – 2079 (गुजरात-2078)*
🌤️ *शक संवत -1944*
🌤️ *अयन – उत्तरायण*
🌤️ *ऋतु – ग्रीष्म ऋतु*
🌤️ *मास – ज्येष्ठ*
🌤️ *पक्ष – शुक्ल*
🌤️ *तिथि – द्वितीया रात्रि 09:46 तक तत्पश्चात तृतीया*
🌤️ *नक्षत्र – मृगशिरा दोपहर 01:01 तक तत्पश्चात आर्द्रा*
🌤️ *योग – शूल 02 जून रात्रि 01:35 तक तत्पश्चात गण्ड*
🌤️ *राहुकाल – दोपहर 12:37 से दोपहर 02:17 तक*
🌞 *सूर्योदय – 05:57*
🌦️ *सूर्यास्त – 19:15*
👉 *दिशाशूल – उत्तर दिशा में*
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