लोक गायिका संगीता ढ़ोंडियाल को जान से मारने की धमकी?

–दिवाकर गैरोला

लोक गायिका को #जान से मारने की धमकी गुनाह लोकगीत गाना…….
एक कलाकार अपने उत्तराखंड की संस्कृति को बढ़ाने के लिए जी जान लगाकर अपने पौराणिक लोकगीतों को उत्तराखंड के जनमानस तक पहुंचाने का काम करता है, सोचो उसकी अंतरात्मा पर क्या बीती होगी जब उसे उसके अपने ही लोगों ने प्रताड़ित करना शुरू कर दिया हो , लोगों द्वारा प्रताड़ित करने के बाद उसके आंसू निकल पड़े” और वह फेसबुक क्रांतिकारियों, संस्कृति के उन तथाकथित ठेकेदार, पहाड़ों से बाहर शहरों में बैठे हुए उन……… समितियों के प्रताड़ित करने पर विवश हो जाए और एक लोकगीत को अपने चैनल से हटाने पर मजबूर हो जाए #धन्य #है #मेरा #उत्तराखंड
जी हां मैं बात कर रहा हूं उत्तराखंड में प्रसिद्धि पा चुकी उत्तराखंडी लोक गायिका #संगीता #ढौंडियाल की उन्होंने कुछ दिन पहले चमोली का एक लोकगीत जो एक प्रसिद्ध लेखक #नंदकिशोर #हटवाल जी की किताब #चाँचरि #झमाको…. से लेकर कंपोज करके गाया, उत्तराखंडी वेशभूषा उत्तराखंड की लोक विरासतो में फिल्माया.. और रिलीज कर दिया बस क्या था फेसबुक एक वीर ने उस पर प्रतिक्रिया देने शुरू कर कर दी और भेड़ चाल पर उस पर कई प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो गई,
“आपको बताता चलूं कि उसमें एक बेटी का संवाद है वह कहती है कि मुझे उस जगह शादी नहीं करनी जो उसके इलाके से बहुत दूर है उसी संवाद में एक जिक्र आता है जिसमें वह स्थान विशेष को #पापी मुल्क कहती है। यदि आप उत्तराखंडी हैं उत्तराखंड की संस्कृति से थोड़ा सा भी सरोकार रखते हैं तो हर बेटी के लिए आज से 5 दशक पूर्व उसका ससुराल बहुत ही कष्ट दाई होता था और वो अक्सर ससुराल के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग किया करती थी..
यहां तक कि अगर आप मां नंदा के गीतों को सुनेंगे तो उनके कई गीतों में शिव के कैलाश को भी पापी कहा गया है..
मेरा एक निवेदन है उत्तराखंड लोक भाषा के उन तमाम बुद्धिजीवियों से ही लेखकों से कवियों से लोक गायकों से लोक कलाकारों से पत्रकारों से अपनी लोक संस्कृति को लोकगीतों को गाने के लिए अगर इतनी प्रताड़ना किसी को झेलनी पड़े और ऐसे गीतों को यह लोग पसंद करें जिनका उत्तराखंड की संस्कृति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है इन तमाम विषयों पर अपनी चुप्पी तोड़ कर खुलकर आगे आये(साभार) 

(इस सम्बन्ध में संगीता ढ़ोंडियाल से जानकारी नहीं ली जा सकी-संपादक)

       *? इसी विषय पर साहित्यकार देवेश जोशी लिखते हैं – “लोकगायिका संगीता ढौंढियाल के स्वर में मिठास है और मुखमण्डल पर चुम्बकीय आभा। हाल ही में उनका एक गीत यूट्यूब पर रिलीज़ हुआ है – रे मालू। रिलीज़ होते ही गीत पर विवाद हो गया। और अब संगीता ने अपना पक्ष रखा है कि उसने गीत को हटा दिया है और संशोधित कर फिर से रिलीज़ करेगी। विडंबना ये भी कि संगीता खुद भी राठ की बेटी है।
इस गीत पर की गयी आपत्तियों को भी मैंने पढ़ा और फिर मूल लोकगीत को भी, जो Nand Kishor Hatwal के लोकगीत संकलन चाँचड़ी-झमाको में प्रकाशित है। फिर संगीता का स्पष्टीकरण भी सुना जिसमें घबराहट अधिक दिखी तर्क कम।
इस गीत और उस पर उपजे विवाद को समझने का प्रयास करते हैं। सबसे पहले तो गीत के सुंदर फिल्मांकन के लिए उससे जुड़ी पूरी टीम को बधाई देना चाहता हूँ। गीत के दृश्य पक्ष से जैसे ही ध्यान श्रव्य पक्ष पर जाता है तो शब्द आॅफेंसिव लगते हैं और निश्चित ही उन्हें और भी ज्यादा लग रहे होंगे जो राठ क्षेत्र के निवासी हैं या उससे किसी प्रकार सम्बद्ध हैं।
जो लोग गढ़वाल के इतिहास को कम जानते हैं उन्हें बताना चाहूंगा कि आज गढ़वाल में जो लोग सुखी-समृद्ध जीवन व्यतीत कर रहे हैं उन पर एहसान है राठ, लोहबा,खंसर और बधाण के निवासियों के पूर्वजों का। ये लोग हमारी अशांत सीमा के मजबूत प्रहरी रहे हैं। शेष गढ़वाल की सुख-शांति के लिए इन्होंने दुर्गम क्षेत्र के कठिन जीवन का वरण किया था। विनीत होकर हमें उनके प्रति कृतज्ञता का भाव रखना चाहिए।
मूल लोकगीत की बात करें तो मेरा स्पष्ट मत है कि यही नहीं कोई भी लोकगीत आपत्तिजनक नहीं होता है। लोकगीत में अपने समय का यथार्थ होता है भले ही वो मृदु हो या कटु। लोक का किसी के प्रति पूर्वाग्रह भी नहीं होता है और न किसी को ज़लील करना लक्ष्य होता है। तो अब सवाल कि विवाद क्यों? इसका सीधा उत्तर है कि प्रसंग-संदर्भ के बिना परोसे जाने के तरीके के कारण ये गीत चुभन पैदा कर रहा था। सरल शब्दों में इस तरह समझें कि अगर किसी महिला को गाली देते हुए ही किसी दृश्य में देखा जाए तो सभी को आपत्तिजनक लगेगा पर अगर उसके साथ हुई ज्यादती का पूर्व प्रसंग ज्ञात हो तो महिला के साथ सहानुभूति होने लगती है।
गीत में वर्णित कथित आपत्तिजनक शब्दों को देखें तो सबसे पहले पापी मुलुक पर ध्यान जाता है। आपत्ति ये है कि हमारे राठ को पापी क्यों कहा गया है। और समाधान ये है कि राठ को पापी नहीं कहा गया है बल्कि एक ब्याहता द्वारा अपनी ससुराल के मुल्क को पापी कहा गया है। यह भी स्पष्ट कर दूं कि यहाँ पापी का अर्थ पाप करने वाला नहीं बल्कि कष्ट देने वाला है( याद करें, पापी बिछुवा बोल वाला हिन्दी गीत)। कई गीतों में तो नायिका द्वारा अपने प्रियतम को भी पापी कहा गया है। अक्सर ब्याहताओं को ससुराल के इलाके के लिए कठोर और मायके के लिए ललित विशेषणों के साथ याद करते हुए भी देखा ही जाता है। रही बात खानपान और पहनावे के वर्णन की तो वो सच्चाई है। न सिर्फ़ राठ बल्कि उससे जुडे अन्य क्षेत्रों की भी कमोबेस यही स्थिति थी। नज़र-नज़र की बात है। मैं तो कहता हूँ कि भांग के रेशे के वस्त्र तैयार करने में कुशल होना राठ क्षेत्र का तत्कालीन इनोवेशन था, स्थानीय उत्पादों पर निर्भर जीवनशैली का उदाहरण जिसके लिए महात्मा गाँधी को लम्बे-लम्बे भाषण देने पड़े और लेख लिखने पड़े। स्थानीय संगठन कोशिश करें तो पेटेंट भी मिल सकता है।
इसी तरह बुढेरा मुलुक भी किसी विशिष्ट क्षेत्र के लिए नहीं बल्कि कष्टभरी ससुराल के लिए हिक़ारत से कहा गया है। यही गीत अगर किसी फिल्म या सीरियल का हिस्सा होता तो प्रसंग का पूर्वज्ञान होने से वो बिल्कुल भी आपत्तिजनक नहीं लगता। रही बात क्षेत्र विशेष के लिए आपत्तिजनक विशेषणों की तो ऐसा सिर्फ़ राठ के साथ ही नहीं अन्य भी अनेक उदाहरण हैं। पूरे चमोली-रुद्रप्रयाग के लिए मल्या मुल्क का प्रयोग हो या फिर बैर्यूं का बधाण। गंगाड़ी, सलाणी, टीर्याळ, बंगर्वाला आदि शब्दों का प्रयोग भी दूसरे इलाके वाले कई बार हिक़ारत से करते हैं। ये सारे शब्द प्रसंगानुसार आपत्तिजनक भी हो सकते हैं और सामान्य बोलचाल का हिस्सा भी। क्षेत्र या गाँव विशेष के नाम से जुड़े बहुत सारे मुहावरे और लोकोक्तियां भी मिलती हैं जो हमारी भाषा की ताकत हैं।?
गीत-लोकगीत भाषा के महत्वपूर्ण अंग हैं जो दुर्भाग्य से बाज़ार के जाल में घिर गए हैं । ओवरनाइट सुपरहिट के चक्कर में न कोई होमवर्क करना चाहता है और न किसी जानकार से सम्पर्क। राठ पर फोकस गीत में कम से कम कलाकारों का पहनावा तो राठ का होना चाहिए ।नतीज़ा वही होता है जो रे मालू लोकगीत के साथ हुआ। बल तिमला, तिमला खत्येणा अर नांगा, नांगा दिख्येणा”।