श्रावणी-उपाकर्म, ऋषि-तर्पण, वेद-स्वाध्याय पर्व, रक्षा-बन्धन, विश्व-संस्कृत दिवस ऐसे मनाना चाहिए

*श्रावणी-उपाकर्म, ऋषि-तर्पण, वेद-स्वाध्याय पर्व, रक्षा-बन्धन, विश्व-संस्कृत दिवस*

तिथि – श्रावण पूर्णिमा वि. सं. २०७७
दिनांक – 3/8/2020 ई. सोमवार

( आप जरुर श्रावणी पर्व रक्षाबन्धन ऐसे मनाना।)

*१) श्रावणी उपाकर्म -* *”श्रावणी”* शब्द श्रु श्रवणे धातु से ल्युट् प्रत्यय पूर्वक छन्दसि (वेदार्थ) में स्त्री लिंग में श्रावणी शब्द सिद्ध होता है। जिसका अर्थ होता है सुनाये जाने वाली। क्या सुनाये जाने वाली? जिसमें वेदों की वाणी को सुना जाये। वह *”श्रावणी”* कहाती है। अर्थात् जिसमें निरन्तर वेदों का श्रवण-श्रावण और स्वाध्याय और प्रवचन होता रहे। वह श्रावणी है।

*”उपाकर्म”* उप+आ+कर्म = उपाकर्म। उप= सामीप्यात् , आ=समन्ताद, कर्म =यज्ञीय कर्माणि। जिसमें ईश्वर और वेद के समीप ले जाने वाले यज्ञ कर्मादि श्रेष्ठ कार्य किये जायें वह *”उपाकर्म”* कहाता है। *”अध्ययनस्य उपाकर्म उपाकरणं वा”* (पारस्कर गृह्य सूत्र २,१०,१-२) अर्थात् यह समय स्वाध्याय का उपकरण था। उप=समीप+आकरण ले आना, जनता को ऋषि-मुनियों, समाज के विद्वानों के समीप ले आना।

*२) ऋषि तर्पण -* जिस कर्म के द्वारा ऋषि मुनियों का और आचार्य, पुरोहित, पंडित जो विशेषकर वेदों के विद्वान है उनका तर्पण किया जाता है उन्हें यथेष्ट दान देना अर्थात् उनके वचनों को सुनकर उनका सम्मान करना ही *”ऋषि-तर्पण”* कहाता है।

*३) वेद स्वाध्याय पर्व -* स्वाध्याय भारत की संस्कृति का प्रधान अंग है। ब्रह्मचारी के लिए आदेश है – *”आचार्याधीनो वेदमधीष्व”* आचार्य के अधीन रहकर वेदाध्ययन करते रहो। स्नातक हो जाने पर गृहस्थी के लिए आदेश है – *”स्वाध्यायान्मा प्रमदः” *”स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्* विद्याध्ययन कर चुकने के बाद भी स्वाध्याय करते रहना। वानप्रस्थी के लिए आदेश है – *”स्वाध्याये नित्य युक्तः स्यात्”* सदा स्वाध्याय में युक्त रहे। सन्यासी के लिए आदेश है – *”संन्यसेत्सर्वकर्माणि वेदमेकं न संन्यसेत्”* सब कुछ छोड़ दें परंतु वेद का स्वाध्याय ना छोड़ें। श्रावण माह में ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यासी, ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र सभी को स्वाध्याय में लगने का आदेश है।

*४) यज्ञोपवीत धारण -* यज्ञोपवीत ज्ञान ग्रहण करने का बाह्य चिह्न है। इसीलिए इस समय जिन लोगों ने यज्ञोपवीत नहीं धारण किया हुआ है, उन्हें नया यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। अर्थात इस बात का संकल्प करना चाहिए कि वे अज्ञान, अंधकार से बाहर निकलेंगे और और ज्ञानवान होकर परिवार, समाज, राष्ट्र को प्रकाशित करेंगे। जिन लोगों ने यज्ञोपवीत धारण किया हुआ है, उन्हें पुराने यज्ञोपवीत को उतारकर नया धारण करना चाहिए। अर्थात् इस बात का संकल्प करना चाहिए कि वह अपने जीवन में स्वाध्याय और यज्ञ को कभी नहीं छोडेंगे। विशेषकर यज्ञोपवीत में तीन धागे होते है वे तीन ऋणों के प्रतीक है। ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृ ऋण। मनुष्य को इन तीनों ऋणों का बोध हो यही उद्देश्य है।

*५) विश्व संस्कृत दिवस -* *”सा प्रथमा संस्कृति विश्ववाराः”* संसार की सबसे प्राचीनतम संस्कृति “वैदिक संस्कृति” है। जो समस्त विश्व को वरणीय है अर्थात सारा संसार जिस सभ्यता और संस्कृति का गुणगान गाता है वह संस्कृति और कोई नहीं अपितु वैदिक संस्कृति है। जो संस्कृत पर अवलंबित है। आज जबसे हमने संस्कृत भाषा से नाता तोड़ लिया है मानो यह वसुंधरा हमसे रूठ सी गई है। संस्कृत के छोड़ देने से हमारी संस्कृति छूट गई, हमारी सभ्यता छूट गई, हमारा ज्ञान विज्ञान छूट गया है।
संस्कृत भाषा तो देवों की वाणी है। संस्कृत भाषा ईश्वर की वाणी है। संस्कृत भाषा वेद की भाषा है। संस्कृत भाषा सभी भाषाओं की जननी है। यही वह भाषा है जिसकी अपनी ध्वनि व देवनागरी लिपि है। जो पूर्ण रूप से वैज्ञानिक और ईश्वर द्वारा प्रदत्त है। संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति की प्राण है। संस्कृत के बिना भारत की संस्कृति अधूरी है। दुनिया में सबसे अधिक वांगमय साहित्य संस्कृत भाषा के हैं। सबसे अधिक शब्दों का भंडार संस्कृत भाषा का है। वेद स्वाध्याय के इस महान पर्व पर संस्कृत के प्रचार प्रसार के लिए समाज के मनीषियों ने इस दिन को संस्कृत दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया है। संस्कृत भाषा कठिन नहीं अपितु सरल मधुर कर्णप्रिय बोलने में अति रुचिकर है। इस देश में महाभारत काल के पश्चात स्वामी शंकराचार्य तक आपस में सभी संस्कृत में ही वार्तालाप किया करते थे यहां तक जब स्वामी दयानन्द कार्य क्षेत्र में उतरे तो उनकी व्याख्यान की भाषा भी संस्कृत हुआ करती थी अर्थात् भारत के लोग स्वामी दयानंद के काल में भी अच्छी तरह से संस्कृत समझ लिया करते थे। आइए संस्कृत भाषा के संरक्षण, संवर्धन, प्रचार, प्रसार में योगदान दें। इसकी उन्नति में अपनी उन्नति समझें। किसी ने कहा है –
*मातुः स्तन्यं बिना बालो याथा नो पुष्टिमर्हति।*
*समाजो भारतीयोsयं अपुष्टः संस्कृतं विना।।*
अर्थ – जैसे माता के स्तनपान के बिना बालक पुष्ट नही होता है। अर्थात् बालक के सम्पूर्ण विकास के लिये जैसे माता का दुध अत्यावश्यक है ठीक वैसे ही संस्कृत के बिना भारतीयता भी अपुष्ट है।

*६) रक्षाबन्धन -* रक्षाबंधन का पर्व भारत की संस्कृति से जुड़ा पर्व है। राजपूत काल में अबलाओं द्वारा अपनी रक्षा के लिए वीरों के हाथ में राखी बांधने की परिपाटी का प्रचार हुआ। जिस किसी वीर क्षत्रियों को कोई अबाला राखी भेजकर अपना राखी बंद भाई बना लेती थी वो उसकी रक्षा करना अपना कर्तव्य समझता था। इतिहास में ऐसी बहुत सारी घटनाएं दर्ज है जहां पर भाइयों ने अपने प्राणों की आहुति दे कर बहनों की रक्षा की है। ध्यान देने की बात यह है कि यह त्यौहार सिर्फ अपने देश में मनाया जाता है अन्य किसी देश में नहीं। अपना ही ऐसा देश है जिसमें कोई भी अबला किसी पुरुष के हाथ में राखी बांधकर उसे जीवन भर का अपना भाई बना लेती है और वह भाई उस बहन को आश्वासन देता है कि वह जीवन भर उसकी सहायता रक्षा करेगा। इस दृष्टि से यह त्यौहार भारत की संस्कृति के आध्यात्मिक पथ पर गहरा प्रकाश डालता है।

*विशेष – अवश्य रुप से अपने घरों में यज्ञ करें। श्रावणी उपाकर्म के विशेष मंत्रों से आहुति प्रदान करें। घर के बालक जो दस बारह वर्ष से अधिक आयु के हो गए हैं या समझदार हैं। उनका यज्ञोपवीत संस्कार अवश्य रुप से करें। यज्ञोपवीत का महत्व बताएं। जिन्होंने यज्ञोपवीत धारण किया हुआ है वह पुराना उतार कर नया यज्ञोपवीत धारण करें। वेद पढ़ने-पढ़ाने का संकल्प लें, स्वाध्याय करने का संकल्प लें, प्रतिदिन यज्ञ करने का संकल्प लें, अपने बहनों एवं मातृशक्ति के रक्षा करने का संकल्प लें, बस यही संदेश है श्रावणी पूर्णिमा। इस संदेश को घर-घर पहुंचाएं, ऐसे ही मनाएं श्रावणी पर्व।*
श्रावणी-उपाकर्म, ऋषि-तर्पण, वेद-स्वाध्याय पर्व, रक्षा-बन्धन, विश्व-संस्कृत दिवस की आप सभी को शुभकामनाएं। परमात्मा आप सभी को उत्तम स्वास्थ्य, दीर्घायु, ऐश्वर्य, यश, कीर्ति प्रदान करें। और ऐसे ही व्यस्त रहें, स्वस्थ रहें, मस्त रहें।