‘हिन्दी’ को कौन लील रहा है!, हिन्दी संस्कृत के अगाध सागर में असंख्य शब्दों के सुन्दर मोती हैं उन्हें अपनी रचनाओं में पिरोया करें रचना दिव्य होगी, हिन्दी को उर्दू ना बनायें

✍️डाॅ0 हरीश मैखुरी

हमारे हिन्दी लेखन में उर्दूमय या आंग्ल शब्द ना दिखें या अति न्यूनतम दिखें यह प्रयास निरंतर करना चाहिए। अभ्यास करें कि सुप्रभात संदेशों में देवी-देवताओं के चित्रों के साथ अंग्रेजी या उर्दूमय शब्द ना लिखें। जिनमें अंग्रेजी या उर्दूमय शब्द हों उन्हें आगे प्रसारित ना करें या शोधित करके भेजें।

 दुर्भाग्य से अधिकांश हिन्दी के कवि और लेखक भी बड़ी सीमा तक उर्दूमय लिखते हैं, इससे हमारी हिंदी संस्कृति की अपूरणीय क्षति होती है। यदि हिन्दी के ही साहित्यकार जाने अनजाने में ऐसे उर्दूमय लेखन करेंगे तो इससे हमारी आने वाली पीढ़ी एक पंक्ति भी शुद्ध हिन्दी नहीं बोल पायेगी।

 मीडिया धुरंधरों और मुम्बई चलचित्र जगत ने तो हिन्दी को जैसे उर्दूमय बनाने की एक तरह से सुपारी ले रखी है। आपको आश्चर्य होगा ये जान कर कि आज से एक हजार वर्ष पहले तक कबीलों को छोड़कर शेष सभी भारतीय भाषाओं में देववाणी संस्कृत में ही लेखन एवं वार्तालाप करते थे। संस्कृत से ही हमारी भारतीय संस्कृति बनी है संस्कृत में एक भी गाली का शब्द नहीं है। भारत में गाली-गलौज बकना उर्दू और अंग्रेजी की उपज है। विडम्बना देखिये बारहवीं शदी के उपरांत आये यवन मुगल आदि विदेशी आक्रांताओं ने भारतीय संस्कृति को समाप्त करने के जिस उद्देश्य से अखंड भारत के संस्कृताचार्यों को हेय बनाने व मदरसों के माध्यम से धर्मांतरित करना आरंभ किया, वो आज तक चल रहा है। 

 सोलहवीं शदी में ऐसा ही कार्य अंग्रेज लुटेरों ने किया, भारतीय संस्कृति को छिन्न भिन्न करने और अंग्रेजी थोपने के उद्देश्य से हर चीज का अंग्रेजी करण आरंभ किया गया, कन्वर्ट स्कूलों के माध्यम से तब बड़े घरों में पैठ बना कर उनसे अंग्रेजी बुलवायी गयी इससे भारत के सरल सहज लोग अपनी वैज्ञानिक देववाणी छोड़ कर अंग्रेजी में गिटिर पिटिर करने पर गर्व की अनुभूति करने लगे।

 महामना मदन मोहन मालवीय रविन्द्र नाथ टैगोर वीर सावरकर गणेश शंकर विद्यार्थी सुभाष चंद्र बोस सरदार बल्लभ भाई पटेल महर्षि दयानंद आदि हजारों लोग इस चाल को समझते भी थे इसलिए उन्होंने अंग्रेजों और अंग्रेजी का प्रतिकार तो किया ही एक सुविचारित स्वविचारित और भारतीय संस्कृति के अनुकूल व्यवस्था देने के अपने अपने स्तर पर प्रयास भी किए। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय हरिद्वार गुरूकुल कांगड़ी डीएवी कालेज, हजारों सनातन संस्कृति इंटर कालेज ऐसे ही लोगों के प्रयास से बने। दुर्भाग्य से देश टूट गया और स्वतंत्र भारत की पहली सरकार का उर्दू अंग्रेजी प्रेम भी नहीं छूटा। बल्कि राजऋषि पुरूषोत्तम दास टंडन प्रेम बिहारी नारायण रायजादा लाल बहादुर शास्त्री भीमराव अंबेडकर आदि लाखों उद्भट विद्वान लोगों को छोड़कर एक विदेशी मौलाना अब्दुल को भारत का पहला शिक्षामंत्री बनाने का षड्यंत्र भी रचा गया। इसका प्रभाव शिक्षा पर भी पड़ा और हमारे पाठ्यक्रम में लुटेरे मुगल आक्रांताओं आदि को महान बता कर परोसा गया। 

मुम्बई चलचित्र जगत में तो अपराधी गुंडे व हास्य पात्रों को जानबूझकर तिलक चुटिया और धोती कुर्ता में दिखाया गया और संवादों को उर्दूमय रखा गया, राजकुमार आदि अभिनेता जब उर्दूमय संवाद बोलते तो नयी पीढ़ी चाव से उन्ही संवादों को दोहराती उसका प्रभाव ये हुआ कि आज की पीढ़ी संस्कृत छोडिए शुद्ध हिन्दी वार्तालाप भी नहीं कर पाती।

अभिनेता गुलशन कुमार इस फिल्मी षड्यंत्र को समझते थे इसलिए उन्होंने हिन्दी गाने व भजन अपने चलचित्रों के माध्यम से दिखाया उनकी ‘संतोषी माता’ आदि चलचित्र की तब बड़ी धूम रही, ये बात उर्दू जगत पचा नहीं पाया और गुलशन कुमार की हत्या करवा दी गई। उसके बाद लव जिहाद और इस्लामीकरण को बढ़ावा देने के लिए अभिनेता के रूप में खान बंधु और इसी तरह द्वि अर्थी उर्दूमय संवाद लेखक भी फिल्म जगत में स्थापित किए गए। उसका कुप्रभाव आज अभद्र भाषा व लव जिहाद के रूप में स्पष्ट दिख रहा है। हिन्दी भाषा की रही सही टांग तोड़ने करने का दायित्व इनदिनों उर्दू अंग्रेजी की खिचड़ी परोस रहे एफएम रेडियो के एंकरों ने संभाल रखा है। लेख लम्बा अवश्य हो गया पर दर्द भी बड़ा ही है। हिन्दी संस्कृत के अगाध संसार सागर में असंख्य शब्दों के सुन्दर मोती हैं उन्हें अपनी रचनाओं में पिरोया करें। तो रचना भी दिव्य होगी। क्योंकि यही युगों से भगवान विष्णु परम्परा के शब्द ब्रह्म की अक्षर सुर सरिता से ओतप्रोत है

भारत के सभी महानायक आग्रह करें