आलेख✍️ डाॅ0 हरीश मैखुरी
भले ही हमारे ओजस देने वाले औजियों ने ढोल बजाने की महान परम्परा को छोड़कर दिया। उसकी जगह अब उत्तराखंड में नजीमाबाद के कंटर बजाने वालों ने लेली है। अब विवाह मुंडन हमारी महिलाओं ने भी मंगल कार्यों पर मांगल गाना छोड़ दिया है उसकी जगह पर स्ली-भिना के अश्लील भौंडे गाने डीजे पर शोर प्रदूषण फैलाते हैं। इससे दो हानियां हुई एक तो इन औजियों और मंग्लयोरों की आय का एक अल्प कालिक माध्यम समाप्त हो गया अब वे अन्य कार्य कर रहे, बेरोजगार हैं या मोबाइल चला रहे हैं और दूसरा उससे महत्वपूर्ण हमारी महान परम्परागत जीवनशैली सांस्कृतिक धरोहर का आदान-प्रदान समाप्त हो गया।
लेकिन अमेरिका जर्मनी आदि अनेक विकसित देशों ने हमारी इस समृद्ध परम्पराओं की महत्ता समझ रहे हैं वे इसे न केवल अपना रहे हैं अपितु अपने विश्व विद्यालयों में पढा भी रहे हैं। इससे वहां के समाजों की मानसिक स्थिति में सुधार हो रहा है वे डिप्रेशन और एंग्जाईटी से बाहर आ रहे हैं। और दूसरा उन सर्वभक्षी लोगों के यहां आध्यात्म का प्रवेश हो रहा है।
उत्तराखंड के विख्यात जागर गायक पद्म पुरस्कार प्राप्त प्रीतम भरत्वाण जी व बसंती बिष्ट जी और पांडवाज ग्रुप, दर्वान नैथवाल जी, हेमा करासी जी ओमप्रकाश सेमवाल जी व उनकी पुत्री भी जागरों और मांगलों के संरक्षण के लिए कार्य कर रहे हैं। लेकिन सरकारी उपेक्षा के चलते इनके निजी प्रयास कितने प्रभावी होंगे अनुमान लगाया जा सकता है। सरकार ढोल वाद्य यंत्र और मांगल संरक्षण की दिशा में कार्य करना चाहे तो इस परा विज्ञान को विद्यालयों में एक विषय के रूप में लगाये। अमेरिकी विश्वविद्यालय पढा रहे हैं तो हमारे प्राथमिक विद्यालय और माध्यमिक विद्यालयों में क्यों नहीं!
जागर व मांगल गायन और ढोल दमांऊं हुड़का मशक बीन मुरली वादन उत्तराखंड के प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों के कोर्स में अनिवार्य रूप से सम्मलित हो। इसमें ढोल बनाने की विधि और उसके चमत्कारिक लाभ तथा ढोल सागर बारह बाजा छत्तीस ताल आदि सम्मिलित हो। इससे एक तो उत्तराखंड के लोगों को देश विदेश में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और दूसरा उससे भी महत्वपूर्ण हमारी समृद्ध वैज्ञानिक परा विद्या व महान लोक संस्कृति का संरक्षण होगा
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