उत्तराखंड में हिमाचल की भांति भू कानून और मूल निवास की मांग तेज,

प्रतीकात्मक चित्र उत्तराखंड

उत्तराखंड में हिमाचल प्रदेश की भांति एक सुदृढ़ भू कानून की आवश्यकता है जिससे राज्य के बाहर के भू माफिया उत्तराखंड की जमीनों को खुर्दबुर्द ना कर सकें और जिन्होंने यहां पर अनाप-शनाप तरीकों से जमीनें खरीदी हैं और अब वे उसे खुद बंदर बांट कर रहे हैं उत्तराखंड के जमीनों को कब्जा रहे हैं। यहां के जंगलों पर गिद्ध दृष्टि गड़ाए बैठे हैं उस पर रोक लगाने के लिए एक प्रभावी भू कानून की आवश्यकता उत्तराखंड राज्य बनने के दिन से ही अनुभव कर रहा है। यही नहीं इसके साथ ही वर्ष 1950 को आधार मानते हुए उत्तराखंड में सभी सरकारी व गैर सरकारी सेवाओं के लिए मूल निवास प्रमाण पत्र की अनिवार्यता भी यहां के निवासी अभिलंब अनुभव कर रहे हैं इसके लिए समय-समय पर मांग उठती रही है। 

अब उत्तरांचल उत्तराखंड में भू कानून लागू करने के लिए अनेक संगठन भी आगे आ रहे हैं उन्हीं में एक है *भू-अध्यादेश अधिनियम अभियान उत्तराखंड परिवार* इस संगठन के प्रतिनिधि मंडल ने सचिवालय में भू-संसोधन समिति द्वारा सौंपी गयी रिपोर्ट की जानकारी लेने मुख्य सचिव से भेंट की। 
संगठन का कहना है कि “2016 से लगातार भू-क़ानून की अलख जलाकर उत्तराखंड राज्य के 24 लाख परिवारों व 1करोड़ 35लाख जनता तक इस मांग की अनुगूंज को घर घर तक पहुंचाने सहित देवभूमि के सभी प्रसिद्ध लोक देवी-देवताओं के श्री दरबार में 2500 किलोमीटर की यात्रा कर भू-क़ानून के लिए अर्जी अर्पित करने के बाद.. 18 दौर की बातचीत कर सभी मुख्यमंत्रीयों को भू-क़ानून का ज्ञापन प्रेषित किया गया.. भू-संसोधन समिति से लगातार 19 दौर की बातचीत जारी कर एक एक पॉइंट को नोट कराया गया और फिर सरकार को जल्द रिपोर्ट सौंपने का दबाब बनाया भी गया.. तब जाकर आज सरकार के पास यह रिपोर्ट समय से पहुंची हैं.. समिति की रिपोर्ट को लागू करने में देरी ना हों इसलिए आज मुख्य सचिव से प्रतिनिधिमंडल ने मुलाक़ात कर उनकी मंसा को जाना और जल्द इसको कैबिनेट में लाने का आग्रह किया।

बता दें कि भू-क़ानून का प्रचंड वेग ऐसे ही राज्य में नहीं आया इसके लिए लगातार भू-अभियान की महिलाओं ने पंडित दीनदयाल पार्क देहरादून में 84 दिनों तक अनशन भी किया और 2022 के चुनाव आने के कारण अनशन को स्थगित किया गया हैं.. इस वेग को लाने के लिए निरंतर वगैर आराम किए लगातार कभी गोष्ठी, विचार मंथन, मैराथन, साईकिल यात्रा, डोर टू डोर कैम्पैनिंग, सोसियल मीडिया, पत्रकारवार्ता आदि अनेक अभियान चलाये गये तब जाकर आज उत्तराखंड को एक अपना पृथक भू-क़ानून का ड्राफ्ट मिल पाया हैं समिति के द्वारा.. आज मुख्य सचिव से 23 बिंदुओं पर विस्तार से चर्चा हुई हैं और उनको अभियान ने एक निश्चित समय तक समिति की सभी 23 अनुसंशाओ को लागू करने का समय दिया हैं उसके बाद अभियान सड़कों पर उतरने को फिर से मजबूर होगा.. मुख्य सचिव से बातचीत करने पर लगा की सरकार इसके लिए गंभीर हैं हों सकता हैं जल्द सरकार इस पर अपनी मुहर लगा दे.. राज्य का भू-क़ानून एक अतिज्वलन्त व आवश्यकीय मुद्दा हैं.. जमीनों की वगैर किसी रुकावट के जिसकी जितनी मर्ज़ी हों कृषि योग्य ज़मीन ख़रीद ले पर अब अंकुश लगाना राज्य के लिए बेहद जरुरी हैं इसकी अनुशंशा समिति ने अपनी रिपोर्ट में पुरजोर तरीक़े से की हैं… देखना हैं इस मानसून सत्र 2023 विधानसभा में तय समयसीमा तक राज्य को अपना *पहला पृथक भू-क़ानून मिलता हैं या नहीं..?* तब तक हम *यशश्वी मुख्यमंत्री श्री पुष्कर सिंह धामी जी* को पर्याप्त समय देंगे.. ताकि 10 साल की सजा वाला उनके कैबिनेट द्वारा पारित भू-अध्यादेश जल्द पहला पृथक भू-क़ानून अधिनियम में पारित हो जाये.. नहीं तो अभियान फिर से अपने अनशन को सुचारु करने को बाध्य होगा…

*शंकर सागर*
संस्थापक/मुख्यसंयोजक
भू-अध्यादेश अधिनियम अभियान उत्तराखंड परिवार, *अशोक नेगी* पूर्व प्रधान हरियावाला कला
*आनंद सिंह रावत* रि. साइंटिस्ट
*राजेश पेटवाल* सा.कार्यकर्ता
*भागवताचार्य प्रकाश पंत* सा. कार्यकर्ता और अन्य लोग सम्मलित थे।

मणिपुर में अफीम की खेती भी मुख्य कारण….

मणिपुर में बसी एक विदेशी मूल की जाति कुकी है, जो मात्र डेढ़ सौ वर्ष पहले पहाड़ों में आ कर बसी थी। ये मूलतः मंगोल नस्ल के लोग हैं। जब अंग्रेजों ने चीन में अफीम की खेती को बढ़ावा दिया तो उसके कुछ दशक बाद अंग्रेजों ने ही इन मंगोलों को वर्मा के पहाड़ी इलाके से ला कर मणिपुर में अफीम की खेती में लगाया। आपको आश्चर्य होगा कि तमाम कानूनों को धत्ता बता कर ये अब भी अफीम की खेती करते हैं और कानून इनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। इनके व्यवहार में अब भी वही मंगोली क्रूरता है, और व्यवस्था के प्रति प्रतिरोध का भाव है। मतलब नहीं मानेंगे, तो नहीं मानेंगे।

अधिकांश कुकी यहाँ अंग्रेजों द्वारा बसाए गए हैं, पर कुछ उसके पहले ही रहते थे। उन्हें वर्मा से बुला कर मैतेई राजाओं ने बसाया था। क्यों? क्योंकि तब ये सस्ते सैनिक हुआ करते थे। सस्ते मजदूर के चक्कर में अपना नाश कर लेना कोई नई बीमारी नहीं है। आप भी ढूंढते हैं न सस्ते मजदूर? खैर…

आप मणिपुर के लोकल न्यूज को पढ़ने का प्रयास करेंगे तो पाएंगे कि कुकी अब भी अवैध तरीके से वर्मा से आ कर मणिपुर के सीमावर्ती जिलों में बस रहे हैं। सरकार इस घुसपैठ को रोकने का प्रयास कर रही है, पर पूर्णतः सफल नहीं है।

आजादी के बाद जब उत्तर पूर्व में मिशनरियों को खुली छूट मिली तो उन्होंने इनका धर्म परिवर्तन कराया और अब लगभग सारे कुकी ईसाई हैं। और यही कारण है कि इनके मुद्दे पर एशिया-यूरोप सब एक सुर में बोलने लगते हैं।

इन लोगों का एक विशेष गुण है। नहीं मानेंगे, तो नहीं मानेंगे। क्या सरकार, क्या सुप्रीम कोर्ट? अपुनिच सरकार है! “पुष्पा राज, झुकेगा नहीं साला”
सरकार कहती है, अफीम की खेती अवैध है। ये कहते हैं, “तो क्या हुआ? हम करेंगे।” कोर्ट ने कहा, “मैतेई भी अनुसूचित जाति के लोग हैं।” ये कहते हैं, “कोर्ट कौन? हम कहते हैं कि वे अनुसूचित नहीं हैं, मतलब नहीं हैं। हमीं कोर्ट हैं।

मैती, मैतेई या मैतई… ये मणिपुर के मूल निवासी हैं। सदैव वनवासियों की तरह प्राकृतिक वैष्णव जीवन जीने वाले लोग। पुराने दिनों में सत्ता इनकी थी, इन्हीं में से राजा हुआ करते थे। अब राज्य नहीं है, जमीन भी नहीं है। मणिपुर की जनसंख्या में ये आधे से अधिक हैं, पर भूमि इनके पास दस प्रतिशत के आसपास है। उधर कुकीयों की जनसंख्या 30% है, पर जमीन 90% है।

90% जमीन पर कब्जा रखने वाले कुकीयों की मांग है कि 10% जमीन वाले मैतेई लोगों को जनजाति का दर्जा न दिया जाय। वे लोग विकसित हैं, सम्पन्न हैं। यदि उनको यदि अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया तो हमारा विकास नहीं होगा। हमलोग शोषित हैं, कुपोषित हैं… कितनी अच्छी बात है न?

अब मैतेई भाई बहनों की दशा देखिये। जनसंख्या इनकी अधिक है, विधायक इनके अधिक हैं, सरकार इनके समर्थन की है। पर कोर्ट से आदेश मिलने के बाद भी ये अपना हक नहीं ले पा रहे हैं। क्यों? इसका उत्तर समझना बहुत कठिन नहीं है।

यह सारी बातें फैक्ट हैं। अब आपको किसका समर्थन करना है और किसका विरोध, यह आपका चयन है। मुझे फैक्ट्स बताने थे, वह मैंने कर दिया।

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