उत्तराखंड में चिकित्सालयों और मोटर सड़कों का निर्माण सरकारों की प्राथमिकता क्यों नहीं?

उत्तराखंड में चिकित्सालयों एवं मोटर सड़कों का निर्माण और सुप्रबन्धन सरकारों की प्राथमिकता में क्यों नहीं होता? 

(वरिष्ठ पत्रकार विजेन्द्र रावत की रिपोर्ट) 

    अभी कुछ दिन पहले मैं हल्के से बुखार को लेकर अपने मरीज को धार्मिक गुरु महन्त इन्द्रेश अस्पताल ले गया, डाक्टर ने थोड़ी पूछताछ के बिना कोई जांच किए कोबिड टेस्ट सहित एक लम्बा पर्चा मुझे थमा दिया, मैं कैस काउंटर पर गया तो बताया गया कि ये टेस्ट साढ़े आठ हजार रुपए के हैं, काउंटर पर बैठा पहाड़ी लड़का बुदबुदाया, क्या आपको सारे करवाने हैं? नहीं तो डाक्टर से कुछ कम करवा लो, मुझे भी इसमें कुछ टैस्ट गैर जरूरी लग रहे थे, तो मैंने डाक्टर से पूछा क्या इसमें कुछ कम हो सकते हैं?
मेरे हिसाब से यह सब जरूरी है! डाक्टर लापरवाही सुर में बोला, अब बताइए तीमारदार के पास क्या चारा है?
यह उस अस्पताल के हाल हैं जिसके मिशन में धर्मार्थ शब्द सम्मलित है।
अब तो पहाड़ के सरकारी रैफरल अस्पतालों से लेकर पहाड़ से मरीज को देहरादून जैसे शहर तक पहुंचाने वाली एंम्बुलेंस तक में कमिशन पर निजी अस्पतालों के कमिशन एजेंट तैनात हैं।
पहाड़ से देहरादून के दून अस्पताल या हल्द्वानी के सुशील तिवारी मेडिकल कालेज तक अगर कोई मरीज किसी गाड़ी से पहुंचा तो उसे निजी अस्पतालों के ऐजेंट बाहर ही थाम लेते हैं और लारे लप्पे देकर उसे अपने अस्पताल पहुंचा देते हैं।
वैसे यहां के सरकारी अस्पतालों में भर्ती के लिए मंत्री, विधायक व उन नौकरशाहों की शिफारिश आम बात है जिनका कुत्ता भी इन अस्पतालों में अपने इलाज से कतराता है।
यदि कोई शिफारिशवान मरीज भर्ती हो भी पाया तो उनसे निजी डायग्नोस्टिक सेंटर के लिए जांच के पर्चे थमा दिए जाते हैं कोई इस पर सवाल पूछता है तो डाक्टर हमदर्दी भरे लहजे में बताता है कि ये टेस्ट अंदर भी हैं पर इनका ज्यादा भरोसा मैं नहीं करता!
डायग्नोस्टिक सेंटर के भी अलग अलग रेट हैं।
इन सब पर किसी सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है?
बस, एक बार आप पहाड़ पर बीमार पड़े तो समझिए आप लूट की अंधी सुरंग में घुस गये!!
आपको असली यमराज तक पहुंचने के लिए भी और यमराजों से गुजरना पड़ेगा जो इलाज के नाम पर आपके कपड़े भी उतार लेंगे और इसकी जिम्मेदार हमारी बीस सालों बारी बारी राज करने वाली लच्चर सरकारें हैं। ये 21 वर्षीया बेटी निर्मला, ग्राम सभा किसाला बड़कोट की रहने वाली है। अपने पहली संतान के आने पर खुश थी।बड़कोट नगरपालिका क्षेत्र है, कुछ दिन पूर्व प्रसव पीड़ा उठी तो सरकारी अस्पताल गई, कोई सुविधा न होने के कारण डाक्टर ने करीब डेढ़ सौ किलोमीटर देहरादून के लिए रेफर कर दिया, रास्ते में आधे दर्जन सरकारी अस्पतालों व दो जिलों उत्तरकाशी व टेहरी से प्रसव पीड़ा से तड़पती उर्मिला गुजरी पर कहीं भी प्रसव सुविधा नहीं थी।

प्रदेश की राजधानी देहरादून के सबसे बड़े दून अस्पताल पहुंची तो वहां भी उसे भर्ती करने से इन्कार कर दिया, और वेदना से तड़पती उर्मिला ने देर रात को एक निजी अस्पताल में दम तोड़ दिया। 

टिहरी जनपद की नैलचामी पट्टी के ठेला गांव निवासी 23 वर्षीय राखी देवी को भी प्रसव पीड़ा होने पर 11 दिसंबर को घनसाली के पिलकी अस्पताल में भर्ती किया गया। उसकी गंभीर स्थिति के बाबजूद उसे हायर सेंटर के लिए रेफर नहीं किया गया। डॉक्टरों ने उसे सामान्य बताया। 15 दिसंबर को महिला ने बच्चे को जन्म दिया, जिसके बाद उसकी हालत बिगड़ने लगी। दोपहर बाद आनन-फानन में महिला को श्रीनगर बेस चिकित्सालय के लिए रेफर किया गया। जहां अस्पताल पहुँचने से पहले महिला ने दम तोड़ दिया। इस महिला का मायका रुद्रप्रयाग जनपद के जाखाल (डोभा) गांव में है।           

 ये कहानी उर्मिला और राखी की ही नहीं अपितु बीस साल के पहाड़ी प्रदेश में ऐसी हालातों में सैकड़ों मासूम बेटियां मौत के मुंह में समा चुकी है। यदि हम बीस साल के राज्य में जवान बेटियों का उनके गांव के आसपास सफल प्रसव नहीं करा सकते तो हम सब नेता और समाजसेवियों को डूब कर मर जाना चाहिए।

पहाड़ की स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए जिम्मेदार  सरकारी चिकित्सालयों की लापरवाही के एक और बेटी की जान चले गयी। गर्भवती महिलाओं के ऐसे ही समाचार पौड़ी रुद्रप्रयाग चमोली और टिहरी से भी  इसी वर्ष पढ़ने को मिले। आखिर उत्तराखंड में चिकित्सालयों एवं मोटर सड़कों का निर्माण और प्रबन्धन सरकारों की प्राथमिकता में क्यों नहीं होता? -(संपादित)