चर्चा केवल तीन मंदिरों तक सीमित क्यों! दुर्दांत आक्रांताओं द्वारा विद्रुप किए गये २८००० मंदिरों व सैकड़ों विश्वविद्यालयों पर क्यों नहीं!, बिहार में है २६०० वर्ष पुराना जंग विहीन लोह स्तंभ : दिल्ली के स्तंभ का सांचा भी यही तो है, उत्तराखण्ड से जौहर करने वाली पहली वीरांगना मौला देवी पुंडीर

  • साभार…… 
  • संकलन ✍️डाॅ0 हरीश मैखुरी
  • *चर्चा इसपर हो रही है कि अयोध्या के बाद काशी, मथुरा, कुतुबमीनार और अब ताजमहल, आखिर देश में हो क्या रहा है??

जबकि चर्चा इसपर होना चाहिए कि आखिर हर मस्जिद के अंदर से मंदिरों के प्रमाण कैसे निकल रहे है ? चर्चा इसपर होना चाहिए कि मंदिरों पर मस्जिद क्यों बनाई गई ?

चर्चा तो इस पर भी होनी ही चाहिए कि देश की स्वतंत्रता के बाद 60 वर्ष से अधिक एक ही दल ने शासन किया उसकी हिन्दुओं के प्रति नकारात्मक भूमिका क्यों रही । और हिन्दुओं के स्वाभिमान को क्यों कुचला।

चर्चा का विषय ये होना चाहिए कि अखंड भारत में दुर्दांत आक्रमणकारी मुगलों ने २८००० मंदिर क्यों विध्वंस किये ? नालंदा तक्षशिला शारदा जैसे हजारों विश्वविद्यालय जलाये और गुरूकुल नष्ट किए उन पर क्यों नहीं! ❗️ और जिस दल द्वारा 60 वर्ष से अधिक देश पर एक छत्र शासन किया उस मध्य हिन्दुओं के हत्यारों और लुटेरों के नाम पर नगरों और मार्गो के नाम क्यों रखे । चर्चा में यह भी सम्मिलित होना चाहिए कि तथाकथित सेक्युलर, प्रगतिशील मुगलों ने हिन्दू आस्थाओं को रौंदकर २८००० मंदिरों पर मस्जिद क्यों बनाई? चर्चा इसपर भी खुलकर होना चाहिए कि क्या हिंदू आर्किटेक्चर को तोड़ना ही मुगल आर्किटेक्चर था, जिसकी प्रशंसा इतिहासकार करते नहीं थकते थे! ❗️ 

चर्चा तो इतिहासकारों के झूठ की भी होनी चाहिए जिन्होंने इतिहास के ‘सच’ को सलेक्टिव इतिहास की ‘कब्र’ में दफन कर उसके ऊपर झूठे और मिथ्या इतिहास का स्ट्रक्चर खड़ा कर देश को अंधेरे में रखा।और हिन्दुओं के गौरवशाली इतिहास को दबाए रखा।

सच दबाने के लिए चर्चा का विषय मोड़ेंगे लेकिन हमें हर हाल में सेक्युरिज्म की इमारतों में दफन भारतीय इतिहास को कब्र फाड़कर बाहर लाना ही होगा।🙏🏻**भारत के इतिहास में पहला जौहर करने वाली उत्तराखंड की जिया रानी 

यूँ तो सम्पूर्ण भारत ही विभिन्न हस्तियों की शौर्यगाथाओं से भरा पड़ा है परंतु इसे साधनों का अभाव कहिए या फिर हमारी शिक्षा नीति की कमजोरी, प्रायः देखा गया है कि ऐसी बहुत सी हस्तियों के बारे में जानने से हम लोग हमेशा वंचित रहे हैं, जिनके त्याग औरबलिदान को कभी संवाद का ज़रिया नहीं मिल सका।

*बदला कुछ भी नहीं है – तेरहवी शताब्दी में मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा भारत में नालंदा विश्वविद्यालय जलाया गया जो तीन महीने तक जलता रहा – इक्कीसवीं शताब्दी में वे फ़्रान्स में लाइब्रेरी जला रहे हैं – वे तब भी क़ामयाब थे आज भी क़ामयाब है – पर अब ज़रूरत है शेष विश्व को उनकी हक़ीक़त जानकर उनके बारे में अपनी राय और नजरिया बदलने की* 😡😡गत वर्ष हम लोगों को मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित ‘पद्मावत’ काव्य पर आधारित फ़िल्म देखने को मिली। लेकिन पद्मावती अकेली महिला नहीं थी, जिसे मुस्लिम आक्रान्ताओं के शोषण और व्यभिचारी प्रवृत्ति के चलते अपने सतीत्व की रक्षा के लिए जौहर करना पड़ा था। हालाँकि फ़िल्म आते ही देश का ‘लिबरल वर्ग’ यह भी कहता देखा गया कि सतीत्व की रक्षा के लिए जौहर करना बेवकूफ़ी भरा निर्णय हुआ करता था। ख़ैर, सबकी अपनी विशिष्ट प्राथमिकताएँ हो सकती हैं।

आज हम इतिहास के पन्नों से कुछ ओझल सत्य लेकर आ रहे हैं एक ऐसी वीरांगना का जिन्हें उत्तराखंड (कुमाऊँ) की लक्ष्मीबाई के नाम से जाना जाता है। यह नाम है- ‘रानी जिया’। जिस प्रकार झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम स्वतंत्रता संग्राम के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित है, उसी तरह से उत्तराखंड की अमर गाथाओं में एक नाम है जिया रानी का।

खैरागढ़ के कत्यूरी सम्राट प्रीतमदेव (1380-1400) की महारानी जिया थी। कुछ किताबों में उसका नाम प्यौंला या पिंगला भी बताया जाता है। जिया रानी धामदेव (1400-1424) की माँ थी और प्रख्यात उत्तराखंडी लोककथा नायक ‘मालूशाही’ (1424-1440) की दादी थी।

उत्तराखंड के प्रसिद्ध कत्यूरी राजवंश का किस्सा

कत्यूरी राजवंश भारत के उत्तराखण्ड राज्य का एक मध्ययुगीन राजवंश था। इस राजवंश के बारे में माना जाता है कि वे अयोध्या के शालिवाहन शासक के वंशज थे और इसलिए वे सूर्यवंशी कहलाते थे। इनका कुमाऊँ क्षेत्र पर छठी से ग्यारहवीं सदी तक शासन था। कुछ इतिहासकार कत्यूरों को कुषाणों के वंशज मानते हैं।

बागेश्वर-बैजनाथ स्थित घाटी को भी कत्यूर घाटी कहा जाता है। कत्यूरी राजाओं ने ‘गिरिराज चक्रचूड़ामणि’ की उपाधि धारण की थी। उन्होंने अपने राज्य को ‘कूर्मांचल’ कहा, अर्थात ‘कूर्म की भूमि’। ‘कूर्म’ भगवान विष्णु का दूसरा अवतार था, जिस वजह से इस स्थान को इसका वर्तमान नाम ‘कुमाऊँ’ मिला।

कत्यूरी राजवंश उत्तराखंड का पहला ऐतिहासिक राजवंश माना गया है। कत्यूरी शैली में निर्मित द्वाराहाट, जागेश्वर, बैजनाथ आदि स्थानों के प्रसिद्ध मंदिर कत्यूरी राजाओं ने ही बनाए हैं। प्रीतम देव 47वें कत्यूरी राजा थे जिन्हें ‘पिथौराशाही’ नाम से भी जाना जाता है। इन्हीं के नाम पर वर्तमान पिथौरागढ़ जिले का नाम पड़ा।

जिया रानी

जिया रानी का वास्तविक नाम मौला देवी था, जो हरिद्वार (मायापुर) के राजा अमरदेव पुंडीर की पुत्री थी। सन 1192 में देश में तुर्कों का शासन स्थापित हो गया था, मगर उसके बाद भी किसी तरह दो शताब्दी तक हरिद्वार में पुंडीर राज्य बना रहा। मौला देवी, राजा प्रीतमपाल की दूसरी रानी थी। मौला रानी से 3 पुत्र धामदेव, दुला, ब्रह्मदेव हुए, जिनमें ब्रह्मदेव को कुछ लोग प्रीतम देव की पहली पत्नी से जन्मा मानते हैं। मौला देवी को राजमाता का दर्जा मिला और उस क्षेत्र में माता को ‘जिया’ कहा जाता था इस लिए उनका नाम जिया रानी पड़ गया।

पुंडीर राज्य के बाद भी यहाँ पर तुर्कों और मुगलों के हमले लगातार जारी रहे और न सिर्फ हरिद्वार बल्कि उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊँ में भी तुर्कों के हमले होने लगे। ऐसे ही एक हमले में कुमाऊँ (पिथौरागढ़) के कत्यूरी राजा प्रीतम देव ने हरिद्वार के राजा अमरदेव पुंडीर की सहायता के लिए अपने भतीजे ब्रह्मदेव को सेना के साथ सहायता के लिए भेजा जिसके बाद राजा अमरदेव पुंडीर ने अपनी पुत्री मौला देवी (रानी जिया) का विवाह कुमाऊँ के कत्यूरी राजवंश के राजा प्रीतमदेव उर्फ़ पृथ्वीपाल से कर दिया।

उस समय दिल्ली में तुगलक वंश का शासन था। मध्य एशिया के लूटेरे शासक तैमूर लंग ने भारत की महान समृद्धि और वैभव के बारे में बहुत बातें सुनी थीं। भारत की दौलत लूटने के मकसद से ही उसने आक्रमण की योजना भी बनाई थी। उस दौरान दिल्ली में फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के निर्बल वंशज शासन कर रहे थे। इस बात का फायदा उठाकर तैमूर लंग ने भारत पर चढ़ाई कर दी।

वर्ष 1398 में समरकंद का यह लूटेरा शासक तैमूर लंग, मेरठ को लूटने और रौंदने के बाद हरिद्वार की ओर बढ़ रहा था। उस समय वहाँ वत्सराजदेव पुंडीर शासन कर रहे थे। उन्होंने वीरता से तैमूर का सामना किया मगर शत्रु सेना की विशाल संख्या के आगे उन्हें हार का सामना करना पड़ा।

उत्तर भारत में गंगा-जमुना-रामगंगा के क्षेत्र में तुर्कों का राज स्थापित हो चुका था। इन लुटेरों को ‘रूहेले’ (रूहेलखण्डी) भी कहां जाता था। रूहेले राज्य विस्तार या लूटपाट के इरादे से पर्वतों की ओर गौला नदी के किनारे बढ़ रहे थे।

इस दौरान इन्होंने हरिद्वार क्षेत्र में भयानक नरसंहार किया। जबरन बड़े स्तर पर मतपरिवर्तन हुआ और तत्कालीन पुंडीर राजपरिवार को भी उत्तराखंड के नकौट क्षेत्र में शरण लेनी पड़ी जहाँ उनके वंशज आज भी रहते हैं और ‘मखलोगा पुंडीर’ के नाम से जाने जाते हैं।

लूटेरे तैमूर ने एक टुकड़ी आगे पहाड़ी राज्यों पर भी हमला करने के लिए भेजी। जब ये सूचना जिया रानी को मिली तो उन्होंने फ़ौरन इसका सामना करने के लिए कुमाऊँ के राजपूतों की एक सेना का गठन किया। तैमूर की सेना और जिया रानी के बीच रानीबाग़ क्षेत्र में भीषण युद्ध हुआ, जिसमें तुर्क सेना की जबरदस्त हार हुई।

इस विजय के बाद जिया रानी के सैनिक कुछ निश्चिन्त हो गए लेकिन दूसरी तरफ से अतिरिक्त मुस्लिम सेना आ पहुँची और इस हमले में जिया रानी की सेना की हार हुई। जिया रानी एक बेहद खूबसूरत महिला थी इसलिए हमलावरों ने उनका पीछा किया और उन्हें अपने सतीत्व की रक्षा के लिए एक गुफा में जाकर छिपना पड़ा।

जब राजा प्रीतम देव को इस हमले की सूचना मिली तो वो जिया रानी से चल रहे मनमुटाव के बावजूद स्वयं सेना लेकर आए और मुस्लिम हमलावरों को मार भगाया। इसके बाद वो जिया रानी को अपने साथ पिथौरागढ़ ले गए।

वर्तमान में जिया रानी की रानीबाग़ स्थित गुफा के बारे में एक दूसरी कथा भी प्रचलित है। कत्यूरी वंशज प्रतिवर्ष उनकी स्मृति में यहां पहुँचते हैं। कहते हैं कि कत्यूरी राजा प्रीतम देव की पत्नी रानी जिया यहाँ चित्रेश्वर महादेव के दर्शन करने आई थी। जैसे ही रानी नहाने के लिए गौला नदी में पहुँची, वैसे ही तुर्क सेना ने उन्हें घेर दिया।

इतिहासकारों के अनुसार जिया रानी अतीव सुन्दर व सुनहरे केशों वाली महिला थी। नदी के जल में उसके सुनहरे बालों को पहचानकर तुर्क उन्हें खोजते हुए आए और जिया रानी को घेरकर उन्हें समर्पण के लिए मजबूर किया लेकिन रानी ने समर्पण करने से मना कर दिया।

दूसरे इतिहासकारों के अनुसार एक दिन जैसे ही रानी जिया नहाने के लिए गौला नदी में पहुँची, वैसे ही उन्हें तुर्कों ने घेर लिया। रानी जिया शिव भक्त और सती महिला थी। उन्होंने अपने ईष्ट देवता का स्मरण किया और गौला नदी के पत्थरों में ही समा गई।

लूटेरे तुर्कों ने उन्हें बहुत ढूंढा लेकिन उन्हें जिया रानी कहीं नहीं मिली। कहते हैं उन्होंने अपने आपको अपने लहँगे में छिपा लिया था और वे उस लहँगे के आकार में ही शिला बन गई थीं। गौला नदी के किनारे आज भी एक ऐसी शिला है जिसका आकार कुमाऊँनी पहनावे वाले लहँगे के समान हैं। उस शिला पर रंगीन पत्थर ऐसे लगते हैं मानो किसी ने रंगीन लहँगा बिछा दिया हो। वह रंगीन शिला जिया रानी का स्मृति चिन्ह माना जाता है।

इस रंगीन शिला को जिया रानी का स्वरुप माना जाता है और कहा जाता है कि जिया रानी ने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए इस शिला का ही रूप ले लिया था। रानी जिया को यह स्थान बेहद प्रिय था। यहीं उन्होंने अपना बाग़ भी बनाया था और यहीं उन्होंने अपने जीवन की आखिरी साँस भी ली थी। रानी जिया के कारण ही यह बाग़ आज रानीबाग़ नाम से मशहूर है।

रानी जिया हमेशा के लिए चली गई लेकिन उन्होंने वीरांगना की तरह लड़कर आख़िरी वक्त तक तुर्क आक्रान्ताओं से अपने सतीत्व की रक्षा की।

वर्तमान में प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के अवसर पर 14 जनवरी को चित्रशिला में सैकड़ों ग्रामवासी अपने परिवार के साथ आते हैं और ‘जागर’ गाते हैं। इस दौरान यहाँ पर सिर्फ ‘जय जिया’ का ही स्वर गूंजता है। लोग रानी जिया को पूजते हैं और उन्हें ‘जनदेवी’ और न्याय की देवी मना जाता है। रानी जिया उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र की एक प्रमुख सांस्कृतिक विरासत बन चुकी हैं।

गर्व कीजिये क्योंकि ऐसी मिसाल दुनिया में किसी और देश मे नही और दुनिया मूर्ख हमे कहती है कि बस सपेरों का देश था …! सपेरे भी यहां के वैज्ञानिक थे, और गड़ेरिये भी प्रकृति के विशेषज्ञ … विश्वप्रसिद्ध दिल्ली का ”लौह स्तम्भ” हमारा भारत कितना अद्भुत है …!
कितना ज्ञान बिखरा हुआ है यहाँ प्राचीन धरोहरों के रूप में, जिसे हमें समय रहते संभालना है। दुनिया की प्राचीनतम और जीवंत सभ्यताओं में से एक है हमारे देश की सभ्यता …!
हमारी प्राचीन धरोहरें बताती हैं कि हमारा देश अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य प्रणाली, शिक्षा प्रणाली, कृषि तकनीकी, खगोल शास्त्र, विज्ञान, औषधि और शल्य चिकित्सा आदि सभी क्षेत्रों में बेहद उन्नत था …!
मैगस्थनीज से लेकर फाह्यान, ह्वेनसांग तक सभी विदेशियों ने भारत की भौतिक समृध्दि का बखान किया है ..!
प्राचीन काल में उन्नत तकनीक और विराट ज्ञान संपदा का एक उदाहरण है अभी तक ‘जंगविहिन’ दिल्ली का लौह स्तंभ’ ….!
इसका सालों से ‘जंग विहीन होना ‘ दुनिया के अब तक के अनसुलझे रहस्यों मे माना जाता है ..
माना जाता है कि भारतवासी ईसा से पूर्व से ही लोहे को गलाने की तकनीक जानते थे । पश्चिमी देश इस ज्ञान में २००० से भी अधिक वर्ष पीछे रहे ..! इंग्लैण्ड में लोहे की ढलाई का पहला कारखाना सन् ११६१ में खुला था …!

१२ वीं शताब्दी के अरबी विद्वान इदरिसी ने भी लिखा है कि भारतीय सदा ही लोहे के निर्माण में सर्वोत्कृष्ट रहे और उनके द्वारा स्थापित मानकों की बराबरी कर पाना असंभव सा है …!
यह ३५ फीट ऊँचा और ६ हज़ार किलोग्राम है, लौह-स्तम्भ में लोहे की मात्रा करीब ९८% है और अभी तक जंग नहीं लगा है। यह अपनेआप में प्राचीन भारतीय धातुकर्म की पराकाष्ठा है ..!
गुप्तकाल (तीसरी शताब्दी से छठी शताब्दी के मध्य) को भारत का स्वर्णयुग माना जाता है …!
लौह स्तम्भ में लिखे लेख के अनुसार इसे राजा चन्द्र ने बनवाया था । बनवाने के समय विक्रम सम्वत् का आरम्भ काल था। इस का यह अर्थ निकला कि उस समय समुद्रगुप्त की मृत्यु के उपरान्त चन्द्रगुप्त (विक्रम) का राज्यकाल था । तो बनवाने वाले चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय ही थे और इस का निर्माण 325 ईसा पूर्व का है …!
लगभग २६०० से अधिक वर्षों से यह खुले आसमान के नीचे सदियों से सभी मौसमों में अविचल खड़ा है। इतने वर्षों में आज तक उसमें जंग नहीं लगी, यह बात दुनिया के लिए आश्चर्य का विषय है। जहां तक इस स्तंभ के इतिहास का प्रश्न है, यह चौथी सदी में बना था। इस स्तम्भ पर संस्कृत में जो खुदा हुआ है, उसके अनुसार इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। चन्द्रराज द्वारा मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर निर्मित भगवान विष्णु के मंदिर के सामने इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। इस पर गरुड़ स्थापित करने हेतु इसे बनाया गया होगा, अत: इसे गरुड़ स्तंभ भी कहते हैं। १०५० में यह स्तंभ दिल्ली के संस्थापक अनंगपाल द्वारा लाया गया …!
कहते हैं कि इस स्तम्भ को पीछे की ओर दोनों हाथों से छूने पर मुरादें पूरी हो जाती हैं, परन्तु अब आप ऐसा प्रयास नहीं कर पाएंगे क्योंकि अब इसके चारों तरफ लोहे की सुरक्षा जाली है !
बिहार के जहानाबाद जिले में एक गोलाकार स्तंभ है जिसकी लम्बाई ५३.५ फीट और व्यास ३.५ फीट है जो उतर से दक्षिण की ओर आधा जमीन में तथा आधा जमीन की सतह पर है …!
कुछ पुरातत्वविद इसे ही दिल्ली के लौह स्तम्भ का सांचा मानते है!”

इतिहास सिर्फ , #सोशलमीडिया पे हमारे खिलाफ करने से नही बनता,

इतिहास हमारी एक परम्परा है जो पीढ़ी दर पीढ़ी सैकड़ों हज़ारों बर्षो से चलती आयी है..

भले कुछ सैक्युलरों और बामपंथियों ने पाठ्यक्रम में दुर्दांत लुटेरे इस्लामी आक्रान्ताओं को महान बताने का पाप किया लेकिन हमारा इतिहास है। गुरू गोविन्द सिंह हो गुरु तेगबहादुर सिंह हो हाड़ा रानी हो हमारे योद्धाओं ने इन आक्रांताओं के लडते हुए सिर कटे हैं धड़ लड़े हैं। रानियों ने जौहर किया है इन में से कुछ का लेखा-जोखा जोधपुर के मेहरानगढ़ किले में रखे करीब 100 बर्ष से लेकर प्राचीन #इतिहास के सभी दस्तावेज आज भी सुरक्षित है।

जो #क्षत्रियों का स्वर्णिम इतिहास है।

पश्चिमी इतिहासकारों की मानें तो मुट्ठी भर द्वीपों पर बसे और छोटे सा यूरोपीय राज्य ग्रीक और रोम में ही केवल विकसित सभ्यता थी, ग्रीक, रोमन साम्राज्य था और वहां सम्राट होते थे बाकी सब तो असभ्य (barbaric), घुमंतू (nomad), कबीले (tribe) और कबीले के सरदार (Chieftain) मात्र होते थे.

पश्चिमी इतिहासकारों की नजर में कैसे कैसे असभ्य, घुमन्तु, कबीले और कबीले के सरदार होते थे उसका कुछ उदाहरन देखिए: छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व के ईरान का अखामानी (Achamanid) साम्राज्य जो, इन्ही इतिहासकारों के शब्दों में, मध्य एशिया से लेकर तुर्की, मिस्र और ग्रीस तक विस्तृत था; पर, तीन महाद्वीपों पर विस्तृत उस महान साम्राज्य को बनाने वाले अखामनी लोग असभ्य, घुमन्तु, कबीलाई और कबीले के सरदार मात्र थे.

अखामनी साम्राज्य ५०० ईस्वीपूर्व

इतने बड़े अखामानी साम्राज्य के महान सम्राट कुरुष/कुरव (Cyrus) को युद्ध में मौत के घाट उतारकर अखामनियों को पराजित करनेवाले शक, जिनके नाम पर प्राचीन काल में पूरे मध्य एशिया को शाकल द्वीप अथवा शक द्वीप कहा जाता था और इन्ही इतिहासकारों के अनुसार Scythia इन्ही शकों का बसाया हुआ था, वे शक भी इनकी नजर में असभ्य, घुमन्तु, कबीलाई और कबीले के सरदार मात्र थे. इसी तरह उज्बेकिस्तान से मथुरा तक साम्राज्य स्थापित करनेवाले कुषाण/तुषार तथा मध्य और मध्य-पूर्व एशिया पर शासन करनेवाले हिन्दू-बौद्ध तुर्क भी असभ्य, घुमंतू, कबीलाई और कबीले के सरदार मात्र थे.

शकों का साम्राज्य सिथिया

भारत के विशाल साम्राज्यों का उदाहरन मैंने इसलिए नहीं दिया कि मैकाले-वाम पद्धति से शिक्षित/कुशिक्षित लोग व्यर्थ कुतर्क कर अपना समय बर्बाद न करें और आगे ऋग्वेद में दिए गये भारतवर्ष के राजा, सम्राट और उनके साम्राज्यों से सम्बन्धित विवरणों और प्रमाणों पर ध्यान दे सकें.

पश्चिमी इतिहासकारों के क्षुद्र मानसिकता का कारण

पश्चिमी इतिहासकारों के क्षुद्र और विकृत मानसिकता के दो कारण हैं-पहला, उनका ईसाई विश्वास की सृष्टि का निर्माण बाईबल के कहे अनुसार सिर्फ ४००४ ईस्वीपूर्व हुआ था. इसलिए उनके लिए धार्मिक और मानसिक रूप से यह मानना मुश्किल था कि भारतवर्ष में हजारों वर्ष पूर्व एक सुविकसित सभ्यता थी, बड़े बड़े साम्राज्य और सम्राट होते थे, ज्ञान, विज्ञान, ज्योतिष, दर्शन, गणित, युद्ध विद्या आदि में उच्च स्तर पर पहुंचे हुए थे, आदि.

पश्चिमी इतिहासकारों के संकीर्ण मानसिकता का दूसरा कारण है उनका यह भ्रम की पृथ्वी पर सभ्यता, विकास, ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, राजशाही, लोकतंत्र आदि सब ईसा मसीह के आने के बाद और ईसायत की देन हैं. इसी भ्रम में वे ईसापूर्व के अपने यूरोपीय इतिहास को अंधकार युग बताकर भुला दिए हैं. उन्हें सुकरात, गैलिलियो, ज्युदार्नोब्रूनो, ईसा मसीह आदि ज्ञानियों की दुर्गति भी भ्रम से मुक्त नहीं कर पाया है. अगर वे इस पर भी सत्य शोध कर लें की जिस बौद्धिक असहमति के कारण उनकी दुर्गति की गयी थी उस बौद्धिक ज्ञान का स्रोत क्या था तो उन्हें शायद भ्रम से मुक्ति मिल जाये और भारत के प्रति उनका नजरिया बदल जाये.

और जिन मैकाले-वामी पद्धति से शिक्षित/कुशिक्षित लोगों को हमारी बात पर भ्रम हो वे चौदहवीं शताब्दी से पूर्व का यूरोप का इतिहास पढ़ने का कष्ट अवश्य करें. इस लेख में आगे हम केवल ऋग्वेद से भारतवर्ष के अतिप्राचीन राज्यों, राजाओं, सम्राटों और साम्राज्यों का प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं.

ऋग्वेद में अनेक प्रकार के राजाओं का उल्लेख

एक ओर तो वैदिक साहित्य पर काम करनेवाले अधिकारी विद्वान इस विषय में एकमत रहे हैं कि वैदिक काल में राजतन्त्र था, तो दूसरी ओर इन विद्वानों की रचनाओं और अनुवादों व व्याख्याओं में से अपने प्रयोजन केलिए कुछ शब्दों को अलग छांटकर कुछ दूसरे विद्वान आदिम कबीलों के सादृश्य पर वैदिक राजा को कबीले का सरदार सिद्ध करते रहे हैं.

इन अध्येत्ताओं को राजसत्ता के स्वरूप के विषय में कितना भी अनिश्चय क्यों न हो, इसके अस्तित्व के विषय में किसी प्रकार का संदेह इसलिए भी नहीं है कि ऋग्वेद में राजसत्ता के अस्तित्व के सूचक राजा जिसका प्रयोग १०० से अधिक बार हुआ है, भुवः सम्राट या भूपति (४.१९.२), एकराट (८.३७.३), अधिराट (१०.१२८.९), विराट (१.१८८.४-६), स्वराट (१.६१.९) आदि अनेक शब्द पाए जाते हैं जिनसे प्रकट होता है कि… छोटे राज्यों से लेकर विशाल राज्यों की कल्पना का ठोस भौतिक आधार अवश्य था. जहाँ तुलनात्मक रूप में छोटे-बड़े अनेक आकारों के राज्यों और पदों का उल्लेख मिलता हो तो इसे इतने सतही ढंग से नहीं निबटाया जा सकता है.

इसके अतिरिक्त ऋग्वेद में भुवन के राजा (५.८५.३), लोकहितकारी राजा (३.५५.२). भूगर्भीय सम्पदा के स्वामी राजा (२.१४.११), पूरे जगत के एकमात्र राजा (३.४६.२), समस्त जनों के राजा (१.५९.५; ६.२२.९; ७.२७.३) पर्वत, नदी, स्थल सभी के राजा (१.५९.३), ऋतजात या ऊँचे कुल में उत्पन्न राजा (९.१०८.८) आदि विवरण मिलते हैं. (हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य, लेखक-भगवान सिंह, पृष्ठ २००-२०३)

ऋग्वेद में वर्णित विभिन्न प्रशासनिक पद

ऋग्वेद में केवल इन विभिन्न प्रकार के राज्यों का ही आभास नहीं मिलता है, अपितु अमात्य (७.१५.३), सेनानी (७.२०.५), अधिवक्ता (२.२३.८), उपवक्ता (४.९.५), दूत (३.३.२), चर या स्पश (४.४.३) आदि पद भी मिलते हैं जो इस बात की अकाट्य पुष्टि करते हैं कि इस काल में एक व्यवस्थित राजतन्त्र और पद-क्रम विद्यमान था. दूसरी ओर ग्रामणी (१०.६२.११), विशपति (२.१.८), नाय (नायक?) (६.२४.१०), नेता (३.६.५), गणपति (२.२३.१) आदि शब्दों का प्रयोग एक संगठित ग्रामीण प्रशासन की ओर संकेत करता है (वही, पृष्ठ २०१). ऋग्वेद में प्रयुक्त सभा, समिति जैसे शब्दों और उनके अर्थ तथा भूमिका से तो सभी परिचित होंगे ही.

ऋग्वेद में वैदिक कालीन राजाओं के गुण-धर्म

राजा के पास एक विशाल भू-भाग और उस पर शासनाधिकार होना चाहिए (७.२७.३). इस विशाल क्षेत्र के शासन केलिए जरूरी है कि वह इसकी जानकारी रखे, विद्वान और विचारशील हो (९.९७.५६). उसका पालन, पोषण और शिक्षा आदि तो विधिवत हो ही, वह राजकुल में ही उत्पन्न हो (९.१०८.८). वह किसी के अधीन न हो (६.७.७), युद्ध के समय नेतृत्व सम्भाल सके (२.९.६). समस्त लोग उसकी अधीनता स्वीकार करते हों और उसके सामने झुकते हों (२.९.६). वह उदार हो और नियमों का स्वयं भी पालन करता हो (२.१.४).

राजा केलिए जरूरी है कि वह शत्रुओं को जीतकर राज्य-विस्तार करे अथवा उन्हें अधीन करके तथा कर वसूली करके कोष को भरा-पूरा रखे (४.५०.९). उसको निष्पक्ष भाव से न्याय करना और नियम तोड्नेवालों को दंड देना चाहिए (१.२४.१५). राजा को अनुपम वेश (१.२५.१३), वैभव (८.२१.१८), आवास (२.४१.५; ३.१.१८; ७.८८.५), ऊँचे आसन (३१/१२.८.३.४) और सुसज्जित रथ का (२.१८.४-६; ६.२९.२) स्वामी होना चाहिए.

इन विभिन्न योग्यताओं को ध्यान में रखेंगे तो पाएंगे कि वैदिक कालीन राजाओं से जो अपेक्षाएं की गयी हैं, उनका जो चित्र तैयार किया गया है, वह एतिहासिक कालों के राजाओं से तनिक भी भिन्न नहीं है. विशाल सेना रखनेवाले राजा अपनी शक्ति (प्रताप) से शत्रुओं को प्रचंड सूर्य की तरह तपाते हैं-तपन्ति शत्रुं स्वः न भूमा महासेनासः अमेभि: एषाम (७.३४.१९), जैसी उक्तियाँ शेष आशंका भी दूर कर देती है. (वही, पृष्ठ २०३-२०४)

वामपंथी इतिहासकारों के हास्यास्पद ज्ञान

डी एन झा

वामपंथी इतिहासकार द्विजेन्द्रनाथ झा

बीबीसी को दिए अपने एक साक्षात्कार में इतिहासकार द्विजेन्द्रनाथ झा कहते है कि “पांचवीं सदी से छठी शताब्दी के आस-पास छोटे-छोटे राज्य बनने लगे और भूमि दान देने का चलन शुरू हुआ. इसी वजह से खेती के लिए जानवरों का महत्व बढ़ता गया. ख़ासकर गाय का महत्व भी बढ़ा. उसके बाद धर्मशास्त्रों में ज़िक्र आने लगा कि गाय को नहीं मारना चाहिए.”

अब देखिए, भारतीय एतिहासिक ग्रंथों के अनुसार तो कृषि का आविष्कार और कृषि कर्म की शुरुआत तो इच्छ्वाकू वंशी महाराज पृथु ने किया था जिनके साम्राज्य को पृथ्वी कहा जाता था जिसके कारण पूरी धरती के लिए सबसे प्रचलित शब्द आज भी पृथ्वी बनी हुई है. खैर, वामपंथी होने के कारन वे उतना दूर देख पाने में असमर्थ थे किन्तु इतना तो सबको पता हैं कि ५०० ईस्वी पूर्व हर्यक वंश का साम्राज्य था जिसमे बिम्बिसार और अजातशत्रु दो सम्राट थे. फिर घनानंद विशाल मगध साम्राज्य का सम्राट था.

उसके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य ३०० ईस्वीपूर्व इन्ही इतिहासकारों के अनुसार अफगानिस्तान, पाकिस्तान से लेकर उत्तर में कश्मीर दक्षिण में नर्मदा और पूर्व में बंग प्रदेश के अधिकांश हिस्सों पर था. बाद में अशोक ने उस साम्राज्य का और अधिक विस्तार किया था. फिर पांचवी-छठी शताब्दी में छोटे छोटे राज्य बनने लगे यह कहना कितना हास्यास्पद है! चक्रबर्ती सम्राट विक्रमादित्य की गाथा तो अरब देश में भी गाये जाते थे जिसके सबूत आज भी किताबों, ताम्र और स्वर्ण पत्रों पर और संग्रहालयों में सुरक्षित हैं. ये सब क्या छोटे मोटे राज्य थे?

राजपूतों का मजाक उड़ाने वालों देखो, ये फोटो हैदराबाद के निजाम की है, जो 1911 के दिल्ली दरबार में अंग्रेजों के आगे झुककर हाजरी लगा रहा है। वास्तविकता यह है कि ईसाई अंग्रेज इतिहासकारों के भ्रमित ज्ञान को अलौकिक ज्ञान मानने वाले और निहित स्वार्थों केलिए एजेंडा इतिहास लिखने वाले वामपंथी इतिहासकार बौद्धिक दिवालियापन के शिकार हो चुके हैं, तभी तो रोमिला थापर कहती है कि महाभारत के युद्धिष्ठिर ने सम्राट अशोक से शिक्षा ग्रहण किया था, शायद इसीलिए साम्राज्यवादी, वामपंथी इतिहासकारों को ऋग्वैदिक राजाओं, सम्राटों द्वारा वसूला जाना वाला ‘कर’ और उन्हें दिया जाना वाला ‘बलि’ (भेंट) इन्हें ‘लूट’ का माल लगता है। 

उक्त चित्र में टीपू सुल्तान का वास्तविक फोटो और पाठ्यक्रम में छपने वाली फोटो है

कर्नाटक में  मंड्या जिले के मेलकोटे टाउन  जिसके बारे में दावा किया जाता है कि यहां टीपू सुल्तान के सैनिकों ने करीब 800 हिंदुओं को मारा था। ये सभी अयंगर ब्राह्मण थे। उसके अलावा चार लाख हिन्दुओं को धर्मांतरित कर मुसलमान बनाया। 

ये हमला नर्क चतुर्दशी यानी छोटी दिवाली के दिन हुआ था, तब से मेलकोटे के अयंगर ब्राह्मण दिवाली नहीं मनाते। देश में दिवाली मन रही होती है, तब वे पूर्वजों का श्राद्ध कर रहे होते हैं। हालांकि इस कम्युनिटी के कुछ परिवार अब दिवाली सेलिब्रेट करने लगे हैं।

मेलकोटे बेंगलुरु से 133 किमी दूर है। यहां अयंगर कम्युनिटी के गिने-चुने घर बचे हैं। जो हैं, वो योग नरसिंह मंदिर और चेलुवनारायण मंदिर की देखरेख और पूजा-पाठ करते हैं।