भारतीय सार्वभौम संस्कृति को विनष्ट करने की गंभीर साजिश

यह किसी जाति और वर्ण के संदर्भ में पूर्वाग्रह नहीं है, अपितु  ब्राह्मणों के विरुद्ध समाज में फैलाई जा रही नकारात्मकता व दुर्दशा के माध्यम से भारतीय सार्वभौम संस्कृति को विनष्ट करने जैसे गंभीर विषय पर है। 

जिन लोगों ने सातवीं शदी से भारत को लूटा, तोडा, नष्ट किया, वे आज इस देश में ‘अतीत भुला दो’ के नाम पर सम्मानित हैं और एक अच्छा जीवन जी रहे हैं। जिन्होंने भारत की मर्यादा को खंडित किया, उसके विश्विद्यालयों को विध्वंस किया, उसके विश्वज्ञान के भंडार पुस्तकालयों को जला कर राख किया, उन्हें आज के भारत में सब सुविधाओं से युक्त सुखी जीवन मिल रहा है। किंतु वे ब्राह्मण जिन्होंने सदैव अपना जीवन देश, धर्म और समाज की उन्नति के लिए अर्पित किया, अब उन पर उन पर सुनियोजित रूप से “काल्पनिक” दोष मढा जाता है। ताकि  भारतीय सुसंस्कृत समाज की मुख्य धुरी टूट जाये।और समाज को बांटना आसान हो। 
आधुनिक इतिहासकार हमें सिखाते हैं कि भारत के ब्राह्मण सदा से दलितों का शोषण करते आये हैं जो घृणित वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तक भी हैं। ब्राह्मण-विरोध का यह काम पिछले दो शतकों में कार्यान्वित किया गया।
वे कहते हैं कि ब्राह्मणों ने कभी किसी अन्य जाति के लोगों को पढने लिखने का अवसर नहीं दिया। बड़े बड़े विश्वविद्यालयों के बड़े बड़े शोधकर्ता यह सिद्ध करने में लगे रहते हैं कि ब्राह्मण सदा से समाज का शोषण करते आये हैं और आज भी कर रहे हैं, कि उन्होंने हिन्दू ग्रन्थों की रचना केवल इसीलिए की कि वे समाज में अपना स्थान सबसे ऊपर घोषित कर सकें…किंतु यह सारे तर्क खोखले और बेमानी हैं, इनके पीछे एक भी ऐतिहासिक प्रमाण नहीं। एक झूठ को सौ बार बोला जाए तो वह अंततः सत्य प्रतीत होने लगता, इसी भांति इस झूठ को भी आधुनिक भारत में सत्य का स्थान मिल चुका है।
आइये आज हम बिना किसी पूर्व प्रभाव के और बिना किसी पक्षपात के न्याय बुद्धि से इसके बारे सोचे, सत्य घटनायों पर टिके हुए सत्य को देखें। क्योंकि अपने विचार हमें सत्य के आधार पर ही खड़े करने चाहियें, न कि किसी दूसरे के कहने मात्र से। खुले दिमाग से सोचने से आप पायेंगे कि ९५ % ब्राह्मण सरल हैं, सज्जन हैं, निर्दोष हैं। आश्चर्य है कि कैसे समय के साथ साथ काल्पनिक कहानियाँ भी सत्य का रूप धारण कर लेती हैं। यह जानने के लिए बहुत अधिक सोचने की आवश्यकता नहीं कि ब्राह्मण-विरोधी यह विचारधारा विधर्मी घुसपैठियों, साम्राज्यवादियों, ईसाई मिशनरियों और बेईमान नेताओं के द्वारा बनाई गयी और आरोपित की गयी,ताकि वे भारत के समाज के टुकड़े टुकड़े करके उसे आराम से लूट सकें।
सच तो यह है कि इतिहास के किसी भी काल में ब्राह्मण न तो धनवान थे और न ही शक्तिशाली। ब्राह्मण भारत के समुराई नहीं है। वन का प्रत्येक जन्तु मृग का शिकार करना चाहता है, उसे खा जाना चाहता है, और भारत का ब्राह्मण वह मृग है। आज के ब्राह्मण की वह स्थिति है जो कि नाजियों के राज्य में यहूदियों की थी। क्या यह स्थिति स्वीकार्य है? ब्राह्मणों की इस दुर्दशा से किसी को भी सरोकार नहीं, जो राजनीतिक दल हिन्दू समर्थक माने गए हैं, उन्हें भी नहीं;सब ने हम ब्राह्मणों के साथ सिर्फ छलावा ही किया है।
ब्राह्मण सदा से निर्धन वर्ग में रहे हैं! क्या आप ऐसा एक भी उदाहरण दे सकते हैं जब ब्राह्मणों ने पूरे भारत पर शासन किया हो?? शुंग,कण्व ,सातवाहन आदि द्वारा किया गया शासन सभी विजातियों और विधर्मियों को क्यूं कचोटता है? *चाणक्य* ने *चन्द्रगुप्त मौर्य* की सहायता की थी एक अखण्ड भारत की स्थापना करने में। भारत का सम्राट बनने के बाद, चन्द्रगुप्त ,चाणक्य के चरणों में गिर गया और उसने उसे अपना राजगुरु बनकर महलों की सुविधाएँ भोगते हुए, अपने पास बने रहने को कहा। चाणक्य का उत्तर था: ‘मैं तो ब्राह्मण हूँ, मेरा कर्म है शिष्यों को शिक्षा देना और भिक्षा से जीवनयापन करना। क्या आप किसी भी इतिहास अथवा पुराण में धनवान ब्राह्मण का एक भी उदाहरण बता सकते हैं?
श्री कृष्ण की कथा में भी निर्धन ब्राह्मण सुदामा ही प्रसिद्ध है।
संयोगवश, *श्रीकृष्ण* जो कि भारत के सबसे प्रिय आराध्य देव हैं, यादव-वंश के थे, जो कि आजकल *OBC* के अंतर्गत आरक्षित जाति मानी गयी है।
यदि ब्राह्मण वैसे ही घमंडी थे जैसे कि उन्हें बताया जाता है, तो यह कैसे सम्भव है कि उन्होंने अपने से नीची जातियों के व्यक्तियों को भगवान् की उपाधि दी और उनकी अर्चना पूजा की स्वीकृति भी (उस सन्दर्भ में यदि ईश्वर ब्राह्मण की कृति हैं जैसा की कुछ मूर्ख कहते हैं) देवों के देव *महादेव शिव* को पुराणों के अनुसार *किराट जाति* का कहा गया है, जो कि आधुनिक व्यवस्था में *ST* की श्रेणी में पाए जाते हैं
दूसरों का शोषण करने के लिए शक्तिशाली स्थान की, अधिकार-सम्पन्न पदवी की आवश्यकता होती है। जबकि ब्राह्मणों का काम रहा है या तो मन्दिरों में पुजारी का और या धार्मिक कार्य में पुरोहित का और या एक वेतनहीन गुरु(अध्यापक) का। उनके धनार्जन का एकमात्र साधन रहा है भिक्षाटन। क्या ये सब बहुत ऊंची पदवियां हैं? इन स्थानों पर रहते हुए वे कैसे दूसरे वर्गों का शोषण करने में समर्थ हो सकते हैं? एक और शब्द जो हर कथा कहानी की पुस्तक में पाया जाता है वह है – ‘निर्धन ब्राह्मण’ जो कि उनका एक गुण माना गया है। समाज में सबसे माननीय स्थान संन्यासी ब्राह्मणों का था, और उनके जीवनयापन का साधन भिक्षा ही थी। (कुछ विक्षेप अवश्य हो सकते हैं, किंतु हम यहाँ साधारण ब्राह्मण की बात कर रहे हैं।)
ब्राह्मणों से यही अपेक्षा की जाती रही कि वे अपनी जरूरतें कम से कम रखें और अपना जीवन ज्ञान की आराधना में अर्पित करें। इस बारे में एक अमरीकी लेखक *आलविन टाफलर* ने भी कहा है कि ‘हिंदुत्व में निर्धनता को एक शील माना गया है।’
सत्य तो यह है कि शोषण वही कर सकता है जो समृद्ध हो और जिसके पास अधिकार हों अब्राह्मण को पढने से किसी ने नहीं रोका। श्रीकृष्ण यदुवंशी थे, उनकी शिक्षा गुरु संदीपनी के आश्रम में हुई, श्रीराम क्षत्रिय थे उनकी शिक्षा पहले ऋषि वशिष्ठ के यहाँ और फिर ऋषि विश्वामित्र के पास हुई। बल्कि ब्राह्मण का तो काम ही था सबको शिक्षा प्रदान करना। हां यह अवश्य है कि दिन-रात अध्ययन व अभ्यास के कारण, वे सबसे अधिक ज्ञानी माने गए, और ज्ञानी होने के कारण प्रभावशाली और आदरणीय भी। इसके कारण कुछ अन्य वर्ग उनसे जलने लगे, किंतु इसमें भी उनका क्या दोष यदि विद्या केवल ब्राह्मणों की पूंजी रही होती तो वाल्मीकि जी रामायण कैसे लिखते और तिरुवलुवर तिरुकुरल कैसे लिखते?
और अब्राह्मण संतो द्वारा रचित इतना सारा भक्ति-साहित्य कहाँ से आता? जिन ऋषि व्यास ने महाभारत की रचना की वे भी एक मछुआरन माँ के पुत्र थे। इन सब उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि ब्राह्मणों ने कभी भी विद्या देने से मना नहीं किया।
जिनकी शिक्षायें हिन्दू धर्म में सर्वोच्च मानी गयी हैं, उनके नाम और जाति यदि देखी जाए, तो *वशिष्ठ, वाल्मीकि, कृष्ण, राम, बुद्ध, महावीर, कबीरदास, विवेकानंद* आदि, इनमें कोई भी ब्राह्मण नहीं। तो फिर ब्राह्मणों के ज्ञान और विद्या पर एकाधिकार का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता! यह केवल एक झूठी भ्रान्ति है जिसे गलत तत्वों ने अपने फायदे के लिए फैलाया, और इतना फैलाया कि सब इसे सत्य मानने लगे।
जिन दो पुस्तकों में वर्ण(जाति नहीं) व्यवस्था का वर्णन आता है उनमें पहली तो है मनुस्मृति जिसके रचियता थे *मनु* जो कि एक क्षत्रिय थे, और दूसरी है *श्रीमदभगवदगीता* जिसके रचियता थे *व्यास* जो कि निम्न वर्ग की मछुआरन के पुत्र थे। यदि इन दोनों ने ब्राह्मण को उच्च स्थान दिया तो केवल उसके ज्ञान एवं शील के कारण, किसी स्वार्थ के कारण नहीं।
ब्राह्मण तो अहिंसा के लिए प्रसिद्ध हैं।
पुरातन काल में जब कभी भी उन पर कोई विपदा आई, उन्होंने शस्त्र नहीं उठाया, क्षत्रियों से सहायता माँगी।
बेचारे असहाय ब्राह्मणों को अरब आक्रमणकारियों ने काट डाला, उन्हें गोवा में पुर्तगालियों ने cross पर चढ़ा कर मारा, उन्हें अंग्रेज missionary लोगों ने बदनाम किया, और आज अपने ही भाई-बंधु उनके शील और चरित्र पर कीचड उछल रहे हैं। इस सब पर भी क्या कहीं कोई प्रतिक्रिया दिखाई दी, क्या वे लड़े, क्या उन्होंने आन्दोलन किया?
औरंगजेब ने बनारस, गंगाघाट और हरिद्वार में १५०,००० ब्राह्मणों और उनके परिवारों की ह्त्या करवाई, उसने हिन्दू ब्राह्मणों और उनके बच्चों के शीश-मुंडो की इतनी ऊंची मीनार खडी की जो कि दस मील से दिखाई देती थी, उसने उनके जनेयुओं के ढेर लगा कर उनकी आग से अपने हाथ सेके। किसलिए, क्योंकि उन्होंने अपना धर्म छोड़ कर इस्लाम को अपनाने से मना किया। यह सब उसके इतिहास में दर्ज़ है।
क्या ब्राह्मणों ने शस्त्र उठाया? फिर भी ओरंगजेब के वंशज हमें भाई मालूम होते हैं और ब्राह्मण देश के दुश्मन?
यह कैसा तर्क है, कैसा सत्य है?
कोंकण-गोवा में पुर्तगाल के वहशी आक्रमणकारियों ने निर्दयता से लाखों कोंकणी ब्राह्मणों की हत्या कर दी क्योंकि उन्होंने ईसाई धर्म को मानने से इनकार किया। क्या आप एक भी ऐसा उदाहरण दे सकते हो कि किसी कोंकणी ब्राह्मण ने किसी पुर्तगाली की हत्या की? फिर भी पुर्तगाल और अन्य यूरोप के देश हमें सभ्य और अनुकरणीय लगते हैं और ब्राह्मण तुच्छ! यह कैसा सत्य है?
जब पुर्तगाली भारत आये, तब *St. Xavier* ने पुर्तगाल के राजा को पत्र लिखा “यदि ये ब्राह्मण न होते तो सारे स्थानीय जंगलियों को हम आसानी से अपने धर्म में परिवर्तित कर सकते थे।” यानि कि ब्राह्मण ही वे वर्ग थे जो कि धर्म परिवर्तन के मार्ग में बलि चढ़े। जिन्होंने ने अपना धर्म छोड़ने की अपेक्षा मर जाना बेहतर समझा। *St. Xavier* को ब्राह्मणों से असीम घृणा थी, क्योंकि वे उसके रास्ते का काँटा थे,
हजारों की संख्या में गौड़ सारस्वत कोंकणी ब्राह्मण उसके अत्याचारों से तंग हो कर गोवा छोड़ गए, अपना सब कुछ गंवा कर। क्या किसी एक ने भी मुड़ कर वार किया? फिर भी *St. Xavier* के नाम पर आज भारत के हर नगर में स्कूल और कॉलेज है और भारतीय अपने बच्चों को वहां पढ़ाने में गर्व अनुभव करते हैं
इनके अतिरिक्त कई हज़ार सारस्वत ब्राह्मण काश्मीर और गांधार के प्रदेशों में विदेशी आक्रमणकारियों के हाथों मारे गए। आज ये प्रदेश अफगानिस्तान और पाकिस्तान कहलाते हैं, और वहां एक भी सारस्वत ब्राह्मण नहीं बचा है। क्या कोई एक घटना बता सकते हैं कि इन प्रदेशों में किसी ब्राह्मण ने किसी विदेशी की हत्या की? हत्या की छोडिये, क्या कोई भी हिंसा का काम किया?
और आधुनिक समय में भी इस्लामिक आतंकवादियों ने काश्मीर घाटी के मूल निवासी ब्राह्मणों को विवश करके काश्मीर से बाहर निकाल दिया। ५००,००० काश्मीरी पंडित अपना घर छोड़ कर बेघर हो गए, देश के अन्य भागों में शरणार्थी हो गये, और उनमे से ५०,००० तो आज भी जम्मू और दिल्ली के बहुत ही अल्प सुविधायों वाले अवसनीय तम्बुओं में रह रहे हैं। आतंकियों ने अनगनित ब्राह्मण पुरुषों को मार डाला और उनकी स्त्रियों का शील भंग किया। क्या एक भी पंडित ने शस्त्र उठाया, क्या एक भी आतंकवादी की ह्त्या की? फिर भी आज ब्राह्मण शोषण और अत्याचार का पर्याय माना जाता है और मुसलमान आतंकवादी वह भटका हुआ इंसान जिसे क्षमा करना हम अपना धर्म समझते हैं। यह कैसा तर्क है?
माननीय भीमराव अंबेडकर जो कि भारत के संविधान के तथाकथित रचियता (प्रारूप समिति के अध्यक्ष) थे, उन्होंने एक मुसलमान इतिहासकार का सन्दर्भ देकर लिखा है कि धर्म के नशे में पहला काम जो पहले अरब घुसपैठिया मोहम्मद बिन कासिम ने किया, वो था ब्राह्मणों का खतना। “किंतु उनके मना करने पर उसने सत्रह वर्ष से अधिक आयु के सभी को मौत के घाट उतार दिया।” मुग़ल काल के प्रत्येक घुसपैठ, प्रत्येक आक्रमण और प्रत्येक धर्म-परिवर्तन में लाखों की संख्या में धर्म-प्रेमी ब्राह्मण मार दिए गए। क्या आप एक भी ऐसी घटना बता सकते हो जिसमें किसी ब्राह्मण ने किसी दूसरे सम्प्रदाय के लोगों की हत्या की हो?
१९वीं सदी में मेलकोट में दिवाली के दिन टीपू सुलतान की सेना ने चढाई कर दी और वहां के ८०० नागरिकों को मार डाला जो कि अधिकतर मंडयम आयंगर थे। वे सब संस्कृत के उच्च कोटि के विद्वान थे। (आज तक मेलकोट में दिवाली नहीं मनाई जाती।) इस हत्याकाण्ड के कारण यह नगर एक श्मशान बन गया। ये अहिंसावादी ब्राह्मण पूर्ण रूप से शाकाहारी थे, और सात्विक भोजन खाते थे जिसके कारण उनकी वृतियां भी सात्विक थीं और वे किसी के प्रति हिंसा के विषय में सोच भी नहीं सकते थे। उन्होंने तो अपना बचाव तक नहीं किया। फिर भी आज इस देश में टीपू सुलतान की मान्यता है। उसकी वीरता के किस्से कहे-सुने जाते हैं। और उन ब्राह्मणों को कोई स्मरण नहीं करता जो धर्म के कारण मौत के मुंह में चुपचाप चले गए।
अब जानते हैं आज के ब्राह्मणों की स्थिति क्या आप जानते हैं कि बनारस के अधिकाँश रिक्शा वाले ब्राह्मण हैं? क्या आप जानते हैं कि दिल्ली के रेलवे स्टेशन
पर आपको ब्राह्मण कुली का काम करते हुए मिलेंगे?
दिल्ली में पटेलनगर के क्षेत्र में 50 % रिक्शा वाले ब्राह्मण समुदाय के हैं। आंध्र प्रदेश में ७५ % रसोइये और घर की नौकरानियां ब्राह्मण हैं। इसी प्रकार देश के दुसरे भागों में भी ब्राह्मणों की ऐसी ही दुर्गति है, इसमें कोई शंका नहीं। गरीबी-रेखा से नीचे बसर करने वाले ब्राह्मणों का आंकड़ा ६०% है।
हजारों की संख्या में ब्राह्मण युवक अमरीका आदि पाश्चात्य देशों में जाकर बसने लगे हैं क्योंकि उन्हें वहां software engineer या scientist का काम मिल जाता है। सदियों से जिस समुदाय के सदस्य अपनी कुशाग्र बुद्धि के कारण समाज के शिक्षक और शोधकर्ता रहे हैं, उनके लिए आज ये सब कर पाना कोई बड़ी बात नहीं। फिर भारत सरकार को उनके सामर्थ्य की आवश्यकता क्यों नहीं ? क्यों भारत में तीव्र मति की अपेक्षा मंद मति को प्राथमिकता दी जा रही है? और ऐसे में देश का विकास होगा तो कैसे?
कर्नाटक प्रदेश के सरकारी आंकड़ों के अनुसार वहां के
वासियों का आर्थिक चित्रण कुछ ऐसा है: ईसाई भारतीय – १५६२ रू/ वोक्कालिग जन – ९१४ रू/ मुसलमान – ७९४ रू/ पिछड़ी जातियों के जन – ६८० रू/ पिछड़ी जनजातियों के जन – ५७७ रू/ और ब्राह्मण – ५३७ रू। तमिलनाडु में रंगनाथस्वामी मन्दिर के पुजारी का मासिक वेतन ३०० रू और रोज का एक कटोरी चावल है। जबकि उसी मन्दिर के सरकारी कर्मचारियों का वेतन कम से कम २५०० रू है। ये सब ठोस तथ्य हैं लेकिन इन सब तथ्यों के होते हुए, आम आदमी की यही धारणा है कि पुजारी ‘धनवान’ और ‘शोषणकर्ता’ है, क्योंकि देश के बुद्धिजीवी वर्ग ने अनेक वर्षों तक इसी असत्य को अनेक प्रकार से चिल्ला चिल्ला कर सुनाया है।
क्या हमने उन विदेशी घुसपैठियों को क्षमा नहीं
किया जिन्होंने लाखों-करोड़ों हिंदुओं की हत्या की और देश को हर प्रकार से लूटा? जिनके आने से पूर्व भारत संसार का सबसे धनवान देश था और जिनके आने के बाद आज भारत पिछड़ा हुआ third world country कहलाता है। इनके दोष भूलना सम्भव है तो अहिंसावादी, ज्ञानमूर्ति, धर्मधारी ब्राह्मणों को किस बात का दोष लगते हो कब तक उन्हें दोष देते जाओगे?
क्या हम भूल गए कि वे ब्राह्मण समुदाय ही था जिसके कारण हमारे देश का बच्चा बच्चा गुरुकुल में बिना किसी भेदभाव के समान रूप से शिक्षा पाकर एक योग्य नागरिक बनता था? क्या हम भूल गए कि ब्राह्मण ही थे जो ऋषि मुनि कहलाते थे, जिन्होंने विज्ञान को अपनी मुट्ठी में कर रखा था?
भारत के स्वर्णिम युग में ब्राह्मण को यथोचित सम्मान दिया जाता था और उसी से सामाज में व्यवस्था भी ठीक रहती थी। सदा से विश्व भर में जिन जिन क्षेत्रों में भारत का नाम सर्वोपरी रहा है और आज भी है वे सब ब्राह्मणों की ही देन हैं, जैसे कि अध्यात्म, योग, प्राणायाम, आयुर्वेद आदि। यदि ब्राह्मण जरा भी स्वार्थी होते तो यह सब अपने था अपने कुल के लिए ही रखते दुनिया में मुफ्त बांटने की बजाए इन की कीमत वसूलते। वेद-पुराणों के ज्ञान-विज्ञान को अपने मस्तक में धारने वाले व्यक्ति ही ब्राह्मण कहे गए और आज उनके ये सब योगदान भूल कर हम उन्हें दोष देने में लगे है।
जिस ब्राह्मण ने हमें मन्त्र दिया *‘वसुधैव कुटुंबकं’* वह
ब्राह्मण विभाजनवादी कैसे हो सकता है? जिस ब्राह्मण ने कहा *‘लोको सकलो सुखिनो भवन्तु’* वह किसी को दुःख कैसे पहुंचा सकता है? जो केवल अपनी नहीं , केवल परिवार, जाति, प्रांत या देश की नहीं बल्कि सकल जगत की मंगलकामना करने का उपदेश देता है, वह ब्राह्मण स्वार्थी कैसे हो सकता है?
इन सब प्रश्नों को साफ़ मन से, बिना पक्षपात के विचारने की आवश्यकता है, तभी हम सही उत्तर जान पायेंगे।
आज के युग में ब्राह्मण होना एक दुधारी तलवार पर चलने के समान है। यदि ब्राह्मण अयोग्य है और कुछ अच्छा कर नहीं पाता तो लोग कहते हैं कि देखो हम तो पहले ही जानते थे कि इसे इसके पुरखों के कुकर्मों का फल मिल रहा है। यदि कोई सफलता पाता है तो कहते हैं कि इनके तो सभी हमेशा से ऊंची पदवी पर बैठे हैं, इन्हें किसी प्रकार की सहायता की क्या आवश्यकता? अगर किसी ब्राह्मण से कोई अपराध हो जाए फिर तो कहने ही क्या, सब आगे पीछे के सामाजिक पतन का दोष उनके सिर पर मढने का मौका सबको मिल जाता है। कोई श्रीकांत दीक्षित भूख से मर जाता है तो कहते हैं कि बीमारी से मरा। और ब्राह्मण बेचारा इतने दशकों से अपने अपराधों की व्याख्या सुन सुन कर ग्लानि से इतना झुक चूका है कि वह कोई प्रतिक्रिया भी नहीं करता, बस चुपचाप सुनता है और अपने प्रारब्ध को स्वीकार करता है।
बिना दोष के भी दोषी बना घूमता है आज का ब्राह्मण। नेताओं के स्वार्थ, समाज के आरोपों, और देशद्रोही ताकतों के षड्यंत्र का शिकार हो कर रह गया है ब्राह्मण। बहुत से ब्राह्मण अपने पूर्वजों के व्यवसाय को छोड़ चुके हैं आज। बहुत से तो संस्कारों को भी भूल चुके हैं । अतीत से कट चुके हैं किंतु वर्तमान से उनको जोड़ने वाला कोई नहीं। ऐसे में भविष्य से क्या आशा ?

सातवीं सदी से पहले भारत में 500000 से ज्यादा गुरुकुल थे नालंदा और तक्षशिला जैसे आवासीय विश्वविद्यालय थे लगभग 100% साक्षरता और ज्ञान की विशेषज्ञता हासिल थी इन गुरुकुलों का पैसा मंदिरों से आता था पुजारी मंदिरों की सेवा करते और मंदिरों में आए चढ़ावे को एकत्र कर उसे गुरुकुलों में पठन-पाठन व्यवस्था के लिए लगाते थे सातवीं सदी में आक्रांताओं को जब यह बात पता चली की भारतीय सार्वभौमिक संस्कृति का मूल मंदिर और उसके पुजारी मंदिर में चढ़ाया जाने वाला चढ़ावा है, तो सबसे पहले ही मंदिरों को तोड़कर उनके स्थान पर ज्यादातर जगह मस्जिदें खड़ी कर दी गई। अब ऐसे ही लोग भारतीय संस्कृति को तोड़ने के लिए भारत की समृद्ध सांस्कृतिक व्यवस्था को छिन्न भिन्न करना चाहते हैं और इसकी मूल धुरी ब्राह्मणों को विदूषक रूप में तिरोहित  कर इस कार्य को अंजाम दे रहे हैं। इससे अन्ततोगत्वा समाज बंटेगा और भारतीय समृद्ध परम्परा और देश को भारी नुकसान होगा।