जाने केदारखंड के लेखक महेशानन्द नौटियाल को

प्रस्तुति भुवन नौटियाल  कर्णप्रयाग 

पं० महेशानन्द नौटियाल
(जन्म – मार्च 1887 मृत्यु 10 फरवरी 1918)

तल्ली चांदपुर पट्टी के राजतल्गुली रु नौटियालों के मूल गाँव नौटी के पं० देवानन्द नौटियाल पौड़ी में मुहाफ़िज़ थे ,वहीं पर सितम्बर 1870 में उनके सुपुत्र पं० महेशानन्द नौटियाल का जन्म हुआ. चोपड़ा के मिशन हाईस्कूल में पढने के दौरान मार्च 1887 में अचानक पं० महेशानन्द नौटियाल घर से निकल पड़े और पंजाब की ओर चल दिए. आखिर डेढ़ वर्ष तक यत्र तत्र भ्रमण करने के बाद वापस आ गए. वहां पहुँचने पर पिता के जोर देने के कारण इन्होंने पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट ( पी० डब्लू० डी० ) में नौकरी कर ली. लेकिन सन 1900 में नौकरी से त्यागपत्र देकर 30 वर्ष कि आयु में इन्होंने स्वतंत्र व्यापार प्रारंभ किया. इससे पूर्व इनका विवाह नंदप्रयाग के प्रतिष्ठित सेठ बहुगुणा परिवार में हो गया था.

नंदप्रयाग में ही आवास बनाकर इन्होंने देखा कि बद्रीनाथ व केदारनाथ धाम की यात्रा करने वाले तीर्थयात्रियों के लिए हिमालय की शिलाजीत की प्रमुख उपहार के रूप में बिक्री की व्यापक सम्भावना है. उन्होंने शिलाजीत एकत्रित कर , उसे साफ कर , सुन्दर व आकर्षक पैकिंग में बेचना प्रारंभ किया . जिसकी रिकॉर्ड तोड़ बिक्री होने लगी. शिलाजीत के साथ साथ बद्रीनाथ जी चित्र , लॉकेट , माला व सुगन्धित पदार्थों का भी व्यवसाय प्रारंभ किया. व्यवसाय की लोकप्रियता को देखते हुए यात्रा सीजन में 6 माह बद्रीनाथ में भी दुकान प्रारंभ हुई, इस कारण इनकी बिक्री और अधिक बढ़ गयी.

इस व्यापार से भी अधिक महत्वपूर्ण कार्य बद्रीनाथ व उत्तराखण्ड यात्रा सम्बन्धी धार्मिक पुस्तकों का प्रकाशन है. इस उद्देश्य से इन्होने “बद्रीनारायण भक्ति रसामृत कार्यालय” की स्थापना की. शीघ्र ही ये गढ़वाल भर के एक बड़े प्रसिद्ध पुस्तक प्रकाशक बन गए. इनका सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ केदार खण्ड है, इस 1200 पृष्ठों के मोटे ग्रन्थ का इन्होने मूल संस्कृत से सरल हिंदी में अनुवाद कराया और उसे सुन्दरता के साथ प्रकाशित किया. इस ग्रन्थ में केदारखण्ड प्रांत के सब धार्मिक स्थानों देवी देवताओं, नदी नालों, पर्वतों, घाटियों आदि का विवरण और उनका धार्मिक महत्त्व दिया गया है. इस ग्रन्थ से इस प्रदेश के धार्मिक इतिहास पर बहुत प्रकाश पड़ता है .

अपर गढ़वाल (ब्रिटिश गढ़वाल का जनपद चमोली व रुद्रप्रयाग का भू भाग) में नौवीं शताब्दी पूर्व सन 1896 में नागनाथ में प्रथम हिंदी मिडिल स्कूल की स्थापना ने विकास के द्वार खोले. नंदप्रयाग में सन 1903 में पं० महेशानन्द नौटियाल ने अपने ही संसाधनों से अंग्रेजी मिडिल स्कूल की स्थापना की .
केदारखण्ड ग्रन्थ के कारण पं० महेशानन्द नौटियाल को एक धनी महाशय मिल गए, वे किला पदुमा हजारीबाग (बिहार) के महाराज श्री रामनारायण सिंह जूदेव थे. सन 1905 में वे बद्रीनाथ यात्रा के लिए आए. इनकी विद्वता व योग्यता देखकर मुग्ध हो गए, उन्होंने इनके पास लगभग 400 हस्तलिखित पुस्तकों का एक संग्रह भेज दिया और प्रकाशन कार्य में उनकी पूरी आर्थिक सहायता देने का आश्वासन दिया. इसी कारण इन्होंने कुछ पुस्तकों का प्रकाशन भी कराया. 1 मई सन 1908 के अभ्युदय में इन पुस्तकों का संक्षिप्त विवरण भी छपा था . पुस्तकों के अनुवाद के लिए अनेक विद्वान भी नियुक्त हुए. उनमें से राज रहस्य व वृन्द वैद्यक पुस्तकों का हिंदी जगत ने बहुत आदर किया .

सन 1905 में हिमालय चित्र दर्शन नामक पुस्तक भी प्रकाशित की. उसमें श्री कैलाश, श्री बद्रीनाथ आदि मंदिरों, महंतों व रावलों आदि के चित्र व परिचय दिये गए, साथ ही इन्होंने श्री केदारनाथ कल्प , श्री बद्रीनाथ धाम, पथ प्रदर्शिका हिमप्रभा (तीन साइजों में), बद्रीश भजन मुक्तावली पुस्तिकाएँ भी प्रकाशित की. ये सब पुस्तकें इन्होंने श्री वेंकटेश्वर प्रेस बम्बई से छपवाई. इससे प्रेस के स्वामी सेठ खेमराज से इनकी घनिष्ठ मित्रता हो गयी थी और शीतकाल में ये कई महीनों तक उनके पास बम्बई में रहा करते थे. व्यवसाय में बद्रीनाथ व बम्बई की व्यस्तता से अंग्रेजी मिडिल स्कूल की देखरेख में कमी, केन्द्रीय स्थान न होने से विद्यार्थियों की कमी व योग्य शिक्षकों के अभाव के कारण स्कूल लड़खड़ाने लग गयी.

सन 1917 में कांसुवा गाँव के गढ़वाल के राजवंशी थोकदार व तहसीलदार स्व० शिवसिंह कुंवर अचानक नंदप्रयाग पहुंचे, तभी 1916 में इलाहबाद से गढ़केशरी स्व० अनुसूयाप्रसाद बहुगुणा भी वकालत की पढाई कर नन्दप्रयाग पहुँच गये थे. स्व० कुंवर जी स्व० गढ़केशरी जी को साथ लेकर स्व० महेशानन्द नौटियाल के पास गए, उन्होंने मिडिल स्कूल को कर्णप्रयाग शिफ्ट करने का प्रस्ताव किया. जिसे स्वीकार कर तीनों महानुभाव पौड़ी गए, जहाँ नागकोट गाँव के स्व० घनश्याम डिप्टी कमिश्नर के कार्यालय में क्लर्क पद पर कार्यरत थे को मिले और उन्हें नौकरी छोड़कर कर्णप्रयाग स्कूल में प्रधानाध्यापक के पद पर कार्य करने के लिए तैयार किया. इस कार्य में डी० सी० जोसेफ क्ले ने भी मदद की. 15 जुलाई 1917 को नंदप्रयाग का अंग्रेजी मिडिल स्कूल कर्णप्रयाग में प्राइवेट के रूप में स्थापित हुआ. स्कूल प्रबंध समिति के अध्यक्ष स्व० शिवसिंह कुंवर और मंत्री स्व० महेशानन्द नौटियाल बने.

प्राइवेट स्कूल कि मान्यता के लिए कर्णप्रयाग में भूमि व भवन की भारी शर्त प्रबंध समिति के सामने खड़ी थी. गढ़वाल के राजवंशी राजकुंवर स्व० शिवसिंह कुंवर और राजगुरु स्व० पं० महेशानन्द नौटियाल ने इस शर्त को पूरा करने के लिए पहले भूमि की व्यवस्था की और फिर राजा व राजगुरु की यह जोड़ी भवन निर्माण के लिए चंदा इकठ्ठा करने निकल पड़ी.पौड़ी से लेकर बद्रीनाथ तक गाँव , चट्टी, चोटी, घाटी, पैदल, डंडी और घोड़े में चल पड़े. इस कार्य में मान , अपमान और भूखे प्यासे रहकर रात दिन उन्हें काम करना पड़ा. आखिरकार बीमार होकर 10 फरवरी 1918 को स्व० महेशानन्द नौटियाल ने दम तोड़ दिया. बीमारी की हालत उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा, मृत्यु के लिए अपने पितृ भूमि नौटी जाने की बताई . उन्हें डंडी में नौटी ले जाया गया. उनकी मृत्यु के बाद चंदे से सन 1918 में स्कूल भवन का निर्माण तो हुआ लेकिन इस दौड़ धूप में स्व० शिवसिंह कुंवर भी बीमार रहने लगे और उनकी भी आकस्मिक मृत्यु सन 1920 में हो गयी. इस प्रकार विद्यालय में सुविधाओं के सृजन में दोनों विभूतियों ने अपना बलिदान दे दिया. उनके इस बलिदान को सदैव याद किया जाता रहेगा .

स्व० महेशानन्द नौटियाल के 3 पुत्र थे . स्व० गोविन्द प्रसाद नौटियाल, स्व० कन्हैयालाल नौटियाल तथा स्व० रमेश चन्द्र नौटियाल. स्व० गोविन्द प्रसाद नौटियाल अपने पिता की मृत्यु के बाद 16 वर्ष की आयु में देहरादून स्कूल छोड़कर उनके आदर्शों पर आगे चले. उन्होंने प्रकाशक, व्यवसायी, समाजसेवी , लेखक, पत्रकार व उत्तर भारत के प्रख्यात अंग्रेजी अखबारों के संवाददाता एवं गौचर मेले के संस्थापक के रूप में ख्याति अर्जित की. स्व० शिवसिंह कुंवर व गढ़केशरी स्व० अन्सुयाप्रसाद बहुगुणा के साथ कर्णप्रयाग स्कूल की प्रबंध समिति में शामिल होकर हाईस्कूल व इंटर स्थापना के आन्दोलन तक सक्रियता के साथ दोनों विभूतियों के जीवन काल के बाद भी सक्रिय रहे.

19वीं सदी के प्रारंभ में संयुक्त प्रान्त में शिक्षा के लिए जागरण व संघर्ष का इतिहास कमोबेश काशी व कर्णप्रयाग क्षेत्र में लगभग साथ साथ चला. यह भी संयोग है कि, 1896 जहाँ नागनाथ में तथा 1925 में थराली में हिंदी मिडिल प्रारंभ हुई, वहीँ 1903 में नंदप्रयाग में अंग्रेजी मिडिल का शुभारम्भ हुआ. 1904 में पं० मदन मोहन मालवीय ने पहली बार बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय के लिए अलख जगाई. सन 1916 में सेंट्रल हिन्दू कॉलेज ने बनारस वि०वि० का स्वरुप ग्रहण किया. सन 1918 में पहला बैच भी निकला. वहीँ कर्णप्रयाग में 1917 में अंग्रेजी मिडिल स्कूल खुला. 1918 में इसे वार मेमोरियल एंग्लो वर्नाक्युलर मिडिल स्कूल का स्वरुप प्रदान किया गया . प्रथम विश्व युद्ध में प्रथम भारतीय विक्टोरिया क्रॉस विजेता नायक दरबान सिंह नेगी ने इस विद्यालय को किंग जॉर्ज पंचम से सरकारी बनवाया. किंग जॉर्ज पंचम के निर्देश पर ऐतिहासिकता प्रदान करने डिप्टी कमिश्नर क्ले स्वयं कर्णप्रयाग पहुंचे.

काशी और कर्णप्रयाग में मदन मोहन मालवीय जी और शिवसिंह कुंवर जी ने मान, अपमान को सहते हुए चंदा इकठ्ठा कर शिक्षा के मंदिर बनवाये. आज काशी के सांसद और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी जहाँ प्रथम विश्व युद्ध के शताब्दी समारोह में फ्रांस में जाकर विक्टोरिया क्रॉस दरबान सिंह नेगी को उनकी कर्मभूमि व स्मारक पर श्रद्धासुमन सन 2015 में चढ़ाते हैं. वहीँ दुनिया के संभवतया प्रथम वार मेमोरियल (रा० इं० का० कर्णप्रयाग) के शताब्दी समारोह 26 से 29 अक्टूबर 2018 में भारत के प्रधानमंत्री से वी० सी० साहब की जन्मभूमि कर्णप्रयाग पहुंचकर श्रद्धांजलि देने का प्रस्ताव शताब्दी समारोह समिति द्वारा किया गया है. साथ ही यह भी निवेदन किया गया है कि इस अंतर राष्ट्रीय समारोह की ऐतिहासिकता को देखते हुए भारत सरकार इंग्लैंड और फ्रांस की सरकारों को भी आमंत्रित करने पर विचार करे. राज्य व केंद्र की सरकार भव्य रूप से समारोह आयोजित कराएगी . ऐसा विश्वास शताब्दी समारोह समिति को है.

विश्वास हो भी क्यों न , जब कर्णप्रयाग के सांसद मेजर जनरल से० नि० भुवन चन्द्र खंडूरी स्वयं फौजी हैं और रक्षा सलाहकार समिति के अध्यक्ष हैं. इसी क्षेत्र से थल सेनाध्यक्ष जनरल विपिन रावत एवं राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार श्री अजित डोभाल भी हैं, ऐसे में कोई कारण नहीं कि वार मेमोरियल के इस ऐतिहासिक शताब्दी समारोह में वी० सी० साहब की स्मृति में ऐसा संस्थान खुलेगा जो आगामी शताब्दी तक याद किया जाता रहेगा .

(स्त्रोत- भक्त दर्शन जी की पुस्तक गढ़वाल की दिवंगत विभूतियां और स्व0 देवराम नौटियाल के लेख)