हनुमान जैसे आलौकिक पुरुष को वानर किसने बताया

किसी भी देश की समुन्नति और विकास में उसके गौरवपूर्ण अतीत का, उसके महिमामय इतिहास और साहित्य का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान रहता है| इस तथ्य को जानकर ही चतुर अंग्रेजों ने हमारे महान राष्ट्र के प्रेरक और गर्वयोग्य इतिहास और साहित्य को योजनाबद्ध षड़यंत्र के अधीन विकृत करने का दुष्ट प्रयास किया था| परन्तु वे ऐसा कर सके, इसका अवसर उन्हें किसने दिया| हमने, क्योंकि अपने ऐतिहासिक व्यक्तित्वों को अवतार की चादर ओढ़ाकर और उसे काव्यगत अलंकारों की परतों में ढककर रामायण-महाभारत जैसे ऐतिहासिक ग्रंथों को कोरे पूजा पाठ की वस्तु बनाने और चमत्कारवाद का सहारा लेकर इनमें मनमानी मिलावटें करने का पाप हमने ही किया|

हीरो वर्शिप का भाव प्रत्येक जाति में होता है और जाति-उत्थान एवं राष्ट्रोन्नयन के लिए यह आवश्यक भी है| पर जब इसे भी ‘अति’ की ओऱ ले जाय जाता है तो उन वीरों की पूजा अर्थात उनके चरित्र का अनुशीलन करने, उनके पवित्र जीवन से प्रेरणा और प्रकाश लेने के स्थान पर, उनके चित्रों की पूजा चल पड़ती है; चरित्र पूजा चित्र पूजा में बदल जाती है| और इन चित्रों में भी काव्यगत अलंकारिक वर्णनों को सत्य घटनाओं के रूप में चित्रित करके अंधश्रद्धा का जो दौर चलता है, उससे जाति जीवन को स्फूर्ति मिलने के स्थान पर वह अतल तह में समा जाती है| ये याद रखना चाहिए कि सत्य आधारित श्रद्धा जितनी ही कल्याणकारिणी है, अंधश्रद्धा उतनी ही महानाशकारी|

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डाक्टर हेडगेवार का एक कथन यहाँ उद्धृत करना बड़ा समीचीन होगा| उनके शब्दों में, “जहाँ कहीं भी कर्त्तव्यशाली या विचारवान व्यक्ति उत्पन्न हुआ कि बस हम उसे अवतार की श्रेणी में धकेल देते हैं। महान विभूति को देखने भर की देन है कि रख दिया उसे देवालय में, जहाँ उसकी पूजा तो बड़े मनोभाव से की जाती है किन्तु उसके गुणों के अनुसरण का नाम तक नहीं लिया जाता|। 

हमें ये याद रखना होगा कि जिस राम नाम की ऐसी महिमा हमारे समाज में है, जिस रामराज्य का ऐसा प्रताप है और जिस चरित्र की ऐसी गरिमा है कि नाम लेने भर से भवसागर पार हो जायेगा मानव; उसके मूल में है महावीर हनुमान का अखंड ब्रह्मचर्य, अपूर्व तप और तितिक्षा, अनुपम शौर्य, अपार साहस, अद्भुत राजनीतिमत्ता और इन सबसे ऊपर निरभिमानिता और सेवा साधना की अभूतपूर्व कहानी से युक्त पवित्र चरित्र| पर हिन्दू समाज के रूप में हमने हनुमान को क्या माना| हनुमान को वानर कहा गया और वानर का अर्थ निकाला गया बन्दर और फिर हनुमान उस जगह पहुंचा दिए गए जहाँ वो ललमुँहों और कलमुँहों के साथ ऐसे एसोसिएट किये गए कि कोई बन्दर देखते ही उसे हनुमान कह कर सम्बोधित किया जाने लगा| क्या छवि बनायी हमने उनकी–एक बन्दर, जिसके पूँछ है, बन्दरों की तरह का फूला हुआ मुँह है, जो अशोक वाटिका में अपने बन्दर स्वभाव के कारण फल खाता कम है पर उजाड़ता ज्यादा है और जो नाखूनों और दाँतों से लड़ने वाले उजड्ड बंदरों का सरदार है|

घोरतम अन्याय हमने हनुमान के साथ तो किया ही किया, स्वयं के साथ भी किया| अखंड ब्रह्मचर्यव्रती, त्याग-तपस्या के मूर्तिमान प्रतीक, पाप-ताप-लंका प्रज्वालक, चारों वेदों के प्रकांड पंडित, अद्वितीय नीतिमान, अपूर्व शौर्य और साहस के धनी, महर्षि अगस्त्य के आदर्श शिष्य, भगवान राम के आदर्श मित्र और सेवक, माता अंजना और पिता पवन के आदर्श पुत्र, रामराज्य के संस्थापक और अमर वैदिक संस्कृति के केतुवाहक महावीर हनुमान जैसे राष्ट्रपुरुष और उनके साथियों को बन्दर-रीछ बताना उनके प्रति अन्याय नहीं है तो क्या है और अपने तो पैरों पर कुल्हाड़ी मारना ही है|

अब आते हैं हनुमान के वानर होने पर और आर्यसमाजियों द्वारा उन्हें वानर से मानव बनाने की कथित कुंठाओं पर| दो बातें यहाँ पर स्पष्ट करना जरुरी है कि आर्यसमाज भी उन्हें वानर ही मानता है पर वानर को मानव नहीं बनाना चाहता बल्कि वानर को मानव समुदाय का एक वंश मानता है, देव-आर्य-असुरों की भाँति; पौराणिकों की भाँति बन्दर नहीं| आर्य समाज उन्हें बन्दर क्यों नहीं मानता?

तो क्या वो व्यक्ति बन्दर था—
1. जिसके प्रतापी सम्राट बाली ने महाबलशाली रावण तक को छः माह तक अपनी कैद में रखा था और बाद में जिससे मित्रता कर और जिसकी सहायता से देव राज्य के कोषाध्यक्ष कुबेर को कैदी बनाकर उसका पुष्पक विमान छीन लिया था|

2. जिसके जन्म से पूर्व उसके पिता और माता ने अपने विवाह के बाद भी बारह वर्षों के अखंड ब्रह्मचर्य पालन का तप किया, जैसा कि आर्य शिरोमणि योगेश्वर श्रीकृष्ण और उनकी सहधर्मिणी रुक्मिणी ने किया था|

3. जिसके पिता की शिक्षा दीक्षा, उनका विवाह और जिसकी स्वयं की पूरी शिक्षा दीक्षा ऋषि शिरोमणि अगस्त्य मुनि के द्वारा हुयी थी|

4. जिसे महावीर कहा गया, केवल उसकी वीरता के लिए नहीं, उसकी अखंड ब्रह्मचर्य आराधना के लिए| भर्तृहरि ने कहा है कि-
मत्तेभ कुम्भदलने, भुवि सन्ति शूराः|
केचित प्रचंड मृगराज वधेSपि दक्षाः||
किन्तु ब्रवीमि, बलिनाम पुरतः ब्रसह्य|
कंदर्प दर्प दलने, विरला मनुष्याः||

5. जिसकी स्वयं की माता अंजना और जिसके वानर वंश की तारा, रोमा जैसी अन्य स्त्रीलिंगी महिलाएं ही थीं, बंदरियां नहीं|

6. जिसने राष्ट्रहित में बाली जैसे शक्तिशाली और संपन्न परन्तु क्रूर और रावण के मित्र शासक का साथ देने के स्थान पर असहाय और विपन्न सुग्रीव का साथ देना स्वीकार किया|

7. जिसने राम के किष्किंधा पहुँचने पर सुग्रीव के भय को देखते हुए ब्राह्मण वेश धारण कर राम से उनके आने का प्रयोजन पूछा|

8. जिसकी प्रशंसा करते हुए बाल्मीकि रामायण के किष्किंधा काण्ड सर्ग 3 में राम अपने अनुज लक्ष्मण से कहते हैं-
नाऋग्वेद विनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः|
नासामवेदविदुषः शक्यमेव विभाषितुम||
ननं व्याकरणं कत्स्मनेन बहुधा श्रतम|
बहुव्याहरतानेनन न किंचदपशब्दितम||
न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे च भ्रु वोस्तथा|
अन्येष्वपि च गात्रेषु दोषःसंविदतीःक्वचित||
संस्कारक्रमसम्पन्ना मदभुतामाविलम्बिताम|
उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयहर्षिणीम||
एवंविधो यस्य दूतो न भवेत् पार्थिवस्य तु|
सिद्धयन्ति हि कथंतस्य कार्याणां गतयोSनघ||

9. जिसके वेद वेदांग के ज्ञान से राम तक प्रभावित होते हैं और जो उन पर भी अपने संस्कारों-शील-सौंदर्य का प्रभाव डाल पाने में सक्षम होता है|

10. जो राम और सुग्रीव के मैत्री धर्म में दीक्षित होने के अवसर पर सर्व सम्मति से यज्ञ पुरोहित का आसन ग्रहण कर सारे संस्कार करवाता है|

11. जिसकी प्रेरणा से एक और कथित बन्दर सुग्रीव राम को धर्मोपदेश करता है कि
व्यसने वार्थकृच्छे वा भये वा जीवितान्तके|
विमृशन वैस्यवा बुद्ध्या धृतिमान्नावसीदति||
ये शोक मनुवर्तन्ते न तेषां विद्यते सुखम|
तेजश्च क्षीयन्ते तेषां न त्वम् शोचितु मर्हसि||

12. जिसको एक अन्य कथित बन्दर सुग्रीव के राज्याभिषेक के लिए राम कहते हैं कि चूँकि मैं 14 वर्ष तक किसी नगर में प्रवेश नहीं कर सकता इसलिए तुम्हीं राजविधि से सुग्रीव को तिलक दे दो|

13. जो सुग्रीव के भोगविलास में लिप्त होकर रामकाज को भूल जाने पर सुग्रीव को नीतियुक्त वचनों से प्रेरित करता है और स्वयं के मंत्रिपद पर होने की सार्थकता को सिद्ध करता है|

14. जिसकी कार्यकुशलता पर पर सुग्रीव को इतना विश्वास है कि वो कहते हैं कि तुम नीतिशास्त्र के पंडित हो; बल. बुद्धि, पराक्रम, देशकाल का अनुसरण और नीतिपूर्ण बर्ताव-ये सब एक साथ तुम में पाए जाते हैं| (किष्किंधा काण्ड 44|3-7)

15. जिसके बारे में स्वयं पुरुषश्रेष्ठ राम कहते हैं कि सीता के खोजने के कार्य में केवल तुम ही समर्थ हो| मैं तुम्हारा समस्त पराक्रम भलीभांति जानता हूँ| अच्छा जाओ, तुम्हारा मार्ग कल्याणकारक हो|

16. जिसके बल, बुद्धि, तेज, पराक्रम, विद्या और वीरता का ऐसा वर्णन जाम्बवान ने किया है जिसके आगे संसार के एक से एक श्रेष्ठ पुरुषों के वर्णन भी तुच्छ प्रतीत होते हैं| (किष्किंधा काण्ड 66|2-7)

17. जो लंका में सीता जी को ढूंढते हुए जब स्त्रियों के कक्षों में जाता है तो यह विचार करने लग जाता है कि यद्यपि मेरी दृष्टि परस्त्री विषय में दूषित नहीं, तथापि आज मैंने स्त्रियों को ऐसी दशा में अवश्य देखा है, जिसका देखना शास्त्र में निषिद्ध है| परन्तु चूँकि मन ही शुभ-अशुभ कर्मों में प्रवृत्त कराने वाला है और मेरा मन मेरे नियंत्रण में है, इसलिए मुझे सीता को तब तक ढूँढना चाहिए, जब तक वह मुझे मिल नहीं जातीं|

18. जो अशोक वाटिका में सीता को राम का समाचार सुनाने के पहले यह विचार करता है कि यदि मैं संस्कृत में बोलूं यह मुझे रावण समझ लेंगी और अपनी मातृभाषा में बोलूं तो समझेंगी नहीं अर्थात जो कई भाषाओँ का विद्वान् प्रतीत होता है|

19. जो अशोक वाटिका को उजाड़ बनाने के बाद उसे पकड़ने आये मेघनाथ के आने पर सोचता है कि पकडे जाना ही श्रेयस्कर है क्योंकि इसी बहाने रावण से भी संवाद हो जाएगा जिससे उसकी रीति-नीति का स्पष्ट पता चल जाएगा|

20. जो महाशक्तिशाली रावण की सभा में उसके ही लोगों से घिरे होने के बाबजूद रावण को ना केवल नीति, धर्म-अधर्म का उपदेश देता है बल्कि उसके विनाश की चेतावनी देते हुए रावण की मृत्यु तक को अवश्यम्भावी बता देता है| (किष्किंधा काण्ड 51)

21. जो लंका दहन के पश्चात क्रोध का आवेग कम हो जाने पर आत्मनिंदा करते हुए सोचता है कि क्योंकर वो ये कृत्य करते समय सीता की सुरक्षा की बात भूल गया| (किष्किंधा काण्ड 55)

22. जिसे राम लंका का पूरा वृत्तांत सुनने के बाद प्रसन्न होकर पुरुषोत्तम कह कर सम्बोधित करते हैं| एक बन्दर के लिए पुरुषों में उत्तम का विशेषण !
यो हि भृत्यो नियुक्तः सन भर्भा कर्मणि दुष्करे|
कुर्यात तदनुरागेण तमाहुः पुरुषोत्तमम||

23. जिसके साथियों में नल और नील जैसे महाकुशल अभियंता शामिल थे और जिन्होनें महासागर पर पुल बनाने जैसा कार्य संपन्न कर दिखाया|

24. जिसके लिए जाम्बवान विभीषण से कहते हैं कि सुनो, सुग्रीव-राम-लक्ष्मण के स्थान पर मैं हनुमान की कुशलता के लिए इसलिए पूछ रहा हूँ कि यदि वह जीवित हों तो मेघनाथ के ब्रह्मास्त्र के प्रयोग से मरी हुयी यह सेना भी जी सकती है और यदि उनके प्राण निकल गए हैं तो हम जीते हुए भी मृतक तुल्य हैं|

25. जो मेघनाथ की मार से अपनी सेना को बचाकर अत्यंत उन्नत रणकौशल का परिचय देते हुए सारी सेना को सुरक्षित निकाल लेता है|

26. जो बार बार राम लक्ष्मण जैसे आर्य श्रेष्ठों की किसी भी विपरीत परिस्थिति से रक्षा करता है|

27. जिसे लंका विजय के पश्चात राम जानकी को यह समाचार देने और उनको लिवा लाने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त व्यक्ति समझ कर भेजते हैं|

28. जिसे राम अयोध्या लौटते हुए आगे जाकर भरत एवं अन्य अयोध्यावासियों को उनके आने की सूचना देने एवं अन्य आवश्यक प्रबंध के लिए भेजते हैं|

29. जो राम का सर्वाधिक प्रिय एवं राम दरबार का एक अभिन्न पात्र है|

सच तो ये है वानर को बन्दर बनाकर हमने अपने एक महान पूर्वज का जितना अपमान किया है, ऐसा इतिहास में दूसरा उदाहरण कहीं ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा| महर्षि दयानन्द के अनुयायी वानर को बन्दर नहीं बनाते, ना ही वे वानर को मानव बनाते हैं; वे तो हनुमान को वानरवंशी मानव ही मानते हैं, जो अपने सत्कार्यों से मानव से महामानव बने और फिर देवत्व की ऊंचाइयों तक जा पहुंचे और इस तरह से जन जन के आराध्य बन गए कि उनका नाम भी प्रेरणा का श्रोत बन गया| महानता किसी देवता के वानर या मानव बनने में नहीं, बल्कि वानरत्व या मनुष्यत्व से देवत्व पाने में है और इसीलिए हनुमान पूज्य है, आराध्य हैं, प्रेरणाश्रोत हैं और जन जन के नायक हैं| उनके जैसे आदर्श महामानव ही किसी राष्ट्र एवं संस्कृति के गौरव हैं|

यहाँ श्यामनारायण पांडेय की कविता ‘रामदूत को प्रणाम’ के आरंभिक अंश को उद्धृत करने का लोभसंवरण मैं नहीं कर पा रहा हूँ–
प्रगति, पराक्रम और पौरुष के प्रचंड रूप
विद्या के, कला के मूर्त मूर्तिमान ब्रह्मचर्य
धर्मशील, न्यायशील, शौर्यशील, दौत्य कर्म-मर्म-शील
संस्कृत के
संस्कृति के
ह्रस्व दीर्घ झंकृति के
भीतिहीन हुंकृति के
दीप्तिमान देवता
वायुपुत्र को प्रणाम
रामदूत को प्रणाम
आंजनेय को प्रणाम (एस. सी नौटियाल)