कहां वो गांव का अल्हड़ बचपन, कहां ये शहर की उम्र पचपन ?

 

*कुछ यूँही जो यादों में है*

हम देहाती बच्चे थे ।प्राथमिक स्कूल की शुरुवात घर से ही तख्ती (पाटी) लेकर स्कूल जाना स्लेट को थूक, जीभ से चाटकर या हाथ से अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी ।बांस की पतली कलम से सफ़ेद मिटटी को पानी में घोल कर कलम से उसका इस्तेमाल स्याही की तरह करते थे ।
तख्ती को पोतना,दवात के तलवे से घोटा लगाना, अगले दिन की तैयारी होती थी तख्ती को एक विशेस घास (कुणजू, कंदूरी के पत्ते इत्यादि) से बड़ी तन्मयता से घोटा जाता था। और कभी हफ्ते में उल्टे तवे की कालिख को तख्ती (पाठी) पर लगाकर, इसी कालिख में हमारे हाथ, गाल, नाक आदि भी रंगीन हो जाया करते थे, पर लगन इतनी कि बाद में तख्ती विशेष चमक हमारे चेहरों पर भी एक खास चमक ले आती थी, मानो हम अब पूरी तरह से तैयार है। किताबी ज्ञान के अतिरिक्त, हाथ की लिखावट का भी अपना एक महत्व था।
पांचवी तक आते आते, तख्ती का स्थान कॉपियों ने, कलम का स्थान आधुनिक(होल्डर) ने एवम् मिटटी की स्याही का स्थान भी रासायनिक आधुनिक नीली स्याही ने ले लिया था ।
लेकिन निब वाले पैन अथवा बॉलपैन से अभी भी कोशो दूर थे। बल्कि बॉल पैन का उपयोग करना गुरुजनों की दृष्टि में जघन्य अपराध था, इसका अपराध बोध वे समय समय पर हमें करवाते रहते भी थे।

मास्टरजी की लिए चाय बनाना या उनका निजी काम करना, अपने आप में सर्वश्रेस्ठ कार्य माना जाता था, सर्वश्रेस्ठ विधार्थी का तमगा जो मिल जाता था। इसके लिए किसी लिखित सर्टिफिकेट की आवस्यकता भी नहीं थी, मास्टर जी के बोल ही आवश्यक थे।

अक्सर स्कूल में टाट पट्टी की अनुपलब्धता में, घर से बेकार कपडा या बोरी का कट्टा बैठने के लिए बगल में दबा कर भी ले जातें थे। आसमानी नीली और खाकी पेंट में जब पहली दफा बड़े स्कूल में कदम रखा तो बड़े होने के अहसास के साथ-साथ एक घूढ़ अनजान डर भी था। जो करीब कुछ महीनों तक रहता ।

कक्षा छः में पहली दफा हमनें अंग्रेजी का कायदा पढ़ा और पहली बार A, B,C, D भी देखी। कैपिटल लैटर तो ठीक थे किंतु स्मॉल लेटर में बढ़िया एफ या जे बनाना हमें बाद तक भी न आया था। करसीव राइटिंग तो आज तक न सीख पाए । और अंग्रेजी से मुक्ति की अभिलाषा तो यूँ थी मानों आज़ादी के मतवालों की अंग्रेजों से मुक्ति पाने की हो। पर बीच बीच मे अंग्रेजी के गुरुजी किसी जनरल डायर की तरह अत्यचार करके हमारी अंग्रेजी से मुक्ति की अभिलाषा का दमन कर ही देते थे।

हम देहाती बच्चों की अपनी एक अलग ही मस्त दुनिया थी। कूड़े के ढेर पर बैठने में भी गुरेज नहीं। किसीी चीज का अभाव खटकता नहीं था जो मिला उसी में खुश रहने का कौतूहल। 
स्वयं से सिले कपड़े के बस्ते (bag) में किताब और कापियां लगाने का हमारा विन्यास अधिकतम रचनात्मक कौशल की श्रेणी में आता था, इतना कि विद्यार्थियों के बीच चर्चा का विषय भी होता।
नई क्लास के लिए किताबो का स्वयं से प्रबंध अपने सीनियर भाई बहनो एवम् जान पहचान से करना, अपने आप में महभारत की कूटनीति (Diplomacy) होती थी। हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते तब उन पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का स्थाई उत्सव होता था। और गर्मियों की छुटियों में पुरानी किताबो की उपलब्धता के लिए पूरे महीने चर्चा करते थे, फटी हुई पुरानी किताबों को गेंहूँ के आटे को घोलकर बनाई गई लोई (gum) से चिपकाते और उस पर सुंदर लेखन से अपना नाम लिखने में जो आनंद प्राप्त होता आज किसी अन्य कार्य से प्राप्त सुख से तोला नहीं जा सकता।

गाँव से रोज़ सुबह कतार बना कर चलना,दूर दाराज के बच्चो को पगडंडियों में एक टेढ़ी-मेढ़ी रेखा में चलते देखना और प्रार्थना से पहले स्कूल पहुंचना,अपने आप में एक सुखद, कसमकस और अधिकतम प्रतिस्पर्धा थी।
स्कूल में पिटते, मुर्गा बनतें मगर हमारा अहम (Ego) हमें कभी परेशान न करता था, हम देहात के बच्चे शायद तब तक जानते भी नही थे कि ego होता क्या है।

क्लास की पिटाई का रंज और गम अगले ही घंटे में काफूर हो जाता था और हम फिर से अपनी पूरी खिलदण्डिता से हंसते और खेलते पाए जाते। आज बच्चो को डांट देने मात्र से कैसे बच्चे मानसिक दबाव में आ जाते होंगे, इसका अंदाज़ लगाना एक देहाती के लिए थोड़ा मुश्किल होगा।

रोज़ सुबह प्रार्थना के समय पी०टी० (फिजिकल ट्रेनिंग) के दौरान एक हाथ फांसला लेना मगर फिर भी धक्का मुक्की में अड़ते भिड़ते,सावधान-विश्राम करते रहना भी अपने आप मे एक कला थी।
स्कूल हाफ टाइम में सब अपने अपने रुचिनुसार आनंदित होते कोई खेलते हुए ,कोई गप्पे मारते एवम् अगले घंटे के विषय एवम् टीचर पर चर्चा करते हुए, कुछ लोकल मार्किट में चाय या पाकीजा (एक बिस्किट विशेष ब्रांड) खाते या कुछ दबंगई आसपास किसी दरख़्त या झाड़ी के पीछे बीड़ी का सुट्टा  या तम्बाकू (प्रिंस गुटखा या हाथीगोला खैनी) का आदानप्रदान करते करते थे।

छुट्टी की घंटी बजती ही मानो थके हारे शरीर में 400 वोल्ट का करंट कुलाचे मारता था और चेहरे पे एक अनुपम लालिमा आ जाती थी । घर की तरफ बढ़ने की गति सुबह की आने की गति से कई गुना बढ़ जाती थी। घर जाके घर के बासी खाने में या अल्प खाने में वो स्वाद और तृप्तत्ता आती जो आज तक कोई 5 स्टार होटल नहीं दे पाया ।

कमाल का बचपन था वो । गाव में नदी/गदेरो/पोखरों में जमे पानी में 20-25 बच्चे एक साथ नहाते दिन में कई बार बड़ी बड़ी चट्टानों और रेत में धुप लेना पसीना से सराबोर होके फिर से डुबकी मारना यह सतत प्रक्रिया पूरे दिन चलती रहती।
लेकिन, मजे की बात यह थी कि हमें कभी एलर्जी या अन्य तबियत ख़राब नही होती थी। कमाल का देहाती शरीर था साहब ! डॉक्टर तो शायद वर्षो में दिखते थे और वो भी देहाती ही होते थे ।

पिड्डू, गुच्छी या अंटी कंचे खेलना लड़कियों का एक बहुत प्रमुख खेल ईची-दुची जिसमे जमीन पर लाइन खीचकर एक गोल पत्थर को एक पैर से लात मारकर हर खाने में बिना लाइन को छुए आगे बढ़ाना होता था, एक सांस मे बित्ती-बित्ती,बित्ती-बित्ती-बिता बोलना और अंतिम step में आँख बंद करके आगे बढकर अलमा रैट (जिसका वास्तविक अर्थ होता था am I right) बोलकर साथी से जमीन पर बनी रेखाओं से बचकर निकलने की दिशा लेना होता था।
खेल भी ऐसे जिनमे बिना अंपायर के बत्ती कसम/विद्या कसम के सत्यापन से ही खेल की हार जीत का निर्णय हो जाता था। और अब एक ये शहर की उम्र पचपन। न वो बच्चे न बचपन।