जाने कहां से थी ऋषिपुत्री शकुंतला

 

राकेश पुंडीर,  मुंबई

क्या ऋषिपुत्री शकुंतला कोटद्वार गढ़वाल  उत्तराखंड से थी ? जिनके पुत्र भरत के नाम से हमारे देश का नाम  “भारत” पड़ा ? मित्रों !  किसीने मुझे FB  मैसेंजर में पूछा की  पुंडीर जी क्या हमारे भारत देश के नाम का ” गढ़वाल के कोटद्वार  क्षेत्र से कुछ संबंध  है ? जिसका उत्तर  विस्तार से इस प्रकार है …..
परन्तु इसके लिए आदिकालीन एतिहासिक पृष्ठभूमि को विस्तार से जानना आवश्यक है ….
सतयुग की बात है, एक बार महान प्रतापी राजा त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग जाने की उत्कट इच्छा हुई। उन्होंने अपनी इच्छा देवराज इंद्र को प्रकट की किन्तु देवराज ने यह कहते हुए निषिद्ध कर दिया की यह प्रकृति के नियमो के विरुध है मृत्यु पश्चत ही स्वर्ग में पहुंचा जा सकता है उनके अनुनय विनय पर भी देवराज टस से मस नही हुए। फलस्वरूप उन्होंने अपने कुलहितैषी महाऋषि  विश्वामित्र को उनके तपबल से सशरीर स्वर्ग जाने की उत्कट इच्छा प्रकट की। काफी अनुनय विनय के पश्चात ऋषि विस्वमित्र मान गए और उन्होंने अपने तपोबल से त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग में भेज दिया लेकिन मध्याकाश में ही इंद्र ने त्रिशंकु को नीचे पृथ्वीलोक की ओर धकेल दिया। ऋषि विस्वमित्र के तपोबल से राजा नीचे धरती पर नही गिरे और आकाश में ही अटक गए।
ऋषि विस्वमित्र ने इसे अपनी प्रतिष्ठिता का प्रशन मानते हुए पर एक और स्वर्ग के निर्माण की ठान ली और एक दूसरा स्वर्ग निर्माण हेतु घोर तप में लींन हो गए. इंद्र को भय हुआ की दूसरे स्वर्ग निर्माण के कारण उसकी महत्ता कम हो जायेगी … इंद्र ने स्वर्ग लोक की अप्सरा मेनका को ऋषि विस्वमित्र की तपस्या भंग करने हेतु धरा पर भेज दिया  … अप्सरा मेनका ऋषि विश्वामित्र की तपस्या भंग करने पृथ्वीलोक पहुंची और उनकी तपस्या भंग करने का प्रयास करने लगी। कई विकट परस्थितियों के पश्चात वह ऋषि विस्वमित्र की तपस्या भंग करने में सफल हो गई नेत्र खुलने पर विश्वामित्र बहुत कुपित हुए और मेनका को श्राप देने जैसे ही उद्यत हुए मेनका ने ऋषि से क्षमा मांगते हुए कहा की हे ऋषिश्रेष्ठ मै तो स्वयं पूर्ववत शापित हूँ और श्रापवश ही मुझे मृत्युलोक आना पड़ा है । हे ऋषिश्रेष्ठ मैंने सिर्फ अपने कर्त्यव्य का निर्वाहन किया है …।
विश्वामित्र का क्रोध तनिक शांत हुआ और मेनका की बाते धैर्य से सुनी वे मेनका के उत्तर से सहमत हुए और मेनका के असीम सौन्दर्य पर इतना मुग्ध हो गए की वह अपना उद्येश्य ही भूल गए। … विश्वामित्र पूर्व में एक शक्तिशाली क्षत्रिय रजा थे , मेनका भी  यह जान कर विश्वामित्र से बहुत प्रभावित हुई और उसने विश्वामित्र से उसे अपनाने का अनुरोध किया जिसे ऋषि ने सहर्ष स्वीकार कर दिया …कालचक्र चलता रहा और श्राप अवधि तक मेनका को विश्वामित्र के संग ही  निवास करना पड़ा … परिणाम स्वरूप दोनों की शकुंतला के रूप में एक सुंदर पुत्री का जन्म हुआ.…मेनका श्रापवश पृथ्वीलोक आई थी और  श्राप की समयावधि पूर्ण होने पर अप्सरा मेनका पुत्री शकुंतला को ऋषि कर्णवा को सौप कर स्वर्ग प्रस्थान कर गई … ऋषि कर्णवा का आश्रम गढ़वाल के ” कोटद्वार ” क्षेत्र में मालनी नदी के तट पर स्थित था … उस काल  खण्ड में तब यह क्लाशी क्षेत्र के नाम से जाना जाता था।
कालांतर में कोटद्वार क्षेत्र की मालनी नदी के तट पर हस्तिनापुर के रजा दुष्यंत की सकू (शकुन्तला ) से भेट होती है और दोनों विहाव बंधन में बंध  जाते हैं …यही पर ऋषि कर्णवा के आश्रम में उनके पुत्र “भरत” का जन्म होता है…. क्रोधी ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण कुछ समय तक राजा दुष्यंत शकुंतला को भूल जाते हैं…. परन्तु १५  वर्ष पश्चात् श्राप की अवधि समाप्त हो जाती है और उन्हें शकुंतला  की याद आ जाती है …याद  आते ही वे हस्तिनापुर से शकुंतला को लेने कर्णवा  आश्रम आते हैं और शकुंतला को हस्तिनापुर चलने का अनुनय करते हैं.  परन्तु शकुंतला पिता समान  ऋषि कर्णव को  वृद्धावस्था में नहीं छोड़ सकती थी  इसलिए वो सिर्फ   पुत्र भरत को साथ ले जाने का अनुरोध करती है वो महान नारी अपने कर्त्यव्य की बलि वेदी पर राजशाही ठाठ ठुकरा देती है।
राजा दुष्यंत हार मान शकुंतला की बात स्वीकार कर  पुत्र भारत को लेकर  हस्तिनापुर चले आते है….कालांतर में यही भरत  हस्तिनापुर के राजसिंहासन के उत्तरधिकरी हुए ऑर  उन्ही के नाम पर हमारे देश का नाम  ”  भारत  ” हुआ । वे चक्रवर्ती सम्राट हुए और उनके उनके वंशज भरतवंशी कहलाये । कौरव और पांडव राजा भारत की छटवी पीढ़ी के वंशज थे। कर्णवाआश्रम नामक स्थल कोटद्वार क्षेत्र में मालनी नदी के तट आज भी विद्यमान है और आज यह एक सुंदर टूरिस्ट प्लेस है।