कुर्द, बलूच और तिब्बतियों के लिए कब जगेगा मानवाधिकार

  • #कुर्द एक ऐसी दु:खियारी और कमनसीब क़ौम है, जिसका अपना कोई मुल्क नहीं। आज की दुनिया में अगर किसी नस्ल के पास अपना स्वयं का कोई राष्ट्र ना हो तो उसे कैसी अमानवीय परिस्थितियों में जीना पड़ता है, कुर्दिश लोग इसकी मिसाल हैं। ये लोग पश्चिम-एशिया में मुख्यतया ईरान, इराक़, तुर्की और सीरिया में फैले हैं। इनकी तादाद साढ़े चार करोड़ के आसपास है, लेकिन अपना कोई देश नहीं होने के कारण ये उपरोक्त मुल्कों में अल्पसंख्यकों की तरह रहते हैं और अनेक प्रकार के अत्याचारों और मानवाधिकार-हनन का शिकार होते हैं।

कहने को तो एक कुर्दिस्तान-रीजन है, लेकिन उसकी कोई सम्प्रभुता नहीं है। कुर्दों की अपनी एक कुर्दिश ज़बान है, अपनी पृथक सांस्कृतिक परम्पराएं हैं, किंतु उनको अंतरराष्ट्रीय मान्यता नहीं है। कुर्दों में सुन्नी मत की शफ़ी धारा के लोग हैं तो शिया और अलेविक मत के भी लोग हैं। इनमें से कुछ पारसी और ईसाई मत का भी पालन करते हैँ। इराक़ और ईरान दोनों में ही कुर्दिस्तान नाम के इलाक़े हैं, लेकिन उन्हें स्वायत्तता नहीं है।

सीरियाई युद्ध की एक उपकथा कुर्दों का प्रसार भी था। कुर्द राष्ट्रवाद इधर लगातार अपनी आवाज़ बुलंद कर रहा है, किंतु अंतरराष्ट्रीय समुदाय को उसकी चिंता नहीं है। कुर्द लोग अपना स्वयं का राष्ट्र चाहते हैं, किंतु अगर ऐसा होता है तो इराक़, सीरिया और तुर्की को अपनी भूमि का बड़ा हिस्सा गंवाना पड़ेगा, और ये मुल्क इसके लिए तैयार नहीं हैं। अपने मुल्क को तोड़कर उसका एक हिस्सा दूसरी नस्ल को दे देना सबके लिए इतना सहज नहीं होता। सभी मुल्कों का नाम हिंदुस्तान नहीं होता। लिहाज़ा दमन-कथा चलती रहती है।

पश्चिम एशिया के दुर्भागे पहाड़ी इलाक़ों में आज़ाद-कुर्दिस्तान के बाग़ यहां-वहां खिले हैं, जिनसे किसी को हमदर्दी नहीं है।

1980 के दशक में ईरान-इराक़ जंग के दौरान सद्दाम हुसैन के हुक्म पर अनफ़ाल में कोई एक लाख 82 हज़ार कुर्दों का क़त्ल कर दिया गया था। यह नरसंहार इतना भीषण था कि इसे आधुनिक युग के सबसे भयावह हत्याकांडों में से एक माना जाता है। किंतु केवल चार ही राष्ट्रों (नॉर्वे, स्वीडन, यूके और दक्षिण कोरिया) ने इसे अंतरराष्ट्रीय मान्यता दी है। इसकी स्मृति को जगाए रखने के लिए कुर्दिश डायस्पोरा, जो विशेषकर तुर्की और जर्मनी में फैला हुआ है, 14 अप्रैल को अल-अनफ़ाल दिवस मनाता है।

कुछ ऐसी ही कहानी यज़ीदियों की भी है, जिनका बीते दशक में आईएसआईएस ने क़त्लेआम किया था। सिंजार और मोसुल के जेनोसोइड कुख्यात हैं। यज़ीदियों का भी अपना कोई देश नहीं है। उस्मानी साम्राज्य के तहत आर्मेनियाइयों का भी योजनापूर्वक नरसंहार किया गया था और पहले विश्व युद्ध के दौरान कोई डेढ़ करोड़ आर्मेनियाई मारे गए थे। शुक्र है कि आर्मेनिया अपना स्वयं का एक राष्ट्र प्राप्त करने में सफल रहा और 1918 में गठित फ़र्स्ट रिपब्लिक के बाद 1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद स्वतंत्र राष्ट्र बना। येरेवान उसकी राजधानी है। आर्मेनिया की 98.1 बहुसंख्य आबादी आर्मेनियाइयों की है।

हम एक बहु-सांस्कृतिक दुनिया का सपना अवश्य देखते हैं किंतु यह भी सच है कि अगर किसी नस्ल का अपना कोई राष्ट्र न हो तो उसके लोग दुनिया में बंजारों की भांति भटकते रहेंगे और किसी को उनकी परवाह नहीं होगी।

मैं समझ नहीं पाता कि कश्मीरियों, रोहिंग्याओं और फ़लस्तीनियों के मानवाधिकार कुर्दों, यज़ीदियों, बलूचों और आर्मेनियाइयों से ज़्यादा महत्वपूर्ण कैसे हो जाते हैं, क्योंकि कोई भी इन दूसरे लोगों के बारे में बातें करता बरामद नहीं होता। स्वयं भारत में इनको लेकर कभी आंदोलन नहीं होते, गाज़ा-पट्‌टी को लेकर तो बहुत होते हैं। एक आश्चर्य यह भी है कि भारत का बहुसंख्य समुदाय वंचित-पीड़ित वर्गों के अधिकारों की रक्षा के लिए उमड़ आता है, किंतु ये वंचित-पीड़ित वर्ग कभी, इन बहुसंख्यकों की तो छोड़ दें, दुनिया के दूसरे वंचितों-पीड़ितों के हक़ की बात नहीं करते। यह ख़ुदगर्ज़ी बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है कि आप हमेशा अपने हक़ के लिए आवाज़ बुलंद करें और इसमें दूसरों की मदद पाकर मुतमईन भी हों, लेकिन आप ख़ुद कभी औरों के हक़ की बात ना करें। और आपका नज़रिया हमेशा आपकी नाक से आगे देखने और सोचने में नाकाम रहे! इतना ही नहीं, आप इस ख़ुदगर्ज़ी और मौक़ापरस्ती को इंक़लाब भी कहें! #सुशोभित (सौजन्य केशरसिंह बिष्ट की वाल से) 

अपने एशिया के संदर्भ में देखें तो जिस तरह से इस्लामिक मुस्लिम देशों ने सीधे-साधे एक व्यापारी कौम कुर्द लोगों को मार मार के मुसलमान बनाने और उनकी संपत्तियां लूटने का काम किया और विश्व जगत की मीडिया ने अपने हक की लड़ाई लड़ रहे इन सज्जन लोगों को “कुर्द विद्रोही” नाम दिया वह बहुत चिंतनीय है और मानवता के खिलाफ अपराध है। इसी तरह तिब्बत में भी एक व्यापारिक कौम रहती थी जिसे हम भोटिया के नाम से जानते हैं। पूर्व में तिब्बत को भोट प्रांत और वहां के लोगों को भोटिया कहा जाता था यह क्षेत्र भारत आज के भारत चीन और पाकिस्तान के बीच था, मूल रूप से तिब्बत भारत का ही अंग था और यहां सनातन धर्मावलंबी रहते थे जिन्हें बाद में धीरे-धीरे बौद्ध पंथियों ने धर्मांतरण करके बौद्ध बना दिया था 1962 के युद्ध में चीन ने पूरा तिब्बत कब्जाने के बाद भारत पर भी आक्रमण किया था (लेकिन उत्तराखंड के क्षेत्र में कन्नौज के मौखरी नरेश ने चारों दिशाओं में अपनी अधिष्ठात्री नंदा देवी के नाम से जो किलबंथन कर रखा है उसी वजह से इस क्षेत्र पर आक्रमण करने वाले खुद ही समाप्त हो जाते हैं या थक हार कर वापस चले जाते हैं और कोई क्षेत्र पर आक्रमण नहीं कर पाता) खैर मैं यह कह रहा था कि तिब्बत की व्यापारिक कौम भी इसी तरह से अपने आसपास के देशों में व्यापार करती थी उनका व्यापार चीन आज के अफगानिस्तान पाकिस्तान और भारत में फैला था जब चीन की बाामपंथी सरकार ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया और उनका पूरा व्यवसाय और क्षेत्र ही समाप्त कर दिया गया। क्योंकि ये बौद्ध पंथी थे और युद्ध में विश्वास नहीं रखते थे शांति में विश्वास रखते थे इसलिए तिब्बती लामा बौद्ध गुरु आज भी भारत में शरणार्थियों की तरह रह रहे हैं लेकिन उन्होंने कभी विद्रोह नहीं किया पर इसका यह मतलब नहीं है कि हम कुर्द की सज्जन जनता को विद्रोही कहें वह तो अपना देश बचाने की अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं इसलिए नई पीढ़ी को यह समझना चाहिए कि कुर्द विद्रोही नहीं बल्कि अपने अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं जिसे वामपंथी और इस्लामिक मीडिया अब कुर्द विद्रोही कहकर संबोधित करता है।

ठीक वैसे ही बलूचिस्तान प्रांत के बलूच जनजाति भी है जिसे पहले जिहादियों ने कभी धर्मांतरण करके मुस्लिम बनाया लेकिन फिर भी उनमें अपने मूल संरचना के प्रति संवेदना ने उन्हें अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्षरत रखा है आज पाकिस्तान की आर्मी धीरे-धीरे खत्म कर रही है। उनकी पैरवी करने वाला इस्लामिक और बामपंथी मीडिया तो हो ही नहीं सकता पर उनके लिये मानवाधिकार भी कहीं नहीं दिखता है। अपना अस्तित्व क्षेत्र और देश बचाने की लड़ाई विद्रोह कैसे कही जा सकती है? – डाॅ हरीश मैखुरी