एक बड़े वकील व नेता का हाथ जैसे ही उस अर्द्धनग्न महिला के कमर के उपर पहुँचा , महिला ने बड़ी अदा व बड़े प्यार से पूछा – “जज कब बना रहे हो ? “….. *बोलो ना डियर”… तब साहब ने जो भी उत्तर दिया था वह सारा सीन रिकॉर्ड हो गया, और यही सीडी उस बड़े नेता और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील के राजनीतिक पतन का कारण बनी ! परन्तु वो नेता वकील आज भी कोर्टों में शान से पेश होता है और एक राजनीतिक पार्टी का प्रवक्ता भी है।
पिछले 70 सालों से जजों की नियुक्ति में सेक्स , पैसा , ब्लैक मेल एवं दलाली के जरिए जजों को चुने जाने के अनेक किस्से हैं।
अजीब बिडम्बना है हर रोज दुसरों को सुधरने की नसीहत देने वाले लोकतंत्र के दोनों स्तम्भ मीडिया और न्यायपालिका खुद सुधरने को तैयार नहीं हैं।
जब देश आज़ाद हुआ तब जजों की नियुक्ति के लिए ब्रिटिश काल से चली आ रही ” कोलेजियम प्रणाली ” भारत सरकार ने अपनाई…. यानी सीनियर जज अपने से छोटे अदालतों के जजों की नियुक्ति करते हैं, इस कोलेजियम में जज और कुछ वरिष्ठ वकील भी शामिल होते हैं । जैसे सुप्रीमकोर्ट के जज हाईकोर्ट के जज की नियुक्ति करते हैं और हाईकोर्ट के जज जिला अदालतों के जजों की नियुक्ति करते हैं ।
इस प्रणाली में कितना भ्रष्टाचार है वो लोगों ने नेता वकील की सेक्स सीडी में देखा था..तब वे सुप्रीमकोर्ट की कोलेजियम के सदस्य थे और उन्हें दिल्ली हाईकोर्ट के लिए जजों की नियुक्ति करने का अधिकार था… उस सेक्स सीडी में वो वरिष्ठ वकील अनुसुइया सालवान को जज बनाने का लालच देकर उसके साथ इलू इलू करते पाए गए थे , वो भी कोर्ट परिसर के ही अपने चैम्बर में।
कलेजियम सिस्टम से कैसे लोगो को जज बनाया जाता है और उसके द्वारा राजनीतिक साजिशें कैसे की जाती है उसके दो उदाहरण देखिये …….
पहला उदाहरण —
किसी भी राज्य के हाईकोर्ट में जज बनने की सिर्फ दो योग्यता होती है… वो भारत का नागरिक हो और 10 साल से किसी हाईकोर्ट में वकालत कर रहा हो …..या किसी राज्य का महाधिवक्ता हो ।
हिमाचल में एक मुख्यमंत्री ने सारे नियम कायदों को ताक पर रखकर अपनी बेटी को हिमाचल का महाधिवक्ता नियुक्त कर दिया फिर कुछ दिनों बाद सुप्रीमकोर्ट के जजों के कोलेजियम ने उन्हें हाईकोर्ट के जज की नियुक्ति दे दी और उन्हें गुजरात हाईकोर्ट में जज बनाकर भेज दिया गया।
गुजरात दंगो के बहाने केन्द्र में मोदी को फंसाने का उपक्रम चल रहा था, तब हिमाचल के तत्कालीन मुख्यमंत्री की जज बेटी ने जज की हैसियत से कई निर्णय मोदी के खिलाफ दिये …हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने बाद में उसे बदल दिया था।
दूसरा उदाहरण….
1990 में जब लालूप्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री थे तब कट्टरपंथी आफ़ताब आलम को हाईकोर्ट का जज बनाया गया…. बाद में उन्हे प्रोमोशन देकर सुप्रीमकोर्ट का जज बनाया गया…. उनकी नरेंद्र मोदी से इतनी दुश्मनी थी कि तीस्ता शीतलवाड़ और मुकुल सिन्हा गुजरात के हर मामले को इनकी ही बेंच में अपील करते थे… इन्होंने नरेद्र मोदी को फँसाने के लिए अपना एक मिशन बना लिया था।
बाद में आठ रिटायर जजों ने जस्टिस एम बी सोनी की अध्यक्षता में सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस से मिलकर आफ़ताब आलम को गुजरात दंगो के किसी भी मामलों की सुनवाई से दूर रखने की अपील की थी…. जस्टिस सोनी ने आफ़ताब आलम के दिए 12 फैसलों का डिटेल में अध्ययन करके उसे सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस को दिया था और साबित किया था कि आफ़ताब आलम चूँकि मुस्लिम है इसलिए उनके हर फैसले में भेदभाव स्पष्ट नजर आ रहा है।
फिर सुप्रीमकोर्ट ने जस्टिस आफ़ताब आलम को गुजरात दंगो से किसी भी केस की सुनवाई से दूर कर दिया।
जजों के चुनाव के लिए कोलेजियम प्रणाली के स्थान पर एक नई विशेष प्रणाली की जरूरत महसूस की जा रही थी। जब मोदी की सरकार आई तो तीन महीने बाद ही संविधान का संशोधन ( 99 वाँ संशोधन) करके एक कमीशन बनाया गया जिसका नाम दिया गया National Judicial Appointments Commission (NJAC)
इस कमीशन के तहत कुल छः लोग मिलकर जजों की नियुक्ति कर सकते थे।
A- इसमें एक सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश ,
B- सुप्रीम कोर्ट के दो सीनियर जज जो मुख्य न्यायाधीश से ठीक नीचे हों ,
C- भारत सरकार का कानून एवं न्याय मंत्री ,
D- और दो ऐसे चयनित व्यक्ति जिसे तीन लोग मिलकर चुनेंगे।( प्रधानमंत्री , मुख्य न्यायाधीश एवं लोकसभा में विपक्ष का नेता) ।
परंतु एक बड़ी बात तब हो गई जब सुप्रीम कोर्ट ने इस कमीशन को रद्द कर दिया , वैसे इसकी उम्मीद भी की जा रही थी।
इस वाकये को न्यायपालिका एवं संसद के बीच टकराव के रूप में देखा जाने लगा ….भारतीय लोकतंत्र पर सुप्रीम कोर्ट के कुठाराघात के रूप में इसे लिया गया।
यह कानून संसद के दोनों सदनों में सर्वसम्मति से पारित किया गया था जिसे 20 राज्यों की विधानसभा ने भी अपनी मंजूरी दी थी।
सुप्रीम कोर्ट यह भूल गया थी कि जिस सरकार ने इस कानून को पारित करवाया है उसे देश की जनता ने पूर्ण बहुमत से चुना है।
सिर्फ चार जज बैठकर करोड़ों लोगों की इच्छाओं का दमन कैसे कर सकते हैं ?
क्या सुप्रीम कोर्ट इतना ताकतवर हो सकता है कि वह लोकतंत्र में जनमानस की आकांक्षाओं पर पानी फेर सकता है ?
जब संविधान की खामियों को देश की जनता परिमार्जित कर सकती है तो न्यायपालिका की खामियों को क्यों नहीं कर सकती ?
यदि NJAC को सुप्रीम कोर्ट असंवैधानिक कह सकता है तो इससे ज्यादा असंवैधानिक तो कोलेजियम सिस्टम है जिसमें ना तो पारदर्शिता है और ना ही ईमानदारी ?
कांग्रेसी सरकारों को इस कोलेजियम से कोई दिक्कत नहीं रही क्योंकि उन्हें पारदर्शिता की आवश्यकता थी ही नहीं।
मोदी सरकार ने एक कोशिश की थी परंतु सुप्रीम कोर्ट ने उस कमीशन को रद्दी की टोकरी में डाल दिया।
शूचिता एवं पारदर्शिता का दंभ भरने वाले सुप्रीम कोर्ट को तो यह करना चाहिए था कि इस नये कानून (NJAC) को कुछ समय तक चलने देना चाहिए था…ताकि इसके लाभ हानि का पता चलता , खामियाँ यदि होती तो उसे दूर किया जा सकता था …परंतु ऐसा नहीं हुआ।
जज अपनी नियुक्ति खुद करे ऐसा विश्व में कहीं नहीं होता है सिवाय भारत के।
क्या कुछ सीनियर IAS आॅफिसर मिलकर नये IAS की नियुक्ति कर सकते हैं?
क्या कुछ सीनियर प्रोफेसर मिलकर नये प्रोफेसर की नियुक्ति कर सकते हैं ?
यदि नहीं तो जजों की नियुक्ति जजों द्वारा क्यों की जानी चाहिए ?
आज सुप्रीम कोर्ट एक मजहब विशेष का हिमायती बन के रह गया है …
सुप्रीम कोर्ट गौरक्षकों को बैन करता है …सुप्रीम कोर्ट जल्लीकट्टू को बैन करता है …सुप्रीम कोर्ट दही हांडी के खिलाफ निर्णय देता है ….सुप्रीम कोर्ट दस बजे रात के बाद डांडिया बंद करवाता है …..सुप्रीम कोर्ट दीपावली में देर रात पटाखे को बैन करता है। अच्छी बात है समाज और देश हित सुधार होने चाहिए।
लेकिन ..
सुप्रीम कोर्ट आतंकियों की सुनवाई के लिए रात दो बजे अदालत खुलवाता है ….सुप्रीम कोर्ट पत्थरबाजी को बैन नहीं करता है….सुप्रीम कोर्ट कत्लेआम और कत्ल खानों में भेजे जाने के कारण तेजी से खत्म हो रहे गो वंश और गोमांस पर बैन नहीं लगाता है। बकरीद पर पर कुर्बानी को बैन करने की कोशिश नहीं करता है ….नवजात शिशु के प्रति खतना जैसी जानलेवा प्रथा और मुस्लिम महिलाओं के शोषण के खिलाफ तीन तलाक को बैन नहीं करता है। और तो और सुप्रीम कोर्ट ने यहाँ तक कह दिया कि तीन तलाक का मुद्दा यदि मजहब का है तो वह हस्तक्षेप नहीं करेगा। ये क्या बात हुई ? आधी मुस्लिम आबादी की जिंदगी नर्क बनी हुई है और आपको यह मुद्दा मजहबी दिखता है ?
हम देश के उच्चतम न्यायालय सहित प्रत्येक न्यायालय का बहुत सम्मान करते हैं, हम चाहते हैं कि संविधान में देश की आत्मा परिलक्षित हो , लेकिन इन हालातों के आलोक में हमें डर है ऐसा ना हो कि जनता न्यायपालिका में अनाचार के विरुद्ध सड़कों पर खड़ी हो, उसके पहले ही न्याय पालिका को अपनी समझ दुरुस्त कर लेनी चाहिए। सत्तर सालों से चल रही एकतरफ़ा सोच पर चिंतन मनन और मंथन की आवश्यकता है . ध्यान रहे “लोकतंत्र” में “जनता” ही देश की “मालिक” है।