डाॅ हरीश मैखुरी
देवपूजा के काल में उत्तराखण्ड के चार धामों में जाने के बारे में कहा गया है कि “ब्रह्म हत्या सम वाप्नोति वर्जित काले गच्छेत्, न सुखं न परां गतिम्” अर्थात वर्जित काल में उत्तराखण्ड के चार धामों में जाने पर” ब्रह्म हत्या” के समान पाप लगता है इससे न सुख मिलेगा और न मुक्ति मिलेगी। इसका कोई प्रायश्चित है ही नहीं। यह अक्षम्य अपराध है। हमारे यहां देवताओं के कार्यों में व्यवधान किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं है। वैसे भी हिमालय की संवेदनशीलता को देखते हुए यदि 6 माह यहां देव पूजा का विधान किया गया है, तो हमें अपनी अल्प बुद्धि और स्वार्थों के निहितार्थ वहां अनावश्यक हस्तक्षेप करना भी नहीं चाहिए, इससे हिमालय के पारिस्थितिकीय तंत्र को भारी नुकसान होता है। पता नहीं मनुष्य के पैरों में पता नहीं ऐसा क्या है कि हिमालय में जहां भी मनुष्य पैर रखता है उस क्षेत्र की बर्फ तेजी से पिघलने लगती है। गोमुख का उदाहरण देख लीजिए हमारे बार बार वहां इंटरेक्शन करने से गोमुख ग्लेशियर समाप्त हो चुका है, कुछ सालों पहले जब से कांवड़ वहां नहाने जाने लगे और पुराने कपड़े वहीं छोड़ कर आते, जिसकी वजह से गोमुख ग्लेशियर को भारी नुकसान हुआ। हम ग्लोबल ग्लोबल वार्मिंग के साथ-साथ लोकल वार्मिंग का जो उपक्रम कर रहे हैं उससे भी हिमालय की पारिस्थितिकी तंत्र को भारी नुकसान हो रहा है। हम हिमालय से सिर्फ अपनी जरूरतें पूरी करें अपनी इच्छाओं को हिमालय पर ना थोपें। यदि शास्त्रों ने छह माह देव पूजा और छह माह मानव पूजा का प्रावधान चार धामों में बताया है, तो हमें सौ फ़ीसदी शास्त्रों पर यकीन कर के चार धामों की परंपरा से छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए इससे हिमालयन 6 महीने शांत रहेगा तो कुछ अपनी प्रकृति को रिवाइव करेगा।
पता लगा है कि कुछ नराधम किस्म के लोग और संस्थाएं इस शीत काल में केदारनाथ जाकर वहां धमाचोकडी़, बड़ा खाना और कपाट बंदी के समय पूजा पाठ भी करेंगी। आश्चर्यजनक रूप से उनका यह कदम आस्था व परम्परा से खिलवाड़ तो है ही बल्कि हिमालय की पारिस्थितिकी तंत्र से भी आपराधिक छेड़छाड़ भी है। जिन लोगों को इतना भी पता नहीं कि वर्जित काल में बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री में पूजा निष्फल है बल्कि ऐसा करने से पाप के भागी भी बनते हैं, ऐसा तंत्र हिमालय के आध्यात्मिक महत्व और पारिस्थितिकीय तंत्र को क्या समझेगा ? दुर्भाग्य से उत्तराखंड का शासनतंत्र न केवल ऐसे अपराधियों के साथ है बल्कि इस अपराध में सहयोगी की भूमिका नजर आ रहा है।
जून 2013की जून 2013 की भयंकर आपदा के बाद केदारनाथ कुछ लोगों के लिए दुधारू गाय बन गया है, ये वही लोग हैं जो आपदा पर भी गिद्ध दृष्टि गड़ाए रहते हैं। ऐसे लोग ना केदारनाथ के हैं ना उत्तराखंड के। यदि केदारनाथ में भगवान शिव ने आपदा के माध्यम से सफाई कार्य किया था, तो हमें वहां पुनर्निर्माण की क्या जरूरत है? हम लोग गौरीकुंड से केदारनाथ तक सिर्फ रोपवे बना देते और सुबह यात्री केदारनाथ जाएं दर्शन करें और वापस गौरीकुंड रुद्रप्रयाग गोपेश्वर बासा रहने के लिए जा सकते हैं। इससे केदारनाथ में जहां अरबों रुपए का निर्माण कार्य भी नहीं करना पड़ता वहीं केदारनाथ की शुचिता और पारिस्थितिकी तंत्र भी बना रहता, लेकिन नहीं साहब हम तो केदारनाथ आपदा के ऊपर भी अपनी अपनी राजनीतिक रोटियां सकेंगे अरबों ₹ खर्च करेंगे और करोड़ों रुपया बनाएंगे, यही है केदारनाथ की आपदा का आखरी सत्य । अब असली सवाल यही है कि केदार के इन लिंगचट्टों पर कौन लगायेगा अंकुश ? यहां तो सब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं।