पिछले 55-60 साल से भारतीय लोकतंत्र को एक परिवार की धरोहर बना दिया गया, लेकिन वो कुनबा गरीबी हटाते-गांधी रटाते खुद खरबपति बन गया

हरीश मैखुरी

सेना तो सदैव बहादुरों ही थी। बस सरकार नामर्दों सी रहे तो बिडम्बना ही है। 1971 में भारत ने पाकिस्तान के 93,000 जिहादी सैनिकों को बिरयानी खिला कर वापस भेजा, परन्तु अपने 54 नागरिक जिसमें एक विंग कमांडर हरसरन सिंह गिल 2 स्क्वार्डन लीडर तथा 24 पायलट वापस नहीं ला सके। मनमोहन सिंह के दस साल के कार्यकाल में पाकिस्तान प्रायोजित इस्लामिक आतंकवादियों द्वारा किए गए 24 बड़े बम विस्फोटों में 3 हजार से अधिक लोग मारे गए और हजारों घायल हुए। कड़ी निंदा तक नहीं हुई। कथित सैक्यूलर और बाम मीडिया भी मौनव्रत पर चले गए थे। 1914 से कश्मीर को छोड़कर देश में थोड़ा शांति है। लेकिन अभी हाल ही में 14 फरवरी को हुए पुलवामा अटैक के बदले की जवाबी कार्रवाई में हमारा एक पायलट अभिनन्दन वर्धमान पाकिस्तान में दो दिन फंसा रहा, सभी सरकार को कोषने लग गये थे, फर्ज करो अभी तक फंसा रहता तो गाली कौन खाता? इस्तीफा किसका मांगते? मोदी का ना? सैनिक का बलिदान सर्वोच्च है सैनिक देश की आनबानसान है। लेकिन देश में पाकिस्तान की तरह सैनिक शासन नहीं लोकतंत्र है, इसमें सरकार सुप्रीम है। उसके आदेश का सेना पालन करती है। ऐसी संविधानिक व्यवस्था की गई है। सैना का पराक्रम ही सरकार का साहस माना जाता है। लेकिन 71 की लड़ाई इंदिरा ने लड़ी कहने वाले एयर स्ट्राइक सेना ने की कह रहे हैं। बता दें कि 1971 के 24 फाईटर पाईलट अभी तक पाकिस्तान में ही नदारद हैं। उनकी लिस्ट सेना जरनल की साईट पर उपलब्ध है। समय के साथ राजनीतिक दल और विचार अप्रासंगिक होते रहते हैं, (जैसे कम्युनिस्ट रूस से गायब हो गए), उनकी जगह कुछ नये और सामयिक राजनीति हिलोरें लेती रहती है। भारत अतीत में सदैव वैभव शाली रहा है।

लेकिन ये बात छिपा कर देश को गुलाम और गरीबी का इतिहास गढ़कर थमाया गया और पिछले 55-60 साल से भारतीय लोकतंत्र को एक परिवार की धरोहर बना दिया गया है, वो कुनबा गरीबी हटाते-गांधी रटाते खरबपति बन गया, और देश आतंक पीड़ित कंगाली का दंश झेलने के लिए अभिशप्त रहा, सवाल यही है कि केवल नाम की गांधीगिरी से देश कब तक घिसट सकता है? यदि मोदी के नेतृत्व में सुभाष चन्द्र बोस का राष्ट्रवाद देश के पुनर्निर्माण के लिए अंगड़ाई ले रहा है तो इसमें आपत्ति क्यों है?