आज का पंचाग आपका राशि फल, मानव सभ्यता का विकास और सांस्कृतिक उत्थान का केन्द्र भारत ही है, कारगिल विजय दिवस आज बलिदानियों को देश कर रहा नमन्

हमारे ऋषि मुनियों ने प्रकृत्ति के अनुकूल जीवन जीने की सर्वोच्च परम्पराओं को विकसित किया। शस्त्र और शास्त्र एक अनुशासित और निपुण समाज को जन्म देता है आज के सैनिक उसी के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। संसार के स्वदेशी और जातीय लोगों ने इस ब्रह्मांड में सबसे प्रतिकूल पर्यावरणीय स्थिति में रहने कला विकसित कर ली है लिया है। स्वदेशी और जातीय लोगों से जुड़ी सबसे महान विशेषता यह पाई गई है कि, वे उन क्षेत्रों में रहते हैं जो जैव विविधता में अत्यधिक समृद्ध हैं। आंकलन किया गया है कि विश्व में लगभग 300 लाख स्वदेशी लोग रह रहे हैं, जिनमें से लगभग आधे यानि 150 लाख एशिया में रह रहे हैं, जिनमें से लगभग 3 करोड़ मध्य और दक्षिण अमेरिका में रह रहे हैं और उनमें से एक महत्वपूर्ण संख्या ऑस्ट्रेलिया में रह रही है, यूरोप, न्यूजीलैंड, अफ्रीका और सोवियत संघ। इनमें से कुछ प्रमुख जातीय और स्वदेशी लोगों की सूची तालिका -1 में प्रस्तुत की गई है। इन जातीय और स्वदेशी लोगों ने पर्यावरण प्रबंधन और विकास प्रक्रिया के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है क्योंकि उनके पास पारंपरिक ज्ञान है जो पारिस्थितिकी-बहाली में उपयोगी रहा है। यह देखा गया है कि ये लोग प्रकृति में सद्भाव के साथ रहना जानते हैं।
भारत में, 227 जातीय समूह से संबंधित 68 मिलियन लोग और छह नस्लीय शेयरों से प्राप्त 573 आदिवासी समुदाय शामिल हैं – नेग्रोइड, प्रोटो-ऑस्ट्रेलॉयड, मंगोलॉयड, मेडिटेरेनियन, वेस्ट ब्रीची और नॉर्डिक देश के विभिन्न हिस्सों में मौजूद हैं (पुष्पगंधन 1)। ये जातीय लोग ज्यादातर स्वदेशी आदिवासी जंगलों के आसपास रहते हैं और लंबे समय से अपने इलाकों की जैव विविधता का प्रबंधन और संरक्षण करते रहे हैं। ये आदिवासी जंगल से आश्रय लेते हैं और कच्चे और पके दोनों तरह के जंगली खाद्य पौधों का उपयोग करते हैं। फूल और फलों को आम तौर पर कच्चा खाया जाता है जहां कंद, पत्ते और बीज पकाए जाते हैं। आदिवासी वनोपज, वन लकड़ी और ईंधन की लकड़ी का उपयोग करते हैं। ये आदिवासी युगों से जंगल में रह रहे हैं और वनों के साथ एक तरह की आत्मीयता विकसित कर चुके हैं।
भारत विशाल जातीय समाज वाला देश है और इसके पास अपार संपदा है जिसके कारण यह जैव विविधता में समृद्ध है। जंगली पौधों की 45,000 प्रजातियां हैं, जिनमें से 9,500 प्रजातियां नृवंशविज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रजातियां हैं। इनमें से 7,500 प्रजातियां स्वदेशी स्वास्थ्य प्रथाओं के लिए औषधीय उपयोग में हैं। आदिवासियों द्वारा भोजन के रूप में लगभग 3,900 पौधों की प्रजातियों का उपयोग किया जाता है (जिनमें से 145 प्रजातियों में जड़ और कंद शामिल हैं, पत्तेदार सब्जियों की 521 प्रजातियां, बल्ब और फूलों की 101 प्रजातियां, फलों की 647 प्रजातियां), 525 प्रजातियां फाइबर के लिए उपयोग की जाती हैं, 400 प्रजातियां चारे के रूप में उपयोग किया जाता है, रसायनों की तैयारी और निष्कर्षण में 300 प्रजातियों का उपयोग किया जाता है जो प्राकृतिक रूप से होने वाले कीटनाशकों और कीटनाशकों के रूप में उपयोग किए जाते हैं, 300 प्रजातियों का उपयोग गोंद, रेजिन, रंजक और इत्र के निष्कर्षण के लिए किया जाता है इनके अतिरिक्त कई पौधों का उपयोग इमारती लकड़ी, निर्माण सामग्री के रूप में किया जाता है और लगभग 700 प्रजातियां सांस्कृतिक रूप से नैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, सौंदर्य और सामाजिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं। भारतीय उप-महाद्वीप जैव विविधता के बारह श्रेष्ठ केंद्रों में से एक है, जो जैविक विविधता के अठारह हॉटस्पॉट में से दो का प्रतिनिधित्व करता है, एक पश्चिमी घाट में होता है और दूसरा उत्तर-पूर्वी हिमालय में होता है। भारत में उच्च पौधों के 47 से अधिक परिवारों से संबंधित 141 स्थानिक प्रजातियां भारत में पाई जाती हैं, दुनिया की 11.95% जैव विविधता को कई तरह से जातीय लोगों द्वारा संरक्षित किया गया है।
भारत के वानस्पतिक सर्वेक्षण में बताया गया है कि भारत में 46,214 पौधों की प्रजातियाँ वैश्विक वनस्पतियों में पाई जाती हैं जिनमें से 17,500 फूल वाले पौधों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इनमें से सैंतीस स्थानिक हैं और भारत के उत्तर-पूर्व में पाए जाते हैं। इस युग युगीन सुदीर्घ सांस्कृतिक मान्यताओं परम्पराओं और उनके कालक्रम कालचक्र गुणधर्म (डीएनए) को देखें तो पाते हैं कि केवल ऐशिया महाद्वीप का भारत भू भाग ही एक सुसंस्कृत सभ्यता का केन्द्रवर्ती स्थान रहा है। शेष दुनियां के मानवजीवधारी तब पशुवत कबीलों के रुप में ही विकसित हो कर आगे बढ़। जब दुनियां हथियार बनाना भी नहीं सीखी थी तब भारत राम रावण युद्ध और महाभारत लड़ कर एक सुसंस्कृत पराक्रम समाज की स्थापना कर चुका था।

वर्ष प्राचीन शिवलिंग :
पूरी सृष्टि अपने में समाए है ये शिवलिंग, जलाभिषेक पर दृष्टिगत है स्वरूप
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देवभूमि उत्तराखंड के देहरादून जनपद में स्थित है एक ऐसा शिवलिंग जिसमें पूरी सृष्टि दिखाई पड़ती है। लाखामंडल में बने इस शिवलिंग का जब भक्तगण जलाभिषेक करते हैं तो उन्हें इसमें सृष्टि का स्वरूप दिखता है। 
 कहा जाता है कि इस शिवलिंग पर अपनी तस्वीर देखने मात्र से ही सारे पाप मिट जाते हैं। प्रकृति की गोद में बसा यह गांव देहरादून से 128 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यमुना नदी की तट पर है।
भगवान शिव के मंदिर के प्राचीन अवशेषों से घिरा यह स्थान यहां की गुफाओं से भी यहां आने वाले भक्तों को लुभाता है। यहां पर खुदाई करते समय विभिन्न आकार के और विभिन्न ऐतिहासिक काल के शिवलिंग मिले हैं।
 महाभारत के समय में पांडवों ने अपने वनवास का कुछ समय लाखामंडल में भी व्यतीत किया था। यहां एक लाक्ष्याग्रह भी बनवाया गया था यहॉ से बचकर भागने के लिए सुरंग बनाई थी। यह सुरंग हस्तिनापुर तक पहुंचती है। इसे सुरक्षा कारणों को देखते हुए अब बंद करवा दिया गया है।
यहां कुछ दूर पर लाक्षागृह गुफा है। जहां शेषनाग के फन के नीचे प्राकृतिक शिवलिंग के ऊपर टपकता पानी भक्तों को आत्मीक सुख देता है।
यहां खुदाई के दौरान शिव की लाखों मूर्तियां मिलती हैं। दो फुट की खुदाई करने से ही यहां हजारों साल पुरानी अमूल्य मूर्तियां निकली हैं। इसी कारण इस स्थान को आर्किलॉजिकल सर्वे ऑफ  इंडिया की देखरेख में रखा गया है।🙏