तो क्या नक्सलवाद की जड़े जंगलो से ज्यादा शहरों से ले रही हैं खाद पानी?

पिछले साल नक्सलियों ने कांग्रेस नेताओं पर घात लगाकर 24 नेताओं को मौत के घाट उतारा। करीब 6 माह पूर्व दनतेवाड़ा में नक्सलियों ने घात लगाकर 79 जवानों की हत्या कर दी थी, जबकि कुछ दिन पहले ही सुकमा छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने घात लगाकर सीआरपीएफ के 26 जवानों को मौत के घाट उतारा।ये घटनाएं वे आइसबग हैं जो उपर दिख गई हैं। लेकिन इनकी जड़े जंगलो से ज्यादा शहरों से खाद पानी ले रही हैं, जंगल वाला नक्सली गोली चलाता है, शहर वाला नक्सली उसको सही ठहराता है और कैंडल मार्च निकालता है, मीडिया वाला नक्सली उसे स्टूडियो में बुलाता है, कोर्ट वाला नक्सली जनहित याचिका दायर करता है। क्या आपके आसपास भी कोई नक्सली है।

सुकमा में नक्सली हमले के बाद से पूरे देश में गुस्सा है और नक्सलियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की जा रही है। लेकिन कम लोगों को यह पता होगा कि नक्सली सिर्फ जंगलों में नहीं रहते। कुछ नक्सली जंगलों में रहते हैं और बाकी उनकी मदद के लिए दिल्ली और दूसरे शहरों में फैले हुए हैं। ये शहरी नक्सली आमतौर मानवाधिकार या सामाजिक कार्यकर्ता, टीचर या फिर पत्रकार के भेष में रहते हैं। ये जंगल में रह रहे अपने साथियों को फंड से लेकर हथियार तक पहुंचाने में मदद करते हैं। शहरी नक्सलियों की ये लॉबी इतनी मजबूत है कि बड़ी-बड़ी सरकारें इनके खिलाफ कार्रवाई करने से डरती हैं। यूपीए सरकार के वक्त जब तत्कालीन गृहमंत्री पी चिंदबरम ने नक्सलियों के खिलाफ एयरफोर्स के इस्तेमाल की बात कही थी तो इन्हीं शहरी नक्सलियों ने इतना हंगामा मचाया था कि उस वक्त अभियान ड्रॉप करना पड़ा। ये शहरी नक्सली जंगल वाले नक्सलियों को कानूनी दांवपेच और ईमानदार अफसरों को फंसाने की ट्रेनिंग भी देते हैं। खुद पर फर्जी हमले करवाने से लेकर किसी पर भी बलात्कार के आरोप लगाने में इनकी महारत होती है।

दरअसल हमारे मीडिया कर्मी अधिकतर वामपंथी विचारधारा से प्रभावित हैं और आतंकवाद भी या तो चरम वामपंथी या मुस्लिम चरम पंथियों द्वारा उत्प्रेरित । इस लिए इस मुद्दे पर दोनों को सांप सूंघ जाता है, या फिर वे मरने – मारने पर उतारू हो जाते हैं । इसी लिए खूनी वारदातों को अंजाम देने के मुद्दे पर सही विश्लेषण नहीं आ पाता। आतंकवाद चरम वामपंथ प्रायोजित हो या मुस्लिम चरम पंथियों द्वारा, मरता इसमें आम आदमी ही है, वही आम आदमी जिसके ठेकेदार इनके उत्प्रेरक बने फिरते हैं। इन दोनों की हिंसा की दुकानों में माल हथियार बनाने वाली कंपनियों का ही बिकता है। इस हिसाब से ये हथियारों के सौदागरों के ऐजेन्ट ही हैँ, एक चरमपंथी सर्वहारा के नाम पर और दूसरा चरम पंथी मजहब के नाम निर्दोष लोगों को अपना शिकार बनाते हैं। हिंसा – हिंसा में फर्क करना कोई समझदारी है क्या? पर हमारे सुरक्षा ऐजेन्डे में दोनों अलग अलग नजर से देखे जाते हैं और सुरक्षा एजेंसियां अभी दोनों तरह की हिंसा को अलग अलग चश्मे से देखने की भूल कर रही हैं ।

जबकि दोनों का  सामान्य मिनिमम प्रोग्राम देखें तो एक ही है – दोंनो दुनियां पर निरंकुश राज स्थापित करना चाहते हैं, दोनों धर्म विरोधी हैँ और मूर्ति पूजकों के खिलाफ हैं। दोनों धर्म विरोध के नाम पर मानवता की हत्या करते हैं। दोनों देशों की सीमा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। दोनो के नेतृत्व अपनी चैधराहट स्थापित करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं भले एक इसे खूनी क्रांति और दूसरा जिहाद का नाम देते हैं। दोनों पूर्व से स्थापित संस्कृतियों के घोर विरोधी हैं। दोनों संवेदनहीन हैं। दोनों अपने फर्में में समाज और दुनियां को ढालना चाहते हैं।… लेकिन इनकी जिद्दी कारिस्तानियां ऐसी ही रही तो दुनियां कब्रिस्तान बन सकती है, इसलिए हिंसा का समर्थन नहीं किया जाना चाहिए।

अगर समाज थोड़ा सा चैकन्ना हो जाए तो आप को अपने आस-पास नक्सली पत्रकार,नेता, ,सामाजिक कार्यकर्ता, एनजीओ या किसी स्थानीय पार्टी के कार्यकर्ता के रुप में दिख सकते हैं। ये लोग अच्छे आचरणवान और बहुत सादगी पूर्ण तर्कसंगत जीवन यापन करते हुए अभाव में रहते हुए भी लोगों को वैचारिक रुप से संगठित करते हैं, लेकिन अन्ततोगत्वा इनका उद्देश्य सम्पूर्ण खूनी क्रांति ही होता है, ये अपना हार्ड कोर्ड कैडर उसी के लिए तैयार करते हैं। ये छुटपुट हिंसक वारदातें उसी की पूर्व रिर्हसल है । ठीक उसी प्रकार मुस्लिम चरमपंथी भी शहरों में ही छोट-मोटे रोजगार करते हुए नेटवर्किंग करते हैं और जिहाद के लिए आम मुस्लमानों को ट्रेंड करते हैं। ये इतनी सफाई और सचेत होकर अपना काम करते हैं कि सुरक्षा एजेंसियों को इनकी भनक नहीं लग पाती।