जन साहित्य ही असल साहित्य है।

  
डॉ0 नंद किशोर हटवाल
 जौनसार बावर के दूरस्थ गांव अटाल में एक चर्चा का आयोजन किया गया। विषय था ‘साहित्यक विमर्श : लोकजीवन संस्कृति और साहित्य।’ पर नजर सारे समाजिक सरोकारों पर थी। कृषि, बागवानी, आर्थिकी, स्वास्थ्य, शिक्षा, पालायन, संस्कृति, साहित्य, गीत, संगीत सहित पहाड़ी ग्रामीण जीवन के विविध सरोकार।
 यह इलाका सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से उत्तराखण्ड के दूसरे ग्रामीण इलाकों से आगे है। लेकिन गढ़वाल-कुमाऊं के मुकाबले इधर साहित्यिक आयोजन, चर्चाएं और गतिविधियां कुछ कम हैं। उत्तराखण्ड में भी ये गतिविधियां शहरों-कस्बों तक सीमित हैं। इस आयोजन के पीछे विचार था कि हमारे गांवों और इन इलाकों में भी बौद्धिक गतिविधियां और क्रियाकलापों का आयोजन किया जाना चाहिए। पहाड़ी शहरों में आज पहले के मुकाबले काफी सांस्कृतिक साहित्यिक गतिविधियों के आयोजन होने लगे हैं। साहित्यक गोष्ठियां, कविसम्मेलन, विचार विमर्श, चार्चाएं आयोजित हो रही हैं। बहुत सारी बातें यहां इन विमर्शों को करने के लिए अनुकूल हैं। इन सबको गांवों तक पहुंचाना भी जरूरी है। इस बहाने गांव की दीगर चीजों पर भी नजरें पड़ेंगी। हम गांवों में जाएंगे तो गांव हमारे अंदर उतरेगा। बड़े शहरों में दो-एक बहुत बड़े आयोजन कर देना ही हमारा अभीष्ट नहीं होना चाहिए। छोटे-छोटे रूपों में ये आयोजन गांव-कस्बों तक पहुंचने चाहिए। दो-चार बड़े लेखक पैदा करना, उनकी उपस्थिति में बड़े साहित्यिक उत्सवों का आयोजन करना, उन्हें बड़े पुरस्कारों से नवाजना ही हमारा लक्ष्य नहीं होना चाहिए बल्कि गांव-कस्बों में छोटे-छोटे स्तर पर अंकुरित होने वाले लेखन को भी खाद-पानी दिया जाना चाहिए। विमर्शों और चर्चा-परिचर्चा की संस्कृति को यदि हवा दें तो इन्हें खेती-किसानी के बीच और साथ-साथ भी पनपाया जा सकता है।
 ये तो अटाल में हुए आयोजन के पीछे के विचार हैं। वैसे विचारों की कमी नहीं है हमारे पास। बहुत बड़े-बड़े विचार, अच्छे विचार, महत्वपूर्ण विचार, उत्कृष्ट विचार सब मौजूद हैं। बहुत सारे पुराने विचार, जिनका कभी प्रयोग या क्रियान्वयन ही नहीं हो पाया, हमारे पास जमा हैं और नए-नए विचार भी पैदा होते जा रहे हैं। विचार करना बुद्धिजीवियों का बौद्धिक विलास हो गया है। लेकिन अटाल का आयोजन सिर्फ विचार नहीं विचारों का क्रियान्वयन भी था। सिर्फ विमर्श नहीं विमर्श का क्रियान्वयन भी कह सकते हैं इसे। साहित्यिक विमर्शों को बड़े शहरों मुम्बई, दिल्ली देहरादून की सम्पत्ति न मानते हुए इन्हें गांव-कस्बों में भी किया जाना चाहिए, इस विचार का क्रियान्वयन। मान लिया जाता है कि छोटे शहरों और गांवों में बुद्धिजीवी पैदा ही नहीं होते हैं। कोई गलती से पैदा हो भी गया तो उसे अपने जीवन को बुद्धि से चलाने के लिए शहरों में जाना ही होता है। लेकिन अटाल के आयोजन को इस धारणा को बदलने की एक कोसिश भी कहा जा सकता है।
 आयोजन के पहले दिन स्थानीय संस्कृति और साहित्य पर चार्चा हुई। यह सत्र लोकगीतों नृत्यों के संग्रहण तथा अभिलेखीकरण की चिंताओं पर केन्द्रित रहा। गोष्ठी में पुरोला से आये डॉ0 प्रहलाद सिंह रावत ने अपना वक्तव्य देते हुए रंवाई-जौनसार के इतिहास पर प्रकाश डाला। उन्हांने कहा कि इस क्षेत्र से पांडवों का भी संबंध रहा तथा यहां पर महाभारतकालीन कई साक्ष्य मिलते हैं। उन्होने महासू देवता को यहां की संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा बताते हुए कहा कि इस क्षेत्र में महासू देवता का पवाड़ा गाया जाता है। महाशू का वर्णन हारूल गीतों में भी है। ये गीत बड़ी मात्रा में इस क्षेत्र में प्रचलित है। इनका संग्रहण, संरक्षण होना आवश्यक है। उन्होंने लामण सहित रंवाई-जौनसार की कुछ विशिष्ट परम्पराओं का उल्लेख करते हुए कहा कि ये परम्राएं जीवित रहनी चाहिए।
  डॉ0 नंद किशोर हटवाल ने अपना वक्तव्य देते हुए कहा कि वर्तमान में हमारे पास काफी लोकगीत-नृत्य रूप विद्यमान हैं। हम नई तकनीकि का प्रयोग कर उनका संरक्षण कर सकते हैं।   पत्रकार इंद्रसिंह नेगी ने कहा कि लोकसाहित्य का संग्रहण एवं संरक्षण एक बड़ी चुनौती के साथ साथ बड़ी चिंता का विषय भी है। इसे कैसे किया जाय? इस पर बहस होनी चाहिए। जिस रूप में हम अपने गीतों और नृत्यों को संरक्षित करना चाहते हैं क्या हम कर पा रहे हैं। क्या अगली पीढ़ी इसे सुरक्षित रख पायेगी? उन्होंने कहा कि हमें गूगल बाबा से सब चीजें मिल रही है इसलिए कोई कुछ करना नहीं चाहता।
 गोष्ठी के मध्य रखे खुले सत्र में गीता गैरोला ने कहा कि बाहर के लोगों ने बहुत कुछ किया और बहुत कुछ कर भी रहे हैं लेकिन इस कार्यक्रम को करने का हमारा एक महत्वपूर्ण उद्देश्य यह है कि हम स्थानीय लोग इस दिशा में क्या कर सकते हैं। इस गोष्ठी को अटाल में रखने का उद्देश्य यह भी है कि अपने लोकगीत-नृत्यों, लोककथाओं, आंणे-पखाणों के संरक्षण में अटाल के लोग किस प्रकार अपना योगदान कर सकते हैं। टिहरी जाजल से आये अरण्य रंजन ने कहा कि लोकसाहित्य के संरक्षण में नई तकनीकि का सहारा लिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि हम संरक्षण के उद्देश्य से ही उस पर काम न करें बल्कि आने वाली पीढ़ी के सामने वो वातावरण भी जिंदा रखें जिसमें उन गीतों, गथाओं और लोककथाओं की रचना होती थी, उन गीतों को गाया जाता था, नृत्य किए जाते थे। इसके बाद देहरादून से आयी नीता कुकरेती ने अपने मधुर कण्ठ से एक लोकगीत प्रस्तुत किया।
 कार्यक्रम में अपने विचार प्रकट करते हुए सांसद प्रदीप टम्टा ने कहा कि जौनसार भावर की बहुत गौरवशाली संस्कृति है, इसका संरक्षण आवश्यक है। उन्होंने कहा कि या तो लोक होता है या यूनिवर्सल होता है। राष्ट्रों की अपनी कोई एक संस्कृति नहीं होती बल्कि वे विविध संस्कृतियों के समूह होते हैं। किसी एक देश की संस्कृति भी पग-पग पर बदलती रहती है। उन्होंने कहा कि जौनसार भावर की ये खूबसूरत संस्कृति हमारे देश की विविध रंगी गौरवशाली संस्कृति का एक हिस्सा है। इसके संरक्षण के साथ-साथ कलाकारों को भी संरक्षण दिया जाना आवश्यक है। इस सत्र का संचालन डॉ0 नंद किशोर हटवाल ने किया।
 द्वितीय दिवस के प्रथम सत्र में चर्चा का विषय था साहित्य की विभिन्न विधाओं की जनआन्दोलनो में भागीदारी। सत्र की शुरूवात में त्यूंणी से आये शिक्षक पूरन सिंह चौहान की कहानी संग्रह ‘एक आशियाना मेरा भी’ का विमोचन किया गया। इसके बाद कथाकार श्री चौहान ने अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बताते हुए अपनी एक कहानी का पाठ किया। इसके बाद कथाकार और समीक्षक डॉ0 विद्या सिंह ने कहानी पर अपने विचार प्रकट करते हुए पूरन सिंह चौहान की कहानी की समीक्षा की। कार्यक्रम में उपस्थित प्रतिभागियों ने भी कहानी पर टिप्पणी की।
 दिल्ली से आयीं नूर जहीर ने स्थानीयता पर अपना वक्तव्य देते हुए कहा कि अपनी बात पहुंचाने के लिए स्थानीय जबान का उपयोग बहुत कारगर होता है। लोगों के साथ जुड़ने के लिए उनकी जबान से भी जुड़ना जरूरी है। स्थानीय भाषा में यदि स्थानीयता का समावेश नहीं किया गया तो वो भाषा भी आगे बढ़नी बंद हो जाती है। स्थानीय भाषा में यदि नया साहित्य नहीं आता, नए मुहावरे नहीं आते तो वो आगे नहीं बढ़ पाती है। उन्होंने ब्रज और अवधी में लिखे गए साहित्य का उल्लेख करते हुए कहा कि ये भाषाएं लोकभाषाएं हैं लेकिन इनमें लिखा गया साहित्य बेहद मूल्यवान है। उन्होंने कहा कि विभिन्न जन आन्दोलनो से साहित्य पैदा होता है। जो आन्दोलन साहित्य पर निशान नहीं छोड़ता वो ज्यादा जिंदा नहीं रहता। मोहन चौहान ने अपने विचार रखते हुए कहा कि साहित्य रचना के लिए लोगों के बीच जाना आवश्यक है।
 सत्र के मुख्य वक्ता सांसद प्रदीप टम्टा ने कहा कि साहित्य के असली रचियता आम जन ही होते हैं। साहित्य आमजन के बीच ही पैदा होता है। समाज के अन्दर असंतोष है, विरोध के भाव हैं तो यही साहित्य के रूप में दर्ज होता है। वही साहित्यकार अमर होता है जो लोगों के बीच जा कर उनके दर्द को पहचाने। उन्होंने कहा कि कभी कभी जनआन्दोलन साहित्य को जन्म देता है और कभी साहित्य भी जनआन्दोलनो को जन्म देता है। उन्हांने गौर्दा, गिर्दा सहित उत्तराखण्ड के विभिन्न साहित्यकारों को याद करते हुए कहा कि कैसे उनकी रचनाओं का विभिन्न जनआन्दोलनों में उपयोग किया गया। उन्होने कहा कि हर आन्दोलन को हम जनआन्दोलन नहीं कह सकते हैं। सिर्फ जनता अथवा भीड़ की भागीदारी से कोई भी अन्दोलन जनआन्दोलन नहीं हो जाता। जो देश और समाज को आगे ले जाता है, लोगों को बंधनो से मुक्त करता है, लोगों की समानता की बात करता है वह जनआन्दोलन है। समाज और देश को जो पीछे की ओर ले जाय वो जनआन्दोलन नहीं। उन्होंने कहा कि भाषा को भी जीवित रहने के लिए आम जन से जुड़ना जरूरी है। जो भाषा आमजन से नहीं जुड़ पाती वो समाप्त हो जाती है। कोई भी भाषा सिर्फ कहानी कविता के दम पर आगे नहीं बढ़ती है बल्कि उसे जीवन के सभी क्षेत्रों से जुड़ना होगा।
 गोष्ठी में सुप्रसिद्ध फोटोग्राफर कमल जोशी, प्रवीन कुमार भट्ट, नीता कुकरेती, कल्पना बहुगुणा, इन्दू सिंह, दिनेश कंडवाल, चन्द्रशेखर तिवारी ने भी अपने विचार व्यक्त किए। अन्त में इस आयोजन के मेजबान सुभाष तराण ने सभी लोगों का धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कहा कि जो कोशिस हटाल से शुरू हुई वो आगे बढ़ेगी। इस सत्र का संचालन साहित्यकार गीता गैरोला ने किया।
 अटाल आर्थिक-सांस्कृतिक रूप से सम्पन्न गांव है। हमें कौन सी परम्परा छोड़ देनी चाहिए और कौन सी जीवित रखनी चाहिए इसे जौनसार-बावर के गांवों से पूछे कोई। यहां के लोगों ने जहां अपने लोकगीतों, नृत्य और संगीत की परम्परा को जिंदा रखा है वहीं अलाभकारी परम्परागत कृषि को छोड़कर व्यावसायिक कृषि को अपनाया है। यही इस समय पहाड़ के गांवों द्वारा अपनाया जाना जरूरी है। व्यावसायिक खेती ही यहां से पलायन रोक सकती है और इस राज्य को आर्थिक मजबूती दे सकती है, खाली हो चुके गांवों में पड़ी बंजर जमीनों की कीमत बढ़ा सकती है। जमीन जब दनादन पैंसा फेंकने लगे तो लोग उसे छोड़कर ऐसे भागते नहीं हैं। अपनी जमीन से प्यार करने लगते हैं। छोड़ने से पहले दस बार सोचते हैं। अपने लायख सुविधाएं वहीं जुटाने लगते हैं। वरना लंगूर, बंदरों और सुवरों के हवाले कर भाग जाते हैं मैंदानों और शहरों में। जैसे इस क्षेत्र में व्यावसायिक कृषि की संस्कृति का विकास हो चुका है वैसे ही इस राज्य के दूसरे पहाड़ी इलाकों में भी यह हो सकता है। हम हिमाचल का उदाहरण क्यों दें? इस इलाके का उदाहरण है ना! कोशिस करें तो कृषक अपनी परम्परागत अलाभकारी खेती छोड़ व्यावसायिक लाभकारी खेती अपना लेते हैं और जल्द ही यह व्यावसायिक खेती वहां की परम्परा का हिस्सा बन जाती है और समाज में व्यावसायिक खेती की संस्कृति विकसित हो जाती है। अटाल सहित यमुनाघाटी के दूसरे गांवों की प्रयोगशाला में यह बात सिद्ध हो चुकी है। बस प्रारम्भ में थोड़ा प्रयास किए जाने की जरूरत है।
 कृषि है तो पशुपालन है। गाय-बैल, भैंस भी पाले हैं गांव वालों नें। भेड़ बकरियां भी हैं। कृषि और पशुपालन है तो पर्यावरण भी सुरक्षित है। अटाल के नीचे बहती टौंस नदी और चारों ओर चहचहाते-उड़ते पंछी इसकी गवाही दे रहे थे।
 इस कार्यक्रम के बहाने अटाल के सही राम जी, डॉ0 प्रह्लाद सिंह रावत और पूरन सिंह चौहान से मिलना भी एक उपलब्धि रही।   सही राम जी इस आयोजन के मेजबान सुभाष तराण के पिता हैं। देखें तो असली मेजबान सुभाष पिता सही राम और माता विशिला देवी जी ही हैं। बेटे नौकरियां पर बाहर हैं लेकिन सही राम जी गांव में कृषि-वागवानी में लगे हैं। फल-सब्जियां उगाते हैं। लगभग 1 लाख रूपये प्रतिवर्ष कमा लेते हैं। अटान गांव के लोग बड़े पैमाने पर फल सब्जियों का उत्पादन करते हैं। कतिपय कास्तकार वर्ष में 3 से 4 लाख तक भी कमा देते हैं। यह रकम पहाड़ के संदर्भ में बहुत बड़ी रकम है।
 डॉ0 प्रह्लाद सिंह रावत अपने गांव खलाड़ी, पुरोला उत्तरकाशी में रहते हैं। उन्होने ‘टोंस उपत्यका का ऐतिहासिक एंव सांस्कृतिक अध्ययन’ विषय पर शोध किया है। वर्तमान में अपने गांव में रह कर कृषि-बागवानी और पशुपालन कर रहे हैं। सब्जियों का अच्छा उत्पादन कर लेते हैं, साथ ही धान, गेहूं और मक्का का उत्पादन भी करते हैं। इन कृषि उत्पादों से वो वर्ष में 4 लाख रूपये तक कमा लेते हैं। लेकिन प्रहलाद सिंह रावत की विशिष्ठता यह है कि अपनी धरती और अपने गांव में निवास करते हुए, कृषि-बागवानी में संलग्न रहते हुए भी वे निरन्तर लेखन कर रहे हैं। स्थानीय मेले, उत्सवो, संस्कृति, साहित्य, इतिहास और समाज पर अब तक उनके 36 से अधिक लेख तथा शोधपत्र विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं। वर्तमान में भी वे लगातार कृषि-बागवानी और लेखन में संलग्न हैं।
  कथाकार पूरन सिंह चौहान का कथा संग्रह एक आशियाना मेरा भी’ का विमोचन इस कार्यक्रम के पीछे खड़े विचारों का क्रियान्वयन सा रहा। पूरन सिंह त्यूनी तहसील के अंतर्गत पड़ने वाले रडू गांव के हैं। एम0ए0 हिंदी से करने के बाद यू0जी0सी0 नेट, यू सेट उत्तीर्ण किया है। पहले तीन काव्य संग्रह-अन्तर्मन, धूप के रंग, मीठी सी तल्खियां भाग, प्रकाशित हो चुके हैं। रागिनी तथा प्रयास वेब पत्रिकाओं सहित कई अन्य कई पत्रिकाओं में उनकी रचानाएं प्रकाशित होती रहती हैं। चौहान जी दिब्यांग हैं। चल-फिर नहीं पाते। लेकिन वे धुर पहाड़ में स्थित अपने गांव रडू में ही प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक हैं। धुर पहाड़, पहाड़ी गांव, रास्ते, दिब्यांगता, सरकारी शिक्षक और लेखन! बहुत जटिल रिश्ता है भाई। लेकिन जज्बा है तो पहाड़ भी झुकते हैं और रास्ते पैरों के तले खुद-ब-खुद बिछने लगते हैं।
 पूरन सिंह चौहान, डॉ0 प्रह्लाद सिंह रावत और सुभाष के पिता सही राम जी जैसे जज्बाधारी लोगों  लोगों के गांव जाकर उन्हें सलाम ठोकना जैसा भी कुछ समझ लो इस कार्यक्रम को!
 अटाल का यह आयोजन बिना किसी से एक पैंसे की सहायता लिए शून्य बजट का कार्यक्रम था। पूर्ण रूप से स्ववित्तपोषित। किसी संस्था, संगठन द्वारा आयोजित-प्रायोजित नहीं। साहित्यकार गीता गैरोला एंव पत्रकार प्रवीण भट्ट की अगुवाई एवं अटाल के युवा साहित्यकार सुभाष तराण की मेजबानी में यह कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।  पहले भी सोचा गया था पर विमर्श के दौरान भी कार्यक्रम के इस स्वरूप को जगह-जगह फैलाने की मंशा पुनः उपजी। हमारे गांव-कस्बे में कोई दाल-भात खाने को दे और रात पैर पसारने का इंतजाम कर दे तो दो दिवसीय ऐसे कार्यक्रम के सिलसिले को लगातार आगे बढ़ाया जा सकता है। कम से कम पहाड़ के खुरदरेपन को अपने अंदर जीवित रखे, गांव की बास और लटक को कश कर पकड़े बुद्धिजीवी टाइप के, जमीन पर सो पाने और सामूहिक टॉइलैट प्रयुक्त करने का आनंद उठाने वाले लोग तो उसमें भाग ले ही सकते हैं। विमर्श के दौरान इसके लिए उत्साह भी पैदा हुआ और कार्यक्रम में सम्मिलित दीपा, जो कि हंस फाउडेशन में मैनेजन हैं, ने अगला कार्यक्रम लाखामण्डल में करने का आमंन्त्रण दे डाला तो अरण्य रंजन, रतन अस्वाल और पूरन सिंह की भी अपने-अपने इलाके में इस प्रकार का कार्यक्रम आयोजित करने की सहमति आयी है।
 ऐसा नहीं कह सकते कि उत्तराखण्ड में इस प्रकार से आयोजित यह कार्यक्रम पहली बार और अभिनव है। यह धरती ऐसे सादे कार्यक्रमों के अनुकूल हैै। गांव में जाओ तो रहना खाना दे देते हैं लोग। और ऐसा पहले भी हुआ है। प्रो0 शेखर पाठक की अगुवाई में आयोजित अस्कोट-आराकोट यात्रा इसी विचार और स्वरूप का कार्यक्रम है। गांव को अपनी गतिविधियों और चिंतन के दायरे में रखने वाला घस्येरी प्रतियोगिता कार्यक्रम भी पिछले दिनो चर्चित रहा।  गोष्ठी का उद्देश्य क्या था? किस बात पर चर्चा हुई? चर्चा के क्या परिणाम निकले? यह इस पूरे संदर्भ में इतना महत्वपूर्ण नहीं। बहुत सारी गोष्ठियों के बहुत सारे परिणाम धूल फांक रहे हैं हमारे देश में। इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है विचारों, परिणामों और निष्कर्षों को क्रियान्वयन करने की कोशिसें।
 बिना किसी अध्यक्ष और मुख्य अतिथि वाले इस कार्यक्रम में राज्यसभा सांसद प्रदीप टमटा का पहुंचना सुखद था। सांसद न सिर्फ पहुंचे, बल्कि पूरे दो दिन तक गोष्ठी में आम प्रतिभागी की तरह वैचारिक सक्रियता के साथ प्रतिभाग किया। राजनैतिक हवाबाजी से उलट वैचारिक गाम्भीर्य और जमीनीपन के साथ। दालभात सटकायी और एक बड़े हाल में पुराने जमाने के पौंणों (बरातियों) की तरह, बिना किसी सत्ता की हनक के साथ जमीन पर सोए। सादा जीवन उच्च विचार वाली जीवन शैली को तरजीह देने वाले हम भारतीयों के लिए लगभग दुर्लभ होती जा रही है राजनेताओ की ये सादगी। यदि कोई ऐसा करता है तो नोटिस लिया जाना चाहिए, सो नोटिस लिया।