प्यूंली की मार्मिक लोक कथा, उत्तराखंड में इस बार जम कर मनायी गयी ‘फुलसंग्रांद’ देवों की उतर यात्रा का पर्व

एक वनकन्या थी, जिसका नाम था फ्यूंली। फ्यूली जंगल में रहती थी। जंगल के पेड़ पौधे और जानवर ही उसका परिवार भी थे और दोस्त भी। फ्यूंली की वजह से जंगल और पहाड़ों में हरियाली थी, खुशहाली। एक दिन दूर देश का एक राजकुमार जंगल में आया। फ्यूंली को राजकुमार से प्रेम हो गया। राजकुमार के कहने पर फ्यूंली ने उससे शादी कर ली और पहाड़ों को छोड़कर उसके साथ महल चली गई। फ्यूंली के जाते ही पेड़-पौधे मुरझाने लगे, नदियां सूखने लगीं और पहाड़ बरबाद होने लगे। उधर महल में फ्यूंली ख़ुद बहुत बीमार रहने लगी। उसने राजकुमार से उसे वापस पहाड़ छोड़ देने की विनती की, लेकिन राजकुमार उसे छोड़ने को तैयार नहीं था…और एक दिन फ्यूंली मर गई। मरते-मरते उसने राजकुमार से गुज़ारिश की, कि उसका शव पहाड़ में ही कहीं संस्कार कर दे। फ्यूंली का शरीर राजकुमार ने पहाड़ की उसी चोटी पर जाकर संस्कार किया जहां से वो उसे लेकर आया था। जिस जगह पर फ्यूंली को दफनाया गया, कुछ महीनों बाद वहां एक फूल खिला, जिसे फ्यूंली नाम दिया गया। इस फूल के खिलते ही पहाड़ फिर हरे होने लगे, नदियों में पानी फिर भर गया, पहाड़ की राजी खुशी फ्यूंली के फूल के रूप में लौट आई। इसी फ्यूंली के फूल से द्वारपूजा करके लड़कियां फूलदेई में अपने घर और पूरे गांव की खुशहाली की मनौती करती हैं। फूल देई, छम्मा देई,

देणी द्वार, भर भकार,

ये देली स बारम्बार नमस्कार,

फूले द्वार…फूल देई-छ्म्मा देई.

फूल देई माता फ्यूला फूल

दे दे माई दाल-चौल।

चित्र – राजकीय बालिका इंटर कॉलेज ऋषिकेश उत्तराखंड में इस बार फुलसंग्रांद (चैत्र मास की संक्रांति) कहा जाता है कि उत्तराखंड में देवों की उतर यात्रा का पर्व है इस बार जम कर मनाया गया। उत्तराखंड के विद्यालयों में फुलसंग्रांद का पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। उत्तराखंड के पर्वतीय विद्यालयों के साथ ही देहरादून के विद्यालयों में भी इस पर्व पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया और नयी पीढ़ी को आपनी सांस्कृतिक अक्षुण्णता बनाये रखने के लिए प्रेरित किया गया।