किरकिरी के बाद उत्तराखंड सरकार ने 74 संस्कृत महाविद्यालयों को स्कूल बनाने वाले आदेश में किया संशोधन लेकिन संस्कृत महाविद्यालयों की वित्तीय सहायता अभी भी अधर में

*उत्तराखण्ड सरकार ने किया संस्कृत का अपमान”*

संस्कृत महाविद्यालयों पर तुगलकी फरमान से क्षेत्रीय जनता में आक्रोश है सचिव संस्कृत शिक्षा के 16 अक्टूबर 2023 के आदेश से प्रदेश के सभी संस्कृत महाविद्यालयों की सरकार ने जिम्मेदारी लेने से पल्ला झाड दिया और संस्कृत विश्वविद्यालय हरिद्वार के माथे पर ठीकरा फोड दिया कि वही देखेगे ।

अंग्रेजों के जमाने से अपने को स्वतंत्र रूप से संस्कृत की शिक्षा देने वाले संस्कृत महाविद्यालयों पर भाजपा सरकार ने लगाई गुलामी की मोहर,।

स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए गुप्त मंच देने वाले ये संस्कृत महाविद्यालयों ने स्वतंत्रता के लिए अनेक सराहनीय कार्य किये। जिन पर अंग्रेजों को भी कभी शक नहीं हुआ। और अंग्रेज भी इनको अनुदान देते रहे। इस संस्कृत विद्यालयों ने शिक्षा के क्षेत्र में देश के लिए सबसे बडा योगदान दिया। इनकी महत्ता और त्याग को समझ कर आजादी के बाद की सरकारों ने भी इन्हें बदस्तूर अनुदान देते रहे।

देश की सांस्कृतिक विरासत के वाहक इन विद्यालयों को हर सरकार ने आदर की दृष्टि से देखा। कोई गैर जिम्मेदाराना कदम नहीं उठाया बल्कि बामपंथ विचारधारा के अफसरों ने हमेशा इनका अहित ही चाहा जो आज सबके सामने है।

इन संस्कृत विद्यालय/महाविद्यालयों में नियुक्त शिक्षकों ने आज तक सबसे कम वेतनमान में काम किया। क्योंकि ये सबसे अधिक राष्ट्र प्रेमी होते है ये पूरे राष्ट्र को अपना परिवार मानते है इसलिए खुद कम खाकर औरों की परवाह करते है। इनके लिए मेजर जनरल भुवन चन्द्र खण्डूडी ने अपने मुख्यमंत्री काल में थोडा सहयोग देकर माध्यमिक की भांति वेतन करवाया। जिससे संस्कृत अध्यापकों को भी सरकार से अच्छी अनुभूति प्राप्त हुई।

फिरभी इन संस्कृत महाविद्यालयों के प्राध्यापकों ने सिर्फ माध्यमिक का वेतन ग्रहण करके पिछले १००से१५० सालों तक राष्ट्र के प्रति समर्पित होकर उच्च शिक्षा को आज तक मुफ्त पढाया है और देश के लिए हजारों करोड बचाये है, कभी कोई अनैतिक मांग नही की है, न सरकार के विरुद्ध कोई आन्दोलन किया है।

राष्ट्र की सही स्थिति देखकर इन्होंने भी उच्चशिक्षा का वेतनमान सरकार से मांगा तो सरकार ने इनकी तपस्या का ये फल दिया कि प्रदेश में संचालित 74 महाविद्यालयों मे से वर्गीकृत 31 संस्कृत महाविद्यालयों की जिम्मेदारी संस्कृत विश्वविद्यालय हरिद्वार के माथे डाल दिया । क्या इतना वित्तीयभार संस्कृत विश्वविद्यालय हरिद्वार उठा पायेगा? बिना वित्त के कोई शिक्षक उच्च शिक्षा में शिक्षणकार्य नही करेगा तो

इनमें पढने वाले छात्रों का क्या होगा?

जबकि उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय परिनियमावली 2007, 2009, 2011 के अनुसार सभी शिशकों की नियुक्ति उच्चशिक्षा के मानकानुसार की गयी थी। फिर भी सचिव के इस फैसले से सभी शिक्षक माध्यमिक से आगे नही पढा पायेगा।

परन्तु राष्ट्र को समर्पित ये शिक्षक क्या सरकार के इस फैसले को मानेगे?

“न भूतो न भविष्यति”

फिर सरकार ने अपनी किरकिरी क्यो की होगी? क्या लालच रहा होगा कि जिसकी पूर्ति न होने से महाविद्यालय की जिम्मेदारी न लेने का आदेश संस्कृत सचिव को देना पडा। पर इस्लामिक स्टेडी से बने आईएएस को इतना भी ज्ञान नही कि वो आदेश निकालने से पहले नैसर्गिक न्याय का अवलोकन करता। इससे अच्छा निर्णय तो एक भेड पालक भी कर सकता था फिर आईएएस करने का क्या औचित्य। आज संविधान भी खुद पर लज्जित होगा की देश की बागडोर कैसे हाथो में है।

सरकार के पास गाड गदेरों में पैसे बहाने के लिए है पर देश के छात्रों को शिक्षा देने वाले शिक्षकों के लिए वेतन नहीं है , ये सरकार का मानसिक दिवालिया पन नहीं तो क्या?

श्री बदरीश कीर्ति संस्कृत महाविद्यालय डिम्मर सिमली के प्राध्यापकों से संपर्क किया गया तो उन्होंने बताया कि संस्कृत शिक्षा सचिव का आदेश संस्कृत की प्रगति में बाधक है इस आदेश से पूरे संस्कृत जगत की व्यवस्थाओं को भारी नुकसान होगा जिससे जनता में गलत संदेश जायेगा कि शिक्षकों का ही भविष्य सुरक्षित नही तो छात्रों का कैसे होगा? जिससे संस्कृत के प्रचार प्रसार में कमी आयेगी दसकों बाद लोग भूल जायेगे कि संस्कृत भी कोई भाषा थी? सचिव महोदय का ये आदेश असंवैधानिक है। इस अवसर पर क्षेत्र पंचायत सदस्य ग्राम पंचायत सदस्यों प्रधान आदि क्षेत्रीय जनता ने आक्रोस प्रकट करते हुए आंदोलन की चेतावनी दी।

महाविद्यालयों के लिए वर्गीकरण के बाद वित्त की मांग की गयी थी।
जिसमे सचिव ने उच्चशिक्षा का वित्त न देना पडे इसलिए महाविद्यालय के संचालन के लिए विश्वविद्यालय के माथे थोप दिया और जो नियुक्त कार्यरत कर्मचारी है उनको वर्तमान की भांति माध्यमिक के अनुसार वित्त मिलता रहेगा। सर्त रही है कि वे माध्यमिक ही पढायेगे।
ऐसा होता है तो उच्चशिक्षा के छात्र कैसे पढेगे? छात्रों के हित की लडाई है ये १०० वर्षो से भी उच्च शिक्षा को अध्यापक आजतक निशुल्क पढाता आया है ऐसे करके इन शिक्षकों ने सरकार के हजारों करोड बचाये है।
अब पारिश्रमिक मांग रहे है तो सरकार महाविद्यालय के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिये है।

भाजपा का सनातन विरोधी के रूप में उभरना उत्तराखंड की सनातन धर्मावलंबियों को अच्छा नहीं लगता है। इस संबंध में संस्कृत महाविद्यालयों के शिक्षक संघ ने अनेक ज्ञापन भी दिए लेकिन सरकार ने अभी तक इनका संज्ञान नहीं लिया। 

ऐसे तुगलकी फरमान से मीडिया में जब सरकार की खासी किरकिरी हुई तो सरकार ने आनन-फानन में संशोधन आदेश निकाला जिससे पूर्व की यथा स्थिति बहाल हो गई। 

लेकिन संस्कृत महाविद्यालयों को वित्तीय सहायता के बदले ठेंगा ही दिखा रखा है । वहीं संस्कृत महाविद्यालयों संगठनों और छात्रों ने सरकार से महाविद्यालयों को पृथक से वित्तीय सहायता की मांग की है। उत्तराखण्ड के संस्कृत महाविद्यालयों में पढाने वाले प्राध्यापकों को वर्षो से माध्यमिक का ही वेतन सरकार देती आयी है । जबकि भारत विश्व की पांचवी अर्थव्यवस्था बन गया है तो उत्तराखंड के संस्कृत महाविद्यालयों में पढाने वाले प्राध्यापकों ध्यापकों को भी उच्च शिक्षा का वेतनमान मिलना चाहिए। दो वर्ष पूर्व मुख्यमंत्री के विशेषाधिकार विचलन से भी अनुमोदित हो कर न्याय एवं वित्त विभाग की मंजूरी के बाद भी संस्कृत शिक्षा सचिव स्तर से सिर्फ हस्ताक्षर होने थे लेकिन सचिव ने लम्बे समय से शासनादेश पर हस्ताक्षर नही किये है ये सरकार की कार्यशैली पर भी प्रश्न चिह्न उठाता है । सचिव को आदेश पर हस्ताक्षर कर सरकार के कार्यो में सहयोग करना चाहिए। ताकि संस्कृत महाविद्यालयों की व्यवस्था सुदृढ हो सके। इसीलिए संस्कृत महाविद्यालयों संगठन और छात्र सरकार से महाविद्यालयों को पृथक से वित्तीय सहायता की मांग कर रहे है