क्या महाभारत युद्ध के बाद शस्त्र विद्या और उसके गुरु लुप्त हो गये?

महाभारत के समय श्रीकृष्ण जी महाराज की भौतिक आयु 83 वर्ष, अर्जुन की भी लगभग इतनी ही थी।

युधिष्ठिर जी 91वर्ष के थे, द्रौपदी लगभग 70 वर्ष की थी।

दुर्योधन 90 वर्ष के, अभिमन्यु 16, शिखंडी सौ के आस पास, धृष्टद्युम्न 70, भीष्म जी 600, कृपाचार्य एवं द्रोणाचार्य 400, बाह्लीक 900 के लगभग, एवं कर्ण की आयु लगभग 140 वर्ष की थी। महाभारत में 18 अक्षौहिणी सेनाओं ने पैंसठ वर्ग किमी के क्षेत्र में युद्ध किया था।

पहले दोनों ओर से नौ नौ अक्षौहिणी सेनाएँ थीं, लेकिन छल से द्वारिका और मद्र देश की सेनाओं को अपने पक्ष में कर लेने से कौरवों की सेना बढ़ कर ग्यारह अक्षौहिणी हो गयी तथा पांडवों की सेना घट कर सात अक्षौहिणी रह गयी।

मनुष्यों के अतिरिक्त इस युद्ध में पांडवों की ओर से भीमपुत्र घटोत्कच के नेतृत्व में लंकापुरी एवं असम के मायांगपुरी की राक्षस सेना तथा भोगवती पुरी से अर्जुनपुत्र इरावान के नेतृत्व में नाग सेना भी युद्ध कर रही थी।
इरावान को छल से अलम्बुष ने मारा था।

कौरवों की ओर से पाताल लोक से अलायुध के नेतृत्व में एवं मर्त्यलोक से अलम्बुष के नेतृत्व में राक्षस सेना युद्ध कर रही थी।

इन दोनों राक्षसों को राक्षसराज घटोत्कच ने मारा था तथा घटोत्कच को कर्ण ने एकवीरघातिनि शक्ति से मारा था।

एक अक्षौहिणी कौरव सेना का संहार केवल घटोत्कच ने अपने मरने के बाद किया था।

जिस समय उसकी मृत्यु हुई उस समय वह आकाश में विचरण कर रहा था, उसने माया से अपना शरीर कई कोस का कर लिया था जिससे उसके शव के गिरने पर कौरवों की एक अक्षौहिणी सेना दब कर मर गयी।

एक अक्षौहिणी सेना में 21870 हाथी, 21870 रथ, 65610 घोड़े तथा 109350 पैदल सैनिक होते हैं।यदि संख्या का ध्यान न रख कर केवल सेना देखी जाए तो इसे ही चतुरंगिणी सेना कहा जाता है।

हर रथ में चार घोड़े और उनका सारथी होता है जो बाणों से सुसज्जित होता है, उसके दो साथियों के पास भाले होते हैं और एक रक्षक होता है जो पीछे से सारथी की रक्षा करता है और एक गाड़ीवान होता है।

हर हाथी पर उसका हाथीवान बैठता है और उसके पीछे उसका सहायक जो कुर्सी के पीछे से हाथी को अंकुश लगाता है; कुर्सी में उसका मालिक धनुष-बाण से सज्जित होता है और उसके साथ उसके दो साथी होते हैं जो भाले फेंकते हैं और उसका विदूषक होता है जो युद्ध से इतर अवसरों पर उसके आगे चलता है।

तदनुसार जो लोग रथों और हाथियों पर सवार होते हैं उनकी संख्या 284323 होती है।जो लोग घुड़सवार होते हैं उनकी संख्या 87480 होती है।
एक अक्षौहिणी में हाथियों की संख्या 21860 होती है, रथों की संख्या भी 21870 होती है, घोड़ों की संख्या 153090 और मनुष्यों की संख्या 459283 होती है।

एक अक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों- हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों-की कुल संख्या 634243 होती है।अठारह अक्षौहिणीयों के लिए यही संख्या 11416374 हो जाती है अर्थात् 393660 हाथी, 2755620 घोड़े, 8267094 मनुष्य।

महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद कौरवों की सेना पूरी तरह समाप्त हो गयी थी परंतु पांडवों की सेना में एक अक्षौहिणी का लगभग चौथाई भाग अब भी बच रहा था। हालाँकि इसे भी उसी रात अश्वत्थामा ने छल से मार डाला था।

महाभारत युद्ध में पूरे विश्व के सर्वश्रेष्ठ 100 राज्यों में से मात्र एक चौथाई ही आये थे। बाकी सभी स्थानीय राजा थे। बाद में इस सभी शेष राजाओं को अर्जुन ने अश्वमेध यज्ञ में समय दिग्विजय में बड़ी कठिनाई से जीता था।

महाभारत युद्ध में 1660020000 लोग मारे गए थे तथा 24165 लोगों का कोई पता नहीं चला था।यह सूचना आधिकारिक रूप में महाराज युधिष्ठिर ने प्रतिस्मृति सिद्धि के माध्यम से महाराज धृतराष्ट्र को दी थी।

(उपरोक्त जानकारी कई प्राचीन ग्रंथों के अवलोकन एवं समायोजन से प्राप्त हुई है)

महाभारत गुरुओं से भरी पड़ी है।

यहाँ सब कुछ न कुछ सीखने ही आ जा रहे होते हैं।
शुरुआत में कौशिक नाम के ब्राह्मण एक धर्म व्याध से व्याध गीता सीखने जा रहे होते हैं तो अंत के हिस्से में भीष्म शरसैय्या पर लेटे हुए भी करीब दर्ज़न भर गीताएँ सुना देते हैं।ज्यादातर ऐसे प्रसंगों में स्त्रियाँ प्रश्न पूछ रही होती हैं, या जवाब दे रही होती हैं।

दार्शनिक मुद्दों पर स्त्रियों का बात करना कई विदेशी अनुवादकों और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की दृष्टि से सही नहीं रहा होगा।
शायद इस वजह से ऐसे प्रसंगों को दबा कर सिर्फ युद्ध पर्व के छोटे से हिस्से पर जोर दिया जाता रहा है।

सीधे स्रोत के बदले, कई जगह से परावर्तित होकर आई महाभारत की जानकारी की वजह से आज अगर महाभारत काल के गुरुओं के बारे में सोचा जाए तो सिर्फ दो नाम याद आते हैं।

महाभारत में, आपस में साले बहनोई रहे कृपाचार्य और द्रोणाचार्य ही सिर्फ गुरु कहने पर याद आते हैं।

कृपाचार्य हस्तिनापुर में कुलगुरु की हैसियत से पहले ही थे, लेकिन वो शस्त्रों की शिक्षा देने के लिए जाने भी नहीं जाते थे और शायद तीन पीढ़ियों में एक पांडु के अलावा

कोई अच्छा योद्धा भी नहीं हुआ था, इसलिए ऐसे गुरु की जरूरत भी नहीं पड़ी थी।

द्रोण का समय काफी गरीबी में बीत रहा था इसलिए वो आजीविका की तलाश में भटक रहे थे।

अपने पुत्र अश्वत्थामा को दूध दे पाने में असमर्थ अपनी पत्नी को देखकर वो अपने साथ ही शिक्षा पाए राजा द्रुपद से मदद माँगने गए थे।

यहाँ (संभवतः अग्निवेश नाम के गुरु के पास) द्रुपद और द्रोण साथ होते हैं।
हमें महाभारत से ही पता चलता है कि द्रोण के गुरु परशुराम भी थे। बाद के कई स्वनामधन्य बताते हैं कि परशुराम सबको नहीं, केवल ब्राह्मणों को शिक्षा देते थे।

पता नहीं भीष्म जैसों ने परशुराम से शिक्षा क्यों और कैसे पाई। पांचाल से मदद के बदले दुत्कारे जाने पर क्रुद्ध द्रोण हस्तिनापुर में थे जब युद्ध में कुशल भीष्म को उनकी खबर मिल गई।

भीष्म के बारे में भी महाभारत बताता है कि वो परशुराम के ही शिष्य थे, ब्राह्मण वो भी नहीं होते।

मगर जितनी आसानी से भीष्म को द्रोण का पता चलता है और वो उन्हें आचार्य बनाते हैं, इस से ये जरूर अंदाजा हो जाता है कि उनके पास एक काफी मजबूत जासूसों का तंत्र था।

इतने सजग गुप्तचर जो बच्चों के खेलने पर भी निगाह रखते और कुरु पितामह को सूचित कर रहे होते थे।

द्रोण को चुनने में उन्होंने भूल भी नहीं की थी।

जैसे परशुराम खुद थे उस से बेहतर उन्होंने अपने शिष्यों को बनाया था।
परशुराम के युद्ध में कभी हारने का कोई जिक्र कहीं नहीं आता।

सिर्फ एक बार जब युद्ध बिना निर्णय के समाप्त हुआ था तो वो युद्ध उनके अपने ही शिष्य भीष्म से हुआ था।

भीष्म पहले तो परशुराम से लड़ने के लिए तैयार नहीं थे।

उनका कहना था कि मुक्त, अमुक्त, मुक्तामुक्त और यंत्र मुक्त चारों तरह के हथियारों की शिक्षा उन्होंने परशुराम से ही ली है।

लड़ाई इस आधार पर शुरू होती है कि उठे हुए शस्त्र का सामना करना क्षत्रिय धर्म है, भले ही उसमें ब्राह्मण का सामना करना पड़े। इसलिए भीष्म के लिए परशुराम से लड़ना पड़ा।

हथियारों के इतने किस्म महाभारत में ?

ये महाकाव्य भी है, और महाकाव्य में सेना के संयोजन और उसके प्रस्थान का जिक्र होना भी एक जरूरी लक्षण होता है।

उसके बिना वो महाकाव्य ही नहीं होता।

अस्त्र-शस्त्रों का इतना ही वृहद् वर्णन रामायण में भी मिल जाएगा, भगत वाली दृष्टि से देखने और दिखाने वालों ने उसे पढ़ाया-बताया नहीं इसलिए आप नहीं जानते।

लड़ाई कई दिन तक चली और अनिर्णीत थी, जब एक दिन विश्वकर्मा के बनाए प्रस्वपन या प्रजापत्य नाम के अस्त्र का संधान करने की सलाह भीष्म को ब्रह्मा ने दी।

अगली सुबह इसका भीष्म संधान कर ही रहे थे कि नारद ने आकर उन्हें रोका।

नारद की सलाह पर भीष्म ने हथियार वापस तो ले लिया मगर जब परशुराम को पता चला तो उन्होंने कहा कि अगर किसी ने मेरे ऊपर चला शस्त्र ये सोचकर रोक लिया कि मैं उसका सामना नहीं कर पाऊँगा तो मुझे हारा हुआ ही मानना चाहिए।

ये सोचकर वो युद्ध आधे में ही रोककर चल दिए।

परशुराम के शिष्यों में सिर्फ भीष्म और द्रोण जैसे ना हारने वाले योद्धा ही नहीं थे।

कृष्ण से उनकी दो मुलाकातों का भी जिक्र महाभारत में आता है। एक बार तो कृष्ण जब अपनी नयी राजधानी के लिए स्थान चुन रहे होते हैं तब वो परशुराम से सलाह लेते हैं।

परशुराम उन्हें बताते हैं कि द्वारका के लिए वो जिस जगह का चुनाव कर रहे हैं, वो जलमग्न हो जायेगी, लेकिन सुरक्षा के लिहाज से द्वारका ही सर्वोत्तम थी।

उसके सिवा किसी और जगह पर परशुराम और कृष्ण एकमत नहीं हो पाए।

महाभारत काल के कृष्ण को खांडववन जलाने से ठीक पहले अग्नि आकर सुदर्शन चक्र देते हैं, लेकिन उसे चलाना कृष्ण ने अपने गुरु संदीपनी से नहीं बल्कि परशुराम से सीखा था।

परशुराम के ये शिष्य ब्राह्मण नहीं बल्कि वही कृष्ण थे जिन्होंने शिशुपाल पर सुदर्शन चक्र चलाया था।

शिशुपाल उस समय श्री कृष्ण को क्षत्रियों के बीच बैठा गाय दुहने वाला, और अन्य तरीकों से नीच घोषित करने पर तुला था।

नाजायज तरीकों से शिक्षा लेने पर गुरु-शिष्य में से एक की मृत्यु होती है, इसी तर्क के साथ महाभारत के शुरुआत में ही उत्तंक अपने गुरु वेद को गुरुदक्षिणा लेने के लिए राजी कर रहा होता है।

इस नियम को तोड़ने के लिए ही परशुराम के एक शिष्य को उन्होंने शाप भी दिया था।

कोई भी शापित होने के बाद परशुराम के क्षेत्र में नहीं रह सकता था इसलिए कर्ण को अधूरी शिक्षा पर ही लौटना पड़ा था।

आज की भाषा में कर्ण ड्रापआउट होते लेकिन फिर भी उन्हें युद्ध में हराने के लिए असाधारण योद्धाओं की जरुरत पड़ती थी।

महाभारत के काल के नील, वृष्णि योद्धाओं और भगदत्त के भी कर्ण से (दिग्विजय के दौरान) हारने का जिक्र आता है।

कर्ण के हारने और भागने का जिक्र एक बार पांडवों के वनवास के दौरान आता है।

जब पांडवों को चिढ़ाने आये दुर्योधन का वन की सीमा पर ही एक चित्रसेन नाम के गन्धर्व से युद्ध हो जाता है।

कर्ण को यहाँ हारकर भागना पड़ता है और दुर्योधन बाँध लिया जा

ता है, बाद में अर्जुन और भीम आदि पाण्डव आकर दुर्योधन को छुड़ाते हैं।

दूसरी बार कर्ण, भीष्म आदि सभी कौरव योद्धा पांडवों के अज्ञातवास के ख़त्म होने के समय अर्जुन से हारते हैं।

इस लड़ाई में अर्जुन प्रस्वपन या प्रजापत्य नाम का वही हथियार चला देते हैं जिसे शुरू शुरू में भीष्म ने परशुराम पर नहीं चलाया था।

चूँकि कौरवों ने द्रौपदी का वस्त्रहरण करने की कोशिश की थी, इसलिए बेहोश पड़े कौरवों के वस्त्र ले चलने की सलाह भी अर्जुन, राजकुमार उत्तर को देते हैं।

बाद में ये लुटे हुए कपड़े वो उत्तरा को गुड़िया बनाने के लिए दे देते हैं।

कर्ण के अर्जुन से हारने का कारण उनका ड्रॉपआउट होने के अलावा अभ्यास की कमी भी रही होगी।

आज के दौर में भी शिक्षक (और माता-पिता भी) कई बार जब लिखने और नोट्स लेने की सलाह देते हैं तो आलस के मारे वो एक कान से सुनकर दुसरे से निकाल दी जाती है।

कर्ण पर दिव्यास्त्रों का इस्तेमाल भूलने का गुरु का शाप था।

अप्रत्यक्ष रूप से अभ्यास की कमी से ये शाप फलीभूत हुआ।

एक तरफ अर्जुन उलूपी जैसी नागकन्या, अश्वसेन जैसे नागों से लड़ने का अभ्यास करते हैं, चित्रसेन जैसे गन्धर्वों से लड़ते हैं।

हनुमान और शिव जैसे प्रतिद्वंदियों (जहाँ हारना अवश्यंभावी था) से उलझने से भी अर्जुन नहीं चूकते।

वो द्रोणाचार्य से सीखने पर ही नहीं रुके, इंद्र से, शिव से भी उन्होंने शिक्षा ली, अप्सराओं से नृत्य भी सीखा और अज्ञातवास में सिखाया। दूसरी तरफ कर्ण बेचारे एक तो मानवों से ऊपर किसी से लड़े नहीं, तो दिव्यास्त्रों के इस्तेमाल का अनुभव नहीं रहा।

दुसरे एक बार जब शिक्षा छूट गई, तो फिर से किसी से सीखने की भी कोई ख़ास मेहनत नहीं की।

अर्जुन के गाण्डीव से निपटने के लिए विजया नाम का धनुष जुटाने के अलावा उन्होंने कोई विशेष अभ्यास नहीं किया।

इसलिए वो अर्जुन से हारते रहे, उनसे हमेशा निम्न रहे।

हथियारों के दक्षिण भारतीय युद्ध कला कलारीपयट्टू में शामिल होने का कारण भी परशुराम को ही बताया जाता है।

माना जाता है कि परशुराम से पहले ये कला अगस्त्यमुनि ने सिखाई थी मगर उनके काल में इसमें हथियार इस्तेमाल नहीं होते थे।

भारत के कई अजीब से हथियार (जो समय के साथ तेजी से ख़त्म हो रहे हैं) उनके होने का श्रेय परशुराम को ही जाता है।

दक्षिण भारत का एक बड़ा सा क्षेत्र आज भी परशुराम क्षेत्र कहलाता है।
महाभारत काल के इस गुरु के बाद से गुरुकुलों और युद्धकला सीखने सिखाने के केन्द्रों की जानकारी भी आश्चर्यजनक रूप से लुप्त हो जाती है।।