शब्जी के ट्रक जिस तेजी से पहाड़ चढ़े, पहाड़ की जवानी उसी तेजी नीचे उतरी 

डॉ हरीश मैखुरी

बीरों भड़ों को देश बावन गढ़ों का देश था अपना उत्तराखंड। हमें याद है अपना बचपन तब हर परिवार के अपने खेत अपनी गौशाला छानियां होती थी उसमें गाय भैंस बैल और बकरियां भी होते थे। बकरियां अधिकांशतया ऊन की दृष्टि से पाली जाती थी, गाय भैंस के गोबर की जैविक खाद जहां फसलों के लिए संजीवनी का काम करता था वहीं गोमूत्र कीटनाशक का काम करता था। उत्तराखंड की छोटी बद्री गायों का एक माणी (आधा किलो) दूध अमृत के समान होता था पूरे परिवार की चाय बनती, थोड़ी दही और मक्खन भी निकल आता था मट्ठे से झोली, पल्यो कई किस्म के साग बनते इसमें हरी सब्जियां उबाल कर खाने वाले उत्तराखंडी निरोग एवं हृष्ट-पुष्ट रहते थे।

यहां के 12 नाजा किसी मेडिसिन से कम नहीं थे जो भी मंडुवे की रोटी खाता उसे कभी ऑस्ट्रो कैल्शियम की कमी और जोड़ों के दर्द की बीमारी नहीं होती। जो भी गहथ कुलत की दाल खाता था उसको पथरी की शिकायत नहीं होती थी। उत्तराखंड की आटोनोमस अन्योन्याश्रित सस्टेनेबल आर्थिकी में पूरा परिवार वंधा रहता था, जंगली पशु खेती-बाड़ी को नुकसान ना पहुंचाएं इसके लिए हर गांव में चार पांच पंचायती कुत्ते होते और स्वैच्छिक बंदर हकाने वाले भी। प्रकृति के साथ विशेष तरह का गजब सामंजस्य था। कब वनों से फल तोड़ने हैं कब फूल तोड़ने हैं कब जड़ी बूटियां निकालनी है कब घास काटना है इस सब के नियम तय थे ताकि वहां बीज जमीन में झड़ जांय। शोरगुल और लाल पीले कपड़े पहन कर जंगल जाना निषेध था बणद्यो लग सकता था। देव वनों और बुगयालों में जाने के तिथि बार और नियम तो और भी कठोर थे। ताकि जंगली पशु विदकें नहीं उन्हें कष्ट न हो।


पैदल का जमाना था उत्तराखंड के गढ़वाल की तरफ से रामनगर ढ़ाकर कोटद्वार और कुमाऊं की तरफ से गरुड़ रामनगर हल्द्वानी जाकर पहाड़ी लोग कुछ आवश्यक सामान मुख्यतः नमक और गुड़ लाते थे। बाकी तेल और खाद्यान्न साग शब्जी दालें सभी चीजें पहाड़ में हो जाती थी। 1987 – 89 में भोटिया जनजाति पर शोध कार्य के दौरान चमोली में नीति माणा, पिथौरागढ़ में जोहार दारमा और उत्तरकाशी में नेलंग जाडंग घाटी के गांवों में अनेक ऐसे व्यापारियों से भी मुलाकात का सौभाग्य मिला जो तिब्बत में व्यापार कर चुके थे। तिब्बत को सागर अथवा भोटप्रांत कहा जाता था भोटप्रांत के साथ व्यापार करने के कारण सीमावर्ती क्षेत्रों के निवासियों को भोटिया कहकर पुकारा पुकारा जाता था। चमोली उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ जनपदों में तिब्बती नमक और मुलायम ऊन का कारोबार हमारे सीमावर्ती क्षेत्रों के ‘उबदेशी’ मित्र या मित्री किया करते थे। ये सभी लोग उबदेश की तरफ से तिब्बती नमक फरण, ऊन डोलू चोरू गंद्रायण आदि लाते थे और बदले में गंगाड़ के गांवों से कोदा साटी तिल भंगजीरा मिर्च आदि ले जाते थे। 1962 के भारत चीन सीमा विवाद के बाद इस जीवट जनजाति का तिब्बत व्यापार बंद होने पर उन्होंने ऊनी वस्त्र बनाने और आलू राजमा चौलाई उगानेे व पशुपालन कार्यों को बढ़ावा दिया। जोशीमठ क्षेत्र पंचायत के तत्कालीन प्रमुख गोविंद सिंह रावत और बचन सिंह भर्तज्या ने बताया कि आलू सेव राजमा ऊन नहीं होता तो हमारे भोटिया लोगों की स्थिति खराब हो गई होती, इनके द्वारा उगाए जाने वाला जैविक खाद का आलू शुगर के मरीज भी सब्जी बना कर खा सकते हैं बहुत ज्यादा मेहनत के कारण यह स्वादिष्ट आलू महंगा पड़ता है और मैदानी इलाकों से ट्रकों में भरकर आने वाला आलू बेस्वाद है लेकिन सस्ता होने के कारण पहाड़ी आलू पर भारी पड़ गया।1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद उत्तराखंड के गांवों से हर परिवारों के युवक फौज में जाने लगे, इससे छां (मट्ठा) पीने वाले गांवों में भी धीरे-धीरे चाय और शराब ने अपनी पैठ बना ली, अब तो ये शादियों पार्टियों में भी प्रचलन में देखी जाती है। हमारे बचपन में गांंवों में पर्याप्त सब्जियां होती थी जिस परिवार की सब्जी नहीं होती तो जिनकी ज्यादा सब्जियां होती थी दूसरे परिवार को बिना मांगे भी दे देता था। छां भी ऐसे ही फ्री में मिलती थी। 1980 के दशक से उत्तराखंड के लोग गांव की सब्जियां नजदीकी बाजार में भी बेचने लगे रानीखेत में तो लोग बाड़े खेतों के साथ ही अपनी छतों में भी केरेटों में सब्जियां उगाने लगे तब रानीखेत की सब्जीयां काफल लेंगुड़े आदि रोडवेज की छत में गोपेश्वर तक पहुंचती थी और गांव की सब्जियों से नजदीकी बाजार सजे रहते थे। युवा भी सब्जी उगाने में गांव में खासी रुचि दिखाते थे मनिआडरी इकोनॉमी भले थी लेकिन पलायन नहीं था, लोग नौकरी के बाद वापस अपने गांव ही आते इसलिए गांव आबाद थे। रामलीला, पांडव नृत्य, वैशाखी, उत्तरायण, शिवरात्रि आदि सभी मेले उत्सवों में चाय और पहाड़ी केले फल सब्जियों की दुकानें भी सजी रहती थी। लेकिन सन 2000 के बाद यूं कहें कि उत्तराखंड राज्य बनने के बाद नजीबाबाद मेरठ रामपुर आदि से सब्जी के ट्रक तेजी पहाड़ चढ़ने लगे इन ट्रकों की सब्जियां दिखने में अच्छी होती और इसके दाम भी पहाड़ की सब्जियों से जानबूझकर कम रखे जाते। धीरे-धीरे पहाड़ की सब्जी बाजार से गायब हो गई और ट्रकों की सब्जियों से उत्तराखंड के छोटे बड़े बाजार अटने लगे। हर दूसरी तीसरी दुकान सब्जी की खुलने लगी, इसी के साथ बिहार आदि क्षेत्रों से आने वाले लोगों की सोने चांदी की दुकानें भी फलने फूलने लगीं। फेरी वालों का भी गांव में जाल बिछाने लगा कतिपय जगह मस्जिदें भी उगने लगी, जबकि कई गांवों के मंदिर मकड़ी जाले चमगादड़ों का बसेरा बन गये।
राज्य बनने के बाद सिलसिला ऐसा बढ़ा है कि सब्जी के ट्रक रात दिन पहाड़ चढ़ने लगे इन ट्रकों से जो खाद और इंजेक्शन वाली सब्जी आती वह पहाड़ के गांव की जैविक सब्जी से दिखने में आकर्षक और पैसे में सस्ती होती, देहरादून में 5 रू गडी राई श्रीनगर पंहुचे ही 10 में और गोपेश्वर में 15 बिकने लगे तो खासा मुनाफा भी, लोग इन सब्जियों को खरीदने लगे और पहाड़ की पौष्टिक सब्जियां धीरे-धीरे उपेक्षित होने से सूखने लगी, इसी कारण कुछ जगहों नेपाली शब्जी उत्पादकों को छोड़कर शेष पहाड़ में सब्जी उगाने का धंधा धीरे-धीरे पीछे छूटता गया और पहाड़ के गांवों पर लंगूर बंदर और भालू और सूअर का साम्राज्य होने लगा। पहाड़ के विद्यार्थी इस बीच गांव की सरकारी प्राइमरी स्कूल छोड़कर अंग्रेजी स्कूलों का रूख करने लगे ये अंग्रेजी माध्यम स्कूलों से पास आउट युवा मैदानी इलाकों में छोटे-मोटे जॉब करने लगे और पहाड़ खाली होते चले गए। यह सिलसिला 90 दशक से शुरू हुआ और सन् 2000 में राज्य बनने के बाद तो पलायन को पंख लग गए स्थाई पलायन तेजी से आगे बढ़ा, अब तो पहाड़ की नियति बन गया। शब्जी आदि के ट्रक जिस तेजी से पहाड़ चढ़े, पहाड़ की जवानी उसी तेजी नीचे उतर गयी। सब्जी के ट्रक पहाड़ नहीं चढ़ते तो शायद पहाड़ इस कदर बर्बाद नहीं होते। सब्जी के ट्रकों का उत्तराखंड की स्वचालित अर्थव्यवस्था को चौपट करने में बड़ा योगदान है। एक अनुमान के अनुसार उत्तराखंड राज्य बनने के बाद 15 लाख लोगों ने स्थाई पलायन किया है करीब 500 गांव बंजर पड़ने की कगार पर हैं और 350 गांव खाली हो चुके हैं। पहाड़ के अधिकांश गांवों में कुछ बुजुर्ग, सामर्थ्य हीन गरीब परिवार, रिटायरमेंट के बाद कुछ वापस गांव आये और अनुसूचित जाति के कुछ लोग ही दिखते हैं, पहाड़ की जवानी पहाड़ से नदारद है। पलायन आयोग के सुझावों का इंतजार है उम्मीद है कि इस दिशा में वे सहायक होंगे। पौड़ी में प्रमोद खंण्डूरी और लाॅकडाउन के बीच बद्रीनाथ के विधायक महेंद्र भट्ट के आवाहन पर चमोली के बाजारों में कुछ दुकानदारों ने फिर से गांव की सब्जी बेचने की शुरुआत कर उम्मीद की आश जगाई है। यदि भावना ऐसी बनें तो संभावना अनंंत है।