ईरान को प्रमाणु संपन्न बनने से रोकना और वापस पर्शिया बनाना पूरे विश्व में शांति के लिए आवश्यक है।

यदि ईरान परमाणु संपन्न राष्ट्र बन जाता तो यह केवल एक देश के पास बम नहीं होता, बल्कि यह “सुपर इस्लामिक बम” कहलाता।

मतलब यह कि यह बम मुस्लिम जगत की सामूहिक संपत्ति जैसा होता, और इसका उपयोग केवल रक्षा के लिए नहीं, बल्कि दुनिया से इस्लामिक एजेंडा मनवाने के लिए होता।

कैसे…? 

भारत के आस-पास बसे देशों—

मालदीव, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, मलेशिया, इंडोनेशिया—को यह परमाणु बम और इसकी तकनीक जरूर मिलता।

और तब भारत जैसे देश को चारों तरफ से परमाणु खतरों में घिर कर रहना पड़ता। यह बम इस्लामिक विस्तारवाद को बढ़ावा देने वाला हथियार बनता, जिससे भारत की संप्रभुता पर सीधा हमला होता।

ये बम केवल देशों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि नॉन-स्टेट एक्टर्स—जैसे कश्मीरी, हैदराबादी, रोहिंग्या और लाल सलाम के कट्टरपंथी समूहों तक पहुंचाया जाता।

फिर ये कट्टरपंथी भारत में डर का माहौल बनाकर अपने लिए नए देश मांगते। और तब भारत को चारों तरफ से ब्लैकमेलिंग और परमाणु धमकियों का सामना करना पड़ता।

2014 से पहले भारत जैसे परमाणु संपन्न देश को भी पाकिस्तान जैसे गिरगिट देश से डर दिखाया जाता था।

और अगर ईरान के बम के नाम पर पूरी इस्लामी दुनिया को यह ताकत मिलती, तो सोचिए बांग्लादेश, मलेशिया जैसे देश कैसे रंग बदलते। भारत का कोई भरोसा नहीं रहता कि कौन कब दुश्मन बन जाए।

बहुत से भारतीयों को ईरान की असली नीति का अंदाज़ा ही नहीं है। 1979 में इस्लामी क्रांति के बाद आयतुल्ला खुमैनी ने जो नारा दिया था—”ना शरकीए, ना गरबीए, हुकूमते इस्लामिए”—वह पूरी दुनिया में इस्लामी शासन लाने का एलान था।

इसका मतलब था ना रूस, ना अमेरिका,

सिर्फ इस्लामी हुकूमत पूरी दुनिया में।

इसके बाद ईरान ने हमास, हिजबुल्ला जैसे संगठन खड़े किए। इस्लामिक आतंकवाद को संगठित तरीके से दुनिया भर में फैलाया। और भारत भी इस साजिश से अछूता नहीं रहा।

 

1989 में कश्मीर में जब अलगाववाद शुरू हुआ, तब श्रीनगर में ईरान समर्थित शिया धर्मगुरुओं ने पहली बार आज़ादी की मांग को मजलिस में उठाया। वहां से शुरू हुआ आंदोलन दशकों तक ईरान से फंडिंग पाता रहा।

ईरान के नेतृत्व का भारत से कभी गहरा संबंध नहीं रहा। आयतुल्ला खामनई ने CAA के खिलाफ बयान दिया था, शाहीन बाग की खुलकर वकालत की थी।

उनका व्यक्तिगत एजेंडा था: कश्मीर की आज़ादी, रोहिंग्या को राज्य, फिलिस्तीन को ग्रेटर एरिया और लेबनान में हिजबुल्ला की सत्ता।

भारत और ईरान के रिश्ते तब ही मजबूत हुए जब ईरान पर वैश्विक प्रतिबंध लगे। तब उसे भारत की ज़रूरत पड़ी—अनाज, व्यापार, तेल बेचने के लिए। उस समय ईरान ने मजबूरी में भारत से संबंध बनाए।

 

हकीकत यह है कि ईरान की नीति हमेशा भारत के खिलाफ रही है, चाहे नेतृत्व खुमैनी हो या खामनई।

 

ईरान के पास तेल और गैस की कोई कमी नहीं थी, लेकिन उसका पैसा जनता पर नहीं, दुनियाभर में आतंकवाद फैलाने में लगा।

आज ईरानी जनता गरीबी से जूझ रही है क्योंकि उनके शासकों ने देश को नहीं, आतंकियों को चुना। यही मुल्ला रेजीम की असलियत है—जिसका उद्देश्य इस्लामिक सत्ता का विस्तार है, शांति नहीं। और कुछ नहीं तो अमेकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने ईरान का प्रमाणु कार्यक्रम दस वर्ष पीछे धकेल दिया है। तब तक तो संसार में बहुत से समीकरण बदल जायेंगे। ईरान को प्रमाणु संपन्न बनने से रोकना और वापस पर्शिया बनाना पूरे विश्व में शांति के लिए आवश्यक है।