..उस बच्ची का खानाबदोश जीवन 

चाय का प्याला हाथ में लेकर रोज सुबह बालकनी में आता हूं तो बरबस ही नजर रेत-बजरी में खेलती उस बच्ची पर चली जाती है। उसके पास खिलौने नहीं, लेकिन खेलों की भी कमी नहीं। वह कभी पास पड़े लकड़ी के फट्टों को अलग-अलग तरह से जोड़ती है तो कभी बजरी के ढेर में बैठकर विभिन्न आकृतियों गढ़ लेती है। तभी उसका दूधमुंहा भाई घुटनों के बल चलते हुए सड़क पर चला जाता है तो सारे खेल छोड़ वह उसे संभालने के लिए दौड़ पड़ती है। 
नहाने के बाद तौलिया बालकनी में डालने आता हूं तो देखता हूं, बच्ची भाई को संभालने के अलावा चूल्हा जलाने के लिए इधर-उधर बिखरी लकड़ियां बीन रही है। तभी वह काम छोड़ लंगड़ी टांग कर नाचने का क्रम भी कर लेती है। 
दोपहर, दूूसरी, तीसरी पहर और फिर शाम को ढलते सूरज के साथ चाय का प्याला लेकर बालकनी में आता हूं तो देखता हूं, बच्ची अब भी उसी उत्साह के साथ अपने खेल में मग्न है। सर्दियों के दिन हैं। उसके तन पर एक फ्राक और फटे-हाल स्वेटर के अलावा कुछ नहीं है। भाई भी कुछ इसी हालत में है। अंधेरा हो चला है। बहुत देर तक वह लकड़ी के बुरादे के साथ खेलती रही। लेकिन अब वह उसे इकट्ठा कर एक कट्टे में भर रही है। मां जब चूल्हा जलाएगी, लकड़ी का बुरादा उसकी मदद करेगा। 
आस-पास आलीशान कोठियों का कंस्ट्रक्शन चल रहा है, लेकिन बच्ची का मकान बिना सिमेंट-बजरी के खाली ईंटों के ढांचे पर खड़ा है। ऊपर टीन की छत। दस या बारह साल की उम्र में बच्ची अब तक न जाने कितने ऐसे अस्थायी आशियाने बदल चुकी है। विहार मूूूल के उसके माता-पिता लोगों के लिए स्थायी आशियाना बनाने का काम करते हैं। पिता राजमिस्त्री तो मां मजदूरी का काम करती है। 
ऐसे ही घूमते हुए एक दिन बच्ची के पास चला गया। इधर-उधर की बातें की। उसके खेल की…? उसके भाई के बारे में पूछा…? मां-पापा प्यार करते हैं…? तुम्हें क्या खाना पसंद है…? तुम इतना खुश कैसे रह लेती हो…? तुम्हें ठंड नहीं लगती…? और न जाने क्या-क्या…
मैंने उससे नहीं पूछा तो ये कि तुम स्कूल क्यों नहीं जाती हो…? क्या तुम कभी स्कूल गई हो…? क्या तुम्हें पढ़ना अच्छा नहीं लगता…? तुम बड़े होकर क्या बनाना चाहती हो…?”( विनोद मुसान की वाल)