बंगाल को बर्बाद करने वाले बामपंथी?

कोलकाता क्यों मुम्बई से पीछे रह गया जबकि ब्रिटिश काल में दोनों की महत्ता समान थी ?

कमल पदम ने इसका उत्तर कोरा साइट पर दिया है।

मैं कोलकाता में उन दिनों पैदा हुआ जब मुंबई को कोलकाता के समक्ष पिछड़ा हुआ शहर माना जाता था। कोलकाता में तब भारत की टॉप 5 कंपनियों में से तीन बिड़ला, जेके, थापर के मुख्यालय थे। टाटा मुम्बई से कोलकाता शिफ्ट होने वाले थे, इसके लिए टावर भी बना लिया था।

कोलकाता लगभग सभी बहुद्देशीय कंपनियों का मुख्यालय था। भारत के सभी एयरपोर्ट को मिलाकर भी सबसे अधिक उड़ानें कोलकाता से संचालित होती थीं।

कोलकाता समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का केंद्र था और साथ ही विभिन्न संस्कृतियों का भी। ये बौद्धिकों, कलाकारों, फ़िल्म जगत से जुड़े लोगों का पसंदीदा स्थान था।

लेकिन पश्चिम बंगाल एक विस्फोट के मुहाने पर बैठा था। राज्य सरकार ने इसी समय कृषि क्षेत्र में भूमि सुधार का काम छोड़ दिया। बहुसंख्य खेतिहर अभी भी बिना जमीन के थे, उन्हें बँधुआ मजदूर की तरह काम करना पड़ता था। अब तक के सबसे अच्छे मुख्यमंत्री डॉ विधान रॉय की मृत्यु के पश्चात भूमिसुधार का काम ठप पड़ गया।

कम्युनिस्ट पार्टी ने इस निर्वात को भर दिया। उन्होंने उद्योगपतियों, महाजनों, सेठ साहूकारों को गरीब का खून चूसने वाला घोषित कर दिया और उनके विरुद्ध हिंसा का आह्वान किया। ये वो समय था जब सम्पूर्ण विश्व में वामियों के छद्म आदर्शवाद का उभार जोरों पर था।

जब वो सत्ता में आये तो मिलों में हड़ताल होना सामान्य बात हो गई। प्रायः हड़ताल हिंसा का रूप ले लेती, जिसमें लोगों को जान भी गँवाना पड़ता। सरकार इस सबका समर्थन करती। बड़े उद्योगपति मुम्बई, दिल्ली, कर्णावती, हैदराबाद आदि शहरों की ओर भागने लगे।

आदित्य बिड़ला को उनकी कार से बाहर खींच लिया गया, जब वो अपने और मुख्यमंत्री कार्यालय के बीच आधा किलोमीटर की दूरी तय कर रहे थे। उनके कपड़े फाड़ दिए गए और उन पर भद्दे कमेंट्स किये गए जब वो उन फटे कपड़ों और फटी जांघिया के साथ अपने कार्यालय में प्रविष्ट हुए। उस शाम के बाद वो पुनः कभी पश्चिम बंगाल नहीं गये। उन्होंने अपने समूचे संगठन को मुंबई स्थानांतरित कर दिया।

टाटा ने तुरंत अपना निर्णय बदल दिया और मुंबई से ही अपना काम चालू रखा। जेके और थापर ने भी डरकर बंगाल छोड़ दिया। छोटी और मंझोली कंपनियाँ ही बची थीं, वो भी बहुत ही कम क्षेत्र में।

तब फरवरी 1968 में रविन्द्र सरोबर स्टेडियम में “अशोक कुमार नाईट” का आयोजन था। ये कार्यक्रम कम्युनिस्ट पार्टी के गुंडों से भर गया। स्त्रियों को पकड़कर खींचा गया, बलात्कर किया गया और अंत मे मार दिया गया। उनकी नंगी लाश अगले दिन स्टेडियम के ताल में तैरती मिली। कम्युनिस्ट पार्टी ने इसका ये कहकर बचाव किया कि ये अभिजात्य वर्ग के विरुद्ध गरीबों की क्रांति थी।

व्यवसायी अन्य शहरों की ओर भाग लिए। दिल्ली एवं उससे सटे कस्बे फरीदाबाद, गाजियाबाद आदि इन मंझोले उद्योगों के नए केंद्र बन गए। कर्णावती, बड़ोदरा, राजकोट ने भागे हुए गुजरातियों, मारवाड़ियों, पारसियों को आकर्षित किया। बड़ी और अंतरराष्ट्रीय स्तर की कंपनियों ने अपना सब कुछ छोड़ के भागने में भलाई समझी।

बौद्धिक और कलाकार भी भागे। कोई भी वहाँ कार्य नहीं करना चाहता था। शिक्षा विभाग ध्वस्त हो गया। इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की नई पीढ़ी को inductance और capacitance के बीच अंतर नहीं पता था। बाजार मुरझाने लगा।

राज्य गरीबी और दरिद्रता के दुष्चक्र में फँसता चला गया। कम्युनिस्ट पार्टी ने चुनाव जीतने के आधार पर भूमि सुधार किया जिससे उसे ग्रामीण क्षेत्रों का वोट मिले। इसका परिणाम था कि पार्टी सात बार लगातार चुनाव जीतती चली गई। बीच में कांग्रेस का एक बार 5 साल का शासनकाल 1972-77 तक रहा था।

मूल लेख अंग्रेजी में है जिसका अनुवाद कर आपके समक्ष प्रस्तुत किया गया है।