भारत में रोहिंग्या और बंग्लादेशियों का राजनीतिक समर्थन ध्वस्त किए बिना इन्हें देश से बाहर करना कठिन है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा एआई का सदुपयोग भी करना है और एआई से सचेत भी रहना है, दिल्ली चुनावों में दिखी नवबौद्धों की दुविधा

एन मोदी ने कहा कि AI बाएँ हाथ से लिखते आदमी की तस्वीर नहीं बना पाया

ऐसी तस्वीर नहीं बना सकता AI जिसमें कोई बाएँ हाथ से लिखता दिख रहा हो: PM मोदी ने आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की बताई ‘सीमा’, नेटिजन्स नहीं बदल पाए नतीजा
बिंग, ग्रोक और मेटा, किसी का भी AI बाएँ हाथ से लिखते हुए व्यक्ति की तस्वीर नहीं बना पाया। पीएम मोदी ने इसी बात को पेरिस की AI समिट में उठाया था।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 11 फरवरी को पेरिस में ग्लोबल AI शिखर सम्मेलन में भाषण दिया। अपने भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने AI से जुड़ी कई बातें बताईं। उन्होंने कहा कि AI बीते कुछ दिनों में लोगों के लिए मददगार रहा है, उसने लोगों को मेडिकल रिपोर्ट तक समझने में सहायता की है।
जहाँ AI लगातार बेहतर होता जा रहा है, वहीं उसमें अब भी कुछ कमियाँ हैं। किसी इंसान या वस्तु की तस्वीर बनाने वाले जेनरेटिव AI को लेकर अब भी कुछ समस्याएँ हैं। पीएम मोदी ने पेरिस में ऐसी ही एक समस्या की तरफ इशारा किया। उन्होंने बताया कि AI ऐसी तस्वीरें नहीं बना सकता, जिसमें कोई व्यक्ति अपने बाएँ हाथ से लिख रहा हो।

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने इस बात पर जोर देकर कहा कि भारत आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति कर रहा है और इसका जनहित में उपयोग कर रहा है। उन्‍होंने विश्व से भारत में आकर निवेश करने तथा यहां की युवा शक्ति पर दांव लगाने का आग्रह किया।

गूगल और अल्फाबेट के सीईओ श्री सुंदर पिचाई से मुलाकात पर संतोष व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री ने एक्स पर उनके पोस्ट का जवाब इस प्रकार दिया:

“आपसे मिलकर खुशी हुई @sundarpichai भारत एआई में उल्लेखनीय प्रगति कर रहा है, इसका उपयोग जनहित के लिए कर रहा है। हम दुनिया से आग्रह करते हैं कि वे आएं और हमारे देश में निवेश करें तथा हमारी युवा शक्ति पर दांव लगाएं!”

प्रधानमंत्री मोदी की इस बात के बाद सोशल मीडिया पर इसे ट्राई करने वालों की एक बाढ़ आ गई। लोगों ने अलग-अलग तरीकों से बाएँ हाथ से लिखते हुए तस्वीर बनवाने की कोशिश AI प्रोग्राम्स से की। हालाँकि सफलता किसी को नहीं मिली और पीएम मोदी की बात हर बार सही साबित हुई।
AI ने प्रॉम्प्ट में ‘बाएँ हाथ’ लिखे होने के चलते आदमी को उसके बाएँ हाथ से कॉफी पीते हुए दिखाया, लेकिन इसने एक भी बार बाएँ हाथ से लिखने वाली तस्वीर नहीं बनाई।
जब हमने एक दूसरे प्रॉम्प्ट में बाएँ हाथ पर जोर दिया, तो इसने तीन हाथ का आदमी बना दिया। लेकिन यहाँ भी उसके बाएँ हाथ में पेन नहीं पकड़ाया।
बिंग AI ने लेकिन एक बाज की बाएँ हाथ से लिखते हुए तस्वीर बना दी। भले ही पढ़ने में यह बड़ा हास्यास्पद लगे, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि इसने पक्षी को दिखाया दिया लेकिन इंसान को नहीं।
ट्विटर के AI ग्रोक ने भी ऐसी तस्वीर नहीं बनाई। अलग-अलग प्रॉम्प्ट देने पर केवल दाएँ हाथ से लिखता हुआ आदमी उसने दिखाया। उसने टेक्स्ट में लिखने पर हर बार बाएँ हाथ से लिखने की तस्वीर बनाने की पुष्टि की लेकिन जब असल मेंतस्वीर बनी तो इसमें मामला गड़बड़ ही रहा।

🕉️🇮🇳 वंदेमातरम्🚩🚩,

 दिल्ली चुनाव जीतते ही ये चर्चा चलने लगी है कि अब पिछले 11 सालों में दिल्ली में हुए भ्रष्टाचार की फाइलें खुलेगी और शायद केजरी गैंग को सजा भी हो जाए.

इस पर कुछ मित्रगण रोष व्यक्त करते हुए कहते नजर आ जाते हैं कि केजरी, ममता या लालू, अक्ललेस आदि को बांस करने से क्या होगा ?
अगर हिम्मत है तो देश से बांग्लादेशी और रोहिंज्ञाओं को भगा के दिखाओ न…
जैसे कि अमेरिका भगा रहा है.

दरअसल ऐसे लोग शहरिया लोग हैं जो मैगी और पिज्जा खा कर बड़े हुए हैं और जिन्होंने आजीवन कॉन्क्रीट का ही घर बनते और टूटते देखा है.

अगर इन्होंने कभी जीवन में गांव या जंगल देखे होते तो शायद ऐसी बात कभी नहीं कहते.

मेरे बचपन की बात है..
और, उस समय शायद मैं आठवीं क्लास में पढ़ रहा था.

उस समय हमारा हाईस्कूल घर से लगभग 2 किलोमीटर दूर था और हमलोग साइकिल से स्कूल जाया करते थे.

तो, एक बार जब हमलोग स्कूल से घर आ रहे थे तो वहीं स्कूल के पास एक बड़ा पेड़ काटा जा रहा था.

लेकिन, मैं ये देखकर हैरान था कि वे लोग सीधे पेड़ की जड़ काटने की जगह रस्सी बांध कर उसकी डाल काट रहे हैं.

इस पर मैंने एक स्वाभाविक सा प्रश्न किया कि… यार, ये लोग जो इतनी मेहनत से पेड़ पर चढ़ कर एक-एक डाल काट रहे हैं..
सीधे जड़ ही क्यों नहीं काट देते हैं..?
क्योंकि, जड़ काटने से पेड़ नीचे गिर जाएगा और फिर आराम से जमीन पर खड़े खड़े उसकी डालियाँ काटी जा सकेगी न ???

तो, उस समय एक बुजुर्ग जो वहीं पर खड़े थे… ने हमलोगों को समझाते हुए बताया कि, डाल समेत पेड़ काफी भारी होता है और वो अनकंट्रोल होता है.

ऐसे में अगर सीधे पेड़ की जड़ को काट दिया गया तो न जाने वो किस तरफ गिर जाएगा.

हो सकता है कि वो अपने बोझ के कारण किसी मकान पर या बिजली के तार पर गिर जाए या फिर तुम्हारे ऊपर ही गिर जाए.

इसीलिए, पेड़ को काटने से पहले उसकी डालियाँ काट कर अपने मनपसंद जगह पर गिरा ली जाती है.

तत्पश्चात पेड़ में सिर्फ मुख्य तना बचा रह जाता है जिसका बोझ भी अपेक्षाकृत कम होता है और वो लगभग सीधा होता है.

इसीलिए, अंत में उसमें रस्सा बांध कर ऊपर से पार्ट-पार्ट काटते हुए अंत में जड़ काट दी जाती है.

जिससे हर चीज कंट्रोल में रहती है.

अब पेड़ काटने का ये तरीका किसी पेड़ काटने के लिए उपर्युक्त है उतना ही बांग्लादेशी और रोहिंग्या रूपी पेड़ काटने में भी है.

क्योंकि, ये कजरी, चाराचोर, अक्ललेस, बगदीदी, पप्पू आदि बांग्लादेशी रोहिंग्या रूपी पेड़ नहीं हैं लेकिन उसकी सबसे बड़ी डाल अर्थात समर्थक जरूर हैं जिस कारण इस पेड़ की वजन काफी हो गई है.

ऐसे में अगर इस पेड़ के जड़ को सीधे काट दिया जाए तो ये पेड़ डालियों समेत किधर गिर जाएगा… कहा नहीं जा सकता.

क्योंकि, हो सकता है कि… ये सारी पार्टियाँ अपने वोट बैंक के लालच में उन अवैध घुसपैठियों एवं अपने समर्थकों के साथ हर शहर-हर राज्य में हुड़दंग मचाने लगे और देश में अराजकता अथवा गृहयुद्ध की सी स्थिति पैदा कर दे.

लेकिन, यदि हम पेड़ की जड़ काटने की जगह उसकी डालियों को काट कर पेड़ का वजन घटा दें तो फिर ये पेड़ कंट्रोल्ड तरीके से आराम से कट जाएगा…
अर्थात, बांग्लादेशी और रोहिंज्ञाओं को चेन बांध कर भगाने से पहले उनके समर्थकों अर्थात उनके समर्थक पार्टियों, नेताओं और NGO को निपटा दें तो फिर हमारी इस कारवाई का विरोध करने वाले लोग नहीं रहेंगे या विरोध काफी छोटे पैमाने पर होगा..
जिसे उस राज्य में अपनी सरकार होने के कारण आसानी से निपटा जा सकेगा.

इसीलिए, जो भी लोग बांग्लादेशी और रोहिंज्ञाओं का नाम लेकर एक सामान्य हिन्दू की भावना को उद्देलित करने का प्रयास कर रहे हैं वे या तो स्थिति को समझते नहीं हैं.

या फिर, वे सबकुछ जानते समझते हुए भी धूर्ततावश भोले भाले नासमझ हिंदुओं के मन में असंतोष भरना चाहते हैं.

इसीलिए, ऐसे धूर्त लोगों से बेहद सावधान रहने की जरूरत है.

क्योंकि, ऐसे धूर्त लोग ये तो बताते हैं कि भाजपा बांग्लादेशी रोहिंज्ञाओं को नहीं भगा रही है.
लेकिन, उनके पास इस बात का कोई जबाब नहीं होता है कि अगर बांग्लादेशी रोहिंज्ञाओं को भाजपा नहीं भगाएगी तो क्या उसे खान्ग्रेस, tmc, राजद या सपा ई भगाएंगे ?

और, अगर भगाएंगे तो फिर उसका रोड मैप क्या है ?
और, सबसे बड़ा सवाल कि… इन 65-70 सालों में उन्होंने इन्हें भगाने की जगह बसाया क्यों ???जय महाकाल…!!!

🕉️🇮🇳 वंदेमातरम्🚩🚩,👇

 हमारे पड़ोसी देश अफगानिस्तान में बहुत बड़ा खेला शुरू हो चुका है !! शायद यह खबर इतनी बाहर नहीं आ रही है, वहां रूस-यूक्रेन युद्ध जैसी हालात है.

मित्रों बात यह है कि, पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना पर जिस तरह TTP बारूद बरसा रही है, उसी को लेकर तालिबान और पाकिस्तान में भयानक कूटनीतिक जंग छिड़ गई है. और पाकिस्तान ने इसके लिए अफगान में स्थित हक्कानी नेटवर्क को एक्टिव कर दिया है. अब हक्कानी और तालिबान के बीच शक्ति संतुलन को लेकर जंग छिड़ गई है. आप लोगों को बता दूं कि, जब तालिबान अफगानिस्तान पर कब्जे के लिए युद्ध कर रहा था, तो उसके साथ कई छोटे बड़े कबीलाई संगठनों के साथ-साथ पाकिस्तान की कठपुतली आतंकवादी संगठन हक्कानी नेटवर्क भी उसमें शामिल था.

अफगानिस्तान पर कब्जा करने के बाद, तालिबानी सरकार में हक्कानी नेटवर्क भी एक हिस्से की रूप में थी. लेकिन पाकिस्तान जबसे TTP को लेकर तालिबान अफगानों से टकराने की कोशिश शुरू की, तो उसने तालिबान पर दबाव डालने के लिए हक्कानी को तालिबान के खिलाफ खड़ा करना शुरू कर दिया और अफगानिस्तान में शक्ति संतुलन को लेकर दोनों के बीच खेला शुरू हो गया. तालिबान को लगा कि, यदि कल पाकिस्तान के साथ उसकी लडाई होती है तो हक्कानी उस पर अंतरघात करेगा, इसलिए तालिबान के सर्वोच्च नेता शेख हैबतुल्लाह अखुंदज़ादा ने, अपने मुख्य वैस कंधार में रह रहे लड़ाकों को बड़े गुप्त तरीके से पूरे अफगानिस्तान में फैला दिया और वे चुन चुनकर हक्कानियों मारना और खदेड़ना भी प्रारंभ कर दिया है. खासकर काबुल से कई हक्कानियों मारा जा चुका है और कईयों को गिरफ्तार किया जा चुका है. अब हाल यह है कि हक्कानी नेटवर्क के मुखिया सिराजुद्दीन हक्कानी अफगानिस्तान छोड़कर किसी गुप्त जगह पर चला गया है. तालिबानी लड़ाकें ढूंढ़ ढूंढ़ कर अफगानिस्तान से हक्कानी नेटवर्क की सफाई करने में लग गए हैं, तालिबान का साथ उन छोटे बड़े कबीलाई संगठन भी दे रहे हैं. एक रकम से समझा जाए तो, अफगानिस्तान से तालिबान पाकिस्तान के सारे नेटवर्क को ध्वस्त करने में लग गया है. लेकिन मित्रों, इसके नेपथ्य में कौन है आप लोगों को पता है !? इसके नेपथ्य में भारत और अमेरिका है. भारत नहीं चाहता की अफगानिस्तान में पाकिस्तान की कोई दखलअंदाजी हो और अमेरिका अपने दुश्मन हक्कानी नेटवर्क और उसके साथी अलकायदा को खत्म करना चाहती है. भारत ने तालिबान को समझा दिया की, यदि अंतरराष्ट्रिय स्तर पर तुम्हें रहना है तो पहले हक्कानी नेटवर्क को अपने यहां से खदेड़ो, नहीं तो फिर से तुम्हें अमेरिका की सामना करना पड़ेगा.

मित्रों अफगानिस्तान में खेल बहुत दिलचस्प मोड़ पर आ गया है, अब वहां पाकिस्तान-चीन गठबंधन का सपोर्टर हक्कानी नेटवर्क और भारत-अमेरिका का अदृश्य गठबंधन तालिबान के बीच कूटनीतिक युद्ध के साथ-साथ शारिरिक युद्ध भी शुरू हो गया है. देखते हैं आगे क्या क्या होता है….

*राष्ट्र चिंतन: *नमो बुद्धाये और अंबेडकरवाद की राजनीति निरर्थक क्यों बन गई ?*

आलेख :-✍️*आचार्य श्रीहरि*
================

दिल्ली विधान सभा चुनावों के दौरान नमो बुद्धाए और अंबेडकरवाद की राजनीति का बहुत शोर था, एनजीओ टाइप के नमो बुद्धाए और अंबेडकरवाद की राजनीति ने बहुत बवाल काटा था, सक्रियता और अभियान बहुत ही शोरपूर्ण था, इनका दावा था कि नमो बुद्धाए और अंबेडकर को मानने वाले लोग ही जीत तय करेंगे, किसकी सरकार बनेगी यह निर्धारण करेंगे। लेकिन ये दोनों की विसंगतियां यह थी कि इनमें एक मत नहीं था, वे कनफ्यूज भी थे और विभाजित भी थे। नमो बुद्धाए और अंबेडकरवादी दो धु्रवों पर सवार थे। इनके एक वर्ग अरिवंद केजरीवाल को समर्थन दे रहा था जबकि दूसरे वर्ग कांग्रेस को समर्थन दे रहा था। दोनों वर्गो का समर्थन देने के तर्क बहुत ही विचित्र थे और फर्जी थे। अरविंद केजरीवाल ने दलित छा़त्रवृति और दलित कल्याण की योजनाओं का बंदरबांट किया था, ईमानदारी पूर्वक लागू नहीं किया था, कोई विशेष सुविधाएं नहीं लागू की थी फिर अरविंद केजरीवाल को समर्थन देने की घोषणा की थी जबकि दूसरे वर्ग उस कांग्रेस को समर्थन दिया और जीत की कामना की थी जिस कांग्रेस ने भीमराव अंबेडकर को लोकसभा में एक बार नहीं बल्कि दो-दो बार नहीं पहुंचने दिया था और अंबेडकर के सपनों का संहार किया था, नेहरू की दलित और संविधान विरोधी भावनाओं से आहत अंबेडकर की पीडा को भी दरकिनार कर दिया। कांग्रेस का समर्थन देते समय नमो बुद्धाए और अबेडकर वादियों ने यह याद तक नहीं किया कि अंबेडकर ने भारतीय संविधान को खुद ही जलाने की इच्छा या विछोह क्यों प्रकट की थी। सबसे बडी बात यह थी कि नमो बुद्धा और अंबेडकरवादियों के निशाने पर भाजपा थी और ये भाजपा के खिलाफ में खडे थे, भाजपा को किसी भी परिस्थिति में दिल्ली नहीं जीतना देना चाहते थे, इसलिए भाजपा के खिलाफ वोट डालने के लिए आह्वाहन भी किया था, इनका एक गुप्त एजेंडा दलित और मुस्लिम समीकरण के बल पर भाजपा का संहार करने के था।
दिल्ली विधान सभा का चुनाव परिणाम क्या कहता है? नमोबुद्धाए और अंबेडकर वादियों की केजरीवाल और कांग्रेस को जीताने की इच्छाए नहीं पूरी हुई। जाहिर तौर पर नमो बुद्धाए और अंबेडकरवादियों की इच्छाएं पूरी तरह असफल साबित हुई, और इनकी राजनीति शक्ति कमजोर होने का प्रमाण भी मिला। न तो अरविंद केजरीवाल जीत पाया और न ही कांग्रेस अपनी खोयी हुई राजनीतिक शक्ति हासिल कर सकी। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की जबरदस्त पराजय हुई है। भाजपा को अरविंद केजरीवाल से दोगुनी से भी ज्यादा सीटें मिली हैं। जबकि कांग्रेस को मात्र दो प्रतिशत वोटो की वृद्धि हुई है। साढे चार प्रतिशत वोट से बढकर साढे छह प्रतिशत वोट कांग्रेस के हुए हैं। लेकिन कांग्रेस के वोट प्रतिषत बढने के कारण जाति है। खासकर कांग्रेस के जाट प्रत्याशियों ने कांग्रेस के वोट प्रतिशत बढाने का काम किया है। कांग्रेस ने जहां-जहां पर जाट प्रत्याशी उतारे थे वहां-वहां पर कांग्रेस को ठीक-ठाक और इज्जत बचाने लायक वोट मिले हैं। जबकि आरक्षित सीटो पर भी भाजपा की सफलता दर अप्रत्याशित है और आश्चर्यचकित करने वाले हैं। कहने का अर्थ यह है कि दिल्ली मे भी दलितों का एक बडा भाग भाजपा को समर्थन दिया है और उनके सामने नमो बुद्धाए या अबेडकरवाद की राजनीतिक पैंतरेबाजी काम नहीं आयी और उन्हें भाजपा को समर्थन देने से रोक भी नयी पायी।
दिल्ली विधान सभा चुनाव से पूर्व महराष्ट्र और झारखंड में विधान सभा चुनाव हुए थे। महाराष्ट्र भीमराव अंबेडकर की संघर्षभूमि है। अबेडकर ने महाराष्ट्र के नागपुर में बौद्ध धर्म अपनाया था। इसलिए कहा जाता है कि महाराष्ट्र में अबेडकर वादियों और नमोबुद्धावाद की उर्वरक भूमि है जहां पर दलितों के अंदर राजनीतिक जागरूकता भी आसमान छूती है। महराष्ट्र विधान सभा चुनावो के दौरान भी दिल्ली विधान सभा की तरह ही उबाल और बवाल की राजनीतिक गर्मी पैदा की गयी थी और भाजपा के खिलाफ न केवल आक्रमकता उत्पन्न की गयी थी बल्कि भाजपा का संहार करने की भी कसमें खायी गयी थी। भाजपा विरोधी गठबंधन के साथ नमो बुद्धाएं और अंबेडकरवादी खडे थे। यह घोषणा भी की गयी थी कि दलित किसी भी स्थिति में भाजपा को सत्ता हासिल नहीं करने देंगे, भाजपा की सत्ता को उखाड फेकेंगे, भाजपा की सत्ता का संहार होना निश्चित है। कांग्रेस भी दलितों के समर्थन से उचक-कूद कर रही थी और जोश में थी। महाराष्ट्र विधान सभा का चुनाव परिणाम आया तब इन सभी के उछल-कूछ करने और बवाल की राजनीति पर कुठराघात हो गया, जनता ने इन्हें नकार दिया और भाजपा की जोरदार और अतुलनीय जीत भी दिला दी। झारंखड में भाजपा का रथ जरूर रूका पर भाजपा के रथ को रोकने वाले कोई दलित नहीं थे बल्कि पिछडे थे जो भाजपा के पिछडे विरोधी राजनीति से खफा थे और भाजपा ने पिछडों के आरक्षण का संहार कर दिया था। हालांकि यह करतूत भाजपा का नहीं बल्कि दलबदलू बाबूलाल मरांडी की थी जिसका दुष्परिणाम भाजपा को झेलना पडा था। हरियाणा और उत्तर प्रदेश के मिल्कीपुर की कहानी भी उल्लेखनीय है।
अब आइये , काशी राम और मायावती की अंबेडकरवाद और नमो बुद्धाएं राजनीति की शक्ति को देख लें और इस कसौटी पर तुलना कर लें। नमो बुद्धाएं और अंबेडकरवाद की राजनीति को सफलता की चरमसीमा पर पहुंचाने का श्रेय मायावती और काशीराम को जरूर है। एक बार पूर्ण बहमुत और कई बार गठबंधन की सरकार बना कर इसका सत्ता सुख भी मायावती और काशीराम ने लिया है। लेकिन इनकी राजनीति शक्ति स्थायी नहीं रह सकी है। आज उत्तर प्रदेश विधान सभा में बसपा का एक मात्र सदस्य है और वह भी राजपूत जाति का है। संसद में बसपा का प्रतिनिधित्व नहीं है। पिछले लोकसभा चुनावों में बसपा की उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि पूरे देश में कोई भी सफलता नहीं मिली थी।
नमो बुद्धाए और अबंडेकरवाद क्या-दोनों अलग-अलग राजनीतिक श्रेणियां हैं? नमो बुद्धाए की अभिव्यक्ति रखने वाले लोग पूरी तरह से बौद्ध धर्म मे दीक्षित और शीक्षित हो चुके है और उन्हें हिन्दू धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। जबकि अंबेडकरवादी पूरी तरह से हिन्दू धर्म से मुक्त नहीं हुए हैं, कुछ न कुछ संबंध हिन्दू धर्म के साथ उनका हैं। पर दोनों हिन्दू धर्म के खिलाफ बोलने और राजनीतिक शक्ति फैलाने में साथ ही साथ हैं। अंबेडकरवादियों को हिन्दू धर्म से विछोह तो समझ आता है, क्योंकि उन्हें प्रताडित किया गया और आज भी कुछ न कुछ प्रताड़ना का वे शिकार हैं। जबकि नमो बुद्धाए कहने वाले लोगों का हिन्दू धर्म से विछोह समझ में नहीं आता है? नमो बुद्धाएं कहने वाले हिन्दू धर्म को गालियां क्यों बकते हैं, हिन्दू धर्म की आलोचना का शिकार क्यों बनाते हैं? नमो बुद्धाए हो या फिर अंबेडकरवादी हमेशा हिन्दुओं की आलोचना और अपमान का शिकार बनाने से पीछे नहीं रहते हैं। उग्र हिन्दू विरोधी की मानसिकता इनकी आत्मघाती हो गयी, ये राजनीति से अलग-थलग पडने लगे। मायावती आज की राजनीति में असहाय और निरर्थक हो गचल। नेश्राम और प्रकाश अंबेडकर जैसे नेता भी अप्रासंगिक हो गये, आज की राजनीति मेे इनकी कोई गिनती तक नहीं है। दलित इन्हें एनजीओ छाप, गिरोहबाज और मुस्लिम समर्थक मान कर खारिज करते हैं? अनसुना करते हैं।
संविधान समाप्त होने का डर फैलाना भी दलितों की संपूर्ण एकता सुनिश्चित नहीं कर सका। मोदी विरोध में संविधान को हथकंडा बनाया गया और नरेन्द्र मोदी को अंबेडकर विरोधी कहने और साबित करने के सभी प्रयास विफल हो गये। लोकसभा चुनावों में धक्का खाने के बाद भी नरेन्द्र मोदी और भाजपा की शक्ति बढी है और वे अनिवार्य तौर पर अपनी शक्ति बनायें रखने की कोशिश की है। इनमें इन्हें सफलता भी मिली है। इसके अलावा भाजपा ने दलितों को कल्याणकारी योजनाओं से जोड कर और आरक्षण मे सिर्फ एक जाति के विकास का प्रश्न बना कर भी अपनी जगह बनायी है।
यादव और मुस्लिम समीकरण का हस्र से नमो बुद्धाए और अंबेडकरवादियों ने कुछ नहीं सीखा है। बिहार में लालू का परिवार पिछले 20 सालों से सत्ता से बाहर है, अखिलेश यादव पिछले दस सालों से सत्ता से बाहर है। यादव और मुस्लिम समीकरण अब सत्ता से बाहर होने का राजनीतिक प्रमाण बन गया है। दलित और मुस्लिम समीकरण भी कैसे जीवंत और शक्तिशाली बन सकता है? मुस्लिम कभी भी अपनी कीमत पर दलित को समर्थन दे नहीं सकते हैं। मुस्लिम संस्थानों जैसे अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया में दलितों का कोई आरक्षण नहीं है। कोई मुस्लिम नेता यह प्रश्न नहीं उठाता कि दलितों और पिछडों को मुस्लिम संस्थानों में आरक्षण क्यों नहीं मिलता है। मुस्लिम वर्ग उसी को समर्थन देते हैं जो भाजपा को हराने के लिए शक्ति रखते हैं। रावन इसीलिए सांसद चुना गया क्योंकि समाजवादी पार्टी का समर्थन था। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का समर्थन नहीं होता तो फिर मुस्लिम कभी भी रावण का समर्थन नहीं करते।
डग्र हिन्दू विरोधी गोलबंदी से एनजीओ छाप दलित राजनीति को नुकसान ही है। मुस्लिमों के साथ समीकरण बनाना नमो बुद्धाए और अबंडकरवादियों के लिए नुकसानकुन और घाटे का सौदा है। जब तक पिछडे मुस्लिम समर्थक नहीं बनेंगे तब तक इनके लिए कोई संभावना नहीं है। पिछडा वर्ग अपने धर्म और भाजपा में समर्थन बनाये रखे हुए हैं। पिछडों की राजनीति का सफल प्रबंधन भाजपा ने किया है। हिन्दू विरोध के उग्र वाद को ये छोडेंगे नहीं और मुस्लिमों के साथ समीकरण की मानसिकता भी छोडेंगे नहीं फिर भारत की सत्ता राजनीति मे इनके निरर्थक रहने की ही उम्मीद बनती है। आज की सत्ता राजनीति में ये निरर्थक ही तो हैं* (साभार)