हाइब्रिड अनाज पेट तो भर सकते हैं लेकिन शरीर को पोषण नहीं दे सकते, केंद्र सरकार मोटे अनाजों और पशुपालन पर फोकस करे, इस हेतु ग्रामीण क्षेत्रों व गुरुकुलम विकसित करने के लिए नीति बनानी होगी

✍️हरीश मैखुरी

हाइब्रिड अनाज पेट तो भर सकते हैं लेकिन शरीर को पोषण नहीं दे सकते, केंद्र सरकार को मोटे अनाजों पर फोकस करने के लिए गांव विकसित करने के लिए नीति बनानी होगी क्योंकि हाइब्रिड अनाज पेट तो भर सकता है लेकिन शरीर का पोषण नहीं कर सकता। केंद्र सरकार ने मोटे अनाजों पर फोकस करके उन्हें फिर से विमर्श में लाने तथा उनके प्रयोग को बढ़ावा देने का कार्य शुरू कर दिया है, जो बहुत ही प्रशंसनीय विषय है। दरसल थाली से पौष्टिकता गायब होते जा रही है। संकर बीजों ने उत्पादकता तो बढ़ा दी है किंतु पौष्टिकता में संकर अनाज मोटे अनाजों के सामने बेबस नजर आते हैं। हम मड़वे की रोटी मक्के की रोटी और लाल धान का भात खाकर बड़े हुए हैं। अब अगर हम लाल धान का भात खा लें तो पेट उस भरपूर स्टार्च को पचाने की स्थिति में नहीं रहता न ही साबूत मड़वे की रोटी पच सकती है, इन हाइब्रिड अनाजों ने हमारी पाचन शक्ति को भी कमजोर कर दिया है। मड़वे की रोटी में गुड़ तथा ताजी नोनी(मखन्न)या घी रखकर हम में से बहुतों ने खाया होगा,या छांस के साथ नमक के साथ खाया होगा। भट्ट अथवा गहत की दाल के साथ लाल धान का भात भी खाया होगा। हमने मादिरे का हलवा भी खाया है। ये सारे मोटे अनाज हमने बचपन में खाएं हैं। आज के बच्चे वास्तव में लुंज-पुंज दिखते हैं, कॉलेज पढ़ने वाले बच्चे ऐसे लगते हैं जैसे हाई-स्कूल में पढ़ते हों। हर दिन और हर साल या यूं कहें कि सालों साल रोज, दिनभर बच्चों से सामना होता है एक बात जो अनुभव में आती है कि वास्तव में बच्चे शारीरिक रूप से कमजोर नजर आते हैं, उनमें से लड़कियाँ तो ज्यादा कमजोर नजर आती हैं। यह सब हाइब्रिड अनाज का कमाल है जो फसल तो ज्यादा देती हैं लेकिन गुणवत्ता की दृष्टि से बहुत पीछे हैं। केंद्र सरकार ने इस विषय पर ध्यान देकर बहुत सराहनीय पहल की है। मोटे अनाजों का उत्पादन विश्व में भारत में सबसे ज्यादा होता है। लेकिन इनके प्रति हमारे यहां अब नकारात्मक मानसिकता बनी हुई है, की ये बेकार के अनाज हैं इन्हें गरीब लोग खाते हैं, सरकार के इस कदम से यह भरम भी टूटेगा।

देश में एक दौर था जब इंदिरा गांधी आदि प्रधानमंत्रियों के युग में हरित क्रांति के नाम पर खेतों से गोबर हतोत्साहित कर उसकी जगह पर रासायनिक खादों का प्रयोग को बढ़ावा दिया गया यही नहीं फसलों को कीट पतंगों से बचाने के लिए परंपरागत तरीके हटाकर रासायनिक के छिड़काव को बढ़ावा दिया गया। इससे न केवल हमारी प्राकृतिक और जैविक फसल चैन नष्ट हुई अपितु गोबर की जगह रासायनिक  रासायनिक छिड़काव आने से केवल 30 – 35 वर्ष में ही इसके कारण देश में कैंसर  हृदय रोगों के मरीज बढ़ने लगे और अकारण बदन दर्द के मरीज भी पढ़ने लगे लोग एनीमिया और माइग्रेन के शिकार होने लगे हैं। बीपी शूगर और थाईराईड जैसे असाध्य रोगों के मूल में भी यही कारण है। इन सभी रोगों के मूल कारणों पर जब शोध में चला कि यह सभी रोगों की जड़ में रासायनिक खादों का प्रयोग और रासायनिक फसलें ही प्रमुख कारण हैं। इसीलिए अब सरकार ने रासायनिक छिड़काव की जगह पर नीम के पत्तों के घोल का छिड़काव और रासायनिक खाद के स्थान पर जैविक खादों की फसलों को बढ़ावा आरंभ किया है। पतंजलि सहित बहुत सी कंपनियां अब देश में इस दिशा में काम भी कर रही है।

यही नहीं जब खेती में हमारी आधी से अधिक जनसंख्या को काम मिला हुआ था ठीक उसी समय हरित क्रांति के नाम पर भारत में खेती को मशीनीकृत करने के लिए सरकारों ने टैक्टर आदि पर लोन और सब्सिडी देना शुरू किया। इससे लोग और बैल भेंसे आदि खेतों में काम करने वाले पशु निरुपयोगी हो गये। बच्चे अंग्रेजी स्कूलों जाने लगे और लोगों ने गाय बैल पालने छोड़ दिए। खेतों में भी लोगों और पशुओं की जगह मशीनें आ गयी। परिणामस्वरूप ये हुआ कि अब अंग्रेजी पढे लिखे बेरोजगारों की बाढ़ आ गयी है ये बेरोजगार या तो बेकारी से डिप्रेशन में जा रहे हैं या बहुत से अवैध कार्य करने को विवस हैं। कोरोना काल में एक बात स्पष्ट समझ में आ गयी है कि शहर कुछ समय के लिए रोजगार देते हैं लेकिन साथ में लोगों को बीमारी भी दे रहे हैं। परन्तु खेती किसानी पशुपालन न केवल भारत भर के युवाओं को स्थाई रोजगार देते हैं बल्कि उनका स्वास्थ्य भी सुरक्षित रखते हैं। इसलिए वापस गांवों और गुरुकुलों की ओर जाना ही समाधान है ये हमारी करोड़ों वर्ष की अनुभूतजन्य परम्परा है भारत की सुख-समृद्धि की कुंजी भी। Hybrid grains can fill the stomach but cannot nourish the body, the central government should make a policy to develop villages and gurukuls to focus on coarse grains