ऐसे कैसे बचेगा हरिद्वार का कुँभ क्षेत्र ?

बारहवीं सदी में जयदेव नाम के एक महान संस्कृत के विद्वान और भक्त हुए हैं जिनका गीत गोविन्द नाम की अमरकृति आज भी अपनी अमरगाथा का बयान कर रहा है। एक बार किसी राजा से पुरस्कृत होकर कुछ धन के साथ अपने घर की ओर जा रहे थे। रास्ते में चार डकैतों ने उनसे धन छीनकर मारते मारते अर्धमृत हालत में कुएं में फेंक दिया। संयोगवश कुएं में पानी कम था। कुछ देर के बाद उनकी चेतना लौटी, वे मधुर कंठ के साथ भगवान का गान करने लगे। उसी समय गौर देश के राजा लक्ष्मण सेन सिपाहियों के साथ उधर से गुजर रहे थे। आवाज सुन अपने सैनिकों के द्वारा उनको बाहर निकलवाये। राज्य में लाकर उनका ईलाज करवाये और उनकी विद्वता व गुणों से प्रभावित होकर उन्हें राजगुरु का सम्मान दिये और इसके लिये उन्होंने एक बहुत बड़ा आयोजन किया। उसी आयोजन में दूर-दराज के संत महात्माओं को एकत्रित कर उन्हें सम्मानित करने का कार्यक्रम रखा। वे चारों डकैत इस मौके का लाभ उठाकर साधुवेष में ही उन टोली में बैठ गये। वे डकैत राजा से ऊँची आसान पर जयदेव को देख डर गये और जयदेव ने भी उन्हें पहचान लिया तथा राजा को संकेत में उन चारों को अपना मित्र बताते हुए विशेष सम्मान का संकेत दिया। वे चारों डकैत संकेत से डर गये। वे चारों उठकर भागने ही वाले थे कि मंत्रीे उन्हें विशेष सम्मान से सम्मानित कर राज्य के बाहर सम्मान के साथ छोड़ने के लिये उनके साथ चलने लगे। मंत्री ने उन डकैतों से इनका कारण पूछा तो डकैत बोले कि जयदेव किसी राजा के यहाँ चोरी करके धन लेकर भाग रहे थे परन्तु राजा ने हमलाोगों, जो उस समय राजकीय कर्मचारी थे, को आदेश दिया कि इसे जान से मारकर कुएं में फेंक देना परन्तु हमलोग इसे जान से मारे नहीं और थोड़ा-बहुत आघात करके कुएं में फेंक दिये थे। परन्तु संयोग से वहाँ कुछ ऐसी दैवीय घटना घटी जिससे मंत्री चकित हो गया और आकर राजा को सब बात बताया तो राजा ने जयदेव जी से विशेष आग्रह कर पूछा तब जयदेव जी ने उनके समक्ष सत्य प्रकट कर दिया।

वह 12वीं शताब्दी थी, कलिकाल का उतना प्रवेश नहीं हो पाया था परन्तु उस समय भी डकैतों का ऐसा व्यवहार होता था वह इस घटना से प्रकट होता है। आज चारों तरफ अधर्म का बोलबाला है, चारों तरफ किसी न किसी रूप में लुटेरे ही हैं, कुछ ही सत्यनिष्ठ व्यक्ति रह गये हैं।

-:सुधीजन इस पर विवचना करें;-
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में:- भातरवर्ष में चार जगह कुँभ का आयोजन होता है जिससे धर्म बचा रहे। इसमें साधु-सन्त एकत्रित होते हैं परन्तु हरिद्वार में जहाँ 1986 तक कुँभ का आयोजन होता था वह क्षेत्र अपार्टमेन्ट में बदल चुका है। परम्परा से प्राप्त संत-महात्माओं एवं अखाड़ों की सम्पत्ति पर अट्टालिकायें खड़ी हैं। कुँभ क्षेत्र को बचाने के लिये मातृ सदन का संघर्ष जिसमें 108 हैक्टेयर वनभूमि की सम्पत्ति को बचाना, जिस पर दक्षद्वीप पार्किंग व बैरागी कैम्प के कुछ भाग, जिस पर बैरागियों की छावनी लगती है, चण्डीघाट, धोबीघाट और अन्य भागों को जिसे 1998 में बचाया नहीं  गया होता तो वे समस्त द्वीप खनन करके नष्ट कर दिये गये होते। अबलोग स्वयं निष्कर्ष निकालें कि मातृ सदन से द्वेष करने वाले कौन हैं और उनकी मंशा क्या है? यहाँ कुँभ मेला के लिये मीटिंग में भाग लेने वालों में से एक प्रतिशत लोगों द्वारा भी पिछले कुँभों का प्रतिवेदन नहीं पढ़ा जाता है।
अब प्रश्न है: –
1. क्या हरिद्वार में कुँभ क्षेत्र को बचाना है?
2. यदि इस तरह रहा तो परिणाम क्या होगा?
3. कोई सरकार या शासन-प्रशासन के कुछ लोग केवल कुछ समय के लिये आते हैं तो क्या वे परम्पराओं को नष्ट कर देंगे?
4. क्या हरिद्वा‍‌र में चिन्तकों की एक भी आवाज प्रकट नहीं होगी? कुछ साधु सन्तों की आवाज आती तो जरुर है लेकिन उनमें भी साहस का अभाव है।
5. हरिद्वार स्वामी निगमानन्द सरस्वती के बलिदान को भले ही भुला दे लेकिन उनकी और मातृ सदन की क्रियाकलाप की अमरकृति गीत गोविन्द की तरह अमर रहेगा।
मातृ सदन इस दिशा में कुछ कार्य कर रहा है लेकिन उन्हें शासकीय सहयोग नहीं मिल रहा है। संकल्पबद्ध  सत्यमेव जयति नानृतम्।