उत्तराखंड के पर्वतीय गावों में बाघों राज! : अपनी बकरियों को बचाने के लिए बाघ से अकेले ही भिड़ गयी ग्यारहवीं की छात्रा भारती

मिलिए भारती से । 

भारती हमारी स्कूल ( रा0इ0कॉ0 चोपड़ा , खिर्सू , पौड़ी गढ़वाल) में कक्षा 11 वीं छात्रा है इस साल दसवीं में फर्स्ट डिवीजन से पास हुई है। 

पर कहानी ये नहीं है , कहानी ये है कि अभी कुछ दिन पहले भारती अपनी गाय – बकरियां चराने जंगल गयी थी तभी एक बाघ ने अचानक उनकी बकरी के छोटे बच्चे को पकड़ लिया। ऐसे में भारती ने बिना डरे पहले बाघ से बकरी के बच्चे को छुड़ाने के लिए बकरी के बच्चे को खींचा जबकि दूसरी तरफ से बाघ उसे खींच रहा था । उसने मुझे बताया कि सर जब बाघ ने बकरी को इतने पर भी नहीं छोड़ा तो मैंने बाघ को पत्थर मारकर भगा दिया और बकरी के बच्चे को उसके चंगुल से छुड़ा लायी। जंगली शिकारी जानवर अपने शिकार को लेकर कितने खूंखार होते हैं ये हम सबको पता है । पर इतना बोलकर भारती हँसने लगी जैसे ये सब सामान्य सी बात हो। जब भारती ने मुझे ये बात बताई तो वो शर्म के मारे बता भी नहीं पा रही थी । मैं सोच रहा था इतनी शर्मीली लड़की इतनी सी उम्र में कितनी बहादुरी से एक बकरी के बच्चे के लिए बाघ से अकेली भिड़ गई। हालांकि वो बकरी का बच्चा उसके कुछ ही समय बाद मर गया क्योंकि उसके गले पर बाघ के पंजों और नाखून से घाव हो गए थे। लेकिन जिस बहादुरी और हिम्मत के साथ हमारी भारती ने अपना कर्तव्य निभाया है उसकी जितनी प्रशंसा की जाए उतना ही कम है।

सोचिए जो ‘लड़की’ बकरी के बच्चे के लिए बाघ से अकेले भिड़ सकती है वो अगर ठान ले तो क्या क्या नहीं कर सकती …..

 इस बहादुरी को आपके साथ साझा करना चाहिए ताकि उसका और उसके जैसी दूसरी बालिकाओं का आत्मविश्वास बढ़े 

एक बात और उत्तराखंड में बाघ हो या गुलदार दोनों को गांवों में बाघ ही कहा जाता है। शायद ही संसार के किसी भी देश में ऐसा अन्याय वहां के स्थानीय निवासियों के साथ हुआ हो कि छ नेशल पार्क और छ वन्य जीव विहार के हिंसक जानवरों के बीच मनुष्य को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया हो, यही नहीं इसी के बीच वनों की आग, गाड़ गधेरों की बाढ़ बर्फबारी भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं का दंश भी झेलना होता है। क्योंकि संसार के सारे पर्यावरण बैलेंस और मैंटेनेंस का दायित्व उत्तराखंड के पर्वतीय वासियों के कंधों पर है। इसलिए वे इसकी भारी कीमत भी चुकाते हैं कभी हिंसक जानवरों के आगे प्राण गंवा कर कभी पर्यावरण के नाम पर विकास योजनाओं से वंचित हो कर।