ब्रह्म विद्या परा व अपरा शक्तियाँ और अष्ट सिद्धि व नव निधि तथा ध्यान धारणा समाधि

ॐ नमः शिवाय ॐ श्री गुरूवे नमः

बह्म विद्या क्या है? गुह्याति गुह्य पारमब्रह्म परमेश्वर भगवान नारायण व महाशक्ति की युति को ब्रह्म विद्या कहा गया है। यह विद्या आत्मज्ञान को संकेन्द्रित करके प्राप्त की जा सकती है। धर्मग्रन्थों (विशेषतः वेदमंत्रों और उपनिषद) के अध्ययन से प्राप्त ज्ञान ब्रह्मविद्या कहा जाता है। हिन्दू धर्म में ब्रह्मविद्या को ही सर्वश्रेष्ठ आदर्श माना गया है। पुराणों में ब्रह्मविद्या के दो भेद बताये गये हैं- परा विद्या तथा अपरा विद्या। विद्या की उत्पत्ति विद् धातु से हुई है, जिसका अर्थ है जानना, अस्तु विद्या शब्द का अर्थ है ज्ञान। इसलिए ब्रह्म विद्या का अर्थ है उसका ज्ञान जो सभी प्रकार की सीमाओं से मुक्त है । ब्रह्मविद्या पूर्ण के साक्षात्कार का आध्यात्मिक ज्ञान है। ब्रह्मविद्या को शास्त्रों में भारतीय चिंतन का सर्वोच्च आदर्श माना जाता है।

अष्ट सिद्धि क्या है। अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, इशित्व तथा वशित्व ‘अष्टसिद्धियां’ कहलाती हैं

अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता’ पंक्ति हनुमानजी के बारे में ही है. पुराणों के अनुसार,  वह ऐसे देव हैं, जो अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों से सम्पन्न हैं।

परा और अपरा प्रकृत्तियां 

इस परब्रह्म मे दो प्रकार की प्रकृतियाँ निहित हैं ,,परा,, और ,,अपरा,, प्रकृति कहते है ये दोनों प्रकृतियाँ उससे अभिन्न तथा अप्रकट रूप मे विधमान रहती है परब्रह्म की इन दोनों प्रकृतियाँ से ही सृष्टि की रचना होती है तथा परब्रह्म इन दोनो में विलक्षण हैइन प्रकृतियों का विस्तार ही दृश्य जगत है इन प्रकृतियों की स्वतन्त्र सत्ता नही है वह परब्रह्म ही नित्य एवं शाश्वत है। जबकि ये प्रकृतियाँ अनित्य एवं विनाशी है किन्तु ज्ञान के अभाव मे ये निनित्य जैसी प्रतीत होती है यही भ्रम है जिसे ,,माया,, कहते हैं प्रकृति को नित्य मानना ही,, माया,, है जो जीव के बन्धनका कारण है सत् का ज्ञान होने पर ये प्रकृतियाँ अपने कारण परब्रह्म मे विलीन हो जाती है इसी को जीव की,,मुक्तावस्था,, कहते है इस प्रकार जड़ चेतनात्मक जगत का एकमात्र निमित एवं उपादान कारण वह परब्रह्म ही हैजिससे सृष्टि की रचना संचालन एवं प्रलय होता है ।यही मूल तत्त्व है मनुष्य के कई कोष और कई शरीर हैं जिनमें प्रायः स्थूल शरीर, वासना शरीर और सूक्ष्म शरीर तो पूर्ण विकसित रहते हैं और क्रिया करने के योग्य रहते हैं। शेष मनोमय शरीर,विज्ञानमय शरीर और आनंदमय शरीर और उनसे सम्बंधित कोष पूर्णरूप से विकसित नहीं होते हैं और न होते हैं पूर्ण क्रियाशील ही। सच पूछा जाय तो जीवात्मा का पूर्ण अधिकार अभी न स्थूल शरीर पर है और न तो है सूक्ष्म शरीर पर ही। अन्य शरीर और अन्य कोषों की बात करना तो व्यर्थ ही है।

पूर्ण अधिकार न होने के कारण तीनों प्रथम, द्वितीय और तृतीय शरीर कभी कभी जीवात्मा के विपरीत भी हो जाते हैं जिसका परिणाम होता है-भयंकर और असाध्य बीमारियों का जन्म। सभी प्रकार की शारीरिक और मानसिक बीमारियों के मूल में एकमात्र यही कारण है। हम आप सभी यही समझते हैं कि हमारा शरीर रुग्ण हो गया। स्थूल शरीर रोगी हो गया। वास्तविकता यह है कि सर्वप्रथम रोग सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर में उत्पन्न होता है। लेकिन प्रकट होता है रोग और कष्ट स्थूल शरीर में। इसी प्रकार जब रोग और कष्ट का उपचार होता है तो वह प्रभाव पड़ता है सर्व प्रथम मनोमय या सूक्ष्म शरीर के ऊपर। आधुनिक एलोपैथिक दवाइयों का प्रभाव ज्यादातर स्थूल शरीर तक ही सीमित रहता है जिससे असाध्य रोग ठीक नहीं हो पाते हैं। होम्योपैथिक और आयुर्वेदिक दवाइयों का प्रभाव सूक्ष्म शरीर और मनोमय शरीर तक होता है जहाँ से बीमारियों का जन्म होता है। यही कारण है कि यदि हमें रोग से पूर्णरूप से मुक्ति पानी है तो हमें आयुर्वेदिक या होम्योपैथिक उपचार लेना पड़ता है। इसका एक मात्र कारण होता है दवाइयों की घर्षण के द्वारा पोटेंसी का बढ़ाया जाना। जितनी पोटेंसी ज्यादा होगी दवाई की उतनी ही सूक्ष्म पहुँच होगी उसकी।
मन की दो स्थितियां हैं,निम्न स्थिति और उच्च स्थिति। निम्न स्थिति से सभी परिचित हैं, इसलिए कि उस स्थिति से स्थूल शरीर, वासना शरीर, सूक्ष्म शरीर और उनसे सम्बंधित तीनों कोषों से है और वे शरीर और वे कोष सक्रिय हैं जिनसे जीवात्मा का सम्बन्ध है। लेकिन सबंध होते हुए भी उन पर जीवात्मा का पूर्ण अधिकार नहीं है। इसी प्रकार मन की दूसरी स्थिति से मनोमय शरीर, विज्ञानमय शरीर और आनंदमय शरीर और उनसे सम्बंधित कोषों से है। अध्यात्म के अनुसार साधना के बल पर जब मनुष्य का अधिकार अपने स्थूल शरीर (अन्नमय कोष), वासना शरीर,वासनामय कोष,सुक्ष्म शरीर,प्राणमय कोष, पर हो जाता है तो पहली स्थिति का मन शुद्ध और निर्मल होकर दूसरी स्थिति के मन में मिल जाता है। मन की दोनों स्थितियां मिलकर एक हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में जीवात्मा का देहाभिमान समाप्त हो जाता है और उसका जीवभाव भी नष्ट हो जाता है। वह अपने कारण शरीर को उपलब्ध होकर आत्मतत्व और परमात्मतत्व के निकट पहुँच जाता है।
कारण शरीर को उपलब्ध जीव आत्मा को अंतरात्मा कहते हैं। परमात्म तत्व के निकट होने पर परमात्मा का प्रभाव आत्मा पर पड़ने लगता है। जब पूर्णरूपेण प्रभाव पड़ने लगता है तो अपार्थिव सत्ता में विद्यमान आध्यात्मिक मंडली के सर्वोच्च पद पर आसीन महापुरुष उस आत्मा को महात्मा पद की दीक्षा प्रदान करते हैं। दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात् उस आत्मा का सच्चे अर्थों में विकास संभव होता है। उस विकास से साधारण लोग परिचित नहीं हैं।
वैराग्य मोक्ष प्राप्त करने की अन्यतम साधन है मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष के का मूल कारण है मन एवं मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयो: है जब तक जड़ मजबूत ना हो वृक्ष की स्थिरता नहीं हो सकती इसी प्रकार बिना वैराग्य की परम ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती अतः ज्ञान की सिद्धि के लिए वैराग्य का आवश्यकता है।

वैराग्य का अर्थ यह भी नहीं कि अपना सब कुछ छोड़ कर गेरवे वस्त्र धारण करें वैराग्य इंद्रियों को विषयों में न जाने देना तथा विषय भोगों में आसक्ति का न रहना वैराग्य कहलाता है।
इंद्रियों को विषय में रमण ना हो वो त्याग है विषयो से रमण न करना ही वैराग्य है और वैराग्य का फल सन्यास है बिना त्याग वैराग्य की उपलब्धि नहीं। अंदर के राग की निवृत्ति न होने पर ज्यों की त्यों स्थिति हो जाती है। जैसे रोग की जड़ न टूटने पर रोगी पुनः रोग ग्रस्त हो जाता है ठीक उसी प्रकार तपस्वी यदि विवेक संगत इंद्रीय निग्रह यानी त्याग न करे केवल किसी सिद्धि आदि पाने के लिए हठमात्र से विषयों से दूर रहे तो मौका आने पर राग की प्राप्ति होकर विषयासक्त हो जाता है।
मन सर्वथा विषय में जाए ही नहीं यही मुक्ति है मुक्ति में आनंद ही आनंद है विषय और आनंद का साहचार्य नहीं है सुषुप्ति के अंदर आनंद रहता है और विषय कोई नहीं रहता मोक्ष में केवल आनंद ही है विज्ञानं आनंदं ब्रह्मं।
इंद्रियों का विषय की तरफ जाना मृत्यु का कारण है शब्दादि विषयों में सुख नहीं अतः है भूलकर भी इनसे प्रीति ना करें यदि विषयो में सुख होता तो विषय भोगने से तृप्ति होती एक विषय भोगते ही दूसरे की कामना ना होती पर ऐसा नहीं होता विषय भोग से है अतृप्ति ही होती है अतः सिद्ध होता है कि विषयों में आनंद नहीं है जो थोड़ा बहुत सुकून मिलता सा लगता है।
वह भी अत्यंत चंचल होता है स्थाई नहीं होता समाधि में भी भासमान योगानंद भी निश्चित करा देता है कि आनंद विषयों में नहीं हो सकता क्योंकि समाधि तो विषयों से सर्वथा शुन्य स्थिति है साधारण व्यक्ति सुषुप्ति पर विचार करे तो समझ सकता है कि आनंद विषयों पर बिल्कुल भी निर्भर नहीं है बल्कि विषय रहने पर ही भरपूर आनंद उपलब्ध होता है।
कुल विषयों का सामान्य वर्गीकरण करे तो शब्द स्पर्श रूप रस गंध के पांच वर्ग हैं अतः शबदादि पांच ही विषय कहे जाती हैं इन से एक भी विषय मृत्यु के लिए काफी है अपने अपने स्वभाव के अनुसार शबदादि पांच विषयों में से केवल एक एक से बंधे हुए हिरण हाथी पतंग मछली और भवरे मृत्यु को प्राप्त होते हैं फिर इन पांचों में जकड़ा हुआ मनुष्य कैसे बच सकता है।

हरिण– गायन सुनने के वश मृत्यु को प्राप्त होता है(कर्णेन्द्रिय का आसक्ति)

मातगं(हाथी)– स्पर्शसुख के वशीभूत हुआ पकड़ा जाती है ( स्पर्शेन्द्रियासक्ति)

पतगं–रूप का मोह बत्ती मे आसक्ति होने पर जल जाता है (रूपासक्ति)साधारण मनुष्य भी रूपासक्ति मे फँस कर अधोगति को प्राप्त होता है ।

मीन– रसनेन्द्रिय (जीभ)की आसक्ति से मृत्यु को प्राप्त होता है (रसासक्ति)

ध्यान में शारीरिक दर्द बाधा क्यों डालते हैं?क्या ध्यान मृत्यु से साक्षात्कार है ?
मृत्यु का ही ध्यान करने से क्या लाभ एवं हानियां हैं उदाहरण सहित जाने
ध्यान में, ज्यादातर शारीरिक दर्द बाधा डालते हैं ..तब उस समय ध्यान कैसे किया जाए?-

1-ध्यान शरीर में रसायनिक बदलाव लाता है। नये परिवर्तन आरंभ हो जाते हैं; शरीर में एक अव्यवस्था होती है। कई बार पेट प्रभावित होता है क्योंकि पेट में तुमने बहुत सी भावनाएं दमित की हुई हैं, और उनमें उथल-पुथल मचती है। कई बार तुम्हें उल्टी आने को होगी, जी मिचलाएगा। कई बार तुम्हें तेज सिर दर्द अनुभव होगा क्योंकि ध्यान तुम्हारे दिमाग का अन्दरूनी ढांचा परिवर्तित कर रहा होता है। ध्यान में तुम वास्तव में एक अव्यवस्था से गुजरते हो। जल्द ही चीजें व्यवस्थित हो जायेंगी। लेकिन, कुछ समय के लिए, हर चीज अव्यवस्थित होगी।

2-तो तुम्हें क्या करना है?वास्तव में,दर्द और आनंद उसी ऊर्जा के दो आयाम हैं।वह ऊर्जा जिसने दर्द उत्पन्न किया यदि उसे दृष्टा बन कर देखने की कला विकसित की जाय तो वह दर्द  समाप्त हो जाएगा और वही दर्द की उर्जा आनंद बन जाएगी। उदाहरण के लिए सिर में हो रहे दर्द को देखो; इसे देखते रहो। दृष्टा बने रहो। भूल जाओ कि तुम कर्ता हो, और धीरे-धीरे हर चीज शांत हो जाएगी और इतनी सहजता और इतनी सौम्यतापूर्वक कि तुम इसका विश्वास नहीं कर सकोगे। इतना ही नहीं.. सिर दर्द भी समाप्त हो जाएगा। यदि तुम शांत बैठे रहते हो और व्यवधानों पर ध्यान देते हो, सभी व्यवधान समाप्त हो जाएंगे। और जब सभी व्यवधान गायब हो जाएंगे, तुम्हें अचानक पता चलेगा कि सारा शरीर का अस्तित्व आवश्यक नहीं है बिना शरीर के भी आप विचरण कर रहे हैं जैसे सपने में करते हैं वैसे ही सचमुच में करने लगोगे इसी स्थिति को ध्यान से आगे समाधि की स्थिति कहा गया है इसके लिए इंद्रीय निग्रह पहली क्रिया है।

3-शरीर की वृत्ति राजसी है ..इसलिए यह हो रहा है। जब वह काल्पनिक दर्द उत्पन्न करता है, तो खुजली होती है, चींटी चल रही होती हैं, शरीर अपने अस्तित्व के लिए तुम्हें भटकाने का प्रयास करता है। और यह स्वाभाविक है, क्योंकि शरीर लंबे समय से शासक रहा है, बहुत से जन्मों से यह सम्राट रहा है और तुम उसके अनुचर । अब तुम हर चीज को पूरा बदल रहे हो। तुम अपनी सत्ता पुन: पाना चाह रहे हो, और यह स्वाभाविक है कि शरीर तुम्हें भटकाने का जो प्रयास कर सकता है करेगा। यदि तुम विचलित हो जाते हो, तुम खो जाओगे। साधारणतः, लोग इन चीजों को दबा देते हैं। वे मंत्र का उच्चारण शुरू देंगे; वे शरीर को नहीं देखेंगे।

4-  एक सूत्र है कि जब तुम्हें पीड़ा हो, दर्द हो, चोट लगे, तो ऐसा ना मान लेना कि मुझे दर्द हो रहा है, या मुझे पीड़ा लगी है। ऐसी मान्यता से ही उपद्रव है। यदि हाथ में चोट लगी या सिर में दर्द है, तो आंख बंद कर लेना और सारी चेतना को वहीं इकट्ठी कर लेना। जैसे सारी चेतना की ज्योति-किरणें इकट्ठी हो गयीं, और वहीं एक ही जगह केंद्रित हो गया तो वहीं केंद्रित कर लेना,और पूरी तरह से सिरदर्द को देखना।और जब तुम्हारा दर्द पूरी तरह दिखायी पड़ने लगे, तब सिर्फ तीन बार भीतर ही कहना वो रहा दर्द इसी देखने में तुम अलग हो जाओगे अथार्त देखने वाला और जो दिखायी पड़ रहा है, वह अलग हो जाएगा। ऐसा ही भूख प्यास काम क्रोध लोभ मोह चिंता दुष्चिंता भय आदि का भी अभ्यास किया जा सकता है यह निरंतर अभ्यास का विषय है जैसे कोमल जल निरंतर गिरने से कठोर चट्टान में अपना मार्ग बना लेता है। क्या आप जानते हैं कि पानी संसार का सबसे तेज कटर है? 

5-लेकिन इसे आज से साधोगे तो ही मृत्यु में सध पाएगा। ऐसा मत सोचना कि मरते समय ही साध लेंगे। जब प्यास में न सधेगा तो मौत में कैसे सधेगा? जब सिरदर्द में न सधेगा तो मौत में कैसे सधेगा?एक दिन में कोई भूख से नहीं मर जाता है।अगर आदमी तीन महीने भूखा रहे, तब मरेगा। जब एक दिन की भूख में न सधा और तुम खो गए, और एक हो गए शरीर के साथ, तो मृत्यु में कैसे सधेगा? मृत्यु में तो चेतना शरीर से पूरी तरह अलग होगी, और तुम्हारा ध्यान शरीर पर रहेगा। क्योंकि जिंदगी भर उसी का अभ्यास किया, उसी का सम्मोहन किया। तो तुम भूल ही जाओगे कि तुम नहीं मर रहे हो, तुम समझोगे कि मैं मर रहा हूं।वास्तव में,न कोई कभी मरा है और न कभी कोई मर सकता है।

6-इस संसार में जो है वह सदा से है, सदा रहेगा। रूपांतरण होते हैं, घर बदलते हैं, देह बदलती है, वस्त्र बदलते हैं, मृत्यु होती ही नहीं। मृत्यु असंभव है। कोई मरेगा कैसे? जो है, वह नहीं कैसे हो जाएगा? जो है, वह रहेगा; सदा-सदा रहेगा। किंतु फिर भी लोग निरंतर मरते हैं  तड़फते हैं। अप्रमादी नहीं मरते, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वे मरते नहीं, और उनको मरघट नहीं ले जाना पड़ता। वह तो गौतम बुद्ध को भी ले जाना पड़ा। मर कर भी वे नहीं मरते, क्योंकि वे जानते हैं कि वे अलग हैं। तुम्हारे लिए तो वे भी मरते हैं,लेकिन वे स्वयं के लिए नहीं मरते क्योंकि मृत्यु की घड़ी में भी वे अपने भीतर के दीए को देखते चले जाते हैं।संयमी तो अंधेरी रात में भी; नींद में ही नहीं मृत्यु की घनघोर अमावस में भी, जागा रहता है, देखता रहता है और सजग रहता है”। मृत्यु पर विजय ही साधना का परम लक्ष्य है। मृतयोरमाम् अमृत्य गमय : यही साधना का चरम है यही परम साधना है। 

ध्यान के चमत्कारिक अनुभव;-

1-ध्यान के अनुभव निराले हैं और प्रत्येक ध्यानी को ध्यान के अलग-अलग अनुभव होते हैं। यह उसकी शारीरिक रचना और मानसिक बनावट पर निर्भर करता है कि उसे प्रारंभ में क‍िस भांति के अनुभव होंगे। लेकिन ध्यान के एक निश्चित स्तर पर जाने के उपरांत सभी के अनुभव
लगभग समान होने लगते हैं।  ध्यान करने वालों को ध्यान के मध्य कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं। पहले भौहों के बीच आज्ञा चक्र में ध्यान लगने पर अंधेरा दिखाई देने लगता है। अंधेरे में कहीं नीला और फिर कहीं पीला रंग दिखाई देने लगताहै। यह गोलाकार में दिखाई देने वाले रंग हमारे द्वारा देखे गए दृष्य जगत का प्रकटीकरण भी हो सकते हैं और हमारे शरीर और मन की हलचल से निर्मित ऊर्जा भी। गोले के भीतर गोले चलते रहते हैं जो कुछ देर दिखाई देने के बाद अदृश्य हो जाते हैं और उसकी जगह वैसा ही दूसरा बड़ा गोला दिखाई देने लगता है। यह क्रम चलता रहता है।

2- नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं जीवात्मा का रंग है। नीले रंग के रूप में जीवात्मा ही दिखाई पड़ती है। पीला रंग जीवात्मा का प्रकाश है। इस प्रकार के गोले दिखना आज्ञा चक्र के जाग्रत होने का लक्षण भी माना जाता है। कुछ दिनों बाद इसका पहला लाभ यह मिलता है कि व्यक्ति के मन और मस्तिष्क से तनाव और चिंता हट जाती है और वह शांति का अनुभव करता है। तन्मयता से भृकुटी पर ध्यान लगाते रहने से कुछ माह बाद व्यक्ति को भूत, भविष्य-वर्तमान तीनों प्रत्यक्ष दीखने लगते हैं। ऐसे व्यक्ति को भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के पूर्वाभास होने लगते हैं।

3-जो व्यक्ति सतत चार से छह माह तक ध्यान करता रहा है उसे कई बार एक से अधिक शरीरों का अनुभव होने लगता है। अर्थात एक तो यह स्थूल शरीर है और उस शरीर से निकलते हुए 2 अन्य शरीर। ऐसे में बहुत से ध्यानी घबरा जाते हैं और वह सोचते हैं कि यह ना जाने क्या है। उन्हें लगता है कि कहीं मेरी मृत्यु न हो जाए। इस अनुभव से घबराकर वे ध्यान करना छोड़ देते हैं। जब एक बार ध्यान छूटता है तो फिर पुन: उसी अवस्था में लौटने में कठिनाई होती है।

इस अनुभव का क्या अर्थ है ?-

1-जो दिखाई दे रहा है वह हमारा स्थूल शरीर है। दूसरा सूक्ष्म शरीर हमें दिखाई नहीं देता, लेकिन हम उसे नींद में अनुभव कर सकते हैं। इसे ही मनोमय शरीर कहा है। तीसरा शरीर हमारा कारण शरीर है जिसे विज्ञानमय शरीर कहते हैं।वास्तव में,सूक्ष्म शरीर ने हमारे स्थूल शरीर को घेर रहा है। हमारे शरीर के चारों तरफ जो ऊर्जा का क्षेत्र है वही सूक्ष्म शरीर है। सूक्ष्म शरीर भी हमारे स्थूल शरीर की तरह ही है यानि यह भी सब कुछ देख सकता है, सूंघ सकता है, खा सकता है, चल सकता है, बोल सकता है आदि। इसके साथ ही इस शरीर की और भी कई क्षमता है जैसे वह दीवार के पार देख सकता है। किसी के भी मन की बात जान सकता है। वह कहीं भी पल भर में जा सकता है। वह पूर्वाभास कर सकता है और अतीत की हर बात जान सकता है आदि।

2- तीसरा शरीर कारण शरीर कहलाता है। कारण शरीर ने सूक्ष्म शरीर को घेर के रखा है। इसे बीज शरीर भी कहते हैं। इसमें शरीर और मन की वासना के बीज विद्यमान होते हैं। यह हमारे विचार, भाव और स्मृतियों का बीज रूप में संग्रह कर लेता है। मृत्यु के बाद स्थूल शरीर कुछ दिनों में ही नष्ट हो जाता है और सूक्ष्म शरीर कुछ महिनों में विसरित होकर कारण की ऊर्जा में विलिन हो जाता है, लेकिन मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता है।

3-कारण शरीर कभी नहीं मरता। इसी कारण शरीर से कई सिद्ध योगी परकाया प्रवेश में समर्थ हो जाते हैं। जब व्यक्ति निरंतर ध्यान करता है तो कुछ माह बाद यह कारण शरीर हरकत में आने लगता है। अर्थात व्यक्ति की चेतना कारण में स्थित होने लगती है। ध्यान से इसकी शक्ति बढ़ती है। यदि व्यक्ति निडर और होशपूर्वक रहकर निरंतर ध्यान करता रहे तो निश्चित ही वह मृत्यु के पार जा सकता है। मृत्यु के पार जाने का मतलब यह कि अब व्यक्ति ने स्थूल और सूक्ष्म शरीर में रहना छोड़ दिया।

क्या ध्यान मृत्यु से साक्षात्कार है ?-

1-जो लोग भी ध्यान में नहीं जा पाते हैं, उनके न जाने का मूल कारण मृत्यु का भय है। और जो भी मृत्यु से डरे हुए हैं, वे कभी समाधि में प्रवेश नहीं कर सकते हैं। समाधि अपने हाथ से मृत्यु को निमंत्रण है कि आओ, मैं मरने को तैयार हूं… मैं जानना चाहता हूं कि मौत हो जाएगी, मैं बचूंगा कि नहीं बचूंगा? और अच्छा है कि मैं संज्ञान पूर्वक जान लूं क्योंकि ध्यान में यह घटना घटेगी तो मैं कुछ भी न जान पाऊंगा।

2-उदाहरण के लिए एक बूंद है, और हजार बूंदों के बीच में पड़ी है। सूरज की किरण आई और उस एक बूंद पर जोर से पड़ी और वह बूंद भाप बनकर उड़ गई। आसपास की बूंदों ने समझा कि वह मर गई, वह खतम हो गई। और ठीक ही सोचा उन बूंदों ने, क्योंकि उन्हें दिखाई पड़ा कि अब तक थी, अब नहीं है। लेकिन वह बूंद अब भी बादलों में है।यह वे बूंदें कैसे जानें जो खुद भी बादल न हो जाएं। या बूंद अब सागर में जाकर फिर बूंद बन गई होगी, यह भी बूंदें कैसे जानें, जब तक कि वे खुद उस यात्रा पर न निकल जाएं।

3-हम सब आसपास जब किसी को मरते देखते हैं तो हम समझते हैं कि गया, एक आदमी मरा। हमें पता नहीं कि वह वाष्पीभूत हुआ। वह फिर सूक्ष्म में गया और फिर नई यात्रा पर निकल गया। वह बूंद भाप बनी और फिर बूंद बनने के लिए भाप बन गई। यह हमें कैसे दिखाई पड़े? हम सबको लगता है कि एक व्यक्ति और खो गया, एक व्यक्ति और मर गया। और ऐसे रोज कोई मरता जाता है, और नित्य कोई बूंद खोती चली जाती है, और धीरे -धीरे हमें भी आभास हो जाता है कि हमें भी मरना पड़ेगा। और तब दूसरों को देखकर एक भय पकड़ लेता है कि मैं मर जाऊंगा। दूसरों को देखकर ही हम जीते हैं, इसलिए हमारी बड़ी कठिनाई है।

4-मृत्यु से न तो मुक्त होना है और न मृत्यु को जीतना है। मृत्यु को जानना है और जानना ही मुक्ति बन जाता है, जीत बन’ जाता है। इसलिए ज्ञान शक्ति है, मुक्ति है, विजय है। मृत्यु का ज्ञान मृत्यु को विलीन कर देता है, तब अनायास ही हम पहली बार जीवन से संबंधित हो पाते हैं।ध्यान स्वेच्छा से मृत्यु में प्रवेश है और जो स्वेच्छा से मृत्यु में प्रवेश करता है, वह अनायास ही जीवन में प्रविष्ट हो जाता है। वह जाता तो है मृत्यु को खोजने, लेकिन मृत्यु को नहीं बल्कि परम जीवन को पा लेता है। मृत्यु के भवन में खोज करते-करते, जीवन के मंदिर में पहुंच जाता है। और जो मृत्यु के भवन से भागता है, वह जीवन के मंदिर में नहीं पहुंच पाता है।

5-ध्यान या समाधि का यही अर्थ है कि हम बादाम या अखरोट की तरह अपनी खोल और गिरी को अलग करना सीख जाएं। वे अलग हो सकते हैं,अलग -अलग जाने जा सकते हैं, क्योंकि वे अलग हैं। इसलिए ध्यान है स्वेच्छा से मृत्यु में प्रवेश, अपनी ही इच्छा से मौत में प्रवेश और जो आदमी अपनी इच्छा से मौत में प्रवेश कर जाता है, वह मृत्यु का साक्षात्कार कर लेता है कि यह रही मृत्यु और मैं अभी भी हूंँ ।

6-उदाहरण के लिए प्राचीन यूनान के प्रमुख दार्शनिक सुकरात का आखिरी क्षण है। जहर पीसा जा रहा है उसे मारने के लिए। और वह बार -बार पूछता है कि बड़ी देर हो गई, विष कब तक पिस पाएगा! उसके मित्र रो रहे हैं और कह रहे हैं कि आप बावरे हो गए हैं। हम तो चाहते हैं कि थोड़ी देर और जी लें। तो हमने विष पीसने वाले को रिश्वत दी है, समझाया -बुझाया है कि थोड़े धीरे -धीरे पीसना। लेकिन सुकरात बाहर उठकर पहुंच जाता है और जहर पीसनेवाले से पूछता है कि बड़ी देर लगा रहे हो, बड़े अकुशल मालूम होते हो, नए -नए पीस रहे हो? क्या पहले किसी फांसी की सजा दिए हुए आदमी को तुमने जहर नहीं दिया है?

7-वह आदमी कहता है, जिंदगी भर से दे रहा हूं। लेकिन तुम जैसा बावरा आदमी मैंने नहीं देखा। तुम्हें इतनी जल्दी क्या पड़ी है? और थोड़ी देर सांस ले लो, और थोड़ी देर जी लो, और थोड़ी देर जिंदगी में रह लो। तो मैं धीरे पीस रहा हूं। और तुम खुद ही पागल की तरह बार -बार पूछते हो कि बड़ी देर हुई जा रही है। इतनी जल्दी क्या है मरने की?

8-सुकरात कहता है कि बड़ी जल्दी है, क्योंकि मैं मृत्यु को देखना चाहता हूं। मैं देखना चाहता हूं कि मृत्यु क्या है।और मैं यह भी देखना चाहता हूं कि मौत भी हो जाए और फिर भी मैं बचता हूं या नहीं बचता हूं। अगर नहीं बचता हूं, तब तो सारी बात ही समाप्त हो जाती है। और यदि बचता हूं तो मृत्यु समाप्त हो जाती है। वास्तव में मैं यह देखना चाहता हूं कि मृत्यु की घटना में कौन मरेगा, मृत्यु मरेगी कि मैं मरूंगा। मैं बचूंगा या मृत्यु बचेगी, यह मैं देखना चाहता हूं। तो बिना जाए कैसे देखूं।

9-फिर सुकरात को जहर दे दिया गया। सारे मित्र रो रहे हैं, वे होश में नहीं हैं, और सुकरात उनसे कह रहा है कि मेरे पैर मर गए, लेकिन अभी मैं जिंदा हूं। सुकरात कह रहा है, मेरे घुटने तक जहर चढ़ गया है, मेरे घुटने तक के पैर बिलकुल मर चुके हैं। अब यदि तुम इन्हें काटो, तो भी मुझे पता नहीं चलेगा। लेकिन मित्रो, मैं तुमसे कहता हूं कि मेरे पैर तो मर गए हैं, लेकिन मैं जीवित हूं। यानी एक बात पता चल गई कि मैं पैर नहीं था। मैं अभी हूं मैं पूरा का पूरा हूं। मेरे भीतर अभी कुछ भी कम नहीं हो गया है। फिर सुकरात कहता है कि अब मेरे पूरे पैर ही जा चुके, जांघों तक सब समाप्त हो चुका है। अब यदि तुम मेरी जांघों तक मुझे काट डालो, तो मुझे कुछ भी पता नहीं चलेगा, लेकिन मैं हूं! और वे मित्र हैं कि रोए चले जा रहे हैं।

10-और सुकरात कह रहा है कि तुम रोओ नहीं, एक अवसर तुम्हें मिला है, देखो। एक आदमी मर रहा है और तुम्हें समाचार दे रहा है कि फिर भी वह जिंदा है। मेरे पैर तुम पूरे काट डालो तो भी मैं नहीं मरा हूं? मैं अभी हूं। और फिर वह कहता है कि मेरे हाथ भी ढीले पड़े जा रहे हैं, हाथ भी मर जाएंगे। आह, मैंने कितनी बार अपने हाथों को स्वयं समझा था, वे हाथ भी चले जा रहे हैं, लेकिन मैं हूं। और वह आदमी, वह सुकरात मरता हुआ कहता चला जाता है। वह कहता है, धीरे- धीरे सब शांत हुआ जा रहा है, सब डूबा जा रहा है, लेकिन मैं उतना का ही उतना हूं।

11-और सुकरात कहता है, हो सकता है थोड़ी देर बाद मैं तुमको संदेश देने को न रह जाऊं, लेकिन तुम यह मत समझना कि मैं मिट गया। क्योंकि जब इतना शरीर मिट गया और मैं नहीं मिटा, तो थोड़ा शरीर और मिट जाएगा, तब भी मैं क्यों मिटूगा! हो सकता है, मैं तुम्हें खबर न दे सकूं, क्योंकि खबर शरीर के द्वारा ही दी जा सकती है। लेकिन मैं रहूंगा। और फिर वह आखिरी क्षण कहता है कि शायद आखिरी बात तुमसे कह रहा हूं। जीभ मेरी लड़खड़ा गई है। और अब इसके आगे मैं एक शब्द नहीं बोल सकूंगा, लेकिन मैं अभी भी कह रहा हूं कि मैं हूं। वह आखिरी वक्त तक यह कहता हुआ मर गया है कि’ मैं हूं’।

12-ध्यान में भी धीरे- धीरे ऐसे ही भीतर प्रवेश करना पड़ता है।और धीरे -धीरे एक-एक चीज छूटती चली जाती है, फासला पैदा होता चला जाता है। और फिर वह घड़ी आ जाती है कि लगता है कि सब दूर पड़ा है -जैसे तट पर किसी और की लाश पड़ी होगी, ऐसा लगेगा -‘और मैं हूं’। और शरीर वह पड़ा है और फिर भी मैं हूं..अलग और भिन्न और बिलकुल दूसरा।

जैसे ही यह अनुभव हो जाता है, हमने जीते हुए मृत्यु का साक्षात्कार कर लिया। फिर अब मृत्यु से हमारा कोई संबंध कभी नहीं होगा। मृत्यु आती रहेगी, लेकिन तब वह पड़ाव होगी, वस्त्र का बदलना होगा, जहां हम नए नए शरीरों पर सवार हो जाएंगे और नई यात्रा पर निकलेंगे, नए मार्गों पर, नए लोकों में। लेकिन मृत्यु हमें मिटा नहीं जाएगी।

मृत्यु का स्मरण क्यों?-

1-यह ध्यान का सूत्र है , ‘मृत्यु के प्रति होश रखो, जब तक मृत्यु को जान ही

न लो”।और तब तक यह होश रखना होगा, जब तक मृत्यु से साक्षात्कार न

हो। इस सूत्र को एक क्षण को भी मत भूलो, कि मृत्यु है। क्योंकि जब तुम मृत्यु को भूलते हो, तभी तुम भटकते हो। जैसे ही तुम मृत्यु को भूले, कि तुम्हारे जीवन में गलत प्रवेश कर जाता है।उदाहरण के लिए तुम किसी से लड़ रहे हो, गालियां दे रहे हो, अपमान कर रहे हो, छुरा उठाकर छाती में भोंकने जा रहे हो और तभी तुम्हें कोई कहे, कि क्षण भर बाद तुम्हारी मृत्यु है। क्या होगा? हाथ ढीला पड़ जायेगा, छुरा नीचे गिर जाएगा। शायद जिसे तुम मारने जा रहे थे उससे तुम क्षमा मांगोगे और कहोगे, ‘क्षमा कर दो। मेरे मरने का वक्त आ गया है।’

2-तुम अभी धन कमा रहे थे, तुम पागल हुए जा रहे थे और किसी ने बताया कि क्षण भर बाद मर जाओगे। सब महत्वाकांक्षा खो गई। अब धन में कोई सार न रहा। अब धन मिट्टी से बदतर हो गया। अब तुमे इसे ढोना न चाहोगे। अभी तुम पद की यात्रा कर रहे थे, कि बड़े से बड़े पद तक पहुंच जाऊं। अचानक खबर आ गई मृत्यु की, सब यात्रा बंद हो गई। मृत्यु के

स्मरण के साथ ही जीवन दूसरा हो जाता है।तुम्हारा जीवन गलत है क्योंकि मृत्यु का स्मरण नहीं है। तब तुम व्यर्थ में उलझे रहते हो। तब तुम क्षुद्र सी बातों में बड़ा समय लगाते हो। तब कंकड़-पत्थर बीनते हो, उनसे तिजोड़ी भरते रहते हो। जैसे ही मृत्यु का स्मरण आयेगा, तुम्हारे जीवन का सारा मूल्यांकन ,वैल्युएशन बदल जायेगा। मृत्यु की स्मृति में क्या सार्थक है, वही बचेगा। जो व्यर्थ है, वह खो जायेगा। मृत्यु को भूले तो व्यर्थ को पकड़ते रहोगे। ऐसा लगता है, सदा रहना है। कूड़ा-कर्कट भी इकट्ठा करते रहते हो।

3-मृत्यु का पता चला, तो याद आता है कि सदा तो रहना नहीं है। तो तुम्हारे झगड़ों का कितना मूल्य है? अदालती मुकदमों का कितना मूल्य है? तुम्हारे पत्नी-बच्चों का कितना मूल्य है? अपने-पराये में क्या फर्क है? जैसे ही तुम्हें मृत्यु का स्मरण आता है, घर घर नहीं रह जाता, केवल प्रतीक्षालय हो जाता। 

4-जैसे ही मृत्यु का स्मरण आता है, जीवन एक प्रतीक्षालय हो गया। वहां बसने को तुम नहीं हो, वहां थोड़ी देर का विश्राम है। वह पड़ाव है। वह मंजिल नहीं है, वहां से जाना ही होगा। और जहां से जाना है, वहां की बातों में कितना अर्थ? जहां से जाना है, वहां की क्षुद्र समस्याओं में उलझने का क्या सार! लेकिन तुम तो उलटा कर रहे हो। मृत्यु की तरफ पीठ किए हुए हो, भाग रहे हो, कि कहीं साक्षात्कार न हो जाये; कहीं मृत्यु सामने न मिल जाये।सूत्र कह रहा है कि तुम उसका सामना ही कर लो। क्योंकि जैसे ही तुम उसे देख लोगे, भय से मुक्त हो जाओगे। क्योंकि जिस दिन मृत्यु देख ली जाती है, उस दिन देखने वाला मृत्यु से अलग हो जाता है। दृश्य और द्रष्टा अलग हो जाते हैं। तब मृत्यु भी इस जगत की एक घटना हो जाती है और तुम साक्षी हो जाते हो। जब तुम मृत्यु को ठीक से देख लेते हो, तुम अमृत हो जाते हो। मृत्यु का साक्षात्कार मनुष्य को अमरत्व दे देता है।

5- मृत्यु को यदि तुम देख लो, तो अमृत।’काम’ से अगर तुम डर-डरे, भागे-भागे रहे तो तुम्हें समाधि की कोई झलक कभी न मिलेगी। मृत्यु से तुम भयभीत रहे, तो तुम्हें अमृत का कभी कोई पता न चलेगा। मृत्यु सीढ़ी है अमृत के दर्शन की। ‘काम’ सीढ़ी है समाधि की झलक की। और जैसे ही समाधि की झलक मिली, काम व्यर्थ हुआ। और जैसे ही अमृत दिखाई पड़ा,

मृत्यु गई। फिर तुम मरने वाले नहीं हो। सिद्धांत दूसरों से मिलते हैं, प्रतीति अपनी होती है।

6-जीवन शाश्वत है। रूप बदलते हैं, घर बदलते हैं, वस्त्र बदलते हैं, आकार बदलते हैं, लेकिन जो आकारों के भीतर छिपा निराकार

है,वह सदा वही है।सागर में भी खो कर नदी खोती थोड़ी है.. फिर बादल बन जाती है, फिर गंगोत्री पर बरस जाती है, फिर धारा बहने लगती है–एक वर्तुल है जीवन का–उसका कोई अंत नहीं है।यह सभी ध्यान का

सूत्र है ..या तो ‘काम’ पर ध्यान को गड़ाओ, तो वहां से तुम्हें कुंजी मिलेगी। या मृत्यु में ध्यान को गड़ाओ, तो वहां से कुंजी मिलेगी। उन्हीं दो छोरों से छलांग लगती है, वहीं तट है; वहां से तुम सागर में कूद सकते हो।

धार्मिक व्यक्ति परमात्मा को धन्यवाद देता है। अधार्मिक प्रार्थना करता है। धार्मिक की प्रार्थना सदा धन्यवाद है। अधार्मिक की प्रार्थना सदा मांग है, कुछ दो। और धार्मिक की प्रार्थना सदा यह है कि तूने इतना दिया है कि मैं अनुगृहीत हूं। अब और क्या मांगना है?

7-मृत्यु के प्रति जो जागेगा, वह शरीर के प्रति भी जागेगा। क्योंकि शरीर और मृत्यु एक ही अर्थ रखते हैं। जैसे ही तुम शरीर के प्रति जागोगे, मृत्यु के प्रति जागोगे। वैसे ही फासला होना शुरू हो जायेगा। और फासला इतना बड़ा है कि उससे बड़ा कोई दूसरा फासला नहीं हो सकता। तुम अमृत हो,शरीर मृत्यु है। अंतर इससे ज्यादा बड़ा क्या होगा? तुम शाश्वत हो, शरीर क्षणिक है। तुम सदा से हो, सदा रहोगे, शरीर अभी है, अभी नहीं हो जायेगा। तुम चैतन्य हो, शरीर मिट्टी है। शरीर मिट्टी का दीया है, तुम ज्योति हो। अनंत दूरी है। इससे बड़ा कोई चमत्कार नहीं है संसार में कि यह दूरी कैसे पूरे हो गये हैं? पदार्थ और परमात्मा का मिलना कैसे घटित हुआ है? यह बड़े से बड़ा चमत्कार है। लेकिन जैसे तुम आंख बंद किए खड़े हो दीये के तले अंधेरे में, वहां दूरी थोड़ी भी नहीं है।

-सामान्य जीवन में मृत्यु में और तुम में तनिक भी दूरी नहीं है। फिर भी तुम मजे से चलते हो, जैसे कि मौत है ही नहीं। यदि लोगों को देखो तो तुम्हें लगेगा मृत्यु है ही नहीं। कोई मरने के भाव से नहीं भरा है। आखरी क्षण तक भी आदमी जीवन के विचारों में निमग्न रहता है। अंतिम क्षण तक बचने का प्रयास करता है। अंतिम कण को भी पकड़ता है सहारे की तरह। और जिंदगी में कुछ भी नहीं है पकड़ने जैसा। न उससे कुछ मिला है, न कुछ मिल सकता है। जो भी मिला है, वह भी दुख सिद्ध हुआ है। सब जगह, मृत्यु और हम निरंतर निकटस्थ हैं।इसीलिए मृत्यु के प्रति सजग रहो…सतत। सुबह उठकर जानो कि यह अंतिम दिन होगा। सांझ सोते वक्त जानो कि यह अंतिम रात है। काश, तुम इस सजगता को थोड़ा सा सम्हाल लो, तो तुम पाओगे, तुम्हारे जीवन में रस बरसने लगा मृत्यु की सजगता से।

9-रात सोते समय यदि तुम्हारे मन में यह भान हो कि यह रात अंतिम होगी, धन्यवाद दे दो परमात्मा को–जो उसने दिया। संसार के मित्रों, प्रियजनों को धन्यवाद दे दो मन में…जो उन्होंने तुम्हारे लिए किया। क्योंकि हो सकता है, सुबह तुम न उठो और धन्यवाद का समय न मिले। इस रात को आखिरी मान कर सो जाओ। अगर तुम इस रात को आखिरी मान कर सो सकते हो, तुम्हारी नींद का गुण धर्म बदल जायेगा। क्योंकि अगर यह आखिरी है, तो सपने नहीं आयेंगे।

10-सपने का अर्थ है कि तो तैयारी है कल के जीवन की। अगर यह आखिरी है, तो तुम ऐसे सो जाओगे जैसे परमात्मा की गोद में सो गये। सुबह उठने का कोई विचार नहीं तो तनाव क्या? कल तो तनाव है। कल के कारण ही तो मन में बेचैनी है। इसलिए कल जब बहुत काम होता है, तो तुम रात सो नहीं पाते। अब कल तो होने वाला नहीं है। यह रात आखिरी हो सकती है। और एक न एक दिन तो ऐसी रात आयेगी, जो आखिरी होगी। बिना धन्यवाद दिये मत चले जाना। क्योंकि फिर पछताने से कुछ भी न होगा। तो हर रात ही कर लो। क्योंकि कोई पक्का पता नहीं, कौन सी रात यह होगा।

11-रात सोते समय अंतिम रात है। सब को धन्यवाद दे दो। जिनसे क्रोध किया हो, उनसे क्षमा मांग लो। जिन्होंने तुम्हारे लिए कुछ किया हो, उन्हें धन्यवाद दे दो। जिन्होंने कुछ भी न किया हो, कम से कम उन्होंने तुम्हारा कुछ बुरा नहीं किया, उन्हें भी धन्यवाद दे दो। जिन्होंने तुम्हारा बुरा किया हो, जिनके प्रति मन में द्वेष, घृणा, क्रोध हो, उनसे भी क्रोध, घृणा का संबंध तोड़ लो।क्योंकि जब शरीर ही न बचेगा, तो क्या नाता, क्या रिश्ता! अपने-पराये से मुक्त हो जाओ। और चुपचाप सो जाओ, जैसे यह आखिरी रात है। तुम्हारी रात का गुणधर्म बदल जायेगा।

12-शरीर सोया रहेगा, तुम्हारे भीतर कोई जागेगा। दीये के नीचे का अंधेरा जो है, वह धीरे-धीरे मिटने लगेगा। सुबह जब उठो तो पहला काम परमात्मा को धन्यवाद दो, कि एक दिन और तूने दिया। बस, प्रसन्नता से, इस अनुग्रह भाव से इसे स्वीकार कर लो। रात फिर अंतिम मान कर सो जाओ। प्रत्येक पल को धन्यवाद से स्वीकार करो और प्रत्येक पल को अंतिम मान कर विदाई का क्षण भी समझ लो। यह तुम्हारे जीवन का सूत्र बन जाए। तुम जल्दी ही पाओगे, तुम और हो गये,
नये हो गये। तुम्हारे भीतर कोई दूसराही जन्म गया।इस बात के लिए ही सूत्र है , ‘मृत्यु के प्रति होश रखो, जब तक मृत्यु को जान ही न लो।मनुष्य के जीवन में या जगत के अस्तित्व में एक बहुत रहस्यपूर्ण बात है। जीवन को तोड़ने बैठेंगे तो जीवन भी तीन इकाइयों में खंडित हो जाता है। अस्तित्व को खोजने निकलेंगे तो अस्तित्व भी तीन इकाइयों में खंडित हो जाता है। यह तीन की संख्या बहुत रहस्यपूर्ण है। और जब तक धार्मिक लोग तीन की संख्या की बात करते थे तब तक तो हंसा जा सकता था, लेकिन अब वैज्ञानिक भी तीन के रहस्य को स्वीकार करते हैं। पदार्थ को तोड़ने के बाद अणु के विस्फोट पर, एटामिक एनालिसिस से एक बहुत अदभुत बात पता लगी है, और वह यह है कि अस्तित्व जिस ऊर्जा से निर्मित है उस ऊर्जा के तीन भाग हैं–न्यूट्रान, प्रोटान, इलेक्ट्रान। एक ही विद्युत तीन रूपों में विभाजित होकर सारे जगत का निर्माण करती है। मैं एक शिव के मंदिर में कुछ दिन पहले गया था और उस मंदिर के पुजारी को मैंने पूछा कि यह शिव के पास जो त्रिशूल रहता है, इसका क्या प्रयोजन है? उस पुजारी ने कहा, शिव के पास त्रिशूल होता ही है, प्रयोजन की कोई बात नहीं है। लेकिन वह त्रिशूल बहुत पहले कुछ मनुष्यों की सूझ का परिणाम है। वह तीन का सूचक है। हजारों मंदिर इस जगत में हैं और हजारों तरह से तीन के आंकड़े को पकड़ने की कोशिश की गई है।

*और हमने त्रिमूर्तियां देखी हैं–ब्रह्मा, विष्णु, महेश।*

यह बड़ी रोचक बात है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश, ये तीनों वही काम करते हैं जो न्यूट्रान, प्रोटान और इलेक्ट्रान करते हैं। ब्रह्मा सृजनात्मक शक्ति हैं, विष्णु संरक्षण शक्ति हैं और शंकर संहारक शक्ति हैं।

ये तीन के आंकड़े मनुष्य के जीवन में बहुत-बहुत द्वारों से पहचाने गए हैं।

*परमात्मा की परम अनुभूति को जिन्होंने जाना है, वे उसे सत्, चित्, आनंद–एक्झिस्टेंस, कांशसनेस और ब्लिस–इन तीन टुकड़ों में बांटते हैं। जिन्होंने मनुष्य जीवन की गहराइयां खोजी हैं, वे सत्यम्, शिवम्, सुंदरम्–इन तीन टुकड़ों में मनुष्य के व्यक्तित्व को, उसकी पर्सनैलिटी को बांटते हैं।*

यह भी थोड़ा समझ लेने जैसा है कि मनुष्य का पूरा गणित तीन का विस्तार है। शायद ही आपने कभी सोचा हो कि मनुष्य ने नौ आंकड़े, नौ की संख्या तक ही सारी संख्याओं को क्यों सीमित किया। हमारी सारी संख्या नौ का ही विस्तार है। और नौ, तीन में तीन के गुणनफल से उपलब्ध होते हैं। और बड़े आश्चर्य की बात है कि हम नौ के कितने ही गुणनफल करते जाएं, जो भी आंकड़े होंगे, उनका जोड़ सदा नौ होगा। अगर हम नौ का दुगुना करें, अठारह, तो आठ और एक नौ हो जाएगा। अगर तीन गुना करें, सत्ताईस, तो सात और दो नौ हो जाएंगे। हम नौ में अरबों-खरबों का भी जोड़ करें तो भी जो आंकड़े होंगे उनका जोड़ सदा नौ होगा।

शून्य है अस्तित्व, वह पकड़ के बाहर है। और जब अस्तित्व तीन में टूटता है तो पहली बार पकड़ के भीतर आता है। और जब अस्तित्व तीन से तिगुना हो जाता है तो पहली दफे आंखों के लिए दृश्य होता है। और जब तीन के आंकड़े बढ़ते चले जाते हैं तो अनंत विस्तार हमें दिखाई पड़ने लगता है।

मनुष्य के व्यक्तित्व पर भी ये तीन की परिधियां खयाल करने जैसी हैं।

*सत्यम् मनुष्य की अंतरतम, आंतरिक, इनरमोस्ट केंद्र है। सत्यम् का अर्थ है, मनुष्य जैसा है अपने को वैसा जान ले। सत्यम् मनुष्य के स्वयं से संबंधित होने की घटना है।*

*सुंदरम् सत्यम् के बाद की परिधि है। मनुष्य प्रकृति से संबंधित हो जाए, अपने से नहीं। मनुष्य निसर्ग से संबंधित हो जाए, नेचर से संबंध जोड़ ले, तो सुंदरम् की घटना–दि ब्यूटीफुल की घटना घटती है।*

*और शिवम् मनुष्य की सबसे बाहर की परिधि है। शिवम् का मतलब है दूसरे मनुष्यों से संबंध।*

*शिवम् है समाज से संबंध,*

*सुंदरम् है प्रकृति से संबंध,*

*सत्यम् है स्वयं से संबंध।*🙏🚩🙏

#नव_निधि

हिन्दू धर्मग्रन्थों के सन्दर्भ में कुबेर के कोष ( भंडार ) का नाम निधि है जिसमें नौ प्रकार की निधियाँ हैं। 1. पद्म निधि, 2. महापद्म निधि, 3. नील निधि, 4. मुकुंद निधि, 5. नंद निधि, 6. मकर निधि, 7. कच्छप निधि, 8. शंख निधि और 9. खर्व या मिश्र निधि।

माना जाता है कि नव निधियों में केवल खर्व निधि को छोड़कर शेष 8 निधियां पद्मिनी नामक विद्या के सिद्ध होने पर प्राप्त हो जाती हैं, लेकिन इन्हें प्राप्त करना इतना भी सरल नहीं है।

#नव_निधियों_का_विवरण

1. #पद्म_निधि

पद्म निधि के लक्षणों से संपन्न मनुष्य सात्विक गुण युक्त होता है, तो उसकी कमाई गई संपदा भी सात्विक होती है। सात्विक तरीके से कमाई गई संपदा से कई पीढ़ियों को धन-धान्य की कमी नहीं रहती है। ऐसे व्यक्ति सोने-चांदी रत्नों से संपन्न होते हैं और उदारता से दान भी करते हैं।

2. #महापद्म_निधि

महापद्म निधि भी पद्म निधि की तरह सात्विक है। हालांकि इसका प्रभाव 7 पीढ़ियों के बाद नहीं रहता। इस निधि से संपन्न व्यक्ति भी दानी होता है और 7 पीढियों तक सुख ऐश्वर्य भोगता है।

3. #नील_निधि

नील निधि में सत्व और रज गुण दोनों ही मिश्रित होते हैं। ऐसी निधि व्यापार द्वारा ही प्राप्त होती है इसलिए इस निधि से संपन्न व्यक्ति में दोनों ही गुणों की प्रधानता रहती है। इस निधि का प्रभाव तीन पीढ़ियों तक ही रहता है।

4. #मुकुंद_निधि

मुकुंद निधि में रजोगुण की प्रधानता रहती है इसलिए इसे राजसी स्वभाव वाली निधि कहा गया है। इस निधि से संपन्न व्यक्ति या साधक का मन भोगादि में लगा रहता है। यह निधि एक पीढ़ी बाद खत्म हो जाती है।

5. #नंद_निधि

नंद निधि में रज और तम गुणों का मिश्रण होता है। माना जाता है कि यह निधि साधक को लंबी आयु व निरंतर तरक्की प्रदान करती है। ऐसी निधि से संपन्न व्यक्ति अपनी तारीफ से खुश होता है।

6. #मकर_निधि

मकर निधि को तामसी निधि कहा गया है। इस निधि से संपन्न साधक अस्त्र और शस्त्र को संग्रह करने वाला होता है। ऐसे व्यक्ति का राजा और शासन में दखल होता है। वह शत्रुओं पर भारी पड़ता है और युद्ध के लिए तैयार रहता है। इनकी मृत्यु भी अस्त्र-शस्त्र या दुर्घटना में होती है।

7. #कच्छप_निधि

कच्छप निधि का साधक अपनी संपत्ति को छुपाकर रखता है। न तो स्वयं उसका उपयोग करता है, न करने देता है। वह सांप की तरह उसकी रक्षा करता है। ऐसे व्यक्ति धन होते हुए भी उसका उपभोग नहीं कर पाता है।

8. #शंख_निधि

शंख निधि को प्राप्त व्यक्ति स्वयं की ही चिंता और स्वयं के ही भोग की इच्छा करता है। वह कमाता तो बहुत है, लेकिन उसके परिवार वाले गरीबी में ही जीते हैं। ऐसा व्यक्ति धन का उपयोग स्वयं के सुख-भोग के लिए करता है, जिससे उसका परिवार गरीबी में जीवन गुजारता है।

9. #खर्व_निधि

खर्व निधि को मिश्रत निधि कहते हैं। नाम के अनुरुप ही इस निधि से संपन्न व्यक्ति अन्य 8 निधियों का सम्मिश्रण होती है। इस निधि से संपन्न व्यक्ति को मिश्रित स्वभाव का कहा गया है। उसके कार्यों और स्वभाव के बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। माना जाता है कि इस निधि को प्राप्त व्यक्ति विकलांग व घमंडी होता हैं, यह अवसर मिलने पर दूसरों का धन भी सुख भी छीन सकता है। 🙏🚩सनातन धर्म संस्कृति ध्यान धारणा समाधि और सिद्धि के विषय में शास्त्र सम्मत जानकारी के लिए 9634342461 ✍️हरीश मैखुरी