आधी दुनियां : महिला किसी की संपत्ति या गुलाम नहीं है, उसे पति के साथ रहने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता

एक महिला किसी की संपत्ति या गुलाम नहीं है, उसे पति के साथ रहने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक केस में सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की. एक शख्स ने कोर्ट में याचिका दायर की थी, इसमें कहा गया था कि कोर्ट उसकी पत्नी को दोबारा उसके साथ रहने के लिए आदेश दे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में निचली अदालत के निर्देश को यथावत रखते हुए यह टिप्पणी की। (Abp Live.com) ने इस समाचार को प्रमुखता से प्रकाशित किया।

कोविड-19 के खिलाफ टीकाकरण अभियान का दूसरा चरण 01 मार्च से शुरू हो चुका है। रजिस्ट्रेशन से लेकर कोविड वैक्सीनेशन सेंटर की महत्वपूर्ण जानकारी को ध्यानपूर्वक पढ़ें तथा इस आयु सीमा के सम्मानित जनों तक साझा करने का कष्ट करें। स्वदेशी वैक्सीन पूरी तरह से सुरक्षित है इसलिए टीकाकरण अवश्य करायें। मिलकर हमें कोरोना को हराना है। दवाई भी और कड़ाई भी।–मुख्यमंत्री उत्तराखंड 

गुजरात की आयशा साबरमती में कूदकर अपनी जान दे चुकी है,कारण दहेज़ को माना गया है. वो मर भी गई, तब भी हम उन सारे कारणों को खोजने में लग जाते हैं जो हमें दोषमुक्त कर दें, लेकिन कब तक? आयशा तो एक नाम भर है जो हमारे समाज की स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करता है. लेकिन आंकड़े जो सच्चाई बयान कर रहे हैं, उनसे आख़िर कैसे मुंह फेरा जा सकता है?

आयशा की आत्महत्या ने फिर से वही सारे प्रश्न खड़े कर दिए हैं जिनसे हम बार-बार बचकर निकलना चाहते हैं. लेकिन क्या इस तरह की घटनाओं और आत्महत्या का ज़िम्मेदार वो समाज नहीं? जो बचपन से ही एक लड़की के दिमाग़ में यह कूट-कूटकर भर देता है कि, ‘वह फूलों की डोली में बैठकर जिस घर में प्रवेश करेगी, उसकी अर्थी भी वहीं से उठेगी!’ क्यों उठे उसकी अर्थी वहीं से? यदि वह उस घर में ख़ुश नहीं तो क्या वो उस घर को छोड़कर नया जीवन नहीं जी सकती? कब तक वो अभिशप्त जीवन जीती रहे? उसे ये भी समझाया जाता है कि ‘मारे या पीटे पर पति तो परमेश्वर होता है. थोड़ा तो सहन कर ही लेना चाहिए’. हां, बिलकुल कर लेगी लेकिन तब ही, जब पति भी उसके हाथ का थप्पड़ खाकर बर्दाश्त करना सीख जाए और चुप रहे. पढ़ते ही कैसे धक् से चुभ गई न ये बात? यही होता है कि जब तक स्त्री सहन कर रही है, सब अच्छा है. वो मर भी गई, तब भी हम उन सारे कारणों को खोजने में लग जाते हैं जो हमें दोषमुक्त कर दे. लेकिन कब तक? आयशा तो एक नाम भर है जो हमारे समाज की स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करता है. लेकिन आंकड़े जो सच्चाई बयान कर रहे हैं, उनसे आख़िर कैसे मुंह फेरा जा सकता है?