अखंड सौभाग्य के लिए 16 संस्कार आवश्यक

 डॉ हरीश मैखुरी

संस्कार हमें संस्कृति और अखंड सौभाग्य प्रदान करते हैं,  यह जीवन जीने की एक अनुशासित और वैज्ञानिक विधि हैं, संस्कार से व्यक्ति के खानदान का परिचय प्राप्त होता है और इसी से भविष्य की संतति का निर्माण होता है। व्यक्ति के संस्कार ऊँचे हों तो छोटा होकर भी उच्च आदर्श स्थापित कर जायेगा। संस्कार जीवन की नीव, व्यक्ति की मर्यादा और गरिमा हैं । संस्कारयुक्त व्यक्ति सदा संतुष्ट और सुखी रहता है, संस्कारों को महत्व नहीं देता है, उसे अन्ततः पछताना ही पड़ा है। व्यक्ति अपने गुणों के कारण पूज्य होता है और गुणों का सर्जन संस्कारों से होता है। भारत सहित दुनिया में जितने भी सम्मान हैं वे सभी व्यक्ति को उसकी गुणों और गरिमा के कारण ही मिलते हैं, गुण ही सृजन करते हैं सृजन से सृष्टि का विस्तार होता है। 

संस्कारों से वृत्ति और स्थिति का निर्माण होता है, जबकि कुसंगति से दुषप्रवृत्ति और वासनाओं का। संस्कारों का व्यक्ति के साथ वैसा ही सम्बन्ध है जैसा जल का जमीन के साथ। जब हम जीवन को उसकी गहराई तक जाकर देखते है तो बोध होता है कि  व्यक्ति जन्म जन्मान्तर के संस्कारों का परिणाम है। उसके भीतर संस्कारों का एक प्रवाह गतिशील रहता है।

 परिवार हमारे संस्कारों की पहली पाठशाला है अपने परिवार और बुजुर्गों की शिक्षा आचार व्यवहार आचरण शिक्षा वातावरण आदि का हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। लेकिन शास्त्र सम्मत संस्कार हमारे लौकिक और पारलौकिक वन्धनों को काट कर सात्विक और आत्मिक मार्ग प्रशस्त करते हैं, जिससे अखंड सौभाग्य बनता है। 

संस्कारों का असर जन्म जन्मान्तर तक रहता है, जबकि संगती सेे केवल प्रवृति बनती है जो इसी जीवन तक रहती है। राम का जीवन आदर्श था क्योंकि उनके रघुकुल संस्कार थेे संगत भी अच्छी थी। संस्कार और संगती दोनों अच्छी मिल जाये तो फिर व्यक्ति महान हो जाता है। विकास किसका हो संस्कारों का या भौतिकता का?  क्योंकि भारतीय संस्कृति कर्म प्रधान एवं पुनर्जन्म को मानने वाली है। आध्यामिक दर्शन का मानना है कि व्यक्ति के कर्म उसकी आत्मा के साथ बन्ध जाते है उन्हीं कर्मों के अनुसार पुर्नजन्म होता है, इसलिए तत्वों को संस्कारित करने की आवश्यकता होती है अच्छाईयों को संर्विद्धत करना और बुराईयों का परिमार्जन करना ही संस्कार है। संस्कार भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के होते है। भौतिक संस्कार शीघ्रगामी व दृष्टिगम्य है लेकिन आध्यात्मिक या नैतिक संस्कार शनै: शनै: समाहित होते हैं । भारतीय संस्कृति में गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त सोलह संस्कार का विशेष वर्णन आता है।

संस्कार और संस्कृति  हमारी अक्षुण पूंजी हैं। विश्व में भारतीय संस्कृति का अपना स्थान है। संस्कार और संस्कृति का बेजोड़ सम्बन्ध है जो संस्कार के बिना संस्कृति को जीवित रखना चाहते हैं वे तो ऐसे हैं जैसे पानी के बिना बगीचे को सलामत रखना, पानी से ही बाग हरा-भरा रहता है, उसी प्रकार मनुष्य जीवन रूपी बाग संस्कार रूपी जल से ही फला-फुला रहता है। जीवन में संस्कार की महत्वपूर्ण भूमिका है। जिस प्रकार नीव के बिना इमारत टिक नहीं सकती उसी प्रकार संस्कार जीवन की नीव है। जैसा संस्कार होगा वैसा जीवन बनेगा। जीवन का निर्माण—भाग्य, पुरुषार्थ, संस्कार, और सृजन से होता है। पिछले जन्म में जो कर्म करता है वह वर्तमान में भाग्य बनकर आता है भाग्य दिखता नहीं, फिर उसके आधार पर जीवन कैसे जिया जाये? पुरुषार्थ यानी कर्म करना। कर्म करते चले जाओ फल इंतजार कर रहे हैं। कृष्ण ने अर्जुन को यही शिक्षा दी थी, कर्म अच्छे करते जाओ फल तो मिलेगा ही। अगर जिस समय हम कर्म अच्छा कर रहे है और फल उस—उस अनुपात में नहीं मिला तो निराशा नहीं भाग्य यानी समय पर छोड़ दिया जाता है। सनातन संस्कृति में ,  पुंसवन,  गर्भाधान, नामकरण,  चूड़ाकर्म  उपनयन, वेदाध्ययन,  विवाह संस्कार व अंतिम संस्कार,  जैसे सोलह संस्कारों की एक वैज्ञानिक श्रृंखला है, ये संस्कार पूरी तरह से विज्ञान सम्मत और वेद आधारित हैं इन पर हमारे ऋषि मुयों ने सदियों तक गहन शोध और अध्ययन किया उसके बाद जीवन जीने की यह नियमित संयमित और प्रकृति के अनुरूप एक अनुभूतजन्य  जीवन प्रणाली विकसित की। आज के दौर में कुछ लोग संस्कारों की से ज्यादा भोगवादी सभ्यता को प्रमुखता देते हैं लेकिन इस संसार में सुखी रहने के लिए आत्म संतुष्टि से बड़ा कोई संस्कार नहीं, कोई विज्ञान नहीं है भोग से योग की ओर आज की आवश्यकता है।, केवल भाग्य चाहिए तो आप पुरुषार्थ करिए परंतु अखंड सौभाग्य चाहिए तो 16 संस्कारों की परंपरा का अवश्य निर्वहन करना चाहिए।