आज का पंचाग आपका राशि फल, विश्वगुरु हिन्दुस्थान की गुरूकुल परम्परा बचाने का संकल्प लेने का दिवस, बांकेबिहारी मंदिर में करें इस नियम का अनुपालन

🌸गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर:।

 गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै: श्री गुरुवे नमः।।🌸

🌹🙏🌹किसी ने शिक्षक से पूछा – क्या करते हो आप ?
शिक्षक का सुन्दर जवाब देखिए —

सुन्दर सुर सजाने को, साज बनाता हूँ ।
नौसिखिये परिंदों को, बाज बनाता हूँ ।।

चुपचाप सुनता हूँ , शिकायतें सबकी ।
तब दुनिया बदलने की, आवाज बनाता हूँ ।।

समंदर तो परखता है, हौंसले कश्तियों के ।
मैं डूबती कश्तियों को, जहाज बनाता हूँ ।।

बनाए चाहे चांद पे कोई, बुर्ज ए खलीफा ।
अरे मैं तो कच्ची ईंटों से ही, ताज बनाता हूँ ।
💐🌹शिक्षक दिवस की शुभकामनाएं 🌹💐

 विश्वगुरु हिन्दुस्थान की गुरूकुल परम्परा बचाने का संकल्प लेने का दिवस 

आदि काल से भारत में कोई न कोई गुरु प्रकाश बनकर हमारे मध्य अवश्य उपस्थित उपस्थित हुए देवगुरु बृहस्पति, असुर गुरू शुक्राचार्य, भगवान राम के गुरू वशिष्ठ, कृष्ण के गुरू सांदीपनि भारत के आदि गुरु शंकराचार्य, महाबीर स्वामी बुद्ध , उसके बाद गुरु नानक ,रैदास, तुकाराम  सब भारत की गुरु परंपरा के प्रतिनिधि हैं जिन्होंने समाज का आत्मविश्वास बढ़ाया और उसे दिशा दी ।

आज 5 सितंबर देश के दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी का जन्मदिन हैं, जिसे हम शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं। भारत के 5000 वर्ष के यदि लिखित और जीवंत इतिहास को देखें तो भारत के निर्माण में गुरुओ का योगदान सर्वाधिक है । हर देश की अपनी प्रकृति होती है। कोई व्यापारी देश होता है । कोई वैज्ञानिक देश होता है ,कोई मिलिट्री देश होता है। लेकिन भारत देश की बुनियाद और भविष्य ज्ञान और तर्क पर आधारित है ।

जब हम बड़े गर्व से संसार के इतिहास में अपना माथा उठाकर कहते हैं। 

यूनान मिस्र रोम सब मिट गये जहां से 

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी 

सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा…।

तब हम पाते हैं कि संसार में भारत के समानांतर शायद ही कोई दूसरी सभ्यता , कोई दूसरी संस्कृति बची है । जो पुरातन भी हो ,जीवंत भी हो और आधुनिक भी ।

     भारत के इस प्रकार जीवंत और दीर्घ जीवी होने के पीछे जो एक महत्वपूर्ण कारण है। वह है भारत के ज्ञान जिज्ञासा तर्क की परंपरा को जीवंत रख पाना, सबका का सम्मान करना , उठ रही जिज्ञासा से  आत्ममंथन कर परिमार्जित हो जाना। यही हमारी गुरु परंपरा है।

    उपनिषद और गुरु परम्परा के इस देश में पदार्थ के विपरीत चेतना ने इस राष्ट्र को आगे बडाया है । नचिकेता ,चाणक्य ,अष्टावक्र  महान गुरू परम्परा के उदाहरण हैं 

विभिन्न राजशाही के दौर में भी हम भले ही अलग-अलग विश्वास और धर्म रहे ,लेकिन हमारी पहचान हमारी संस्कृति तब भी भारतीय संस्कृति ही थी । जो सदैव राजनीतिक/निहित स्वार्थ से ऊपर रही.. !

आज देश में जो संकट दिखाई दे रहा है. वह देश में भारतीयता और भारतीय संस्कृति के उपर हो रहे पाश्चात्य संस्कृति और अरैबिक कबीलों की हिंसक प्रवृति का छद्म आक्रमण। साथ ही आज भारत का नागरिक अपनी राष्ट्रीय पहचान और कर्तव्य से इतशर पार्टियों के सांचे में कैद हो गए हैं। उसका सारा विचार और विश्लेषण पार्टियों के आईने में कैद है । विमर्श की स्वाभाविक दिशा भटकी हुई है। सवालों का संकट खड़ा हो गया है। गुरु परम्परा विलुप्त हो रही है ।

ब्यक्ति पार्टी के हित को राष्ट्र से ऊपर देख रहा है । इस दौर का यही बड़ा संकट है पार्टियों के भीतर का लोकतंत्र सिमट रहा है । प्रति- प्रश्न विलीन हैं ।

 जिस प्रकार एक प्रफुल्लित आत्मा से ही व्यक्ति का ब्यक्तित्व विस्तार पाता है, वही बात राष्ट्र के संदर्भ में भी लागू है । इसलिए इस संकट के समय हमें राष्ट्र के मूल चरित्र को जिंदा रखने के लिए सवाल पूछने की परंपरा को जिंदा रखना चाहिए और इसमें जाहिरा तौर पर पहला सवाल खुद से ही पूछा जा सकता है । 

शिक्षक दिवस के इस महान दिन में हम प्रश्नों और जिज्ञासा के महत्व को पहचाने और इन्हें फिर से प्रकट करना प्रारंभ करें ताकि एक जीवंत और अखंड सशक्त राष्ट्र का निर्माण हो सके।

इसरो डिप्टी डायरेक्टर डॉ० एस वी शर्मा, पुरी पीठाधीश्वर के श्री चरणों में। 

ऐसे अनेक चित्र हैं, जिनमें कई बड़ी सस्थाओं के बड़े बड़े विद्वान आते रहे हैं गुरुदेव का मार्गदर्शन और आशीष लेने। 

आप कीजिए विलाप, लेकिन सूर्य का प्रकाश तिमिर की प्राचीर को चीर कर उद्भाषित होगा।

#पूरी_शंकराचार्य*नियम तोड़ने पर इस मंदिर में जा सकती है आँखों की रोशनी*

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भारत के एक कोने में ऐसा मंदिर जरूर बना है जहां की मान्यता के अनुसार यदि आप मंदिर परिसर में कुछ विशेष नियमों का पालन नहीं करते हैं, तो आपकी आंखों की रोशनी चली जाएगी। सुनने में यह बेहद अटपटा लगता है, लेकिन यह सत्य है।

बांके बिहारी मंदिर मथुरा में स्थित श्रीकृष्ण का ‘बांके बिहारी मंदिर’ एक ऐसा मंदिर है जहां नियमों का उल्लंघन करना आपको भारी पड़ सकता है। यह कोई कहानी नहीं है, वरन् सच्चाई है जिसका सुबूत हर उस इंसान के पास है जिसने यह सज़ा झेली है। लेकिन ऐसा क्यों होता है यह हम आपको जरूर बताएंगे। साथ ही इस मंदिर से जुड़ी अन्य रहस्यमयी बातों से भी पर्दा उठाएंगे…

श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के आठवें मानव रूपी अवतार श्रीकृष्ण को समर्पित बांके बिहारी मंदिर की मथुरा में बेहद मान्यता है। केवल मथुरा ही क्यों, इस मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण का पावन आशीर्वाद पाने के लिए दूर-दूर से और यहां तक कि विदेश से भी भक्त आते हैं।

श्रीकृष्ण का बचपन श्रीकृष्ण का बचपन और उनका लालन-पोषण मथुरा में ही हुआ। मथुरा की गलियों में ही उन्होंने अपनी चमत्कृत लीलाओं से खुशियों का रस भरा। श्रीकृष्ण की याद में बना यह मंदिर उनके नाम से ही प्रसिद्ध है ‘श्री बांके बिहारी मंदिर’। लेकिन क्या आप जानते हैं कि श्रीकृष्ण को बांके बिहारी क्यों कहा जाता है?

बांके बिहारी इसके पीछे कोई राज़ नहीं, वरन् कृष्णजी की रोचक लीलाओं का ही असर है। उनके नटखट अंदाज़ ने ही उन्हें श्री बांके बिहारी का नाम दिया है। दरअसल ‘बांके’ शब्द का अर्थ होता है तीन जगह से मुड़ा हुआ और बिहारी का अर्थ होता है- श्रेष्ठ उपभोक्ता। आम भाषा में बिहारी शब्द का संबंध उससे किया जा सकता है जो जीवन का श्रेष्ठतम आनंद जानता हो।

क्यों कहते हैं बांके बिहारी? और कुछ ऐसे ही थे श्रीकृष्ण… उनके लिए जीवन एक आनंद था। और जो उनके हिसाब से आनंद शब्द का अर्थ जान ले, उसका जीवन सफल माना जाता है। कहते हैं श्री बांके बिहारी मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति त्रिभंग आवस्था में खड़ी है। इस मूर्ति से संबंधित कई ऐसे रोचक तथ्य है जो हैरान कर देने के लिए काफी हैं।

स्वामी हरिदास जी👉 मथुरा स्थित बांके बिहारी मंदिर को आदरणीय स्वामी हरिदास जी द्वारा स्थापित किया गया था। यदि आप इस बात से अनजान हैं तो आपको बता दें कि स्वामी हरिदास जी प्राचीन काल के मशहूर गायक तानसेन के गुरु थे। इसलिए उन्होंने स्वयं श्रीकृष्ण पर निधिवन में ऐसे कई गीत गाए जो आज भी बेहद प्रसिद्ध हैं।

श्रीकृष्ण की दी हुई मूर्ति स्वामी जी और मंदिर के भीतर स्थापित मूर्ति की जो कहानी है यदि आप वह जानेंगे तो दंग रह जाएंगे। कहते हैं स्वामी जी ने स्वयं निधिवन में श्रीकृष्ण का स्मरण कर इस मूर्ति को अपने सामने पाया था।

इस तरह आए थे राधा-कृष्ण “प्रथम हूं हुती अब हूं आगे हूं रही है न तरिहहिं जैसें अंग अंग कि उजराई सुघराई चतुराई सुंदरता ऐसें श्री हरिदास के स्वामी श्यामा कुंजबिहारी सम वस् वैसें”… इस पंक्ति को स्माप्त करते हुए जैसे ही स्वामी जी ने आंखें खोली तो उनके सामने राधा-कृष्ण स्वयं प्रकट हुए।

स्वामी जी ने किया निवेदन उन्हें देखकर स्वामी जी और उनके साथ उपस्थित भक्तों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। स्वामी जी के निवेदन अनुसार राधा कृष्ण की वह छाया एक हो गई और एक मूर्ति का आकार लेकर वहां प्रकट हो गई। आज यही मूर्ति बांके बिहारी मंदिर में सदियों से स्थापित है।

काले रंग की मूरत यह वही मूर्ति है जो स्वयं राधा-कृष्ण द्वारा स्वामी जी को प्रदान दी गई। राधा-कृष्ण अपने भव्य अवतार में उनके सामने प्रकट तो हुए लेकिन जाते-जाते छोड़ गए अपनी एक मूरत, काले रंग की सुंदर-सी कृष्णजी की मूरत!

क्यों आए थे राधा-कृष्ण? लेकिन आखिरकार स्वामी हरिदास जी को ही हरि के रूप श्रीकृष्ण ने दर्शन क्यों दिए। इसके पीछे एक लंबी कहानी और इतिहास छिपा है… दरअसल स्वामी हरिदास जी के पूर्वजों का श्रीकृष्ण से एक गहरा नाता था। कहते हैं उनके एक पूर्वज श्री गंगाचार्य जी बाल कान्हा और बलराम से मिले थे। श्री वासुदेव के आग्रह पर उन्होंने ही कान्हा और बलराम का नामकरण किया था।

स्वामी जी के पूर्वज कई वर्षों तक आचार्य जी का परिवार इसी क्षेत्र में रहा लेकिन कुछ वर्षों के बाद यह परिवार मुलतान चला गया, वह मुलतान जो आज पाकिस्तान में स्थित है। परन्तु बाद में किन्हीं कारणों से श्री आशुधीर जी ब्रिज क्षेत्र के बाहरी इलाके में आकर बस गए। यह वही क्षेत्र था जहां जहग-जगह श्रीहरि के रूप कान्हा की यादें समाई थीं।

मुलतान से आए ब्रिज और फिर श्री आशुधीर के यहां ही कुछ वर्षों के बाद ब्रिज के इसी स्थान पर स्वामी हरिदास जी का जन्म हुआ। कहते हैं स्वामी हरिदास जी को श्रीकृष्ण की एक सखी का ही स्वरूप माना गया है, जिनका नाम ललिता था।

श्रीकृष्ण और स्वामी जी का रिश्ता शायद यही कारण था कि स्वामी हरिदास जी को बचपन से ही अध्यात्म एवं धर्म से अति प्रेम था। जिस उम्र में बच्चे खेलते-कूदते हैं, जीवन का आनंद लेते हैं उस उम्र में स्वामी हरिदास जी ज्ञान के मार्ग पर काफी आगे निकल चुके थे।

 

स्वामी जी का विवाह कहते हैं स्वामी हरिदास जी का विवाह हिन्दू विवाह के आधार पर सही उम्र में हो गया था। लेकिन शादी के बाद भी वे जीवन के उन तमाम आनंदों से दूर रहे जो एक आम इंसान भोगता है। उन्होंने केवल ‘ध्यान’ की ओर ही अपना लगाव रखा।

 

उनकी पत्नी स्वामी जी का विवाह हरिमति नामक एक स्त्री से हुआ, जो कि स्वयं भी ध्यान एवं साधना की ओर आकर्षित थीं। कहते हैं कि जब हरिमति जी को यह ज्ञात हुआ कि उनके पति कोई आम इंसान नहीं वरन् कृष्ण के काल से संबंध रखने वाले ज्ञानी हैं तो उन्होंने स्वयं भी तपस्या का मार्ग चुन लिया।

 

स्वामी जी वृंदावन की ओर निकल पड़े उनकी तपस्या में इतनी अग्नि थी कि वे अपने शरीर का परित्याग कर अग्नि की ज्योति बनकर दिये में समा गईं। इस वाक्या के बाद हरिदास जी ने भी गांव छोड़ दिया और वृंदावन की ओर निकल पड़े। उस वृंदावन वैसा नहीं था जैसा कि आज हम देखते हैं।

निधिवन में किया तप चारों ओर घना जंगल, इंसान के नाम पर कोई नामो-निशान नहीं… ऐसे घने जंगल में प्रवेश लेने के बाद स्वामी जी ने अपने लिए एक स्थान चुना और वहीं समाधि लगाकर बैठ गए। स्वामी जी जहां बैठे थे वह निधिवन था…. निधिवन का श्रीकृष्ण से गहरा रिश्ता है।

 

यहां आते हैं कृष्ण कहते हैं आज भी कान्हा यहां आकर रोज़ाना रात्रि में गोपियों संग रासलीला करते हैं। लेकिन जो कोई भी उनकी इस रासलीला को देखने की कोशिश करता है वह कभी वापस नहीं लौटता।

 

दो राग में की साधना वृंदावन के इन जंगलों में बैठकर दिनों, महीनों और वर्षों तक स्वामी जी ने नित्या रास और नित्या बिहार में तप किया। यह उनकी साधना के रागमयी अंदाज़ थे, वे इन राग में गाते, सुर लगाते और ईश्वर के रंग में घुल जाते।

 

स्वामी जी के अनुयायियों का अनुरोध कहते हैं स्वामी जी के अनुयायियों ने एक बार उनसे उनकी साधना को देखने और आनंद लेने के लिए निवेदन किया और कहा कि वे निधिवन में दाखिल होकर उन्हें तप करते देखना चाहते हैं। अपने कहे अनुसार वे सभी निधिवन के उस स्थान पर पहुंचे भी लेकिन उन्होंने जो देखा वह हैरान करने वाला था।

कुछ ऐसा देखा कि…वहां स्वामी जी नहीं वरन् एक तेज़ रोशनी थी, इतनी तेज़ मानो सूरज हो और अपनी ऊर्जा से सारे जग में रोशनी कर दे। इस प्रसंग के बाद ही स्वामी जी के अनुयायियों को उनकी भक्ति और शक्ति का ऐहसास हो गया।

 

स्वामी जी ने किया निवेदन स्वामी जी के निवेदन से ही श्रीकृष्ण और राधा उनक समक्ष प्रकट हुए थे और उन्हें जाते-जाते अपनी एक मूरत सौंप गए। इस दृश्य को स्वामी जी के सभी भक्तों ने अपनी आंखों से देखा था। कहते हैं श्रीकृष्ण की मौजूदगी का असर ऐसा था कि कोई भी भक्त अपनी आंखें भी झपका नहीं पा रहा था। मानो सभी पत्थर की मूरत बन गए हों।

राधे-कृष्ण ने पूरी की इच्छा इस तेज से प्रजवलित होकर स्वामी जी ने राधे-कृष्णा से आग्रह किया कि कृपा वे अपने इस रूप को एक कर दें। यह संसार उन दोनों के इस तेज को सहन नहीं कर पाएगा। साथ ही वे जाने से पहले अपना एक अंश उनके पास छोड़ जाएं। स्वामी जी कि इसी इच्छा को पूरा करते हुए राधे-कृष्णा ने अपनी एक काली मूर्ति वहां छोड़ दी, यही मूरत आज बांके बिहारी मंदिर में स्थापित है।

मूर्ति की आंखों में मत देखें कहते हैं कि जो कोई भी भक्त मंदिर परिसर पर रखी कान्हा जी की इस मूरत की आंखों की ओर अधिक समय तक देखता है वह अपना आपा खोने लगता है। आज भी इस मूरत की आंखों में उतना ही तेज़ है जो कान्हा की के होने का बोध दिलाता है।

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