भोजन सम्बन्धी शास्त्र विहित विधि ही उपयुक्त है, भोजन सम्बन्धी वृहद विचार विधि निषेध!!!!!!!
रोग में रोग अवधि पर्यंत वैद्य परामर्श अनुसार भोजन लेना चाहिये । लेकिन रोग निवृत्ति उपरांत अभक्ष्य सेवन का शास्त्रोचित प्रायश्चित्त भी करना अत्यावश्यक है। अन्यथा यह स्वेच्छाचारी धर्माचरण ही मान्य होगा।।
जो स्त्री के भोजन किये हुए पात्र में भोजन करता है,स्त्री का जूठा खाता है तथा स्त्री के साथ एक वर्तन में भोजन करता है वह मानो मदिरा पान करता है।
तत्वदर्शी मुनियों ने उस पाप से छूटने का कोई प्रायश्चित्त ही नही देखा है ||
दोनो हाथ दोनो पैर और मुख-,इन पांच अंगों को धोकर ही भोजन करना चाहिए। ऐसा करने वाला मनुष्य दीर्घजीवी होता है।
गीले पैरों वाला होकर भोजन करे, पर गीले पैर सोए नही। गीले पैरों वाला होकर भोजन करने वाला अवश्य ही दीर्घायु होता है। सूखे पैर और अंधेरे में भोजन नही करना चाहिए।
शास्त्र में मनुष्यों के लिए प्रातःकाल ओर सायंकाल –दो ही समय भोजन करने का विधान है,वीच में भोजन करने की विधि नही देखी गयी है।
जो इस नियम का पालन करता है उसे उपवास करने का फल प्राप्त होता है।
मनुष्य के एक बार का भोजन देवताओ का भाग _ दूसरी बार का भोजन मनुष्यो का भाग ,_तीसरी बार का भोजन प्रेतों व दैत्यों का भाग ,_
चौथी बार का भोजन राक्षसो का भाग होता है। रात्रि काल मे कभी भोजन नही करना चाहिए।
गृहस्थ को चाहिये??
पहले-देवताओ,ऋषियो,मनुष्यो(अतिथियों)पितरों,ओर घर के देवताओं का पूजन करके पीछे स्वयं भोजन करे।
भोजन सदा पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके करना चाहिए। पूर्व की ओर मुख करके भोजन करने से मनुष्य की आयु बढ़ती है।दक्षिण की ओर मुख करके भोजन करने से प्रेतत्व की प्राप्ति होती है।
पश्चिम की ओर मुख करके भोजन करने से मनुष्य को रोग की प्राप्ति होती है।
उत्तर की तरफ मुख करके भोजन करने से आयु तथा धन की प्राप्ति होती है।
भोजन सदा एकांत में ही करना चाहिए।
विना स्नान किये भोजन करने वाला मानो विष्ठा ही खाता है।
विना जप किये भोजन करने वाला पीब ओर रक्त खाता है।
विना हवन किये भोजन करने वाला मानो कीड़ा ही खाता है।
देवता,पितर, अतिथि को भोजन दिए बिना भोजन करने वाला मानो मदिरा ही पान करता है।
संस्कारहीन अन्न खानेवाला मूत्रपान करता है|| जो बालक बृद्ध आदि से पहले भोजन करता है वह विष्ठा खानेवाला होता है।विना दान किये भोजन करने वाला विषभोजी होता है।
एक ही वस्त्र पहनकर भोजन नही करना चाहिए। सारे शरीर को कपड़े से ढककर भी भोजन न करे।
जो मनुष्य सिर को ढककर खाता है,दक्षिण दिशा की ओर मुख करके खाता है ,जूते पहनकर खाता है,ओर पैर धोये बिना खाता है, उसके उस अन्न को प्रेत खाते है तथा उसका वह सारा भोजन आसुरी भोजन समझना चाहिए।
भोजन की वस्तु गोद में रखकर नही खाना चाहिए। फूटे हुए वर्तन में भोजन नही करना चाहिए। फूटे हुए वर्तन में भोजन करनेवाला मनुष्य चांद्रायणव्रत करने से शुद्ध होता है।
शय्या पर वैठकर भोजन न करे तथा जल न पीए , हाथ मे पात्र लेकर भोजन न करे ओर आसन पर रखकर भोजन न करे।
ठीक अर्धरात्रि , ठीक मध्यान्ह , अजीर्ण होने पर ,गीले वस्त्र धारण करके , दूसरे के लिये निर्दिष्ट आसन पर , सोते हुए, खड़े होकर , टूटे-फूटे पात्र में , भूमि पर रखा हुआ तथा हाथ मे रखकर भोजन नही करना चाहिए।
न अंधकार में , न आकाश के नीचे , न देवमन्दिर में ही भोजन करे , एक वस्त्र पहनकर , सवारी या शय्या पर वैठकर , विना जुता उतारे ओर हंसते हुए तथा रोते हुए भोजन नही करना चाहिए।
सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण के समय भोजन करने वाला मनुष्य जितने अन्न के दाने खाता है उतने वर्षों तक (अरुन्दुत)नरक में वास करता है।फिर वह उदर रोग से पीड़ित मनुष्य होता है।फिर गुल्मरोगी, काना ,ओर दंतहीन होता है।
विना नहाए , विना वैठे, अन्यमनस्क होकर ,शय्या पर वैठकर या लेटकर , बोलते हुए , केवल पृथ्वी पर वैठकर,एक वस्त्र पहनकर , तथा भोजन की ओर देखने वाले मनुष्य को न देकर कदापि भोजन न करे।
झूठा भोजन किसी को न दे, ओर स्वयं भी न खाए , दूसरे का अथवा अपना-किसी का भी जूठा अन्न न खाए।
वीच में(प्रातः सायं भोजन के वीच में )न खाए।बहुत अधिक न खाए,ओर भोजन करके जूठे मुख कही न जाये।
अत्यंत थका हुआ हो तो विश्राम किये विना भोजन न करे ।अत्यंत थका हुआ व्यक्ति यदि भोजन करता है तो उसे ज्वर या वमन होता है।
मल-, मूत्र का वेग होने पर भोजन नही करना चाहिए|
अपने मे प्रेम न रखने वाला , अपवित्र,और भूख से पीड़ित नॉकर आदि के लाये हुए भोजन को नही करना चाहिए।
भोजन वैठकर ही करना चाहिए।
चलते फिरते कदापि भोजन न करे।
किसी के साथ एक पात्र में भोजन न करे। जिसे रजस्वला स्त्री ने छू दिया हो ऐसे अन्न का भोजन न करे।जो भोजन की ओर देख रहा हो उसे दिए विना भोजन न करे।
भोजन के स्थान से उठ जाने के वाद उसी परोसे हुए जूठे भोजन को दुबारा करना अथवा जो पैर से छू गया हो या लांघ दिया गया हो।उस भोजन को राक्षसी समझकर त्याग देना चाहिए।
वट ,पीपल , आक (मदार)कुंभी, तिन्दूक , कचनार, ओर करंज के पत्तो में भोजन नही करना चाहिए||
जो गृहस्थ कांसे के पात्र में अकेले ही भोजन करता है उसकी आयु,वुद्धि ,यश,ओर बल -इन चारो की वृद्धि होती है-लेकिन रविवार के दिन कान्स पात्र में भोजन नही करना चाहिए।
अन्नदोष महादोष वुद्धि विकृत दोष!!
केश ओर कीड़े से युक्त , जिस अन्न के प्रति दूषित भावना हो, दुबारा पकाया गया हो(गर्म किया) चांडाल, रजस्वला या पतित द्वारा देखा गया हो, गौ द्वारा सूंघा गया,अनादर्पूर्वक प्राप्त वासी तथा पर्यायन्न(जो अन्न स्वामिक है-और अन्य को दिया जाए)-का नित्य परित्याग किया जाए ।जिसे कौआ या मुर्गे ने छू लिया हो, जो कृमियुक्त हो, जिसे रजस्वला व्यभिचारिणी अथवा रोगिणी स्त्री ने दिया हो,ओर जिसे मलिन वस्त्र धारण करने वाले ने दिया हो।
मतवाले व क्रुद्ध ,रोगी,के अन्न को एवम कीट , केश से दूषित अन्न को तथा इच्छापूर्वक पैर से छुए हुए अन्न को कभी न खाए।
गर्भहत्या करने वाले के देखे हुए , रजस्वला से स्पर्श हुआ ,पक्षी से खाये हुए , ओर कुत्ते से छुए हुए अन्न को नही खाना चाहिए।
गौ के सूंघे हुए ,किसी के लिये घोषित अन्न को, समूह के अन्न को वैश्या के अन्न को और विद्वान से निन्दित अन्न को कभी नही खाना चाहिए।
वाये हाथ से लाया गया अथवा परोसा गया अन्न, वासी भात ,मदिरा मिश्रित , जूठा ओर घरवालों को न देकर अपने लिये बचाया हुआ अन्न खाने योग्य नही है।
उग्र स्वभाव वाले मनुष्य का ,समुदाय का,श्राद्ध का,सूतक का,दुष्ट पुरुष का ओर शुद्र का अन्न कभी नही खाना चाहिए।
उन्मत्त ,क्रोधी ,दुख से आतुर मनुष्य का भोजन नही करना चाहिए।
जिसको किसी ने लांघ दिया हो , जो लड़ाई झगड़ा करते तैयार किया गया हो , जिस पर रजस्वला स्त्री की दृष्टि पड़ गयी हो , जिसमे केश या कीड़े पड़ गए हो , जिस पर कुत्ते की दृष्टि पड़ गयी हो , तथा जो रोकर या तिरस्कार पूर्वक दिया गया हो,वह अन्न राक्षसो का भाग है।
जिस भोजन में बाल या कोई कीड़ा पड़ा हो , जिसे मुख से फूंककर ठंडा किया गया हो,उसको अखाद्य समझना चाहिए ??ऐसे भोजन को कर लेने पर चांद्रायण व्रत करना चाहिए।
जिसके लिए लोगो मे ढिंढोरा पीटा गया हो, जिसमे से किसी ब्रतहीन , असत्यवादी व्यक्ति ने भोजन कर लिया हो,तथा जो कुत्ते से छू गया हो __वह अन्न राक्षसो का भाग समझना चाहिए।
जिस अन्न में थूक पड़ गया हो, कीड़े पड़ गए हो, जो जूठा हो, जिसमे बाल गिरा हो , जो तिरस्कार पूर्वक प्राप्त हुआ हो,जो अश्रुपात से दुषित हो गया हो, तथा जिसे श्वान ने स्पर्श कर लिया हो वह सारा अन्न राक्षसो का भाग है।जो ऐसे अन्न को खाता है वह मानो राक्षसों का अन्न खाता है।
मनुष्य का सारा पाप उसके अन्न में स्थित होता है,अतः जो जिसका भोजन करता अन्न खाता है वह उसका पाप भोजन करता है।
ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य तथा शुद्र,इनमे से जिसका अन्न मृत्यु के समय पेट मे रहता है उसी योनि की प्राप्ति होती है। कूर्मपुराण व पद्मपुराण
शत्रु ,गण, वैश्या, यज्ञ, ओर सूदखोर का भोजन नही करना चाहिए।
पुजारी तथा पुरोहित का अन्न खाने पर चांद्रायण व्रत करना चाहिए।
मरणाशौच या जननाशौच का अन्न खा लेने पर भी चांद्रायण व्रत करना चाहिए। महाभारत
राजा ,नर्तक , बढई , चर्मकार ,(चमड़े से वृत्ति चलानेवाला ) समुदाय, वैश्या, ओर नपुंसक के अन्न का त्याग करना चाहिए।
तेली, धोबी, चोर, शराब वेचने वाला, गायक ,लुहार, तथा सूतक के अन्न का भी त्याग करना चाहिए।पद्यम पुराण।
चुगलखोर,असत्य भाषी,
नट,दर्जी,ओर कृतघ्न के अन्न का न खाये।
कुम्हार ,चित्रकार, सूदखोर, पतित ,द्वितीय पति स्वीकार करने वाली स्त्री के पुत्र , नापित , अभिशापग्रस्त , सुनार , नट , व्याध , बन्धन में पड़े हुए , रोगी , चिकित्सक, व्यभिचारिणी स्त्री, दण्डधारी, चोर, नास्तिक, देवनिंदक, मदिरा का व्यापार करने वाले , चांडाल , स्त्री के वशीभूत रहने वाले , स्त्री के उपपति को रखने वाला , समाज द्वारा परित्यक्त, कृपण ओर जूठा खाने वाले मनुष्य का अन्न सर्वदा त्याज्य है।
कुम्हार,लुहार,रंगसाज,मल्लाह,बांस के बर्तन बनाकर वेचने वाला,तथा शस्त्र वेचने वाला –इनका भी अन्न त्याज्य है। -मनु
–कुत्ता पालनेवाला , मद्यविक्रेता , धोबी , रंगरेज, नृशंश, ओर जिसके घर मे जार हो इनके अन्न को नही खाना चाहिए। मनु
—घर मे स्त्री के जार को सहन करनेवाले, स्त्री के वसीभूत , तथा विना दश दिन बीते सूतक के अन्न को ओर अतुष्टि कारक अन्न को न खाए||
ज्योतिषी, गणिका , गायक, अभिषप्त, नपुंसक, धोबी, भाट, जुआरी, ढोंगी तपस्वी, चोर , जल्लाद, कुंडगोलक (व्यभिचार से पैदा हुए) स्त्रियो द्वारा पराजित ,वेदों का विक्रय करनेवाले, नट , जुलाहे, कृतघ्न, लोहार ,निषाद (मछली मारनेवाले) कुलटा स्त्री, तेली ओर शत्रु के अन्न का सदा त्याग करें।अग्निपुराण
कृपण , बन्धन में पड़ा हुआ, चोर, नपुंसक ,रँगावतारी (नट आदि) वैण (वाँस को छेदकर जीविका चलानेवाला) अभिषप्त (पातकी) वार्धुषी (कुत्सित सूद कमानेवाला) वेश्या ,बहुयाचक, वैद्य , रोगी , क्रोधी, व्यभिचारिणी, अभिमानी, शत्रु, क्रूर, उग्र, पतित, ब्रात्य (संस्कारहीन) दाम्भिक , जूठा खानेवाला, सुनार, स्त्री के वशीभूत ,गांव भर का यजन करने वाला, शस्त्र वेचने वाला , लुहार , जुलाहा , दर्जी , कुत्तो से जीविका चलानेवाला, निर्दयी, राजा , कपड़ा रँगनेवाला , कृतघ्न , प्राणियों के वध से जीविका चलाने वाला , पिशुन (दूसरे का दोष प्रकाशित करने वाला) झूठ बोलनेवाला , गाड़ीवान, वन्दीजन , इनका अन्न भी त्याज्य है।
वैद्य का अन्न पीब, व्यभचारिणी स्त्री का अन्न वीर्य , व्याजखोर का अन्न विष्ठा , ओर हथियार वेचने वाले का अन्न मल के समान त्याज्य है।
वैद्य का अन्न विष्ठा , व्यभिचारिणी का अन्न मूत्रवत, तथा कारीगर का अन्न रक्त के समान है–महाभारत।
घी अथवा तेल में पका हुआ अन्न बहुत देर का बना हुआ अथवा वासी भी हो तो वह खाने योग्य है*! गेहूं, जौ,गोरस की बनी हुई वस्तुएं तेल घी में न बनी हो तो भी पूर्ववत ग्राह्य है।
नमक ,घी , तेल ,व्यंजन , चटनी , एवम पेय पदार्थ खाली हथेली पर परोसने पर भक्ष्य नही होते तथा इन्हें हाथ से परोसने पर भी ये ग्राह्य नही होते। अतः इन्हें पात्र के माध्यम से पात्र पर ही परोसना चाहिए।
वाये हाथ से भोजन करना अथवा दूध पीना मदिरापान के समान त्याज्य है।
जब तक (झगड़ा )कलह ,चक्की,ओखली,मूशल का शव्द सुनाई दे तब भोजन नही करना चाहिए।
पानी पीते ,आचमन करते, भक्ष्य पदार्थ को खाते समय मुंह से आवाज नही करनी चाहिए__यदि उस समय मनुष्य आवाज करता है तो उसे मदिरापान का पाप लगता है और वह रोगी होता है।
परोसे हुए अन्न की निंदा नही करनी चाहिए ।वह स्वादिष्ट हो या न हो ,प्रेम से भोजन कर लेना चाहिए__जिस अन्न की निंदा की जाती है वह राक्षस खाते हैं।
अन्न की नित्य स्तुति करना चाहिए और अन्न की निंदा न करके भोजन करना चाहिए__उसका दर्शन करके हर्षित एवम प्रसन्न होना चाहिए।
सत्कार पूर्वक खाये गये अन्न से बल तथा तेज की बृद्धि होती है,ओर निंदा करके खाए हुए अन्न से उन दोनों (बल और बीर्य)-को नष्ट करता है||
ईर्ष्या ,भय, क्रोध,लोभ,रोग, दीनता, ओर द्वेष के समय मनुष्य जिस भोजन को करता है ,वह अच्छी तरह पचता नही अर्थात वह अजीर्ण हो जाता है।इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह भोजन के समय अपने मे काम क्रोधादि वृत्तियों को न आने दे-अपितु शान्त ओर प्रसन्नचित्त से भोजन करे।
जो आधे खाये हुए मोदक ओर फल को पुनः कुछ समय वाद खाता है तथा प्रत्यक्ष नमक खाता है,वह गोमांस भोजी कहा जाता है।
भोजन करते समय मौन रहना चाहिए। भोजन के पहले मीठा, वीच में नमकीन और खट्टी वस्तुएं खाये। उसके बाद कड़वे व तिक्त पदार्थ को ग्रहण करे।
पहले रसदार चीजे खाये, वीच में गरिष्ठ चीजे खाये ओर अन्त में पुनः द्रव पदार्थ ग्रहण करे। इससे मनुष्य कभी बल और आरोग्य से हीन नही होता।
सन्यासी को आठ ग्रास, वानप्रष्थ को सोलह, ओर गृहस्थ को वत्तीश ग्रास भोजन करना चाहिए, ब्रह्मचारी के लिये ग्रास संख्या निर्धारित नही है।
मुंख में पड़ने लायक ग्रास उठाये जो ग्रास अपने मुख में जानें कि अपेक्षा बड़ा होने के कारण एक बार मे न खाया जा सके ,उसमे से वचा हुआ ग्रास अपना उच्छिष्ट(जूठा)कहा जाता है। ग्रास से बचे हुए , तथा मुंह से निकले हुए अन्न को अखाद्य समझे।
उसे खा लेंने पर चांद्रायण व्रत करे।
जो अपना जूठा खाता है तथा एक बार खाकर छोड़े हुए भोजन को पुनः ग्रहण करता है उसे चांद्रायण ,कृच्छ्र,अथवा प्राजापत्य व्रत का पालन करना चाहिए।
देवताओं और पितरों को अर्पित किए विना खीर, हलुआ , पुआ (मालपुआ)नहीं खाना चाहिए। इनको अपने लिए न बनाकर देवताओं अथवा पितरों को अर्पण करने के लिये ही बनाना चाहिए।
मनुष्य को सदा ऐसे अन्न का भोजन करना चाहिए जो पथ्य(हितकारी)हो, सीमित हो, शुद्ध हो,रसयुक्त हो, हृदय को आनन्द देने वाला हो। ,स्निग्ध (चिकना)हो, देखने मे प्रिय हो और गर्म हो।
आयु, सत्वगुण, बल, आरोग्य, सुख ,ओर प्रसन्नता बढ़ानेवाले, स्थिर रहने वाले, हृदय को शक्ति देने वाले, रसयुक्त तथा चिकने भोजन पदार्थ “सात्विक’मनुष्य को प्रिय होते है।
अति कड़वे, अति खट्टे, अति नमकीन, अति गरम, अति तीखे, अति रूखे,ओर अति दाहकारक भोजन पदार्थ राजस मनुष्य को प्रिय होते है,जो कि दुख ,शोक, ओर रोगों को देने वाले है।
जो भोजन सडा हुआ ,रसरहित, वासी,जूठा है,तथा जो अभक्ष्य अपवित्र (मांस मछली अंडा आदि)है वह तामस मनुष्य के लिये प्रिय होता है।
शहद, जल, दूध, दही, घी, खीर, ओर सत्तू को छोड़कर पात्र में परोसे हुए अन्य पदार्थों का भक्षण सम्पूर्ण नहीं करना चाहिए। कुत्ते का पक्षी का अंश छोडऩा चाहिए।
भोजन के अन्त में दही नही पीना चाहिए,आधा दही आधा जल मिलाकर मट्ठा बनाकर पीना चाहिए।
रात्रि में भरपेट भोजन नही करना चाहिए।
अधिक भोजन करना आरोग्य, आयु, स्वर्ग,ओर पुण्य का नाश करनेवाला तथा लोक में निंदा करानेवाला है। इसलिए अति भोजन का परित्याग करना चाहिए।
थोड़ा भोजन करनेवाले को छः गुण प्राप्त होते है—आरोग्य, आयु, बल और सुख तो मिलते ही है , उसकी सन्तान सुन्दर होती है , तथा “यह बहुत खानेवाला है “ऐसा कहकर लोग उस पर आक्षेप नही करते।
पैरों ओर हाथों को भली भांति धोकर , आचमन करके, पवित्र तथा चारों ओर से घिरे हुए स्थान में बैठकर , प्राप्त अन्न को आदर पूर्वक ग्रहण करके, काम क्रोधादि मदो का त्याग करके सभी अंगुलियों से अन्न को मुख में डालते हुए विना शव्द किये भोजन करना चाहिए।
🚩 हर हर महादेव 🚩
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इसे ध्यान दे—महत्वपूर्ण विषय है!
राजा का अन्न तेज हर लेता है-
अपवित्र घरों का (जहां गोबर मृत्तिका से लिपापुता ना हो एवं यज्ञ हवन कर्म विहीन हो) अन्न ब्रह्मतेज को हर लेता है।
सुनार का अन्न आयु को हर लेता है।
चमड़े काटने वाले का अन्न यश हर ले जाता है। बढी (कारीगर,शिल्पी) का अन्न सन्तति का नाश कर देता है।
धोबी(रंगरेज)-का अन्न बल को क्षीण करता है।
किसी समूह (गण)- -का अन्न तथा वेश्या_ का अन्न स्वर्गादि लोकों को नष्ट कर देता है।
चोर,व्याजखोर, गायक , बढई, यज्ञ में दीक्षित , कृपण ,वन्धन में पड़े हुए , व्यभिचारिणी स्त्री, दम्भी, वैद्य, शिकारी , क्रूर, जूठा खाने वाले, तथा उग्र स्वभाववाले, के अन्न को न खाएं।
कंजूस , यज्ञ वेचनेवाला , चर्मकार , तथा चौकीदार का धन खाने योग्य नहीं है।
जिन्हें समाज या गांव ने दोषी ठहराया हो,जो नर्तकी के द्वारा अपनी जीविका चलाते हो–छोटे भाई का विवाह हो जाने पर भी कुँवारे रह गये हों , वन्दी ,चारण , भाट का काम करते हो ,या जुआरी हो , ऐसे लोगों का अन्न ग्रहण करने योग्य नहीं है।
नपुंसक , सन्यासी , मत्त , उन्मत्त , भयभीत , ओर रोते हुए व्यक्ति के तथा अभिषप्त एवम छीक के दूषित अन्न को ग्रहण न करे।
ब्राह्मण से द्वेष रखनेवाले, पाप बुद्धि, श्राद्ध तथा सूतक का अन्न निषेध है।
जब तक अपनी विवाहिता कन्या को सन्तान न हो, तब तक पिता को उसके घर मे अन्न नही खाना चाहिए। यदि उसके घर का अन्न खाता है तो नरक में जाता है।
गो पालन एवं कृषि कार्य कभी ना त्यागें। प्रत्येक स्थिति में गो वंश, सभी बच्चों, स्त्री प्रजाति, ब्राह्मत्व, धर्म संस्कृति और राष्ट्र का संरक्षण करना चाहिए। (साभार)
नोट :यह आहार विहार के शास्तसा सम्मत सामान्य नियम हैं जो सुस्वास्थ्य और सुदीर्घ जीवन हेतु आत्मानुशासन के लिए बताये गये हैं किसी पर वाध्यकारी या अन्यथा उदेश्य नहीं हैं