श्री देव सुमन को याद करना अपने इतिहास को याद करना है

इन्द्रेश मैखुरी
टिहरी राजशाही के खिलाफ 84 दिन की भूख हड़ताल के बाद शहादत देने वाले श्रीदेव सुमन को उनके शहादत दिवस(25 जुलाई 1944) पर नमन.श्रीदेव सुमन की शहादत इस बात का एक और प्रमाण थी कि क्रूरता के मामले में देसी रियासतों के राजे-रजवाड़े भी अंग्रेजों से कुछ कम न थे.श्रीदेव सुमन जिन नरेंद्र शाह के राज में शहीद हुए,वे अंग्रेजियत से भरपूर थे.इसीलिए क्रूरता का मॉडल भी उनका अंग्रेजों जैसा ही था.वो तिलाड़ी का गोलीकांड हो,श्रीदेव सुमन और आखिरी में कामरेड नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी की शहादत हो,सभी टिहरी राजशाही के क्रूर-हत्यारे और जनविरोधी चेहरे की गवाही देते हैं.श्रीदेव सुमन की महाराजा के अधीन उत्तरदायी शासन,जुलूस निकालने और सभा करने जैसी मांगें भी राजा नरेंद्र शाह को गवारा नहीं हुई.आखिर राजशाही को उत्तरदायी होने की बात वे सोच भी कैसे सकते थे ! राजशाही तो लुटेरी हो सकती है,प्रजा को गुलाम समझने वाली हो सकती है,वह उत्तरदायी कैसे हो सकती है?
         श्रीदेव सुमन के शहादत दिवस पर उन्हें याद करते हुए,यह गहरी टीस उठती है कि न केवल राजशाही की प्रवृत्तियों को हम लोकतंत्र में ढो रहे हैं,बल्कि उस खूनी इतिहास वाले राजपरिवार के वारिसों को भी लोकतंत्र में अपने प्रतिनिधि के तौर पर ढो रहे हैं.पिछले वर्ष राजपरिवार पर ऐसी ही टिप्पणी पर एक मित्र ने लिखा कि उनके पुरखों के हाथ खून से रंगे थे तो इसमें राजपरिवार के वर्तमान वारिसों का क्या दोष?मेरा सवाल है कि राजपरिवार के जो वर्तमान वारिस हैं,उनकी, उस खूनी राजपरिवार के सदस्य होने के अतिरिक्त और कौन सी योग्यता है,जिसके बल पर वो टिहरी लोकसभा का टिकट कभी कांग्रेस और कभी भाजपा से पाते रहे हैं?वे उसी अतीत पर खड़े हो कर वर्तमान में  लोकतंत्र में भी राजतंत्र वाली सुख-सुविधाएं भोग रहे हैं,जो अतीत तिलाड़ी के मैदान में घेर कर क़त्ल किये असंख्य रंवाल्टो,श्रीदेव सुमन,नागेंद्र सकलानी,मोलू भरदारी जैसे कई नाम-अनाम शहीदों के खून से रंगा हुआ है.
श्रीदेव सुमन को उनके शहादत दिवस पर पुनः नमन .