जाने प्राणायाम की सही विधि और पायें परिणाम, सभी पाप होंगे नष्ट, खुलेगा सम्पन्नता का द्वार

प्राणायाम की सही विधि का कलियुगी भौतिकवादी लेखक उल्लेख तक नहीं करते, संस्कृत के पण्डित भी सन्ध्यावन्दन की पुस्तकों में शॉर्टकट बतलाते हैं क्योंकि भोग-विलास करने वालों को एक क्षण की तपस्या भी असह्य है । सही विधि है :–
पूरक,
अन्तः-कुम्भक,
रेचक,
बाह्य कुम्भक ।
पूरक = तीन सावित्री मन्त्र तेजी से पढ़ते हुए सम गति से श्वास अन्दर लेना ।
अन्तः-कुम्भक = तीन सावित्री मन्त्र तेजी से पढ़ते हुए श्वास अन्दर रोकना ।
रेचक = तीन सावित्री मन्त्र तेजी से पढ़ते हुए सम गति से श्वास बाहर त्यागना ।
बाह्य कुम्भक = तीन सावित्री मन्त्र तेजी से पढ़ते हुए श्वास बाहर त्यागकर रोकना ।
बाह्य कुम्भक कष्टदायक है, अतः अधिकाँश लेखक स्वयं भी नहीं करते और पुस्तकों से भी हटा देते हैं । बाह्य कुम्भक जितना कष्टदायक होगा उतने ही पिछले और वर्तमान जन्मों के प्रकट (क्रियमाण) और छुपे हुए (सञ्चित) कुसंस्कार नष्ट होंगे और सद्-बुद्धि बढ़ेगी । अतः बाह्य कुम्भक सावित्री मन्त्र पढ़ने के बाद भी यदि सम्भव हो तो जो मन्त्र अधिक पसन्द हो वह भी कुछ बार जप लें । प्रातः (और सम्भव हो तो सन्ध्याकाल में भी) नित्यकर्म के पश्चात न्यूनतम तीन प्राणायाम बाएँ नाक से और तीन दाहिने नाक से करने चाहिए : बारी-बारी से, अर्थात पहले बाएँ , फिर दाँए, फिर बाएँ … ।

किसी भी प्रकार का प्राणायाम करते वक्त तीन क्रिया करते हैं, रेचक, पूरक और कुम्भक। श्वास को अंदर रोकने की क्रिया को आंतरिक और बाहर रोकने की क्रिया को बाहरी कुम्भक कहते हैं। कुम्भक करते वक्त श्वास को अंदर खींचकर या बाहर छोड़कर क्षमतानुसार रोककर रखा जाता है।
बाह्य कुम्भक अचेतन मन के कुसंस्कारों को ध्वस्त करने और पूर्ण चैतन्य बनने का सर्वोत्तम साधन है । इसका कारण यह है कि ऐन्द्रिक वासनाएँ ही कुसंस्कारों की जड़ है, और कष्टकारी बाह्य कुम्भक भोगवादी आसुरी प्रवृत्तियों की जड़ पर ही कुठाराघात करता है । वासनाओं की जकड़ ढीली पड़ने लगती है ।
मोक्षमार्गियों को चार बार प्रत्येक छ घण्टे पर प्राणायामादि करने चाहिए, उनके लिए संख्या और विधि में अन्तर है ।
जिन्हें वैदिक मन्त्र पढ़ने का अधिकार नहीं है वे उतने ही काल तक किसी भी इष्ट मन्त्र का जप कर सकते हैं ।
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वैदिक मन्त्र पढ़ने का अधिकार “शूद्र” को नहीं है |
“शूद्र” नाम की कोई जाति नहीं होती है, यह एक ‘वर्ण’ है |
वर्ण का आधार कर्म होता है, जन्म नहीं | जाति का आधार जन्म होता है |
“कर्म” और “संस्कार” में परस्पर सम्बन्ध है, क्योंकि कर्मों का समुच्चय ही संस्कार है (सम् + कृ > संस्कार) | मनुष्य संस्कारों के अनुरूप ही कर्म करता है और नए कर्मों के फल संस्कारों में जुड़ते जाते हैं | इन कर्मों के फल भोगने के लिए जन्म लेने पड़ते हैं | इस प्रकार जन्म-मरण का अनवरत चक्र चलता रहता है जिसे “संसार” कहते हैं | इससे मुक्ति पाने के लिए संस्कारों के विपरीत तैरना पड़ता है जिसे वैतरणी-तरना कहते हैं | इसका सर्वोत्तम साधन है प्राणायाम जो प्राण का आयाम धीरे-धीरे बढ़ाकर ब्रह्म तक जीव को पँहुचा सकता है | यही कारण है कि गीता में सभी प्रकार के व्रतों-तपों में प्राणायाम का गुणगान सबसे अधिक किया गया है | यह दूसरी बात है कि गीता पर प्रवचन देने वाले अधिकाँश कलियुगी महापुरुष भी आजकल प्राणायाम नहीं करते |
प्राणायाम में सावित्री मन्त्र पढ़ना चाहिए जो गायत्री का ही एक विशेष प्रकार है | यह सत्य है कि वैदिक मन्त्र पढ़ने का अधिकार “शूद्र” को नहीं है, किन्तु छान्दोग्य उपनिषद में रैक्व नाम के शूद्र ने एक द्विज को ब्रह्मज्ञान की दीक्षा दी थी | छान्दोग्य उपनिषद सामवेदीय तलवाकार ब्राह्मण-ग्रन्थ के अन्तर्गत आता है | अतः शूद्र जन्म पर आधारित जाति नहीं है | छान्दोग्य उपनिषद के ही अनुसार शूद्र उसे कहते हैं जो शोक के पीछे भागता है (व्याकरण के अनुसार भी यही अर्थ सही है)| “शोक” है जन्म-मरण के चक्र में फँसाने वाले सकाम-कर्म, अर्थात ऐन्द्रिक वासनाओं के पीछे भागना | जो व्यक्ति ‘जानबूझकर’ ऐन्द्रिक वासनाओं के पीछे भागे उसे वैदिक मन्त्रों को पढ़ने या सुनने का अधिकार नहीं है, चाहे वह किसी भी जाति में क्यों न जन्मा हो – यह सामवेदीय उपनिषद की आज्ञा है | मत भूलें कि सामवेद को गीता में साक्षात विराट-पुरुष रुपी श्रीकृष्ण कहा गया है (इसका अर्थ गीता के किसी भाष्यकार ने स्पष्ट नहीं किया, अर्थ है ब्रह्मसूत्र अर्थात वेदान्त में जिसके अनुसार सामवेद के मन्त्र ही मुक्त पुरुष को ब्रह्मलोक ले जाते हैं, बिना सामवेद के मोक्ष का द्वार नहीं खुलता; किसी व्यक्ति ने सामवेद नहीं भी पढ़ा किन्तु मोक्ष के योग्य है तो सामवेद के मन्त्र स्वयं चले आते हैं उसे लाने के लिए)|
अतः जबतक मन जानबूझकर ऐन्द्रिक वासनाओं के पीछे भागे और वैसे कर्म भी होते रहें तबतक वेदमन्त्र नहीं पढना चाहिए, वरना छान्दोग्य उपनिषद के ही अनुसार शूद्र यदि वेदमन्त्र पढ़े तो वह शूद्र नष्ट हो जाता है (और समाज को भी क्षति पंहुचाता है क्योंकि हर व्यक्ति समाज से भी जुड़ा रहता है)| ऐसा व्यक्ति प्राणायाम के समय अन्य कोई मन्त्र पढ़ सकता है जो उसे प्रिय हो, या केवल संख्याओं की गिनती कर सकता है, या किसी भी ऐसे विषय का ध्यान कर सकता है को समय के क्रम को सम रखने में सहायक हो |
कुछ अज्ञानियों का कथन है कि बिना मन्त्र वाला प्राणायाम केवल स्वास्थ्य-लाभ के लिए है | केवल स्वास्थ्य-लाभ के लिए कोई भी प्राणायाम नहीं है, किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में ऐसी बकवास नहीं है | पतंजलि मुनि स्पष्ट कहते हैं कि प्राणायाम का लाभ है अज्ञान का आवरण नष्ट होना और अन्तरंग-योग में प्रवृत्ति बढ़ना | पतंजलि मुनि के इस कथन की जाँच करना चाहें तो निम्न प्रयोग कर सकते हैं (क्योंकि योग एक प्रायोगिक विज्ञान है) :-
जब कभी लिंग में उत्तेजना का आभास हो तो किसी भी आरामदायक आसन में बैठ या लेट जाएँ और पूरी शक्ति से बाह्य-कुम्भक करें – तबतक साँस छोड़ते रहें और बाहर छोड़कर रोके रहें जबतक फेफड़ा सहन कर सके, लिंग से अपान वायु निकल जायेगी और मन में वासना की प्रबलता समाप्त हो जायेगी ! उस बाह्य कुम्भक में आप किसी भी मन्त्र का प्रयोग करें या न करें, यह लाभ तो होगा ही | जाँच करना चाहें तो आप उस बाह्य कुम्भक में “गधा-गधा” का भी जप कर सकते हैं, उपरोक्त लाभ अवश्य ही होगा | किन्तु ऊँट-पटांग जप करने से आगे की आध्यात्मिक प्रगति अवरुद्ध हो जायेगी, और आजीवन “गधा” जपते रहने से इस बात की सम्भावना बढ़ जायेगी कि इतना कठोर तप करने के बाद भी अगले जन्म में असली गधा बन जाइयेगा |
आजकल बहुत से कलियुगी ‘महापुरुष’ कुण्डलिनी-जागरण और चक्र-भेदन पर बड़े-बड़े प्रवचन देते हैं | जबतक किसी अन्तर्यामी परमहंस गुरु से आदेश और व्यावहारिक निदेशन न मिले तबतक इन बातों से बचें, ऐसा साहित्य पढने से भी बचें, वरना सर्वनाश का द्वार खुल सकता है और पागलखाना भी पँहुच सकते हैं | ऐसे ‘महापुरुषों’ से दूरी बनाकर रखें |
उपरोक्त प्राणायाम यदि समुचित आहार-विहार सहित करते रहेंगे तो स्वतः वह समय आयेगा जब ईश्वर सद्-गुरु से सम्पर्क करा देंगे, सावित्री मन्त्र की दीक्षा दिला देंगे, और समय आने पर कुण्डलिनी-जागरण का उपाय भी मिल जाएगा |
गीताप्रेस का “पातंजल-योग-प्रदीप” (हिन्दी) पढ़ें, किसी भी आधुनिक भाषा में योग पर इससे उत्तम ग्रन्थ नहीं है, किन्तु इसमें अत्यधिक विस्तार है जो अज्ञानियों को भटका भी सकता है | अतः पढ़ें तो पूरा ग्रन्थ, किन्तु केवल पतंजलि मुनि के मूल सूत्रों को समझने का प्रयास करें और तदनुसार अष्टांग-योग का अभ्यास करें |
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प्राणायाम के दर्जनों प्रकार हैं, किसी एक प्रकार को सबपर थोपना गलत है | संध्यावन्दन का अनिवार्य भाग है नाड़ी-शोधन प्राणायाम जिसमे 1:1:1:1 अनुपात होता है क्योंकि मन्त्र को छोटा-बड़ा नहीं किया जा सकता | उसके बाद विभिन्न सिद्धियों के लिए कई प्रकार के प्राणायाम हैं , उनमें भी मन्त्र को न तो बदल सकते हैं और न ही छोटा-बड़ा कर सकते हैं, अतः उन सबमें भी 1:1;1:1 का ही अनुपात रहता है , किन्तु वे केवल दीक्षित शिष्यों को सिद्ध योगियों द्वारा ही सिखाये जाते हैं | अन्य प्राणायाम हठयोग के भाग है जो केवल शारीरिक शुद्धि के निमित्त हैं और पतंजलि ऋषि के योग सूत्र में प्राणायाम की परिभाषा के अनुसार उन्हें प्राणायाम माना नहीं जा सकता, क्योंकि योगसूत्र के अनुसार प्राणायाम का शरीर की शुद्धि से कोई सम्बन्ध नहीं है (यद्यपि शरीर को लाभ होता है, वह लाभ केवल बाई-प्रोडक्ट है), प्राणायाम का एकमात्र लाभ है चित्त पर पड़े अज्ञान का आवरण नष्ट होना और धारणा-ध्यान-समाधि की योग्यता में वृद्धि | यह लाभ बिना मन्त्र के सम्भव नहीं | मन्त्र कोई भी हो, पूरक-अन्तःकुम्भक-रेचक-बाह्यकुम्भक में न तो मन्त्रों की संख्या बदली जा सकती है और न ही गति | आम जनता को जो प्राणायाम सिखाये जाते हैं वे असली प्राणायाम नहीं हैं, क्योंकि प्राणायाम है “प्राण के आयाम में वृद्धि” जिसके द्वारा चित्त में फँसा जीव मुक्त होकर आकाश में फैलता है और दूसरे जीवों और अन्य पदार्थों से जुड़ता है (telepathy उसका एक बाई-प्रोडक्ट है, अन्यान्य सिद्धियाँ भी बाई-प्रोडक्ट ही हैं जिनका योगसूत्र के विभूति-पाद में वर्णन है)| दिव्यास्त्रों की सिद्धि भी प्राणायाम द्वारा ही होती है जिनमें विशेष प्रकार के मन्त्रों का प्रयोग होता है (वैदिक सावित्री मन्त्र का विपरीत पाठ, जो वैदिक वाममार्ग है, यह अत्यन्त कठिन है)|
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प्राणायाम किसी भी प्रकार का हो,सदैव वाम नासिका से ही आरम्भ करें । और पूरक से आरम्भ करें । वाम नाड़ी गंगा है ,मन की अधिष्ठात्री ,इसे चन्द्रनाड़ी या इडा भी कहते हैं । पैरासिम्पैथिक नर्वस सिस्टम के लेफ्ट वेगस नर्व के समानान्तर सूक्ष्म शरीर की सूक्ष्म नाड़ी है ।

पहले नाड़ीशोधन−प्राणायाम सन्ध्यावन्दन का अनिवार्य अङ्ग है । पहले वाम से पूरक,तब अन्तःकुम्भक,फिर दाहिने से रेचक और तब बाह्य−कुम्भक । उसके बाद दाहिने से पूरक करते हुए वापस बायें तक । यह हुआ एक जोड़ा । इस प्रकार तीन जोड़ा । मन्त्र लेख में है ।

तीन नाड़ीशोधन तो इस मर्त्यलोक में रहने का दैनिक दण्ड है जो नहीं देने पर अगली बार मानव योनि में आने की सम्भावना भी बहुत घट जायगी,केवल इतने प्राणायामों से पिछले पाप नहीं कटते ।

आरम्भ में मैं भी गिनती भूल जाता था । कठोर बाह्य−कुम्भक करने पर एसा होता है । किन्तु धीरे धीरे अभ्यास हो जायगा ॥ अँगुलियों पर गिनें − पोरों के द्वारा । गिनती का बहुत महत्व है । भूलवश अधिक हो जाय तो हर्ज नहीं,कम होने पर सम्पूर्ण परिश्रम व्यर्थ हो जाता है ।
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नौ वाला प्राणायाम ➔ पहले केवल वाम से ही आठ,एक बार भी दाहिने से नहीं । तब दाहिने से आठ । प्रत्येक बाह्य−कुम्भक के पश्चात यह संकल्प कि मैं अपनी सारी हवियाँ वैश्वानर अग्निदेव को समर्पित कर रहा हूँ । इस प्रकार १६ करने के पश्चात वाम से एक और तब दाहिने से एक — इन दोनों में संकल्प कि मैं अपनी सारी ईच्छाओं का त्याग करके ब्रह्म को समर्पित कर रहा हूँ । यह मोक्षमार्ग का भी प्राणायाम है और सांसारिक सिद्धियों वाला भी । किन्तु फल तभी प्राप्त होता है जब वास्तविक हवियाँ भी वैश्वानर अग्निदेव को समर्पित की जाय − बिना नमक मेल मसाले के केवल हविष्यान्न वाला स्वयंपाक और भोजन करते समय संकल्प कि मैं अपनी सारी हवियाँ वैश्वानर अग्निदेव को समर्पित कर रहा हूँ − जैसा कि गीता में आदेश है । निष्काम कर्मयोग का मार्ग हो या भक्तियोग वा ज्ञानयोग का,इस विधि से सिद्धि शीघ्र मिलती है,चाहे किसी भी प्रकार की सिद्धि हो − किन्तु वेदमार्ग की हो,आसुरी नहीं । ब्रह्मास्त्र की सिद्धि का भी यही तरीका है,किन्तु उसमें संख्या इतनी अधिक है कि कलियुग के मानव कर ही नहीं पायेंगे − परन्तु उसमें भी एक बैठक में १६+२ ही करने पड़ते हैं ।
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नाड़ीशोधन प्राणायाम की संख्या बढ़ाया नहीं जा सकती । किन्तु उसके पश्चात अलग से उसी प्रकार का प्राणायाम हर ६ घण्टे पर ४० − ४० बार करते रहने पर तीन मास के पश्चात ईश्वर से सीधा सम्पर्क हो जायगा,उसके बाद का रास्ता ईश्वर बतायेंगे, वे ही असली गुरु हैं । कलियुग में जप−तप की मात्रा चार गुनी अधिक करनी पड़ती है,अतः ३ मास के बदले १२ मास लगेंगे । बीच में सांसारिक लोगों से सम्पर्क हो तो कुछ अतिरिक्त समय प्रायश्चित के तौर पर लगेगा । (सभार