सीडीएस जनरल विपिन रावत के हैलीकाॅप्टर क्रैश को केवल दुर्घटना नहीं मान रहे देश बुद्धिजीवी, मृत्यु कारणों की पड़ताल कर चाहते हैं भारती के लोग

सीडीएस जनरल विपिन रावत के हैलीकाॅप्टर क्रैश को केवल दुर्घटना नहीं मान रहे देश बुद्धिजीवी, मृत्यु कारणों की पड़ताल कर चाहते हैं भारती के लोग। यहां दी जा रही शोशल मीडिया से कुछ प्रतिक्रियाएं देश की मंशा समझी जा सकती है (Countries are not considering CDS General Vipin Rawat’s helicopter crash as an accident only, intellectuals want to investigate the cause of death, people of Bharti Some of the reactions from the social media being given here can be understood as the intention of the country ) 

जनरल रावत कोई राजनेता नहीं थे कि कोई उनका समर्थक और कोई उनका विरोधी होता। वे एक पत्रकार नहीं थे जिनके व्यूज के लिए कोई उनको पसंद या नापसंद करता। वे एक सेलिब्रिटी नहीं थे जिन्हें एडमायर या क्रिटिसाइज किया जाता।

वे सैनिक थे, भारत की सशस्त्र सेनाओं के प्रमुख थे। उनका एक ब्रिलियंट सैनिक रिकॉर्ड था, और उनके नेतृत्व में भारतीय सेनाओं ने सफलताएँ पाई थीं, मनोबल ऊँचा उठा हुआ था। वे किसी एक समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे, बल्कि हमारी सेना का नेतृत्व करते थे जो सभी की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है।

फिर भी यदि कोई उनकी असमय मृत्यु पर हर्ष प्रकट कर रहा है तो उसके पीछे क्या कारण हो सकता है? जनरल रावत से तो किसी की दुश्मनी नहीं हो सकती, जो दुश्मनी है भारत की सेना से है, भारत राष्ट्र से है। उनकी मृत्यु पर खुशी मनाना कहीं से भी एक व्यक्तिगत ओपिनियन का विषय नहीं हो सकता, यह खुला राष्ट्रद्रोह है।

जो भी व्यक्ति, समूह, विचारधारा इस अवसर पर अपने आप को एक्सपोज़ कर रहे हैं, उन्हें पहचानें। हम युद्ध में हैं, और युद्ध में शत्रुबोध आवश्यक है।

आपकी बात याद रहेगी जनरल साहब,
हम दो और आधे मोर्चे पर लड़ रहे हैं, दो मोर्चे वर्दी सेना संभालेगी…पर यह आधा मोर्चा हमारा है।

और यह प्रतिज्ञा है जनरल…
इस मोर्चे पर हमारे हाथ नहीं कांपेंगे।

 

दो इंजनों वाला विश्व में सेना का सबसे सुरक्षित माने जाने वाला हेलीकॉप्टर जिसे PM मोदी सहित अन्य VIP प्रयोग करते हैं इतनी आसानी से सख्त सुरक्षा प्रोटोकॉल के बाद भी गिर सकता है क्या? इसे मिग विमानो की तरह खींचतान के नहीं चलाया जा रहा था ये अपनी कैटेगरी में बेस्ट है ।
न जाने क्यों मुझे अचानक डॉक्टर होमी जहांगीर भावा, पूर्व PM लाल बहादुर शास्त्री की याद आ गई।
डॉक्टर भावा से परमाणु कार्यक्रम न रोकने की वजह से अमेरिका और पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसियां रुष्ट थी.
शास्त्री जी का सबसे भरोसेमंद रसोईया जान मुहम्मद ताशकांद में उनके निधन के उपरान्त पाकिस्तान में नागरिकता लेकर बस गया जबकि पाकिस्तान तभी भारत से युद्ध हारा था।
सवाल तो इतने हैं कि लिखने में रात कम पड़ जाएगी।
अगर ये हो सकता है कि घटना हादसा मात्र हो, तो ये सवाल भी मन में है कि कहीं भारत रूस के रक्षा सौदे से नाराज अमेरिका तो इसमें शामिल नहीं? या चीन ने गलवान का जवाब दिया या फिर जिहादी पाक फिर कामयाब हो गया या फिर किसी गद्दार को मुंहमांगी रकम मिलेगी!!

रूस का भारत से रक्षा समझौता, पुतिन का भारत आना,”जैविक युद्ध बन सकता है कोरोना” वाला रावत जी का आखिरी बयान,चीन की श्रीलंका में उपस्थिति होना,रूसी हेलीकॉप्टर ME 17 जैसे सबसे सुरक्षित हेलीकॉप्टर का क्रैश,सीसीएस की मीटिंग होना, अमेरिका या चीन के इंवॉल्व होने की ओर इशारा कर रहा है,ये शस्त्र व्यापार से जुड़ा मुद्दा भी हो सकता है और जैविक युद्ध से जुड़ा भी।अगर यह एक हत्या है, तो यह उन देशों द्वारा किया जाता है जो भारतीय रूसी संबंधों के खिलाफ हैं। वे चाहते हैं कि भारत के लोग रूसी संबंधों और उनके रक्षा उपकरणों पर विश्वास न करें ताकि भारत कम शक्तिशाली बना रहे। यह एक हेरफेर हो सकता है।क्या हम इस (पूर्व नियोजित) दुर्घटना की तुलना ताइवान सीडीएस त्रासदी से कर सकते हैं,ताइवान जो चीन की आंखों की किरकिरी है,भारत की तरह?चीन का इंवॉल्व होना काफ़ी हद तक सच होता दिख रहा है,पर शस्त्र व्यापार से संबंध होने के कारण अमेरिका का रोल भी संदेहास्पद लग रहा है।आर्मी से जुड़ा मेरा हर मित्र जानता है कि यह सिर्फ एक दुर्घटना नहीं है,लेकिन हमें बताया जाएगा कि यही कारण है। आज बहुत दुख हुआ,पर हमें सतर्क रहना है,युद्ध है ये,युद्ध में सैनिक वीरगति को प्राप्त होते हैं,पर सेना रुकती नहीं,आगे बढ़ती है,भारतीय सेना आगे बढ़ेगी,
भारत आगे बढ़ेगा।

ये नए भारत पर आक्रमण है,
ये मेरी पहली प्रतिक्रिया है इस घटना पर,मेरा पहला आंकलन है जो कि गलत भी हो सकता है,
अभी कुछ और कहना सही नहीं होगा।

मोदी जी का पुतिन से मिलना, रावत सर का बॉयोलोजिकल वार पर कल बयान देना,
और आज ये घटना घट जाना!!
ये सब जो दिख रहा है उस से कही ज्यादा बड़ा है, जो आपकी कल्पनाओं से भी परे है, अकल्पनीय है,
भारत के लिए इतिहास के सबसे कठिन समय की शुरुवात अब होती है,
अब या तो भारत दुनिया का नेतृत्व करेगा या अगली कई सदियों के लिए गर्त में जायेगा,
ये आपका मेरा हम सब का नामोनिशान मिटाने की शुरुवात है,
जब राजा अड़ियल हो तब इसे आप सेनापति पर हाथ डालकर राजा को संदेश देना कह सकते है,
अपने राजा पर भरोसा दृढ़ कर लो, नही तो अब वो सब खो देंगे जो कभी नही खोया!!

कम लिखा है, ज्यादा समझियेगा 🙏

  • *मेरा भी यही ही मत हैं , इतने महत्त्वपूर्ण बन्दे का हेलिकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो ही नहीं सकता बाकी जयचन्दों की कमी नहीं हैं..😢*
    *प्रभु उनकी आत्मा को निज चरणों में स्थान दें व परिवार को असमय हुए आघात सहने की क्षमता  मुसलमान को समझना होगा कि जनरल विपिन रावत जी भाजपा के नही, देश की सेना के चीफ है
    अगर आप भाजपा सरकार पर हंसो तो समझ सकते हैं,
    *लेकिन आप देश की डिफेंस सिस्टम के जनरल के जीवन मृत्यु के अस्तित्व पर हंसते हैं, तो निश्चय ही आप देश के गद्दार है👿….!*राष्ट्रीय सुरक्षा के अधिष्ठान और निदान: भाग 4– Retaliation (प्रतिकार)

कई बार सीमापार से संघर्ष विराम का उल्लंघन किया गया। नरेंद्र मोदी के प्र मं बनने के बाद से ही रक्षा विशेषज्ञ एक सुर में एक ही शब्द बोल रहे थे: Retaliation. फलस्वरूप भारतीय सेना ने अक्टूबर 2014 में मुंह तोड़ जवाब दिया था। प्रतिशोध या प्रतिकार की वकालत करने वालों में सबसे आगे थे Indian Defence Review के संस्थापक संपादक कैप्टन भरत वर्मा। 11 जुलाई 2014 को उनका निधन हो गया था।

 

पठानकोट एयर बेस पर हुये हमले के विरोध में भी Retaliation के पक्षधर लोगों की कमी नहीं है बशर्ते केंद्र सरकार अपनी नीतियां स्पष्ट करे। ऐसी हरक़त 27 जुलाई 2015 को गुरदासपुर में भी हुई थी। 6 महीनों में हमने क्या सबक सीखा ये विचारणीय प्रश्न है।

 

तमाम चीज़ों को समझने के लिये पहले ऐसे हमलों को परिभाषित करना जरूरी है। युद्ध कई तरह के होते हैं: पारम्परिक (conventional), गैर पारम्परिक (non-conventional), symmetric (जिसमें दोनों देशों की शक्ति बराबर हो), asymmetric (जहां किसी वजह से एक देश कमतर स्थिति में हो), guerilla war, low intensity conflicts (LIC), jungle warfare etc. पाकिस्तान जो करता है उसे (शायद आडवाणी जी ने ही नाम दिया था) Proxy War या छद्म युद्ध की संज्ञा दी गयी है। नाम तो दे दिया गया लेकिन ऐसे युद्ध से निबटने की कभी कोई नीति नहीं बनाई गयी। पारम्परिक युद्ध यहां तक की परमाणु युद्ध के लिये भी हमारे पास well defined ‘doctrines’ (सिद्धांत) हैं जिनका समय समय पर review किया जाता है, लेकिन एक ऐसा युद्ध जो हम दशकों से लड़ रहे हैं उसके लिये कोई नीति निर्धारित नहीं की गयी। ऐसी स्थिति में हमें कई मोर्चों पर लड़ना है जिसके लिये एक सधी हुई दूरदर्शी नीति की जरूरत है। मैं क्रमानुसार अपनी बार रखता हूँ।

 

एक. Civil military relations (सैन्य-नागरिक सम्बन्ध) में सुधार हो और फैसला लेने में सरकार और रक्षा प्रतिष्ठान के बीच तालमेल बेहतरीन होना चाहिये। मतलब ये कि छद्म युध्द की स्थिति में retaliatory action कब और कितनी तीव्रता से करना है ये दोनों पक्षों को स्पष्ट होना चाहिये। करना भी है या नहीं इस पर भी मानसकिता बिल्कुल साफ़ होनी चाहिए। किसी भी स्तर पर असमंजस की स्थिति में सेना का मनोबल गिरता है और अंतर्राष्ट्रीय खेमे में नेतृत्व क्षमता के अभाव का सन्देश जाता है। विदेश नीति और रक्षा नीति को अलग कर के न देखें। जो गलतियां पुरानी सरकारों ने कीं वो आप न दोहराएं। राष्ट्र आर्थिक प्रगति करता है और उसके रक्षण के लिये सेना को तैयार रखता है। विदेश नीति निर्धारण के परिप्रेक्ष्य में ये दो आधार ध्यान में रखने जरूरी हैं।

 

दो. Retaliatory action, प्रतिकारात्मक कार्यवाही किस तरह की हो सकती है? IDR में छपे डॉ० अमरजीत सिंह के लेख के अनुसार retaliation के कई तरीके हैं जिन पर कोई अंतर्राष्ट्रीय कानून हमारे हाथ बाँध नहीं सकता। पहला तरीका है कि पाकिस्तान जितने हमारे सैनिक मारता है हम उतने ही उनके मारें। दूसरा ये कि हम अपनी क्षति से कहीं ज्यादा उनका नुकसान करें ताकि उन्हें लम्बे समय तक याद रहे उदाहरण के लिए रात के अंधेरे में special forces (PARA Commando) की सहायता से surgical ops किये जाएँ, भारी गोलाबारी या हवाई हमले की सहायता ली जाये। एक और तरीका है जिसे asymmetric operation कहा जा सकता है। मतलब की यदि वो हमारे हाथ पे मारें तो हम उनकी टांग तोड़ दें। हम ज़मीनी हमले का जवाब नौसेना से भी दे सकते हैं। याद रखें 1971 में हमने कराची बेस उड़ाया था।

 

तीन. Intelligence Reforms. हमारी बाह्य खुफिया एजेंसी (external intelligence agency) Research and Analysis Wing की मारक क्षमता बढ़ाएं। पहले के ज़माने की clandestine agencies सिर्फ जानकारी जुटाने का काम करती थीं, कभी कभी किसी मिशन के तहत लम्बा ऑपरेशन चलता था जो युद्ध के समय फल देता था जैसा कि R&AW ने 1971 में बांग्लादेश निर्माण में मुक्ति बाहिनी बनाने में सहयोग किया था। फिर श्रीलंका में IPKF की सहायता की थी। ये तो पारंपरिक युद्ध के समय की चीजें थीं। कहते हैं कि मोरारजी देसाई और इंद्र कुमार गुजराल ने पाकिस्तान में चल रहे R&AW के ऑपरेशन बन्द करवा दिये थे। आज के समय की ज़रूरत है की एजेंसियां खुफिया तरीके से अंदर घुस कर ऐसी जगह मार करें की शत्रु की कमर टूट जाये। 9/11 के बाद CIA ने खुद को ऐसी ही घातक एजेंसी के रूप में सिद्ध किया है जिसके कारण कभी कभी अमरीका के सर्वाधिक शक्तिशाली रक्षा प्रतिष्ठान Pentagon तक उसके तरीकों के विरोध में बोल चुके हैं। हमें खुफिया एजेंसियों को संसद के प्रति उत्तरदायी भी बनाना होगा ताकि सरकार बदलने के बाद भी कार्यों की समीक्षा की जा सके। आचार्य चाणक्य ने भी अर्थशास्त्र में covert operation के बारे में बताया है। कहा है कि राजा को covert operations की कमान खुद संभालनी चाहिए। शत्रु के मंत्रियों, आला अधिकारियों को कमजोर करने और मारने के लिये (उस समय के हिसाब से) ज़हर या वेश्यालयों का प्रयोग किया जाए। ये खुफिया ऑपरेशन एक दो साल के नहीं बल्कि long term policy के तहत होने चाहिए।

 

चार. Foreign policy. पाकिस्तान को लेकर हमारी विदेश नीति विचित्र पूर्वाग्रहों से ग्रसित मानसिकता दर्शाती है। नवाज़ शरीफ के भाई ने 2013 में जमात-उद-दावा को करोड़ों रुपये दिए थे फिर भी आजतक हम ये भरम पाले हैं कि ISI जो कि एक ‘Deep State’ है उसके इर्द गिर्द कुछ अमन परस्त टाइप की तंजीमें हैं जो भारत से दोस्ती चाहती हैं। Deep state के मायने ये हुए कि ISI के अंदर भी एक ISI है जो ज्यादा शक्तिशाली है। किसी भी अंतर्राष्ट्रीय फोरम पर हमारी कोशिश ये होनी चाहिए कि हम पाकिस्तान की दुखती रग ‘पाक अधिकृत कश्मीर’ में हो रही लोगों की दुर्दशा और मानवाधिकार उल्लंघन पर यूरोपियन संसद में पेश की गयी Baroness Emma Nicholson की रिपोर्ट पर बात करें और अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी की मदद से दबाव बनाएं। जिस तरह पाकिस्तान हमारी तरफ से किए जा रहे peace process को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करता है वैसे ही हम उसके द्वारा किये जा रहे बलूच में अत्याचार को सामने रखें। मनोवैज्ञानिक युद्ध ऐसे भी लड़े जाते हैं।

 

पांच. Public Awareness. जन जागरुकता। हम अपने लोगों को सुरक्षा सम्बन्धी लेख, पुस्तकें, जानकारी उनकी भाषा में उपलब्ध कराएं। कैप्टन भरत वर्मा ने जब IDR की स्थापना की तो कुछ लोगों ने कहा कि भारत की जनता ये सब नहीं पढ़ेगी। फिर भी उन्होंने 25 साल सम्पादक का फ़र्ज़ निभाया। दिक्कत ये है की सुरक्षा सम्बन्धी गुणवत्ता पूर्ण साहित्य अंग्रेजी में ज्यादा छपता है इसे क्षेत्रीय भाषा में उपलब्ध कराना होगा। ये काम कथित sleeper cells को खत्म करने में रामबाण साबित हो सकता है।

 

अब कुछ और जानते हैं-

 

गुप्तचर विभाग

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भारत में गुप्तचर सेवा के ढाँचे के तीन प्रमुख स्तंभ हैं: इंटेलिजेंस ब्यूरो, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग तथा डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी। इंटेलिजेंस ब्यूरो यानि IB का इतिहास अंग्रेजी शासन के समय का है जबकि R&AW का गठन इंदिरा गांधी के शासनकाल में कैबिनेट सचिवालय के एक विभाग के रूप में रामेश्वर नाथ काव ने किया था। डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी (DIA) का गठन सशस्त्र सेनाओं के तीनों अंगों द्वारा संकलित अलग अलग स्रोतों से मिली खुफिया रिपोर्ट में सामंजस्य बिठाने हेतु किया गया था। किसी भी इंटेलिजेंस एजेंसी का मुख्य कार्य संभावित खतरे का अनुमान घटना होने से पहले ही लगा लेना होता है। दूसरे शब्दों में, इंटेलिजेंस का काम अपराध होने से पहले का होता है जबकि जाँच या investigation अपराध होने के बाद की जाती है। इंटेलिजेंस मुख्यतः ऐसी सूचना जुटाने का कार्य है जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा प्रभावित होती है। आज के गतिशील वैश्विक परिदृश्य में सूचना ही सबसे कारगर और खतरनाक हथियार है। इलेक्ट्रॉनिक सर्विलांस, सिग्नल इंटेलिजेंस, टेक्निकल इंटेलिजेंस इन सब आधुनिक विधाओं के उद्भव से पहले मनुष्य ही सूचना का मुख्य स्रोत हुआ करता था। इसीलिए कहा जाता है कि ‘Human intelligence is the best form of intelligence’.

 

रिसर्च एंड एनालिसिस विंग देश के बाहर एजेंट भेज कर गुप्त रूप से सूचनाएं जुटाती है। इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधिकारी देश के अंदर छुपे दुश्मनों के बारे में सूचनाएं एकत्र करते हैं और दूसरे देश के गुप्तचरों से भी लड़ते हैं। इसे कॉउंटर इंटेलिजेंस कहा जाता है। आचार्य चाणक्य ने अर्थशास्त्र में लिखा है कि एक राजा को गुप्तचरों को प्रशिक्षण देकर धन धान्य सहित शत्रु के खेमे में भेजना चाहिये। देश में आईबी के अधिकारियों की कुल संख्या आधिकारिक रूप से प्रमाणित नहीं की जा सकती, फिर भी अनुमान है कि लगभग बीस हज़ार IB कर्मचारी अहर्निश देश सेवा में रत हैं। इनका कोई नाम, कोई पहचान नहीं होती। इनके लिए कोई ‘दिवस’ नहीं होता। वेतन बढ़ाने के लिए कोई आयोग गठित नहीं होता। इन गुप्त शूरवीरों के माँ बाप को इनकी वर्दी पर सितारे लगाने का सौभाग्य नहीं मिलता क्योंकि इनकी प्रतिबद्धता वर्दी की मोहताज नहीं होती। ये नारे नहीं लगा सकते, धरना, हड़ताल नहीं कर सकते। भारत में गुप्तचर सेवा कोई संवैधानिक अथवा विधि द्वारा स्थापित सेवा नहीं है।

 

जब किसी बच्चे के पिता शाम को नौकरी से घर लौटते हैं तो खाने की मेज पर अपने सहकर्मियों की बातें बता कर मन हल्का कर लेते हैं। परन्तु गुप्तचर सेवा के अधिकारी अपने विभाग के काम का ब्यौरा अपनी पत्नी को भी नहीं बता सकते। ये हर जगह होते हैं किंतु हम इन्हें देख नहीं सकते। ये सब कुछ सुनते हैं लेकिन हम इन्हें जान नहीं पाते। ये देश के सुरक्षा बलों की आँख, नाक और कान हैं। इनकी सेवा का महत्व इतना है कि रिसर्च एंड एनालिसिस विंग का एक फील्ड अधिकारी किसी देश की सत्ता पलट सकता है। भारत के सामरिक रणनीतिक हित साधने में इनकी भूमिका सन् 71 के युद्ध में प्रमाणित हो चुकी है।

 

हम गुप्तचर सेवा के बारे में सिनेमा में देखते हैं, अखबारों में पढ़ते हैं या किसी से सुन भर लेते हैं। इंटेलिजेंस सुधार पर संसदीय समितियां गठित नहीं की जातीं। विश्लेषक मोनोग्राफ नहीं लिखते, सैन्य सिद्धांत या doctrine नहीं बनाई जाती। गुप्तचर अधिकारी चुप चाप निजी सफलता का किसी भी तरह का श्रेय लिए बिना पूरी लगन से काम करते हैं। जब भी इनका कोई साथी कोई उपलब्धि हासिल करता है तो बन्द दफ्तर में प्रशंसा के मात्र दो शब्द के अलावा इन्हें कोई पुरस्कार नहीं मिलता। इसी तरह जब कोई अधिकारी प्राणों की आहुति दे देता है तब भी दफ्तर में केवल दो मिनट का मौन ही उसके खाते में जाता है।यहाँ दो और दो चार का हिसाब रखने से ज्यादा एक और एक ग्यारह बनाने की कवायद की जाती है इसीलिए सूचना का हर स्रोत एक asset होता है। जब न्यूज़ चैनलों में इंटेलिजेंस फेल्योर की खबरें आती हैं तो त्वरित आलोचना से पहले इतना याद रखें कि वह कथित फेल्योर पड़ोसी मुल्क के सौ षडयन्त्रों में से एक होता है। उस एक फेल्योर के पीछे इंटेलिजेंस ब्यूरो की निन्यानवे सफलताएं होती हैं। उन निन्यानवे सफलताओं के कारण ही राष्ट्र उस एक विफलता को झेल लेता है। अमरीकी इंटेलिजेंस एजेंसी CIA के संस्थापक एलन डब्लू डलेस ने अपनी पुस्तक Craft of Intelligence में लिखा है कि 28 नवंबर, 1961 को जब वह रिटायर होने वाले थे तब राष्ट्रपति कैनेडी ने कहा, “आपकी सफलताएं सुर्खियां नहीं बनतीं, विफलताओं के डंके ज्यादा बजते हैं। किंतु मैं आश्वस्त हूँ कि आपको इस बात का एहसास है कि आपका काम कितना महत्वपूर्ण है। इतिहास आपके प्रयासों की महत्ता की समीक्षा करेगा अतः मैं अभी इसकी विवेचना नहीं कर रहा तथा मुझे विश्वास है कि भविष्य में आप देश के प्रति प्रशंसनीय कार्य करते रहेंगे।”

 

ऐसे शब्द भारत के किसी प्रधानमंत्री ने आज तक सम्भवतः किसी भी गुप्तचर सेवा एजेंसी के लिए नहीं कहे होंगे। हम लोकप्रिय साहित्य, सिनेमा और सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से रामेश्वर नाथ काव, के शंकरन नायर, बी रमन, आर के यादव, मलय कृष्ण धर, रवीन्द्र कौशिक, कर्नल हन्नी बक्शी इत्यादि का नाम जानते हैं। हम इन्हें पुस्तकों में या वेबसाइट पर खोजते हैं। हम श्री अजित डोभाल को जेम्स बांड कहते हैं। किंतु इंटेलिजेंस की दुनिया की वास्तविकता पुस्तकों और सिनेमा से कहीं ज्यादा खतरनाक है। एक टीवी सिरीज़ में डोभाल साहब मजाक में कहते हैं “डर सबको लगता है। किसी को घटना के पहले लगता है, किसी को घटना के दौरान लगता है तो किसी को घटना घटित हो जाने के बाद डर लगता है कि कहीं ऐसा हो जाता तो क्या होता। मैं (अजित डोभाल) तीसरी कटेगरी का हूँ।”

 

पूर्वोत्तर में विद्रोह हो या खालिस्तानी आतंकवाद, नक्सली हिंसा हो या कश्मीर का इस्लामी जेहाद, गुप्तचर सेवा के अधिकारियों ने सदैव हमारे सशस्त्र सुरक्षा बलों को विश्वसनीय सूचना उपलब्ध कराई है जिसपर कार्यवाही की जा सके। जब हम त्योहार मनाते हैं तब सीमा पर स्थित जवान को IB और DIA के एजेंट जान पर खेल कर शत्रु के संभावित अटैक की सूचना दे रहे होते हैं।सीआईए अपने हुतात्माओं को एक स्टार देकर सम्मानित करती है।

 

कश्मीर की समस्या मूलतः इंटेलिजेंस की समस्या है। आर्मी वहाँ काम जरूर कर रही है लेकिन सैद्धांतिक रूप से आर्मी का काम पत्थरबाजों से लड़ना नहीं है। लड़कों को भड़का कर उनके हाथ में पैसा और पत्थर देने वालों का इंटेलिजेंस नेटवर्क हमसे ज्यादा स्ट्रांग है। हम वहाँ इंटेलिजेंस कैसे जुटाते हैं? मूल रूप से दो तरीके हैं: एक होते हैं डबल एजेंट जो सीमा पार पाकिस्तान के कब्जे वाले अड्डों में घुलमिल गए होंगे। उनसे हमें जो सूचनाएं मिलती हैं वो बेहद क्लासिफाइड होती हैं और दीर्घकालिक परिणाम देने वाली होती हैं। दूसरे होते हैं डुअल (dual) एजेंट जो पैसा लेकर तात्कालिक सूचना देते हैं। ये हमारे देश के इंटेलिजेंस अधिकारी नहीं होते। यदि जिहादी गुटों ने इनको ज्यादा पैसा दिया है तो ये सुरक्षा बलों की जानकारी उनको दे देंगे। इस प्रकार का खतरनाक खेल कश्मीर में खेला जाता है। कुल मिलाकर आतंकियों से लड़ने के लिए हमारी रणनीति offensive या counter offensive होती है। लेकिन असली समस्या बंदूकधारी आतंकवादी नहीं हैं। समस्या है कश्मीर के नागरिकों की आतंकियों से सांठ गाँठ की vulnerability. आर्मी और अन्य सुरक्षा बल इसको neutralize करने के लिए बहुत सारे काम करते हैं। अस्पताल से लेकर स्कूल तक चलाते हैं। बाढ़ में तो कश्मीरियों को सेना ने अपने कंधों पर ढोया था। फिर भी कश्मीरी बहक जाते हैं। इसका कारण है कि हम अपने इंटेलिजेंस को सुधारने के लिए out of the box वाली सोच नहीं रखते। उदाहरण के लिए आज कोई भी पुस्तक उठा कर देख लीजिए किसी भी विश्लेषक को पढ़ लीजिए सब एक जैसा राग आलापते नजर आएंगे। स्वराज्य मैगज़ीन में आर जगन्नाथन की घिसी पिटी बकवास पढ़ने के बाद देखा तो द वायर में लिखे अपने लेख में ORF के पुरनिया डिफेंस एनालिस्ट मनोज जोशी साहब इस बात का रोना रो रहे हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय का बजट 81 करोड़ से बढ़ा कर इस वर्ष 333 करोड़ क्यों कर दिया गया। अरे ये भी कोई बात हुई भला! एक तो आप कोई ढंग का सुझाव नहीं देंगे ऊपर से बकवास करेंगे।

 

अब समय आ गया है कि हम केवल offensive/counter offensive न होकर ‘Subversive measures’ को अपनाएं। इंटेलिजेंस प्रणाली में बड़े फेरबदल की आवश्यकता है। हमें ऐसे अधिकारी चाहिये जो कश्मीर की आबो हवा में घुल मिल जाएँ और वहाँ के नागरिकों के अंदर की मज़हबी कट्टरता को dilute, manipulate और अंततः subvert करने का कार्य करें। कोई संस्था वहाँ जमीन लेकर प्रवचन देने के लिए आश्रम तो बना नहीं सकती। इसलिए ये काम इंटेलिजेंस एजेंसियां ही कर सकती हैं। सबसे पहले तो आप अपने बजट में वृद्धि कीजिए। थिंक टैंक FINS की वेबसाइट के अनुसार आंतरिक सुरक्षा के लिए वर्ष 2016-17 में इंटेलिजेंस ब्यूरो का बजट मात्र 1410.45 करोड़ रूपये है। महत्वाकांक्षी परियोजना नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड बनाने के लिए मात्र 45 करोड़ दिए गए हैं। ऐसे तो काम नहीं चलेगा न साहब! दूसरा यह कीजिए कि कश्मीर पर फोकस कर एक अलग कैडर बना कर कम से कम 5 साल इंटेलिजेंस अधिकारियों की भर्ती सीधा राष्ट्रीय रक्षा अकादेमी (NDA) से कीजिए। बीस इक्कीस वर्ष के युवा कैडेट को इंटेलिजेंस का गहन प्रशिक्षण दीजिये। स्वयं अजित डोभाल साहब ने कई जगह isolated cases में आतंकियों को dilute किया है। हमें बस ऐसे अधिकारियों की फ़ौज खड़ी करनी है, उनकी संख्या बढ़ानी है। स्मरण रहे सन् 65 में कश्मीर radicalize नहीं हुआ था इसीलिए पाकिस्तान को परम्परागत युद्ध लड़ना पड़ा था वरना उस समय वो वही करना चाहता था जो आज कर रहा है। इतिहास गवाह है कि रूस, अमरीका और ब्रिटेन में एक जमाने में 25-26 साल के जवान इंटेलिजेंस अधिकारी भर्ती नहीं किये जाते थे बल्कि किशोरावस्था से ही गढ़े जाते थे।

✍🏻यशार्क पांडेय जी की पोस्टों से संग्रहित♦