कल्याणकारी पत्रकारिता के सर्वोत्तम आदर्श – ‘देवर्षि नारद’

कल्याणकारी पत्रकारिता के सर्वोत्तम आदर्श- देवर्षि नारद’

*प्रकाश दिवस ज्येष्ठ कृष्ण द्वितीय*
(09 मई 2020 , देवर्षि नारद जयंती पर विशेष)

भले ही नारद देवर्षि थे लेकिन वे केवल देवताओं के पक्ष में नहीं हैं। वे प्राणी मात्र की चिंता करते हैं। देवताओं की तरफ से भी कभी अन्याय होता दिखता तो राक्षसों को भी आगाह करते हैं।

देवता होने के बाद भी नारद बड़ी चतुराई से देवताओं की गतिविधियों पर कटाक्ष करते हैं, आज की पत्रकारिता में इसकी बहुत आवश्यकता है।

पत्रकारिता की चार प्रमुख भूमिकाएं हैं-
सूचना देना,
शिक्षित करना और
सत्य या मित्था को इंगित करना।

और आवश्यक दिशानिर्देश को प्रकट करना 

मोहनदास कर्मचन्द गांधी ने हिन्द स्वराज में पत्रकारिता की इन भूमिकाओं को विस्तार से दिया गया, लोगों की भावनाएं जानना और उन्हें जाहिर करना, लोगों में जरूरी भावनाएं पैदा करना, यदि लोगों में दोष है तो किसी भी कीमत पर बेधड़क होकर उनको दिखाना।

भारतीय परम्पराओं में भरोसा करनेवाले विद्वान मानते हैं कि देवर्षि नारद की पत्रकारिता शैली ऐसी ही है, जिससे कोई सूचना प्रदाता अछूता नहीं रह सकता है। देवर्षि नारद सम्पूर्ण और आदर्श पत्रकारिता के संवाहक थे। वे महज सूचनाएं देने का ही कार्य नहीं बल्कि सार्थक संवाद का सृजन करते हैं।

देवताओं, दानवों और मनुष्यों, सबकी भावनाएं जानने का उपक्रम किया करते। जिन भावनाओं से लोकमंगल होता हो, ऐसी ही भावनाओं को जगजाहिर करते हैं ।

इससे भी आगे बढ़कर देवर्षि नारद घोर उदासीन वातावरण में भी लोगों को सद्कार्य के लिए उत्प्रेरित करनेवाली भावनाएं जागृत करने का अनूठा कार्य करते हैं ।

श्री माखनलाल चतुर्वेदी के उपन्यास ‘कृष्णार्जुन युद्ध’ को पढऩे पर भान होता है कि किसी निर्दोष के खिलाफ अन्याय हो रहा हो तो फिर वे अपने आराध्य भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण और उनके प्रिय अर्जुन के बीच भी युद्ध की स्थिति निर्मित कराने से नहीं चूकते।

उनके इस प्रयास से एक निर्दोष यक्ष के प्राण बच गए। यानी पत्रकारिता के सबसे बड़े धर्म और साहसिक कार्य, किसी भी कीमत पर समाज को सच के दर्शन कराने से वे भी पीछे नहीं हटते, सच का साथ अपने आराध्य के विरुद्ध जाकर भी देते हैं । ऐसे निर्भीक और तटस्थ संवाददाता नारद ही हो सकते हैं। यही सच्ची पत्रकारिता, निष्पक्ष पत्रकारिता, किसी के दबाव या प्रभाव में न आकर अपनी बात रखना कोई भगवान नारद मुनि से सीखे।

दुर्भाग्य से हमारे मनोरंजन उद्योग ने अपनी फिल्मों और नाटकों के माध्यम से एक एजेंडे के तहत नारद मुनि को विदूषक के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया उन्हें हंसी ठट्टा का पात्र बनाया, यहां तक कि उन्हें एक मूर्खतापूर्ण कलहप्रिय पात्र के रूप में दर्शाया परन्तु कभी ये जाहिर नहीं होने दिया कि देवर्षि नारद जी का प्रत्येक संवाद लोककल्याण एवं धर्माचरण की स्थापना के लिए था और इसी के लिए वे सभी लोकों में विचरण करते रहते हैं।

उनसे जुड़े सभी प्रसंगों के अंत में शांति, सत्य और धर्म की स्थापना का जिक्र आता है। स्वयं के सुख और आनंद के लिए वे सूचनाओं का आदान-प्रदान नहीं करते थे, बल्कि वे तो प्राणिमात्र के आनंद का ध्यान रखते हैं।

भारतीय परम्पराओं में भरोसा नहीं करनेवाले ‘बुद्धिजीवी’ भले ही देवर्षि नारद को प्रथम पत्रकार, संवाददाता या संचारक न मानें। लेकिन, पथ से भटक गई भारतीय पत्रकारिता के लिए आज नारद ही सही मायने में आदर्श हो सकते हैं।

भारतीय पत्रकारिता और पत्रकारों को अपने आदर्श के रूप में नारद को देखना चाहिए, उनसे मार्गदर्शन लेना चाहिए। मिशन से प्रोफेशन बनने पर पत्रकारिता को इतना नुकसान नहीं हुआ था जितना कॉरपोरेट कल्चर के आने से हुआ है। पश्चिम की पत्रकारिता का असर भी भारतीय मीडिया पर चढऩे के कारण समस्याएं आई हैं।

हमें याद रखना चाहिए कि स्वतंत्रता आंदोलन में जिस पत्रकारिता ने ‘एक स्वतंत्रता सेनानी’ की भूमिका निभाई थी, ऐसा ही उत्तराखंड राज्य आंदोलन के समय अभी पत्रकारों ने एक आंदोलनकारी की भूमिका भी साथ साथ निभाई थी। 

अब तो संपादक प्रबंधक हो गए हैं। उनसे लेखनी छीनकर, लॉबिंग की जिम्मेदारी पकड़ा दी गई है। आज कितने संपादक और प्रधान संपादक हैं जो नियमित लेखन कार्य कर रहे हैं? कितने संपादक हैं, जिनकी लेखनी की धमक है? कितने संपादक हैं, जिन्हें समाज में मान्यता है? अब तो ‘जो हुक्म सरकारी, वही पकेगी तरकारी’ की कहावत को पत्रकारों ने जीवन में उतार लिया है। मालिक जो हुक्म संपादकों को देता है, संपादक उसे अपनी टीम तक पहुंचा देता है। एक तयशुदा ढांचे में पत्रकार अपनी लेखनी चलाता है। इसीलिए सरकार के मार्गदर्शक  पत्रकारों का अभाव हो गया है। आज ‘खबरें, खबरें कम विज्ञापन अधिक हैं। ‘लक्षित समूहों’ को ध्यान में रखकर खबरें लिखी और रची जा रही हैं। आम आदमी के लिए अखबारों और टीवी चैनल्स पर कहीं जगह का अभाव है। आज किसानों की आत्महत्या’ के कारणों को खबरों की सुर्खियों में जगह मिलना नामुमकिन है। भारत में कोई पत्रकार जनसंख्या विस्फोट पर चिंतित नहीं दिखता और प्राचीन भारतीय संस्कृति पर लिखने की जहमत नहीं उठा पाता। 

जबकि भारतीय पत्रकारिता की चिंता होना चाहिए- अंतिम व्यक्ति जिसकी आवाज दूर तक नहीं जा पाती, उस आवाज को अभिव्यक्ति देना पत्रकारिता का धर्म होना चाहिए, जो सिद्धांत रूप में तो है लेकिन व्यवहार में कम ही दिखता है। 

पत्रकारिता के आसपास अविश्वसनीयता का धुंध गहराता जा रहा है। पत्रकारिता की इस स्थिति के लिए मात्र कॉरपोरेट कल्चर ही दोषी नहीं, बल्कि पत्रकार बंधु भी कहीं न कहीं दोषी हैं।

जिस उमंग के साथ वे पत्रकारिता में आए थे,उसे उन्होंने खो दिया। ‘समाज के लिए कुछ अलग’ और ‘कुछ अच्छा’ करने की इच्छा के साथ पत्रकारिता में आए युवा ने भी समय के साथ सामंजस्य बैठा लिया है।

लेकिन भारतीय पत्रकारिता की स्थिति पूरी तरह खराब भी नहीं हैं। बहुत-से संपादक-पत्रकार आज भी सिद्धांत और पत्रकारिता धर्म के पक्के हैं। उनकी पत्रकारिता पारदर्शी है। उनकी कलम बिकी और झुकी नहीं है। वे देश और समाज के लिए लिखते हैं संघर्ष करते हैं, उनकी लेखनी आम आदमी के लिए है। लेकिन, यह भी कड़वा सच है कि ऐसे ‘नारद पत्रकारों’ की संख्या अति न्यून है। यह संख्या बढ़ सकती है, क्योंकि सब अपनी इच्छा से बेईमान नहीं हैं। सबने अपने मन से अपनी कलम की धार को कुंद नहीं किया है। सबके मन में अब भी ‘कुछ’ करने का माद्दा है। वे आम आदमी, समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए लिखना चाहते हैं लेकिन राह नहीं मिल रही है।

ऐसी स्थिति में देवर्षि नारद उनके आदर्श हो सकते हैं। आज की पत्रकारिता और पत्रकार नारद से सीख सकते हैं कि तमाम विपरीत परिस्थितियां होने के बाद भी कैसे प्रभावी ढंग से लोक कल्याण की बात कही जाए। पत्रकारिता का एक धर्म है-*निष्पक्षता*।

आपकी लेखनी तब ही प्रभावी हो सकती है जब आप निष्पक्ष होकर पत्रकारिता करें। पत्रकारिता में आप पक्ष नहीं बन सकते। हां, पक्ष बन सकते हो लेकिन केवल सत्य का पक्ष।

      नारद घटनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं, प्रत्येक घटना को भूत वर्तमान और भविष्य के आलोचना में देखते हैं, इसके बाद निष्कर्ष निकाल कर सत्य की स्थापना के लिए संवाद सृजन करते हैं।

आज की पत्रकारिता में इसकी बहुत आवश्यकता है। जल्दबाजी में घटना का सम्पूर्ण विश्लेषण न करने के कारण गलत समाचार जनता में चला जाता है। बाद में या तो खण्डन प्रकाशित करना पड़ता है या फिर जबरन गलत बात को सत्य सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। आज के पत्रकारों को इस जल्दबाजी से ऊपर उठना होगा।

कॉपी-पेस्ट कर्म से बचना होगा। जब तक घटना की सत्यता और सम्पूर्ण सत्य प्राप्त न हो जाए, तब तक समाचार बहुत सावधानी से बनाया जाना चाहिए। कहते हैं कि देवर्षि नारद एक जगह टिकते नहीं थे। वे सब लोकों में निरंतर भ्रमण पर रहते थे।

आज के पत्रकारों में एक बड़ा दुर्गुण आ गया है, वे अपनी ‘बीट’ में लगातार संपर्क नहीं करते हैं। आज पत्रकार ऑफिस में बैठकर, फोन पर ही खबर प्राप्त कर लेता है। इस तरह की टेबल न्यूज अक्सर पत्रकार की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न खड़ा करवा देती हैं।

नारद की तरह पत्रकार के पांव में भी चक्कर होना चाहिए। सकारात्मक और सृजनात्मक पत्रकारिता के पुरोधा देवर्षि नारद को आज की मीडिया अपना आदर्श मान ले और उनसे प्रेरणा ले तो अनेक विपरीत परिस्थितियों के बाद भी श्रेष्ठ पत्रकारिता संभव है।

आदिपत्रकार देवर्षि नारद ऐसी पत्रकारिता की राह दिखाते हैं, जिसमें समाज के सभी वर्गों का कल्याण निहित है।
(लोकेंद्र सिंह जी से प्रेरित, लेखक युवा साहित्यकार हैं तथा माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में पदस्थ हैं) 

*विधाता की अदालत में,*
*वक़ालत बड़ी प्यारी है…*

*ख़ामोश रहिये, कर्म कीजिए,*
*सबका मुकदमा ज़ारी है..*