पहले पांच सौ वर्ष बाद राम मंदिर और अब आठ सौ वर्ष बाद नालंदा विश्वविद्यालय हुआ पुनर्स्थापित – भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किया लोकार्पण

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार 19 जून 2024 को नालंदा विश्वविद्यालय के नए परिसर का उद्घाटन व लोकार्पण किया। उन्होंने 15 मिनट तक 1600 वर्ष प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहर का परिभ्रमण भी किया। इसके उपरांत प्रधानमंत्री ने नालंदा विश्वविद्यालय के नए स्वरूप को देश को समर्पित किया। इस मध्य उनके साथ विदेश मंत्री एस जयशंकर, बिहार के राज्यपाल राजेंद्र विश्वनाथ आर्लेकर, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी विद्यमान रहे। इस ऐतिहासिक अवसर पर कई देशों के राजदूत, केंद्र और राज्य सरकार के कई मंत्री भी नालंदा पहुंचे।

ऐतिहासिक नालंदा महाविहार से 20 किलोमीटर से भी कम दूरी पर प्राचीन मगध के शिक्षा केंद्र को पुनर्जीवित करने का निर्णय महत्वपूर्ण है। लगभग 800 वर्ष पहले शिक्षा ज्ञान संस्कार का केन्द्र बिहार का नालंदा विश्व विधालय था उसको आततायी आक्रांता  बख्तियार खिलजी ने ध्वस्त कर दिया गया था ताकी हिन्दुस्तान आगे नहीं बढ़े और शिक्षा ज्ञान से पिछड़ जाए।” 6 0 वर्ष कांग्रेस व उनके सहयोगी बाम दलों ने राज किया लेकिन कभी इस पर ध्यान नहीं दिया, कारण वे नहीं चाहते कि देश का प्राचीन गौरव लौटे और देश आगे बढ़े शिक्षित हो इसलिए मनरोगा जैसी गड्ढे खोदने की योजना पर अरबों रुपए  व्यय भी हुए लेकिन गरीबी जस की तस रही और भारत अपने लुटे हुए इतिहास पर आंसू बहाता रहा।60 वर्ष मे जो नहीं हुआ वो भारत माता के सच्चे सपूत मोदी सरकार ने 10 वर्ष में करके दिखा दिया। बख्तियारपुर जंक्शन” का नाम बदलकर “नालंदा जंक्शन” करने में तो कोई बुराई नहीं होनी चाहिए! अपनी ऐतिहासिक पहचान के लिए इसका नाम बदलना आवश्यक है। राम मंदिर की जगह स्कूल मांगने वालों के लिए पूरी युनिवर्सिटीज ही खोल दी है। 

 विश्वविद्यालय पुनर्जीवित करने के बाद अब तक स्नातक व स्नातकोत्तर छात्रों के लिए सात विभाग बनाए गए हैं। इसमें इकोनॉमिक्स एंड मैनेजमेंट, इन्फॉर्मेशन साइंस एंड टेक्नोलॉजी, लिंग्विस्टिक एंड लिटरेचर, इंटरनेशनल रिलेशन्स, पीस स्टडीज (शांति अध्ययन) एंड बुद्धिस्ट स्टडीज, फिलॉसफी एंड कंपेरेटिव रिलिजन, इकोलॉजी एंड एनवायर्नमेंट और हिस्टोरिकल स्टडीज शामिल हैं। इसके अलावा दो डिपार्टमेंट और इस अकादमिक सत्र से आरंभ होने वाले हैं।

UNESCO ने 15 जुलाई 2016 को नालंदा विश्वविद्यालय के पुरातात्विक अवशेष को वर्ल्ड हेरिटेज साइट यानी वैश्विक धरोहर स्थल का स्तर दिया था। विश्वविद्यालय स्वरूप को प्रसिद्ध वास्तुकार पद्म विभूषण स्वर्गीय बी.वी. दोशी ने तैयार किया है। इसके आधार स्वरूप को नेट जीरो यानी शून्य कार्बन उत्सर्जन वाले कैंपस के रूप में बनाया गया है।

बता दें कि 1190 में आक्रांता बख्तियार खिलजी ने भारतीय ज्ञान परम्परा मिटाने की वैमनस्यता से जलाकर राख कर दिया था।  नालंदा विश्वविद्यालय का परिसर इतना विशाल था कि कहा जाता है कि आतताइयों के आग लगाने के उपरांत परिसर तीन महीनों तक जलता ही रहा। यहां एक लाख विद्यार्थियों के लिए छ हजार आचार्य थे, आज दिखने वाली 23 हेक्टेयर परिक्षेत्र तो मूल विश्वविद्यालय परिसर का एक छोटा कोना भर है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में 500 वर्षों की प्रतीक्षा के उपरांत राम मंदिर बना अब आठ सौ वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा के उपरांत नालंदा विश्वविद्यालय पुनर्जीवित हुआ है। राम मंदिर की जगह स्कूल मांगने वालों के लिए पूरी युनिवर्सिटीज ही खोल दी है। 

नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त काल के समय हुई थी। यह प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय तीसरी से छठी शताब्दी के मध्य गुप्त काल में अस्तित्व में आया था। वर्ष 427 में सम्राट कुमार गुप्त ने इसकी स्थापना की थी। 13वीं शताब्दी यानी 800 से अधिक वर्षों तक यहां विश्वविद्यालय संचालित होता रहा। मगध काल में इस पर बौद्धों का आधिपत्य भी रहा तब ये बौद्ध धर्म का सबसे बड़ा शिक्षण केंद्र भी बना था। इससे पहले नालंदा विश्वविद्यालय में लगभग एक लाख  विद्यार्थी पढ़ते थे, जिनके लिए पांच हजार आचार्य हुआ करते थे। अखंड भारत के साथ ही एशियाई देशों जैसे चीन, कोरिया , जापान, भूटान से आने वाले छात्र भी होते थे। ये छात्र आयुर्वेद, तर्कशास्त्र, ज्योतिष विज्ञान, वैदिक गणित भूगोल कृषि आदि विषयों में अध्ययन करते थे।

चीन के विद्यार्थी ह्वेन त्सांग और जापानी यात्री फाईयान ने भी नालंदा विश्वविद्यालय में पढ़ाई की थी। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने 7वीं शताब्दी में नालंदा की यात्रा की थी। त्सांग ने 630 और 643 ईसवी के बीच पूरे भारत की यात्रा की। उन्होंने 637 और 642 ई. में नालंदा का भ्रमण और अध्ययन किया। बाद में त्सांग ने इस विश्वविद्यालय में एक विशेषज्ञ आचार्य के रूप में काम किया। यहीं उन्हें मोक्षदेव का भारतीय नाम मिला।

ह्वेत्सांग 645 ईसवी में चीन लौटे। भाषाई भिन्नता के कारण वे संस्कृत कम जान पाये। परन्तु वे अपने साथ नालंदा से छ सौ से अधिक प्राचीन संस्कृत एवं बौद्ध पुस्तकों को लेकर गए इनमें से कई ग्रंथों का उन्होंने चीनी भाषा में अनुवाद किया। जिसकी परिकल्पना और परिणामस्वरूप आज चीन तकनीकी क्षेत्र में संसार में अग्रणी है। वे बौद्ध मत के अनुयायी भी हैं अब चीन के लोग तेजी से हिन्दी भी सीख रहे हैं। वे संस्कृत में भी रूचि ले रहे हैं। ✍️डाॅ0 हरीश मैखुरी

इतिहास – तुर्की का सैन्य कमांडर बख्तियार खिलजी गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। सारे हकीम हार गए परंतु बीमारी का पता नहीं चल पाया। खिलजी दिनों दिन कमजोर पड़ता गया और उसने बिस्तर पकड़ लिया। उसे लगा कि अब उसके आखिरी दिन आ गए हैं।

एक दिन उससे मिलने आए एक बुज़ुर्ग ने सलाह दी कि दूर भारत के मगध साम्राज्य में अवस्थित नालंदा महाविद्यालय के एक ज्ञानी शीलभद्र को एक बार दिखा लें, वे आपको ठीक कर देंगे। खिलजी तैयार नहीं हुआ। उसने कहा कि मैं किसी काफ़िर के हाथ की दवा नहीं ले सकता हूँ, चाहे मर क्यों न जाऊं!!

मगर बीबी बच्चों की जिद के आगे झुक गया शीलभद्र जी तुर्की आए। खिलजी ने उनसे कहा कि दूर से ही देखो मुझे छूना मत क्योंकि तुम काफिर हो और दवा मैं लूंगा नहीं। शीलभद्र जी ने उसका चेहरा देखा, शरीर का मुआयना किया, बलगम से भरे बर्तन को देखा, सांसों के उतार चढ़ाव का अध्ययन किया और बाहर चले गए।

फिर लौटे और पूछा कि कुरान पढ़ते हैं?

खिलजी ने कहा दिन रात पढ़ते हैं!

पन्ने कैसे पलटते हैं?

उंगलियों से जीभ को छूकर सफे पलटते हैं!!

शीलभद्र जी ने खिलजी को एक कुरान भेंट किया और कहा कि आज से आप इसे पढ़ें और शीलभद्र जी वापस भारत लौट आए।

उधर दूसरे दिन से ही खिलजी की तबीयत ठीक होने लगी और एक हफ्ते में वह भला चंगा हो गया। दरअसल शीलभद्र जी ने कुरान के पन्नों पर दवा लगा दी थी जिसे उंगलियों से जीभ तक पढ़ने के दौरान पहुंचाने का अनोखा तरीका अपनाया गया था।

खिलजी अचंभित था मगर उससे भी ज्यादा ईर्ष्या और जलन से मरा जा रहा था कि आखिर एक काफिर ईमानवालों से ज्यादा काबिल कैसे हो गया?

अगले ही वर्ष 1192 में मोहम्मद गोरी उसने सेना तैयार की और जा पहुंचा नालंदा महाविद्यालय मगध क्षेत्र। पूरी दुनिया का सबसे बड़ा ज्ञान और विज्ञान का केंद्र। जहां 100000 छात्र और 6000 शिक्षक पूरे विश्वविद्यालय परिसर में रहते थे। जहां एक तीन मंजिला इमारत में विशालकाय पुस्तकालय था, जिसमें एक करोड़ पुस्तकें, पांडुलिपियां एवं ग्रंथ थे।

खिलजी जब वहां पहूँचा तो शिक्षक और छात्र उसके स्वागत में बाहर आए, क्योंकि उन्हें लगा कि वह कृतज्ञता व्यक्त करने आया है।

खिलजी ने उन्हें देखा और मुस्कुराया और तलवार से भिक्षु श्रेष्ठ की गर्दन काट दी (क्योंकि वह पूरी तैयारी के साथ आया था)। फिर हजारों छात्र और शिक्षक गाजर मूली की तरह काट डाले गए (क्योंकि कि वह सब अचानक हुए हमले से अनभिज्ञ थे)। खिलजी ने फिर ज्ञान विज्ञान के केंद्र पुस्तकालय में आग लगा दी। कहा जाता है कि पूरे तीन महीने तक पुस्तकें जलती रहीं।

खिलजी चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था कि तुम काफिरों की हिम्मत कैसे हुई इतनी पुस्तकें पांडुलिपियां इकट्ठा करने की? बस एक दीन रहेगा धरती पर बाकी सब को नष्ट कर दूंगा।

पूरे नालंदा को तहस नहस कर जब वह लौटा तो रास्ते में विक्रम शिला विश्वविद्यालय को भी जलाते हुए लौटा। मगध क्षेत्र के बाहर बंगाल में वह रूक गया और वहां खिलजी साम्राज्य की स्थापना की।

जब वह लद्दाख क्षेत्र होते हुए तिब्बत पर आक्रमण करने की योजना बना रहा था तभी एक रात उसके एक कमांडर ने उसकी निद्रा में हत्या कर दी। आज भी बंगाल के पश्चिमी दिनाजपुर में उसकी कब्र है जहां उसे दफनाया गया था।

और सबसे आश्चर्यजनक बात है कि उसी दुर्दांत हत्यारे के नाम पर बिहार में बख्तियारपुर नामक जगह है जहां रेलवे जंक्शन भी है जहां से नालंदा की ट्रेन जाती है।

यह था एक भारतीय चिकित्सा पद्धति का उदाहरण कि शीलभद्र जैसे आयुर्वेदिक चिकित्सा मर्मज्ञ जिन्होंने तुर्की तक जाकर तथा दुत्कारे जाने के पश्चात भी एक शत्रु की प्राण रक्षा अपने चिकित्सकीय ज्ञान व बुद्धि कौशल से की।

बदले में क्या मिला?

शांतिप्रिय समुदाय की एहसान फरामोशी, प्राण, समाज व संस्कृति पर घात! विडम्बना देखिये हम आज भी उस क्रूर विदेशी आक्रांता के नाम पर बसाये गये शहर का नाम तक नहीं बदल सके। उल्टे मुगल प्रेमी कांग्रेस ने रेलवे स्टेशन का नाम भी आक्रांता बख्तियार के नाम पर रखा हुआ है। भारत की ऐतिहासिक पहचान के लिए इनका नाम भी नालंदा किया जाना आवश्यक है !“राष्ट्रहित सर्वोपरि”