क्या वो नशे में था ……..
सतीश लखेड़ा
उसका मन और शरीर एक साथ व्यवहार नहीं कर रहा था। वह बार-बार एक ही पंक्ति को दुहरा रहा था, फिर अचानक किसी और विषय पर आ जाता था, फिर भूल जाता था।अपना ही सन्नाटा तोड़ते हुए कोई नई पंक्ति बोलता। क्या बोलना चाह रहा था उसे खुद पता नहीं था। शुरू में सुनने वाले गंभीरता से उसकी बातों के निहितार्थ जानने की कोशिश कर रहे थे फिर थकहार कर उसकी हरकतों का आनन्द लेने लगे थे। अच्छा खासा नौजवान मनोरंजन का माध्यम बन चुका था। भीड़ सहानुभूति और पीड़ा के साथ यह सब देख रही थी।
पक्का वो नशे में था। नशा किस श्रेणी का किया था यह तो पता नहीं है। मगर नशा किस हद तक लत में बदल जाता है और वह लत ‘घर’ के लिए कितनी हानिकारक हो जाती है, पता चल रहा था कि उसका घर कितनी वेदना से गुजर रहा होगा। घरवाले इस नवासे को लेकर जरूर चिंतित होंगे, उसके सामान्य होने तथा मुख्यधारा में लौटाने कोशिश कर रहे होंगे।
उसके शरीर के हाव भाव अनियंत्रित थे, झूम-झूम कर गर्दन-हाथ घुमा रहा था। उसकी भाव-भंगिमाएं, उसके शब्दों का आरोह-अवरोह, उसकी आंखों की पुतलियों का फैलना -सिकुड़ना, अचानक खो जाना, झूमना, घूमना, पप्पी-झप्पी, आंख मारना, गले पड़ना ( गले लगना ) और चिल्ला-चिल्ला कर अपना मजहब बताना जारी था। कई बार वह ‘बड़ों’ की भी नहीं सुन रहा था। घर के बड़े लोग भी मन ही मन दुखी होकर इस सारे नजारे को लाचार भीष्म पितामह की मुद्रा में देख रहे थे।