आज का पंचाग आपका राशि फल, आपको ‘मार्तंड सूर्य मंदिर’ के बारे में पता है?*

 🙏🕉️_*ना किसी को नाराज कर के जियो ,*_

_*ना किसी से नाराज होकर जियो….*_

_*जिंदगी बस कुछ पलों की हैं ,*_
_*सब को खुश रखों*_
_*और सब से खुश होकर जियो….!!!!*_

🙏 *जय श्री कृष्ण**🙏🏻
*प्रभात दर्शन -*

:- **कोई भी मनुष्य अपनी माता के पुण्य से सुशील होता है, पिता के पुण्य से चतुर होता है, वंश के पुण्य से उदार होता है और अपने स्वयं के पुण्य होते हैं तभी वह भाग्यवान् होता है।*
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🚩 *चैत्र-कृष्ण- १-२०७८* 🚩

🍁 *19 मार्च 2022* 🍁~~~~~~~~~~~~~~~~

दिन —– *शनिवार* 

तिथि : *प्रतिपदा* 11:37am तक फिर द्वितीया

नक्षत्र — *हस्त*

पक्ष —— *कृष्ण*

माह– — *चैत्र*

ऋतु ——– *बसंत*

योग………. *वृद्धि*

सूर्य उत्तरायणे, *दक्षिण गोले*  

विक्रम सम्वत — 2078 

दयानन्दाब्द — 198

वङ्गाब्द – 1428

शक सम्बत -. 1943

कलयुगाब्द,: 5123

मन्वन्तर —- वैवस्वत 

कल्प सम्वत–1972949122वां

मानव,वेदोत्पत्ति सृष्टिसम्वत- १९६०८५३१२२ वां

 

🌝सूर्योदय:दिल्ली 6:27am, लखनऊ : 6:12am,बरेली:6:18

 🌞सूर्यास्त:दिल्ली 6:32pm लखनऊ :6:17pm,बरेली: 6:23

 

🌹 *रूप~वाणी* : 

“चलो होली सो होली अब गिले सारे मिटाते हैं, पुरानी बात भूलो तुम और हम भी भुलाते हैं,न तुम इतने बुरे हो और न इतने बुरे हैं हम…,ज़िन्दगी के बचे दिन आओं मिलकर के बिताते हैं!

 

🍅 *पहला सुख निरोगी काया* 

*गन्ना*: नित्य गन्ने का रस पीने से स्वास्थ अच्छा रहता है…

 

 🌺 *आचार्य संजीव रूप* 

सरस वेदकथाकार,पुरोहित,कवि 

यज्ञतीर्थ- गुधनी-बदायूँ(उप्र)

9997386782 wu 9870989072

 

🏵 *हिन्दी संकल्प पाठ* 🏵

 

हे परमात्मन् आपको नमन!!आपकी कृपा से मैं आज एक यज्ञ कर्म को तत्पर हूँ, आज एक ब्रह्म दिवस के दूसरे प्रहर कि जिसमें वैवस्वत मन्वन्तर वर्तमान है,अट्ठाईसवीं चतुर्युगी का कलियुग वर्तमान है। वेदोत्पत्ति मानव उत्पत्ति सृष्टिसम्वत एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख तिरेपन हजार एक सौ वाईसवां है,कलियुगाब्द 5123, विक्रम सम्वत् दो हजार अठत्तर है,दयानन्दाब्द 198वां है, सूर्य उत्तर अयन में दक्षिण गोल में वर्तमान है ,कि ऋतु बसंत , मास *चैत्र* *कृष्ण* पक्ष ,तिथि –

*प्रतिपदा, नक्षत्र-हस्त,आज शनिवार* है, 19 मार्च 2022को भरतखण्ड के आर्यावर्त देश के अंतर्गत, ..प्रदेश के ….जनपद…के ..ग्राम/शहर…में स्थित (निज घर में,या आर्यसमाज मंदिर में) मैं …अमुक गोत्र में उत्पन्न, पितामह श्री ….(नाम लें ).के सुपुत्र श्री .(पिता का नाम लें)उनका पुत्र मैं …आज सुख ,शान्ति ,समृद्धि के लिए तथा आत्मकल्याण के लिए प्रातः वेला में यज्ञ का संकल्प लेता हूँ!(ऋत्विक वरण)- जिसके निर्देशक /ब्रह्मा के रूप में आप आचार्य….. श्री का वरण करता हूँ,

 

   🕉️ *संस्कृत संकल्प पाठ:*🕉

                   

ओं तत्सद्।श्री व्रह्मणो दिवसे द्वितीये प्रहरार्धे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे , एकोवृन्दः षण्णवतिकोटि: अष्टलक्षाणि त्रिपञ्चाशत्सहस्राणि द्वाविंशत्युत्तरशततमे सृष्टिसंवत्सरे, पञ्चशहस्राणि द्वाविशत्युत्तरशततमे कलियुगे, अष्टसप्ततति: उत्तर द्वी सहस्रे वैक्रमाब्दे , शाके १९४३ दयानन्दाब्द(अष्टनवती उत्तर शततमे) १९८ , रवि उत्तरायणे, दक्षिण गोले, *बसंत* ऋतौ, *चैत्र मास:,कृष्ण पक्षे तिथि प्रतिपदा- नक्षत्रम् , शनिवासरे ,तदनुसारम् आङ्गलाब्द २०२२ मार्च मासः , नवदशम् दिनांक:*।

जम्बूद्वीपे,

भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर् गते ………प्रदेशे ,……..जनपदे.. ..नगरे……गोत्रोत्पन्नः….श्रीमान्.(पितामह)….(पिता..).पुत्रस्य… अहम् .'(स्वयं का नाम)….अद्य प्रातः कालीन वेलायाम् सुख शान्ति समृद्वि हितार्थआत्मकल्याणार्थम् ,रोग -शोक निवारणार्थम् च यज्ञ कर्मकरणाय भवन्तम् वृणे/सम्पाद्यते।अद्यतनं दिनं सर्वेषां कृते मङ्गलमयं भूयात्!

🙏*🛕आपको ‘मार्तंड सूर्य मंदिर’ के बारे में पता है?*

अब जब कश्मीरी पंडितों के नरसंहार पर बनी फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ सुपरहिट हो रही है और इसी बहाने कश्मीर के सनातन इतिहास की बातें भी छिड़ रही हैं, तो इसमें मार्तंड सूर्य मंदिर की चर्चा ज़रूरी हो जाती है।
*पता है आपने इसको कहाँ देखा होगा?*
विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘हैदर (2014)’ में। नहीं, पूजा-पाठ या कोई अच्छी चीज नहीं, भारतीय इतिहास के इस गौरव का इस्तेमाल ‘Devil Dance (शैतान का नृत्य)’ के लिए किया गया है।

🛕जो था पूरे भारत का गौरव, उसे ‘हैदर’ ने बना दिया ‘शैतान की गुफा’: कश्मीर का मार्तंड सूर्य मंदिर, तोड़ने में लगे थे 1 साल*

*👉🏻विवेक अग्निहोत्री ने की ‘हैदर’ और मार्तंड सूर्य मंदिर में ‘डेविल डांस’ की चर्चा*
नई दिल्ली में ‘The Kashmir Files’ के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस ओर भी इशारा किया। उनसे जब पूछा गया कि पिछले 32 वर्षों में कश्मीर की सच्चाई दिखाने वाली कोई फिल्म क्यों नहीं बनी, जिसके जवाब में उन्होंने कहा कि ‘रोजा (1992)’ उनकी फेवरिट फिल्म है और उन्हें लगता है कि भारत में इतनी अच्छी फिल्म बनी ही नहीं। उन्होंने सवाल उठाया कि उसी पीरियड में सेट होने के बावजूद उसमें कहीं भी हिन्दू नरसंहार का कोई जिक्र तक नहीं है।

*👉🏻इसी तरह उन्होंने ‘फ़िज़ा (2000)’, ‘मिशन कश्मीर (2000)’ और ‘फना (2006)’ की भी बात की। हालाँकि, विधु विनोद चोपड़ा की ‘शिकारा (2020)’ की याद दिलाए जाने पर उन्होंने कहा कि वो ‘फिल्मों’ की बात कर रहे हैं। इसी क्रम में उन्होंने ‘हैदर’ नाम लेते हुए कहा कि ये अच्छी फिल्म है और लोग इसे पसंद भी करते हैं। लेकिन, नुकसान क्या है, इसके जवाब में उन्होंने बताया कि मार्तंड सूर्य मंदिर पर पूरा कश्मीर और हिंदुस्तान गर्व करता था उसे आतंकवादी दौर में तोड़े जाने से पहले केरल तक से हिन्दू दर्शन करने जाते थे।*

*👉🏻उन्होंने बताया, “हर वहाँ पर आदमी प्रार्थना या पूजा करने नहीं जाता था। नालंदा विश्वविद्यालय में सब कोई पढ़ने नहीं जाते थे। वो उस अभूतपूर्ण संरचना को देखने जाते थे। मार्तंड सूर्य मंदिर की जितनी शोभा और सम्मान पूरे विश्व में थी।*
*👉🏻मैं आपको एक पीड़ा भरी बात बताता हूँ। जिस मंदिर की कलाकृतियों और आध्यात्मिकता के लिए इतना सम्मान था, उसे आज कश्मीर में ‘शैतान की गुफा’ के नाम से जाना जाता है। मैं जब कश्मीरी लड़कों को फोन किया कि मुझे वहाँ शूटिंग करनी है, तो वो पूछने लगे कि ये आखिर है कहाँ?”*

*👉🏻विवेक अग्निहोत्री ने बताया कि जब उन्होंने उस मंदिर की लोकेशन ‘गूगल मैप’ के माध्यम से स्थानीय लोगों को भेजी और उन्हें इस मंदिर की तस्वीरें भेजी, तब उन्होंने कहा कि अच्छा आप ‘शैतान की गुफा’ के बारे में बात कर रहे हैं। उन्होंने याद दिलाया कि कैसे ‘ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा (2011)’ के कारण स्पेन का पर्यटन बढ़ गया था। फिल्मों की ताकत समझाते हुए उन्होंने कहा कि कश्मीर पर बनी एक भी फिल्म में कश्मीरी पंडितों के नरसंहार का जिक्र नहीं किया गया।*

*👉🏻हालाँकि, अनुपम खेर ने इसी बीच कहा कि वो पीठ पीछे फिल्म इंडस्ट्री के बारे में कोई बात नहीं कर सकते, क्योंकि जैसे आप सब (पत्रकारों की तरफ इशारा करते हुए) एक समूह में हैं और किसी की बुराई नहीं करते, वैसे ही हमलोग भी हैं। लेकिन, उन्होंने माना कि अब बदलाव आया है और इस तरह की फ़िल्में बन रही हैं। उन्होंने इस दौरान ये भी पूछा कि 60 वर्षों में अनुच्छेद-370 क्यों नहीं हट पाया, अब उसे हटाया गया है।*

*👉🏻कश्मीरी पंडितों ने 2014 में भी किया था ‘हैदर’ का विरोध, गाने पर जताई थी आपत्ति*
बता दें कि शाहिद कपूर के मुख्य किरदार वाली फिल्म ‘हैदर’ के गाने ‘बिस्मिल’ को मार्तंड सूर्य मंदिर में ही फिल्माया गया है। इसमें शाहिद कपूर डरावनी वेशभूषा में डांस करते हैं। फिल्म में उनका किरदार मुस्लिम होता है। साथ ही बैकग्राउंड में मंदिर में ही काले कपड़ों में ‘शैतान’ जैसी आकृति खड़ी दिखाई गई है। इस गाने में के के मेनन, तब्बू और श्रद्धा कपूर भी बैठे दिखाई देते हैं। इसे लेकर तब विरोध बी खूब हुआ था, लेकिन इसे दबा दिया गया था।

*🛕एक प्राचीन मंदिर को इस तरह गलत रूप में दिखाने के लिए कश्मीरी पंडितों ने ‘हैदर’ फिल्म को प्रतिबंधित करने की माँग की थी। वैसे किसी भी बॉलीवुड निर्देशक की हिम्मत नहीं है कि वो किसी मस्जिद में इस तरह का डांस दिखाए, वो भी किसी हिन्दू किरदार द्वारा। मार्तंड सूर्य मंदिर को ‘शैतान की गुफा’ के रूप में फिल्म में दिखाया गया था। ‘ऑल पार्टीज मीग्रेंट्स कोऑर्डिनेशन कमिटी (APMCC)’ के अध्यक्ष विनोद पंडित ने कहा था कि इससे न सिर्फ कश्मीरी पंडितों, बल्कि पूरे हिन्दू समाज की भावनाएँ आहत हुई हैं।_*

*🛕तब हुए विरोध प्रदर्शनों में CBFC (केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड) और ASI (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) के अलावा निर्देशक विशाल भारद्वाज के पोस्टर्स भी जलाए गए थे। इस मंदिर को 1700 वर्ष पुराना बताते हुए कश्मीरी पंडितों ने कहा था कि 2 अक्टूबर, 2009 को यहाँ वर्षों बाद हवन हुआ था और इसे अब ‘शैतान की गुफा’ बताना इसका अपमान है। भारत के गिने-चुने सूर्य मंदिरों में से ये एक है। ओडिशा के कोणार्क और गुजरात के मोढेरा दो अन्य बड़े सूर्य मंदिर हैं।*

*🛕मार्तंड सूर्य मंदिर: सिकंदर शाह मीरी ने इसे कर दिया था ध्वस्त*
बताया जाता है कि मार्तंड सूर्य मंदिर की स्थापना कश्मीर के महान राजा ललितादित्य मुक्तिपीड ने की थी। इस मंदिर की संरचना आठवीं शताब्दी की थी, लेकिन इससे कई सौ वर्षों पूर्व से ये यहाँ पर है। इस मंदिर में कुंड भी हैं। अभी इसकी हालत जर्जर है, लेकिन कभी ये पूरे कश्मीर की शान था। इसके आसपास दर्जनों छोटे-छोटे मंदिरों के अवशेष हैं। वर्षों इसमें तोड़फोड़ हुई, लेकिन अभी भी बहुत कुछ बचा है। सुल्तान सिकंदर शाह मीरी ने इसे ध्वस्त किया था और इसमें उसे महीनों लगे थे।

*🛕ये मंदिर अनंतनाग से 9 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। ASI ने मंदिर के जीर्णोद्धार के नाम पर कुछ पेड़-पौधे रूप कर इतिश्री कर ली। इस मंदिर की महत्ता मराठी साहित्य ‘मार्तंड महात्मय’ में भी मिलती है। सिकंदर शाह मीरी ने सैफुद्दीन के साथ मिल कर कश्मीर से हिन्दुओं और उनके सभी प्रतीकों को मिटाने की साजिश रची। वहाँ के प्राचीन मुस्लिम इतिहासकारों ने ही लिखा है कि हिन्दू राजाओं द्वारा बनवाए गए कई मंदिर कश्मीर में दुनिया के आश्चर्य हुआ करते थे।*

*👹सिकंदर शाह मीरी ने उनमें से कई मंदिरों को ध्वस्त कर के उन्हीं ईंट-पत्थरों का इस्तेमाल कर मस्जिदें बनवाई। कहा जाता है कि पूरे एक साल तक उसने मार्तंड सूर्य मंदिर को ध्वस्त करने की कोशिश की, लेकिन असफल रहा। इसके बाद उसने इसकी जड़ों को खोदना शुरू किया और उनमें से पत्थर निकाल कर लकड़ियाँ भर देता था। इसके बाद उन लकड़ियों में वो आग लगवा देता था। इस तरह उसने मार्तंड सूर्य मंदिर को ध्वस्त कर डाला। फिर उसने कई अन्य मंदिरों के भी नामोंनिशान मिटा दिए गए।।

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*कश्मीर का सुर्य मंदिर*

मार्तंड मंदिर कश्मीर के दक्षिणी भाग में अनंतनाग से पहलगाम के रास्ते में मार्तण्ड (वर्तमान बिगड़ कर बने मातन) नामक स्थान पर है। इस मंदिर में एक बड़ा सरोवर भी है, जिसमें मछलियां हैं। इसकी संभावित निर्माण तिथि ४९०-५५५ ई. रही होगी। निर्माण इसे कारकोटा राजवंश के शासक ललितादित्य ने आठवी शताब्दी में बनवाया था इस मंदिर पर गांधार चाइनीस और गुप्ता शैली का प्रभाव है

पहलगाम (शाब्दिक अर्थ = चरवाहों का ग्राम य गाँव) जम्मू और कश्मीर के अनन्तनाग जिले का एक नगर और अधिसूचित क्षेत्र है। एक एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल और पर्वतीय स्थल है। साथ ही अमरनाथ यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव भी है। विश्व भर से हजारों पर्यटक प्रति वर्ष यहाँ आते हैं। यह अनन्तनाग से ४५ किमी की दूरी पर लिद्दर नदी के किनारे स्थित है। इसकी ऊँचाई २२०० मीटर है। पहलगाम, अननतनाग के पाँच तहसीलों में से एक का मुख्यालय भी है।

पहलगम अपने शंकुधारी वनों के लिए प्रसिद्ध है। यह श्रीनगर से 95 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और घने जंगलों, खूबसूरत झीलों और फूलों के घास के मैदानों से घिरा हुआ है।

घूमने का सबसे अच्छा समय : जून से अक्टूबर, दिसम्बर और जनवरी बर्फ के लिए
पहलगाम में करने के लिए कर्य : बेताब और अरु घाटियों की यात्रा, घुड़सवारी, कैनोइंग

अनन्तनाग जम्मू कश्मीर प्रान्त का एक शहर है। यह कश्मीर घाटी का एक बड़ा व्यापारीक केंद्र है। अमरनाथ मंदिर अनंतनाग में स्थित है।

कश्मीर (कश्मीरी : کٔشیٖر‎ (नस्तालीक़), कऺशीर) जम्मू – कश्मीर का उत्तरी भौगोलिक क्षेत्र है। कश्मीर एक मुस्लिमबहुल क्षेत्र है। 1846 में, पहले एंग्लो-सिख युद्ध में सिख की हार के बाद, और अमृतसर की सन्धि के तहत ब्रिटिश से क्षेत्र की खरीद पर, जम्मू के राजा, गुलाब सिंह, कश्मीर के नए शासक बने। उनके वंशजों का शासन, ब्रिटिश क्राउन की सर्वोपरि (अधिराजस्व) के तहत हुआ जो 1947 में भारत के विभाजन तक चला। ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की पूर्व रियासत अब एक विवादित क्षेत्र बन गया, जिसे तब तीन देशों द्वारा प्रशासित किया जाता था: भारत, पाकिस्तान और चीन।

निलामाता पुराण घाटी के जल से उत्पत्ति का वर्णन करता है, एक प्रमुख भू-भूवैज्ञानिकों द्वारा पुष्टि की गई तथ्य, और यह दर्शाता है कि जमीन का नाम कितना desiccation की प्रक्रिया से लिया गया था – का का मतलब है “पानी” और शमीर का मतलब है “desiccate”। इसलिए, कश्मीर “पानी से निकलने वाला देश” के लिए खड़ा है एक सिद्धान्त भी है जो कश्मीर को कश्यप-मीरा या कश्यमिरम या कश्यममरू, “कश्यप के समुद्र या पर्वत” का संकुचन लेता है, ऋषि जो प्राच्य झील सट्सार के पानी से निकलने के लिए श्रेय दिया जाता है, कि कश्मीर से पहले इसे पुनः प्राप्त किया गया था। निलामाता पुराण काश्मीरा (कश्मीर घाटी में वालर झील मीरा “का नाम देता है जिसका अर्थ है कि समुद्र झील या ऋषि कश्यप का पहाड़।” संस्कृत में ‘मीरा’ का अर्थ है महासागर या सीमा, इसे उमा के अवतार के रूप में मानते हुए और यह कश्मीर है जिसे आज विश्व को पता है। हालाँकि, कश्मीरियों ने इसे ‘काशीर’ कहते हैं, जो कश्मीर से ध्वन्यात्मक रूप से प्राप्त हुए हैं। प्राचीन यूनानियों ने इसे ‘ कश्पापा-पुर्का, जो कि हेकाटेयस के कस्पेरियोस (बायज़ांटियम के एपड स्टेफेनस) और हेरोडोटस के कस्तुतिरोस (3.102, 4.44) से पहचाने गए हैं। कश्मीर भी टॉलेमी के कस्पीरीया के द्वारा देश माना जाता है। कश्मीरी वर्तमान-कश्मीर की एक प्राचीन वर्तनी है, और कुछ देशों में यह अभी भी इस तरह की वर्तनी है। सेमीट जनजाति का एक गोत्र ‘काश’ (जिसका अर्थ है देशी में एक गहरा स्लेश माना जाता है कि यह कशान और कशगर के शहरों की स्थापना कर रहा है, कश्यपी जनजाति से कैस्पियन से भ्रमित नहीं होना चाहिए। भूमि और लोगों को ‘काशीर’ के नाम से जाना जाता था, जिसमें से ‘कश्मीर’ भी उसमें से प्राप्त किया गया था। इसे प्राचीन ग्रीस के प्राचीन ग्रीक कास्पीरिया कहा जाता है शास्त्रीय साहित्य में हेरोडोटस इसे “कस्पातिरोल” कहते हैं [4] जुआनज़ांग, चीन – चीनी भिक्षु ने 631 एडी को कश्मीर का दौरा किया यह क्या-शि-मी-लो तिब्बत एह ने इसे खाचा कहा, जिसका अर्थ है “बर्फ वाई पहाड़” [5] यह है और नदी, झील और वन्य फ्लावर एस की भूमि रही है। झेलम नदी घाटी की पूरी लम्बाई चलाती है

मार्तण्ड मंदिर (सूरज मंदिर)
बुर्ज़होम पुरातात्विक स्थल (श्रीनगर के उत्तरपश्चिम में 16 किलोमीटर (9.9 मील) स्थित) में पुरातात्विक उत्खनन[6] ने 3,000 ईसा पूर्व और 1,000 ईसा पूर्व के बीच सांस्कृतिक महत्त्व के चार चरणों का खुलासा किया है।[7] अवधि I और II नवपाषाण युग का प्रतिनिधित्व करते हैं; अवधि ईएलआई मेगालिथिक युग (बड़े पैमाने पर पत्थर के मेन्शर और पहिया लाल मिट्टी के बर्तनों में बदल गया); और अवधि IV प्रारंभिक ऐतिहासिक अवधि (उत्तर-महापाषाण काल) से संबंधित है। प्राचीनकाल में कश्मीर हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना रहा है। माना जाता है कि यहाँ पर भगवान शिव की पत्नी देवी सती रहा करती थीं और उस समय ये वादी पूरी पानी से ढकी हुई थी। यहाँ एक राक्षस नाग भी रहता था, जिसे वैदिक ऋषि कश्यप और देवी सती ने मिलकर हरा दिया और ज़्यादातर पानी वितस्ता (झेलम) नदी के रास्ते बहा दिया। इस तरह इस जगह का नाम सतीसर से कश्मीर पड़ा। इससे अधिक तर्कसंगत प्रसंग यह है कि इसका वास्तविक नाम कश्यपमर (अथवा कछुओं की झील) था। इसी से कश्मीर नाम निकला।

कश्मीर का अच्छा-ख़ासा इतिहास कल्हण के ग्रन्थ राजतरंगिणी से (और बाद के अन्य लेखकों से) मिलता है। प्राचीन काल में यहाँ हिन्दू आर्य राजाओं का राज था।

मौर्य सम्राट अशोक और कुषाण सम्राट कनिष्क के समय कश्मीर बौद्ध धर्म और संस्कृति का मुख्य केन्द्र बन गया। पूर्व-मध्ययुग में यहाँ के चक्रवर्ती सम्राट ललितादित्य ने एक विशाल साम्राज्य क़ायम कर लिया था। कश्मीर संस्कृत विद्या का विख्यात केन्द्र रहा।[8]

कश्मीर शैवदर्शन भी यहीं पैदा हुआ और पनपा। यहाँ के महान मनीषीयों में पतञ्जलि, दृढबल, वसुगुप्त, आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, कल्हण, क्षेमराज आदि हैं। यह धारणा है कि विष्णुधर्मोत्तर पुराण एवं योग वासिष्ठ यहीं लिखे गये।

1947 और 1948

रणबीर सिंह के पोते महाराज हरि सिंह, जो 1925 में कश्मीर के सिंहासन पर चढ़े थे, 1947 में उपमहाद्वीप के ब्रिटिश शासन और ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के बाद के नए स्वतन्त्र डोमिनियन ऑफ़ इण्डिया और डोमिनियन के पाकिस्तान विभाजन के बाद राज करने वाले सम्राट थे। 1948 के अन्तिम दिनों में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में युद्ध विराम पर सहमति बनी। हालाँकि, जब से संयुक्त राष्ट्र द्वारा जनमत संग्रह की माँग की गई, भारत और पाकिस्तान के बीच सम्बन्धों में खटास नहीं आई, [73] और अन्ततः 1965 और 1999 में कश्मीर पर दो और युद्ध हुए।

भारत के पास जम्मू और कश्मीर की पूर्व रियासत के लगभग आधे क्षेत्र पर नियन्त्रण है, जिसमें जम्मू और कश्मीर और लद्दाख शामिल हैं, जबकि पाकिस्तान एक तिहाई क्षेत्र को नियन्त्रित करता है, जो दो वास्तविक प्रान्तों, आज़ाद कश्मीर और गिलगित-बल्तिस्तान में विभाजित है।[9] पहले ही राज्य, जम्मू और कश्मीर और लद्दाख के कुछ हिस्सों को भारत द्वारा 5 अगस्त 2019 से केन्द्र शासित प्रदेशों के रूप में प्रशासित किया जाता है, राज्य की सीमित स्वायत्तता और द्विभाजन के निरसन के बाद।[10]

कश्मीर की पूर्व रियासत का पूर्वी क्षेत्र भी एक सीमा विवाद में शामिल है, जो 19वीं शताब्दी के अन्त में शुरू हुआ और 21वीं सदी में जारी रहा। हालाँकि कश्मीर की उत्तरी सीमाओं पर ग्रेट ब्रिटेन, अफगानिस्तान और रूस के बीच कुछ सीमा समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए थे, चीन ने कभी भी इन समझौतों को स्वीकार नहीं किया और 1949 की कम्युनिस्ट क्रांति के बाद चीन की आधिकारिक स्थिति नहीं बदली, जिसने पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की स्थापना की। 1950 के दशक के मध्य तक चीनी सेना लद्दाख के उत्तर-पूर्वी हिस्से में प्रवेश कर चुकी थी।[11]

यह क्षेत्र तीन देशों के बीच एक क्षेत्रीय विवाद में विभाजित है: पाकिस्तान उत्तर-पश्चिमी भाग (उत्तरी क्षेत्र और कश्मीर) को नियन्त्रित करता है, भारत मध्य और दक्षिणी भाग (जम्मू और कश्मीर) और लद्दाख को नियन्त्रित करता है, और पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना पूर्वोत्तर भाग को नियंत्रित करता है। अक्साई चिन एण्ड द ट्रांस काराकोरम ट्रैक्ट)। भारत सियाचिन ग्लेशियर क्षेत्र के अधिकांश हिस्से को नियंत्रित करता है, जिसमें साल्टोरो रिज पास भी शामिल है, जबकि पाकिस्तान सॉल्टोरो रिज के दक्षिण-पश्चिम में निचले क्षेत्र को नियन्त्रित करता है। भारत विवादित क्षेत्र के 101,338 कि॰मी2 (39,127 वर्ग मील) को नियन्त्रित करता है, पाकिस्तान 85,846 कि॰मी2 (33,145 वर्ग मील) को नियन्त्रित करता है, और पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना शेष 37,555 कि॰मी2 (14,500 वर्ग मील) को नियंत्रित करता है।

जम्मू और आज़ाद कश्मीर पीर पंजाल रेंज के बाहर स्थित हैं, और क्रमशः भारतीय और पाकिस्तानी नियन्त्रण में हैं। ये आबादी वाले क्षेत्र हैं। गिलगित-बाल्टिस्तान, जिसे पहले उत्तरी क्षेत्र के रूप में जाना जाता था, चरम उत्तर में प्रदेशों का एक समूह है, जो काराकोरम, पश्चिमी हिमालय, पामीर और हिन्दू कुश पर्वतमाला से घिरा है। गिलगित शहर में अपने प्रशासनिक केन्द्र के साथ, उत्तरी क्षेत्र 72,971 वर्ग किलोमीटर (7.8545×1011 वर्ग फुट) के क्षेत्र को कवर करते हैं और 1 मिलियन (10 लाख) की अनुमानित आबादी रखते हैं।

लद्दाख उत्तर में कुनलुन पर्वत शृंखला और दक्षिण में मुख्य महान हिमालय के बीच है।[12] क्षेत्र के राजधानी शहर लेह और कारगिल हैं। यह भारतीय प्रशासन के अधीन है और 2019 तक जम्मू और कश्मीर राज्य का हिस्सा था। यह क्षेत्र में सबसे अधिक आबादी वाले क्षेत्रों में से एक है और मुख्य रूप से‌भारोपीय और तिब्बती मूल के लोगों द्वारा बसा हुआ है। [76] अक्साई चिन नमक का एक विशाल उच्च ऊँचाई वाला रेगिस्तान है जो 5,000 मीटर (16,000 फीट) तक ऊँचाई तक पहुँचता है। भौगोलिक रूप से तिब्बती पठार का हिस्सा अक्साई चिन को सोडा मैदान के रूप में जाना जाता है। यह क्षेत्र लगभग निर्जन है, और इसकी कोई स्थायी बस्ती नहीं है।

यद्यपि ये क्षेत्र अपने-अपने दावेदारों द्वारा प्रशासित हैं, लेकिन न तो भारत और न ही पाकिस्तान ने औपचारिक रूप से दूसरे द्वारा दावा किए गए क्षेत्रों के उपयोग को मान्यता दी है। भारत उन क्षेत्रों पर दावा करता है, जिसमें 1963 में ट्रांस काराकोरम ट्रैक्ट में पाकिस्तान द्वारा चीन को “सीडेड” क्षेत्र शामिल किया गया था, जो उसके क्षेत्र का एक हिस्सा है, जबकि पाकिस्तान अक्साई चिन और ट्रांस-काराकोरम ट्रैक्ट को छोड़कर पूरे क्षेत्र का दावा करता है। दोनों देशों ने इस क्षेत्र पर कई घोषित युद्ध लड़े हैं। १९४७ का भारत-पाक युद्ध ने आज की उबड़-खाबड़ सीमाओं की स्थापना की, जिसमें पाकिस्तान ने कश्मीर का एक तिहाई हिस्सा रखा, और भारत ने एक-आध, संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्थापित नियन्त्रण रेखा के साथ। १९६५ का भारत-पाक युद्ध के परिणामस्वरूप गतिरोध और संयुक्त राष्ट्र के बीच युद्ध विराम हुआ।

ये ख़ूबसूरत भूभाग मुख्यतः झेलम नदी की घाटी (वादी) में बसा है। भारतीय कश्मीर घाटी में छः ज़िले हैं : श्रीनगर, बड़ग़ाम, अनन्तनाग, पुलवामा, बारामुला और कुपवाड़ा। कश्मीर हिमालय पर्वती क्षेत्र का भाग है। जम्मू खण्ड से और पाकिस्तान से इसे पीर-पंजाल पर्वत-श्रेणी अलग करती है। यहाँ कई सुन्दर सरोवर हैं, जैसे डल, वुलर और नगीन। यहाँ का मौसम गर्मियों में सुहावना और सर्दियों में बर्फीला होता है। इस प्रदेश को धरती का स्वर्ग कहा गया है। एक नहीं कई कवियों ने बार बार कहा है :

गर फ़िरदौस बर रुए ज़मीं अस्त,
हमीं अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त।

प्राचीन कथा संपादित करें
स्थानीय लोगों का विश्वास है कि इस विस्तृत घाटी के स्थान पर कभी मनोरम झील थी जिसके तट पर देवताओं का वास था। एक बार इस झील में ही एक असुर कहीं से आकर बस गया और वह देवताओं को सताने लगा। त्रस्त देवताओं ने ऋषि कश्यप से प्रार्थना की कि वह असुर का विनाश करें। देवताओं के आग्रह पर ऋषि ने उस झील को अपने तप के बल से रिक्त कर दिया। इसके साथ ही उस असुर का अन्त हो गया और उस स्थान पर घाटी बन गई। कश्यप ऋषि द्वारा असुर को मारने के कारण ही घाटी को कश्यप मार कहा जाने लगा। यही नाम समयान्तर में कश्मीर हो गया। निलमत पुराण में भी ऐसी ही एक कथा का उल्लेख है। कश्मीर के प्राचीन इतिहास और यहाँ के सौंदर्य का वर्णन कल्हण रचित राज तरंगिनी में बहुत सुन्दर ढंग से किया गया है। वैसे इतिहास के लम्बे कालखण्ड में यहाँ मौर्य, कुषाण, हूण, करकोटा, लोहरा, मुगल, अफगान, सिख और डोगरा राजाओं का राज रहा है। कश्मीर सदियों तक एशिया में संस्कृति एवं दर्शन शास्त्र का एक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा और सूफी सन्तों का दर्शन यहाँ की सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है।

मध्ययुग में मुस्लिम आक्रान्ता कश्मीर पर क़ाबिज़ हो गये। कुछ मुसल्मान शाह और राज्यपाल (जैसे शाह ज़ैन-उल-अबिदीन) हिन्दुओं से अच्छा व्यवहार करते थे पर कई (जैसे सुल्तान सिकन्दर बुतशिकन) ने यहाँ के मूल कश्मीरी हिन्दुओं को मुसल्मान बनने पर, या राज्य छोड़ने पर या मरने पर मजबूर कर दिया। कुछ ही सदियों में कश्मीर घाटी में मुस्लिम बहुमत हो गया। मुसल्मान शाहों में ये बारी बारी से अफ़ग़ान, कश्मीरी मुसल्मान, मुग़ल आदि वंशों के पास गया। मुग़ल सल्तनत गिरने के बाद से सिख महाराजा रणजीत सिंह के राज्य में शामिल हो गया। कुछ समय बाद जम्मू के हिन्दू डोगरा राजा गुलाब सिंह डोगरा ने ब्रिटिश लोगों के साथ सन्धि करके जम्मू के साथ साथ कश्मीर पर भी अधिकार कर लिया । डोगरा वंश भारत की आज़ादी तक कायम रहा।

कश्मीर से कुछ यादगार वस्तुएँ ले जानी हों तो यहां कई सरकारी एम्पोरियम हैं। अखरोट की लकड़ी के हस्तशिल्प, पेपरमेशी के शो-पीस, लेदर की वस्तुएँ, कालीन, पश्मीना एवं जामावार शाल, केसर, क्रिकेट बैट और सूखे मेवे आदि पर्यटकों की खरीदारी की खास वस्तुएँ हैं। लाल चौक क्षेत्र में हर तरह के शॉपिंग केन्द्र है। खानपान के शौकीन पर्यटक कश्मीरी भोजन का स्वाद जरूर लेना चाहेंगे। बाजवान कश्मीरी भोजन का एक खास अंदाज है। इसमें कई कोर्स होते है जिनमें रोगन जोश, तबकमाज, मेथी, गुस्तान आदि डिश शामिल होती है। स्वीट डिश के रूप में फिरनी प्रस्तुत की जाती है। अन्त में कहवा अर्थात कश्मीरी चाय के साथ वाजवान पूर्ण होता है।

आतंकवाद शुरू होने के बाद आज कश्मीर में सिर्फ़ 4 % हिन्दू बाकी रह गये हैं, यानि कि वादी में 96 % मुस्लिम बहुमत है।

यहाँ की सूफ़ी-परम्परा बहुत विख्यात है, जो कश्मीरी इस्लाम को परम्परागत शिया और सुन्नी इस्लाम से थोड़ा अलग और हिन्दुओं के प्रति सहिष्णु बना देती है। कश्मीरी हिन्दुओं को कश्मीरी पण्डित कहा जाता है और वो सभी ब्राह्मण माने जाते हैं। सभी कश्मीरियों को कश्मीर की संस्कृति, यानि कि कश्मीरियत पर बहुत नाज़ है। वादी-ए-कश्मीर अपने चिनार के पेड़ों, कश्मीरी सेब, केसर (ज़ाफ़रान, जिसे संस्कृत में काश्मीरम् भी कहा जाता है), पश्मीना ऊन और शॉलों पर की गयी कढ़ाई, गलीचों और देसी चाय (कहवा) के लिये दुनिया भर में मशहूर है। यहाँ का सन्तूर भी बहुत प्रसिद्ध है। आतंकवाद से बशक इन सभी को और कश्मीरियों की खुशहाली को बहद धक्का लगा है। कश्मीरी व्यंजन भारत भर में बहुत ही लज़ीज़ माने जाते हैं।

कश्मीरी पण्डितों के शाकाहारी व्यंजन हैं : चमनी क़लिया, वेथ चमन, दम ओलुव (आलू दम), राज़्मा गोआग्जी, चोएक वंगन (बैंगन), इत्यादि। कश्मीरी मुसल्मानों के (मांसाहारी) व्यंजन हैं : कई तरह के कबाब और कोफ़्ते, रिश्ताबा, गोश्ताबा, इत्यादि। परम्परागत कश्मीरी दावत को वाज़वान कहा जाता है। कहते हैं कि हर कश्मीरी की ये ख्वाहिश होती है कि ज़िन्दगी में एक बार, कम से कम, अपने दोस्तों के लिये वो वाज़वान परोसे।

धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर ग्रेट हिमालयन रेंज और पीर पंजाल पर्वत शृंखला के मध्य स्थित है। यहाँ की नैसर्गिक छटा हर मौसम में एक अलग रूप लिए नजर आती है। गर्मी में यहाँ हरियाली का आँचल फैला दिखता है, तो सेबों का मौसम आते ही लाल सेब बागान में झूलते नजर आने लगते हैं। सर्दियों में हर तरफ बर्फकी चादर फैलने लगती है और पतझड शुरू होते ही जर्द चिनार का सुनहरा सौंदर्य मन मोहने लगता है। पर्यटकों को सम्मोहित करने के लिए यहाँ बहुत कुछ है। शायद इसी कारण देश-विदेश के पर्यटक यहाँ खिंचे चले आते हैं। वैसे प्रसिद्ध लेखक थॉमस मूर की पुस्तक लैला रूख ने कश्मीर की ऐसी ही खूबियों का परिचय पूरे विश्व से कराया था।

स्वतन्त्रता के समय हिन्दू राजा हरि सिंह यहाँ के शासक थे। शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व में मुस्लिम कॉन्फ़्रेंस (बाद में नेशनल कॉन्फ्रेंस) उस समय कश्मीर की मुख्य राजनैतिक पार्टी थी। कश्मीरी पंडित, शेख़ अब्दुल्ला और राज्य के ज़्यादातर मुसल्मान कश्मीर का भारत में ही विलय चाहते थे। पर पाकिस्तान को ये बर्दाश्त ही नहीं था कि कोई मुस्लिम-बहुमत प्रान्त भारत में रहे (इससे उसके दो-राष्ट्र सिद्धान्त को ठेस लगती थी)। सो 1947-48 में पाकिस्तान ने कबाइली और अपनी छद्म सेना से कश्मीर में आक्रमण करवाया और क़ाफ़ी हिस्सा हथिया लिया। उस समय प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु ने मोहम्मद अली जिन्ना से विवाद जनमत-संग्रह से सुलझाने की पेशक़श की, जिसे जिन्ना ने उस समय ठुकरा दिया क्योंकि उनको अपनी सैनिक कार्यवाही पर पूरा भरोसा था। महाराजा ने शेख़ अब्दुल्ला की सहमति से भारत में कुछ शर्तों के तहत विलय कर दिया। जब भारतीय सेना ने राज्य का काफ़ी हिस्सा बचा लिया और ये विवाद संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया तो संयुक्तराष्ट्र महासभा ने दो क़रारदाद (संकल्प) पारित किये :

पाकिस्तान तुरन्त अपनी सेना काबिज़ हिस्से से खाली करे।
शान्ति होने के बाद दोनो देश कश्मीर के भविष्य का निर्धारण वहाँ की जनता की चाहत के हिसाब से करेंगे (बाद में कहा गया जनमत संग्रह से)।
दोनो में से कोई भी संकल्प अभी तक लागू नहीं हो पाया है।

जम्मू और कश्मीर की लोकतान्त्रिक और निर्वाचित संविधान-सभा ने 1957 में एकमत से महाराजा के विलय के कागजात को हामी दे दी और राज्य का ऐसा संविधान स्वीकार किया जिसमें कश्मीर के भारत में स्थायी विलय को मान्यता दी गयी थी।
कई चुनावों में कश्मीरी जनता ने वोट डालकर भारत का साथ दिया है। भारतीय फौज की नये सिपाहियों के भर्ती अभियान में हजारों कश्मीरी नवयुवक आते हैं।
भारत पाकिस्तान के दो-राष्ट्र सिद्धान्त को नहीं मानता। भारत स्वयं पन्थनिरपेक्ष है।
कश्मीर का भारत में विलय ब्रिटिश “भारतीय स्वातन्त्र्य अधिनियम” के तहत कानूनी तौर पर सही था।
पाकिस्तान अपनी भूमि पर अतंकवादी शिविर चला रहा है (खास तौर पर 1989 से) और कश्मीरी युवकों को भारत के खिलाफ़ भड़का रहा है। ज़्यादातर आतंकवादी स्वयं पाकिस्तानी नागरिक (या तालिबानी अफ़गान) ही हैं। ये और कुछ कश्मीरी मिलकर इस्लाम के नाम पर भारत के ख़िलाफ़ जिहाद छेड़ रखे हैं। लगभग सभी कश्मीरी पण्डितों को आतंकवादियों ने वादी के बाहर निकाल दिया है और वो शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं।
राज्य को संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत स्वायत्ता प्राप्त है। कोई गैर-कश्मीरी यहाँ जमीन नहीं खरीद सकता। उम्मीद है कि बहुत जल्द ये अनुच्छेद जनमत से हटा दिया जाएगा.
अनुच्छेद 370 और 35a इसे हटा दिया गया है 5 अगस्त 2019 को अब इसके तहत कोई भी गैर कश्मीरी वहाँ जमीन खरीद सकता है।

चूँकि कश्मीर पर सैकड़ों वर्षों पूर्व तक हिन्दू राजाओं का साम्रज्य कायम रहा है, कुछ विदेशी आक्रांताओं के कारण बाद में कश्मीर क्षणिक रूप में मुस्लिम बाहुल्य हो गया जिस कारण इस सम्पूर्ण समस्या/विवाद की स्थिति उत्पन्न हुयी, परन्तु सत्य यही है कि सम्पूर्ण कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा था।पाकिस्तान से ज्यादा मुसलमान भारत में रहते हैं और ये धार्मिक महत्त्व का विषय नहीं रह गया है, अपितु कुछ पाकिस्तानी राजनेता अपनी राजनीति चमकाने के लिए इस मुद्दे को हवा देकर अपनी पाकिस्तानी आवाम का ध्यान महँगाई और घरेलू मुद्दो

जो भी हो, कश्मीरी जनता आज भी पाकिस्तान द्वारा चलाये जा रहे भयानक आतंकवाद से जूझ रही है। भारतीय फ़ौज द्वारा चलाये जा रहे आतंकवाद-विरोधी अभियान ने भी कश्मीरियों को तोहफ़े में कई सुखद समय दिये हैं।

वह सर्वविदित है कि पं॰ नेहरू तथा माउन्टबेटन के परस्पर विशेष सम्बन्ध थे, जो किसी भी भारतीय कांग्रेसी या मुस्लिम नेता के आपस में न थे। पण्डित नेहरू के प्रयासों से ही माउण्टबेटन को स्वतन्त्र भारत का पहला गर्वनर जनरल बनाया गया, जबकि जिन्ना ने माउण्टबेटन को पाकिस्तान का पहला गर्वनर जनरल मानने से साफ इन्कार कर दिया, जिसका माउण्टेबटन को जीवन भर अफसोस भी रहा। माउन्टबेटन मार्च 24, 1947 से जून 30, 1948 तक भारत में रहे। इन पन्द्रह महीनों में वह न केवल संवैधानिक प्रमुख रहे बल्कि भारत की महत्वपूर्ण नीतियों का निर्णायक भी रहे। पं॰ नेहरू उन्हें सदैव अपना मित्र, मार्गदर्शक तथा महानतम सलाहकार मानते रहे। वह भी पं॰ नेहरू को एक “शानदार”, “सर्वदा विश्वसनीय” “कल्पनाशील” तथा “सैद्धान्तिक समाजवादी” मानते रहे।

कश्मीर के प्रश्न पर भी माउन्टबेटन के विचारों को पं॰ नेहरू ने अत्यधिक महत्त्व दिया। पं॰ नेहरू के शेख अब्दुल्ला के साथ भी गहरे सम्बन्ध थे। शेख अब्दुल्ला ने 1932 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम॰एस॰सी॰ किया था। फिर वह श्रीनगर के एक हाईस्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए, परन्तु अनुशासनहीनता के कारण स्कूल से हटा दिये गये। फिर वह कुछ समय तक ब्रिटिश सरकार से तालमेल बिठाने का प्रयत्न करते रहे। आखिर में उन्होंने 1932 में ही कश्मीर की राजनीति में अपना भाग्य आजमाना चाहा और “मुस्लिम क्फ्रोंंस” स्थापित की, जो केवल मुसलमानों के लिए थी। परन्तु 1939 में इसके द्वार अन्य पन्थों, मज़हबों के मानने वालों के लिए भी खोल दिए गए और इसका नाम “नेशनल कान्फ्रेंस” रख दिया तथा इसने पण्डित नेहरू के प्रजा मण्डल आन्दोलन से अपने को जोड़ लिया। शेख अब्दुल्ला ने 1940 में नेशनल क्फ्रोंंस के सम्मेलन में मुख्य अतिथि के रूप में पण्डित नेहरू को बुलाया था। शेख अब्दुल्ला से पं॰ नेहरू की अन्धी दोस्ती और भी गहरी होती गई। शेख अब्दुल्ला समय-समय पर अपनी शब्दावली बदलते रहे और पं॰ नेहरू को भी धोखा देते रहे। बाद में भी नेहरू परिवार के साथ शेख अब्दुल्ला के परिवार की यही दोस्ती चलती रही। श्रीमती इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी और अब राहुल गांधी की दोस्ती क्रमश: शेख अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्ला तथा वर्तमान में उमर अब्दुल्ला से चल रही है।

दुर्भाग्य से कश्मीर के महाराजा हरि सिंह (1925-1947) से न ही शेख अब्दुल्ला के और न ही पण्डित नेहरू के सम्बन्ध अच्छे रह पाए। महाराजा कश्मीर शेख अब्दुल्ला की कुटिल चालों, स्वार्थी और अलगाववादी सोच तथा कश्मीर में हिन्दू-विरोधी रवैये से परिचित थे। वे इससे भी परिचित थे कि “क्विट कश्मीर आन्दोलन” के द्वारा शेख अब्दुल्ला महाराजा को हटाकर, स्वयं शासन संभालने को आतुर है। जबकि पं॰ नेहरू भारत के अन्तरिम प्रधानमन्त्री बन गए थे, तब एक घटना ने इस कटुता को और बढ़ा दिया था। शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर की एक कांफ्रेस में पण्डित नेहरू को आने का निमन्त्रण दिया था। इस कांफ्रेस में मुख्य प्रस्ताव था महाराजा कश्मीर को हटाने का। मजबूर होकर महाराजा ने पं॰ नेहरू से इस क्फ्रोंंस में न आने को कहा। पर न मानने पर पं॰ नेहरू को जम्मू में ही श्रीनगर जाने से पूर्व रोक दिया गया। पं॰ नेहरू ने इसे अपना अपमान समझा तथा वे इसे जीवन भर न भूले। पाकिस्तानी फौज व कबायली आक्रमण के समय राजा हरी सिंह को सबक सिखाने के उद्देश्य से नेहरु जी ने भारतीय सेना को भेजने में जानबूझ के देरी की, जिससे कश्मीर का दो तिहायी हिस्सा पाकिस्तान कब्ज़ाने में सफल रहा। इस घटना से शेख अब्दुल्ला को दोहरी प्रसन्नता हुई। इससे वह पं॰ नेहरू को प्रसन्न करने तथा महाराजा को कुपित करने में सफल हुआ।जिसके कारण अभी भी भारत और कश्मीर में विवाद हैं।

पं. नेहरू का व्यक्तित्व यद्यपि राष्ट्रीय था परन्तु कश्मीर का प्रश्न आते ही वे भावुक हो जाते थे। इसीलिए जहां उन्होंने भारत में चौतरफा बिखरी 560 रियासतों के विलय का महान दायित्व सरदार पटेल को सौंपा, वहीं केवल कश्मीरी दस्तावेजों को अपने कब्जे में रखा। ऐसे कई उदाहरण हैं जब वे कश्मीर के मामले में केन्द्रीय प्रशासन की भी सलाह सुनने को तैयार न होते थे तत्कालीन विदेश सचिव वाई॰डी॰ गुणडेवीय का कथन था, “आप प्रधानमंत्री से कश्मीर पर बात न करें। कश्मीर का नाम सुनते ही वे अचेत हो जाते हैं।” प्रस्तुत लेख के लेखक का स्वयं का भी एक अनुभव है-1958 में मैं एक प्रतिनिधिमण्डल के साथ पं॰ नेहरू के निवास तीन मूर्ति गया। वहाँ स्कूल के बच्चों ने उनके सामने कश्मीर पर पाकिस्तान को चुनौती देते हुए एक गीत प्रस्तुत किया। इसमें “कश्मीर भला तू क्या लेगा?” सुनते ही पं॰ नेहरू तिलमिला गए तथा गीत को बीच में ही बन्द करने को कहा।

 

जिन्ना कश्मीर तथा हैदराबाद पर पाकिस्तान का आधिपत्य चाहते थे। उन्होंने अपने सैन्य सचिव को तीन बार महाराजा कश्मीर से मिलने के लिए भेजा। तत्कालीन कश्मीर के प्रधानमन्त्री काक ने भी उनसे मिलाने का वायदा किया था। पर महाराजा ने बार-बार बीमारी का बहाना बनाकर बातचीत को टाल दिया। जिन्ना ने गर्मियों की छुट्टी कश्मीर में बिताने की इजाजत चाही थी। परन्तु महाराजा ने विनम्रतापूर्वक इस आग्रह को टालते हुए कहा था कि वह एक पड़ोसी देश के गर्वनर जनरल को ठहराने की औपचारिकता पूरी नहीं कर पाएंगे। दूसरी ओर शेख अब्दुल्ला गद्दी हथियाने तथा इसे एक मुस्लिम प्रदेश (देश) बनाने को आतुर थे। पं॰ नेहरू भी अपमानित महसूस कर रहे थे। उधर माउण्टबेटन भी जून मास में तीन दिन कश्मीर रहे थे। शायद वे कश्मीर का विलय पाकिस्तान में चाहते थे, क्योंकि उन्होंने मेहरचन्द महाजन से कहा था कि “भौगोलिक स्थिति” को देखते हुए कश्मीर के पाकिस्तान का भाग बनना उचित है। इस समस्त प्रसंग में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका श्री गुरुजी (माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर) ने निभाई। वे महाराजा कश्मीर से बातचीत करने 18 अक्टूबर को श्रीनगर पहुँचे। विचार-विमर्श के पश्चात महाराजा कश्मीर अपनी रियासत के भारत में विलय के लिए पूरी तरह पक्ष में हो गए थे।

 

*नेहरू की भयंकर भूलें*

जब षड्यंत्रों से बात नहीं बनी तो पाकिस्तान ने बल प्रयोग द्वारा कश्मीर को हथियाने की कोशिश की तथा अक्टूबर 22, 1947 को सेना के साथ कबाइलियों ने मुजफ्फराबाद की ओर कूच किया। लेकिन कश्मीर के नए प्रधानमन्त्री मेहरचन्द्र महाजन के बार-बार सहायता के अनुरोध पर भी भारत सरकार उदासीन रही। भारत सरकार के गुप्तचर विभाग ने भी इस सन्दर्भ में कोई पूर्व जानकारी नहीं दी। कश्मीर के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने बिना वर्दी के 250 जवानों के साथ पाकिस्तान की सेना को रोकने की कोशिश की तथा वे सभी वीरगति को प्राप्त हुए। आखिर 24 अक्टूबर को माउण्टबेटन ने “सुरक्षा कमेटी” की बैठक की। परन्तु बैठक में महाराजा को किसी भी प्रकार की सहायता देने का निर्णय नहीं किया गया। 26 अक्टूबर को पुन: कमेटी की बैठक हुई। अध्यक्ष माउन्टबेटन अब भी महाराजा के हस्ताक्षर सहित विलय प्राप्त न होने तक किसी सहायता के पक्ष में नहीं थे। आखिरकार 26 अक्टूबर को सरदार पटेल ने अपने सचिव वी॰पी॰ मेनन को महाराजा के हस्ताक्षर युक्त विलय दस्तावेज लाने को कहा। सरदार पटेल स्वयं वापसी में वी॰पी॰ मेनन से मिलने हवाई अड्डे पहुँचे। विलय पत्र मिलने के बाद 27 अक्टूबर को हवाई जहाज द्वारा श्रीनगर में भारतीय सेना भेजी गई।

‘दूसरे, जब भारत की विजय-वाहिनी सेनाएं कबाइलियों को खदेड़ रही थीं। सात नवम्बर को बारहमूला कबाइलियों से खाली करा लिया गया था परन्तु पं॰ नेहरू ने शेख अब्दुल्ला की सलाह पर तुरन्त युद्ध विराम कर दिया। परिणामस्वरूप कश्मीर का एक तिहाई भाग जिसमें मुजफ्फराबाद, पुंछ, मीरपुर, गिलागित आदि क्षेत्र आते हैं, पाकिस्तान के पास रह गए, जो आज पाकिस्तान द्वारा “आजाद कश्मीर” के नाम से पुकारे जाते हैं।

तीसरे, माउन्टबेटन की सलाह पर पं॰ नेहरू एक जनवरी, 1948 को कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में ले गए। सम्भवत: इसके द्वारा वे विश्व के सामने अपनी ईमानदारी छवि का प्रदर्शन करना चाहते थे तथा विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते थे। पर यह प्रश्न विश्व पंचायत में युद्ध का मुद्दा बन गया।

चौथी भयंकर भूल पं॰ नेहरू ने तब की जबकि देश के अनेक नेताआें के विरोध के बाद भी, शेख अब्दुल्ला की सलाह पर भारतीय संविधान में धारा 370 जुड़ गई। न्यायाधीश डी॰डी॰ बसु ने इस धारा को असंवैधानिक तथा राजनीति से प्रेरित बतलाया। डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर ने इसका विरोध किया तथा स्वयं इस धारा को जोड़ने से मना कर दिया। इस पर प्रधानमन्त्री पं॰ नेहरू ने रियासत राज्यमन्त्री गोपाल स्वामी आयंगर द्वारा अक्टूबर 17, 1949 को यह प्रस्ताव रखवाया। इसमें कश्मीर के लिए अलग संविधान को स्वीकृति दी गई जिसमें भारत का कोई भी कानून यहां की विधानसभा द्वारा पारित होने तक लागू नहीं होगा। दूसरे शब्दों में दो संविधान, दो प्रधान तथा दो निशान को मान्यता दी गई। कश्मीर जाने के लिए परमिट की अनिवार्यता की गई। शेख अब्दुल्ला कश्मीर के प्रधानमन्त्री बने। वस्तुत: इस धारा के जोड़ने से बढ़कर दूसरी कोई भयंकर गलती हो नहीं सकती थी।

पांचवीं भयंकर भूल शेख अब्दुल्ला को कश्मीर का “प्रधानमन्त्री” बनाकर की। उसी काल में देश के महान राजनेता डॉ॰ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दो विधान, दो प्रधान, दो निशान के विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन किया। वे परमिट व्यवस्था को तोड़कर श्रीनगर गए जहाँ जेल में उनकी हत्या कर दी गई। पं॰ नेहरू को अपनी गलती का अहसास हुआ, पर बहुत देर से। शेख अब्दुल्ला को कारागार में डाल दिया गया लेकिन पं॰ नेहरू ने अपनी मृत्यु से पूर्व अप्रैल, 1964 में उन्हें पुन: रिहा कर दिया।

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जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम २०१९ भारत की संसद का एक अधिनियम है। इसे भारत की उच्च सदन(राज्य सभा) में गृहमन्त्री अमित शाह ने ०५ अगस्त, २०१९ को प्रस्तुत किया था। यह अधिनियम उसी दिन राज्य सभा द्वारा पारित कर दिया गया तथा अगले दिन लोक सभा ने इसे पारित कर दिया। [1][2] राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने ९ अगस्त २०१९ को इसे स्वीकृति दे दी।

जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019

भारतीय संसद
जम्मू और कश्मीर के मौजूदा राज्य के पुनर्गठन के लिए और इससे जुड़े मामलों या आकस्मिक उपचार के लिए एक अधिनियम
शीर्षक
अधिनियम सं. 2019 में 34वां
द्वारा अधिनियमित
राज्य सभा
अधिनियमित करने की तिथि
5 अगस्त 2019
द्वारा अधिनियमित
लोक सभा
अधिनियमित करने की तिथि
6 अगस्त 2019
हस्ताक्षर-तिथि
9 अगस्त 2019
विधायी इतिहास
बिल प्रकाशन की तारीख
5 अक्टूबर 2019
द्वारा पेश
अमित शाह
गृह मंत्री

इस अधिनियम में तत्कालीन जम्मू और कश्मीर राज्य को दो केंद्रशासित प्रदेशों ((१) जम्मू और कश्मीर (२) लद्दाख) में पुनर्गठित करने का प्रावधान किया गया था जो अत्यन्त क्रान्तिकारी एवं ऐतिहासिक कदम था। इस अधिनियम के प्रावधान ३१ अक्टूबर २०१९ को लागू कर दिए गए।[3]

नए लद्दाख संघ राज्य क्षेत्र में कारगिल तथा लेह – दो जिले हैं और भूतपूर्व जम्मू और कश्मीर राज्य का शेष भाग नए जम्मू और कश्मीर राज्य संघ क्षेत्र में है। 1947 में भूतपूर्व जम्मू और कश्मीर राज्य में निम्न 14 जिले थे – कठुआ, जम्मू, ऊधमपुर, रियासी, अनंतनाग, बारामूला, पुँछ, मीरपुर, मुज़फ़्फ़राबाद, लेह और लद्दाख़, गिलगित, गिलगित वजारत, चिल्हास और ट्राइबल टेरिटॉरी। 2019 तक भूतपूर्व जम्मू और कश्मीर की राज्य सरकारों ने इन 14 जिलों के क्षेत्रों को पुनर्गठित करके 28 जिले बना दिए थे। नए जिलों के नाम निम्न प्रकार से हैं – कुपवारा, बान्दीपुर, गंडेरबल, श्रीनगर, बड़गाम, पुलवामा, शूपियान, कुलगाम, राजौरी, रामबन, डोडा, किश्‍तवार, साम्बा और कारगिल। इनमे से कारगिल जिले को लेह और लद्दाख़ जिले के क्षेत्र में से अलग करके बनाया गया था। राष्ट्रपति ने जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन (कठिनाइयों को हटाना) द्वितीय आदेश, 2019 द्वारा नए लद्दाख़ संघ राज्य क्षेत्र के लेह जिले को, कारगिल ज़िला बनने के बाद, 1947 के लेह और लद्दाख़ ज़िले के शेष क्षेत्र में 1947 के गिलगित, गिलगित वजारत, चिल्हास और ट्राइबल टेरिटॉरी जिलों के क्षेत्रों को समावेशित करते हुए परिभाषित किया है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत एक राष्ट्रपति के आदेश से पहले विधेयक की शुरूआत की गई थी,[4] जिसमें कहा गया था कि भारतीय संविधान के सभी प्रावधान जम्मू और कश्मीर पर लागू होंगे साथ ही जम्मू उर कश्मीर की पुराने रणबीर दंड संहिता को भांग करके भारतीय दंड संहिता लागु होगी। सरकार के अनुसार इसने भारतीय संसद को कानून बनाने में सक्षम बनाया जो राज्य के संगठन को पुनर्व्यवस्थित करेगा।

5 अगस्त, 2019 — मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया।
5 अगस्त, 2019 — जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 को गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में प्रस्तुत किया। राज्यसभा ने उसे उसी दिन पारित कर दिया।
6 अगस्त, 2019 — अधिनियम लोकसभा में प्रस्तुत एवं पारित
9 अगस्त, 2019 — भारत के राष्ट्रपति ने अधिनियम को अपनी स्वीकृति दी।
31 अक्टूबर, 2019 — जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 लागू हुआ। दोनो केंद्रशासित प्रदेशों के उप-राज्यपालों को जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा पद की शपथ दिलवाई गई।
31 मार्च 2020 — जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन (राज्य के कानूनों का अनुकूलन) आदेश, 2020[5]
19 मई 2020 — जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन (राज्य के कानूनों का अनुकूलन) द्वितीय आदेश, 2020
22 सितम्बर, 2020 — लोकसभा ने जम्मू-कश्मीर आधिकारिक भाषा विधेयक-2020 को स्वीकृति प्रदान की।[6]
27 अक्टूबर , 2020 — जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन (राज्य के कानूनों का अनुकूलन) तृतीय आदेश, 2020 [7][8]
4 फरवरी, 2021 — जम्‍मू कश्‍मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक 2021 राज्य सभा में प्रस्तुत।
13 फरवरी, 2021 — जम्‍मू कश्‍मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक, 2021 संसद से पारित। अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों के कैडर से संबंधित यह विधेयक जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) अध्यादेश की जगह लेगा। अब मौजूदा जम्मू कश्मीर कैडर के भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा और भारतीय वन सेवा के अधिकारियों को अरुणाचल प्रदेश, गोवा, मिजोरम और केंद्रशासित प्रदेशों के कैडर का हिस्सा बनाने का प्रावधान।

बुर्ज़होम पुरातात्विक स्थल (श्रीनगर के उत्तरपश्चिम में 16 किलोमीटर (9.9 मील) स्थित) में पुरातात्विक उत्खनन[3] ने 3000 ईसा पूर्व और 1000 ईसा पूर्व के बीच सांस्कृतिक महत्व के चार चरणों का खुलासा किया है।[4] अवधि I और II नवपाषाण युग का प्रतिनिधित्व करते हैं; अवधि ईएलआई मेगालिथिक युग (बड़े पैमाने पर पत्थर के मेन्शर और पहिया लाल मिट्टी के बर्तनों में बदल गया); और अवधि IV प्रारंभिक ऐतिहासिक अवधि (उत्तर-महापाषाण काल) से संबंधित है। यहां का प्राचीन विस्तृत लिखित इतिहास है राजतरंगिणी, जो कल्हण द्वारा 12वीं शताब्दी ई. में लिखा गया था। तब तक यहां पूर्ण हिन्दू राज्य रहा था। यह अशोक महान के साम्राज्य का हिस्सा भी रहा। लगभग तीसरी शताब्दी में अशोक का शासन रहा था। तभी यहां बौद्ध धर्म का आगमन हुआ, जो आगे चलकर कुषाणों के अधीन समृध्द हुआ था। उज्जैन के महाराज विक्रमादित्य के अधीन छठी शताब्दी में एक बार फिर से हिन्दू धर्म की वापसी हुई। उनके बाद नागवंशी क्षत्रिय सम्राट ललितादित्या शासक रहा, जिसका काल 697 ई. से 738 ई. तक था। “आइने अकबरी के अनुसार छठी से नौ वीं शताब्दी के अंत तक कश्मीर पर शासन रहा।” अवंती वर्मन ललितादित्या का उत्तराधिकारी बना। उसने श्रीनगर के निकट अवंतिपुर बसाया। उसे ही अपनी राजधानी बनाया। जो एक समृद्ध क्षेत्र रहा। उसके खंडहर अवशेष आज भी शहर की कहानी कहते हैं। यहां महाभारत युग के गणपतयार और खीर भवानी मन्दिर आज भी मिलते हैं। गिलगिट में पाण्डुलिपियां हैं, जो प्राचीन पाली भाषा में हैं। उसमें बौद्ध लेख लिखे हैं। त्रिखा शास्त्र भी यहीं की देन है। यह कश्मीर में ही उत्पन्न हुआ। इसमें सहिष्णु दर्शन होते हैं। चौदहवीं शताब्दी में यहां मुस्लिम शासन आरंभ हुआ। उसी काल में फारस से से सूफी इस्लाम का भी आगमन हुआ। यहां पर ऋषि परम्परा, त्रिखा शास्त्र और सूफी इस्लाम का संगम मिलता है, जो कश्मीरियत का सार है। भारतीय लोकाचार की सांस्कृतिक प्रशाखा कट्टरवादिता नहीं है।

 

ललितादित्य मुक्तापीड (राज्यकाल 724-761 ई) कश्मीर के कार्कोट राजवंश के चित्रगुप्तवंशी हिन्दु कायस्थ क्षत्रिय महाराजा थे।[1] उनके काल में कश्मीर का विस्तार मध्य एशिया और बंगाल तक पहुंच गया। उन्होने अरब के मुसलमान आक्रान्ता तथा चीनी मंचूरियन, तुर्की, दरद आदि पाँच आक्रमणकारियों को एकसाथ सफलतापूर्वक पराजित किया तथा तिब्बती सेना को भी पीछे धकेला। उन्होने राजा यशोवर्मन को भी हराया जो उनके ही वंश के द्वितिय शाखा कन्नौज के राजा हर्ष का एक उत्तराधिकारी था। उनका राज्‍य पूर्व में बंगाल तक, दक्षिण में कोंकण तक पश्चिम में तुर्किस्‍तान और उत्‍तर-पूर्व में तिब्‍बत तक फैला था। उन्होने अनेक भव्‍य भवनों का निर्माण किया।

 

कार्कोट राजवंश के वर्तमान शाखा की स्थापना कायस्थ वंश के दुर्लभवर्धन कायस्थ ने की थी। उससे पहले कार्कोट नाग के नामपर था। दुर्लभवर्धन कायस्थ कार्कोट गोनंद वंश के अंतिम राजा बालादित्य के राज्य में अश्व सेनापति अधिकारी थे। बलादित्य ने अपनी राजकन्या नागकन्या अनंगलेखा का विवाह एक सुन्दर युवक कायस्थ दुर्र्लभवर्धन के साथ किया।[2]

कार्कोटक एक नाग का नाम है, ललितादित्य मुक्तापिड ये मातृपक्ष से नागवंशी कार्कोटक और पितृपक्ष से चित्रवंशी कायस्थ थे। अतः ललितादित्य जो कि श्रीवास्तव कायस्थ है कार्कोटक कायस्थ भी कहलाएँ। प्रसिद्ध इतिहासकार आर सी मजुमदार के अनुसार ललितादित्य ने दक्षिण की महत्वपूर्ण विजयों के पश्चात अपना ध्यान उत्तर की तरफ लगाया जिससे उनका साम्राज्य काराकोरम पर्वत शृंखला के सूदूरवर्ती कोने तक जा पहुँचा।

साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड का नाम कश्मीर के इतिहास में सर्वोच्च स्थान पर है। उसका सैंतीस वर्ष का राज्य उसके सफल सैनिक अभियानों, उसके अद्भुत कला-कौशल-प्रेम और विश्व विजेता बनने की उसकी चाह से पहचाना जाता है। लगातार बिना थके युद्धों में व्यस्त रहना और रणक्षेत्र में अपने अनूठे सैन्य कौशल से विजय प्राप्त करना उसके स्वभाव का साक्षात्कार है। ललितादित्य ने पीकिंग को भी जीता और 12 वर्ष के पश्चात् कश्मीर लौटा।[3]

कश्मीर उस समय सबसे शक्तिशाली राज्य था। उत्तर में तिब्बत से लेकर द्वारिका और उड़ीसा के सागर तट और दक्षिण तक, पूर्व में बंगाल, पश्चिम में विदिशा और मध्य एशिया तक कश्मीर का राज्य फैला हुआ था जिसकी राजधानी प्रकरसेन नगर थी। ललितादित्य की सेना की पदचाप अरण्यक (ईरान) तक पहुंच गई थी।

अवंतिवर्मन् (लगभग ८५५ ई – ८८३) ८८५ से ८८४ तक कश्मीर के राजा थे। वह ललितादित्य के बाद राजा बने।[1] उनका राज्य एक सुवर्ण काल माना जाता है। अवन्तिपोरा नगर उनके नाम पर है।

परिचय संपादित करें
उत्पल राजकुल का यह पहला राजा जब कश्मीर की गद्दी पर बैठा तब कश्मीर गृहयुद्ध से लहूलुहान हो रहा था और उसपर दरिद्रता की छाया डोल रही थी। करकाटक राजाओं की कमजोरी से गांवों के डायर जमींदार सशक्त हो गए थे और उनके कारण प्रजा तबाह थी। न जीवन की रक्षा हो पाती थी, न धन की। देश की उपज इतनी कम हो गई थी कि अन्न सोने के भाव बिकने लगा था। अवंतिवर्मन् ने देश में शांति स्थापित करने का सफल प्रयत्न किया। डायरों को दबाकर उसने अपने मंत्री सुय्य (सूर्य) की सहायता से देश की आर्थिक स्थिति संभाली, नहरें निकलवाकर सिंचाई का प्रबंध किया और झेलम की धारा बदल दी। एक खिरनी चावल का मूल्य, जो पहले २०० दीनार हुआ करता था, अब ३६ दीनार का हो गया। अवंतिवर्मन् ने अवंतिपुर नाम का नगर बसाया जो वंतपोर के नाम से आज भी मौजूद है। उसने अनेक मंदिर बनवाकर उन्हें देवोत्तर संपत्ति से समृद्ध किया। वह पंडितों का आदर करता था और उसी की संरक्षा में प्रसिद्ध साहित्यकार आलोचक आनंदवर्धन ने अपना ‘ध्वन्यालोक’ रचा।

आचार्य आनन्दवर्धन, काव्यशास्त्र में ध्वनि सम्प्रदाय के प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्ध हैं। काव्यशास्त्र के ऐतिहासिक पटल पर आचार्य रुद्रट के बाद आचार्य आनन्दवर्धन आते हैं और इनका ग्रंथ ‘ध्वन्यालोक’ काव्य शास्त्र के इतिहास में मील का पत्थर है।

आचार्य आनन्दवर्धन कश्मीर के निवासी थे और ये तत्कालीन कश्मीर नरेश अवन्तिवर्मन के समकालीन थे। इस सम्बंध में महाकवि कल्हण ‘राजतरंगिणी’ में लिखते हैं:

मुक्ताकणः शिवस्वामी कविरानन्दवर्धनः।
प्रथां रत्नाकराश्चागात् साम्राऽयेऽवन्तिवर्मणः ॥
कश्मीर नरेश अवन्तिवर्मन का राज्यकाल 855 से 884 ई. है। अतएव आचार्य आनन्दवर्धन का काल भी नौवीं शताब्दी मानना चाहिए। इन्होंने पाँच ग्रंथों की रचना की है- विषमबाणलीला, अर्जुनचरित, देवीशतक, तत्वालोक और ध्वन्यालोक।

 

ध्वन्यालोक, आचार्य आनन्दवर्धन कृत काव्यशास्त्र का ग्रन्थ है। आचार्य आनन्दवर्धन काव्यशास्त्र में ‘ध्वनि सम्प्रदाय’ के प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्ध हैं।

 

आनन्दवर्धन का ध्वन्यालोक
ध्वन्यालोक उद्योतों में विभक्त है। इसमें कुल चार उद्योत हैं।इस के मंगलाचरण में भगवान विष्णू की स्थुती की गयी है प्रथम उद्योत में ध्वनि सिद्धान्त के विरोधी सिद्धांतों का खण्डन करके ध्वनि-सिद्धांत की स्थापना की गयी है। द्वितीय उद्योत में लक्षणामूला (अविवक्षितवाच्य) और अभिधामूला (विवक्षितवाच्य) के भेदों और उपभेदों पर विचार किया गया है। इसके अतिरिक्त गुणों पर भी प्रकाश डाला गया है। तृतीय उद्योत पदों, वाक्यों, पदांशों, रचना आदि द्वारा ध्वनि को प्रकाशित करता है और रस के विरोधी और विरोधरहित उपादानों को भी। चतुर्थ उद्योत में ध्वनि और गुणीभूत व्यंग्य के प्रयोग से काव्य में चमत्कार की उत्पत्ति को प्रकाशित किया गया है।

ध्वन्यालोक के तीन भाग हैं- कारिका भाग, उस पर वृत्ति और उदाहरण। कुछ विद्वानों के अनुसार कारिका भाग के निर्माता आचार्य सहृदय हैं और वृत्तिभाग के आचार्य आनन्दवर्धन। ऐसे विद्वान अपने उक्तमत के समर्थन में ध्वन्यालोक के अन्तिम श्लोक को आधार मानते हैं-

सत्काव्यतत्त्वनयवर्त्मचिरप्रसुप्तकल्पं मनस्सु परिपक्वधियां यदासीत्।
तद्व्याकरोत् सहृदयलाभ हेतोरानन्दवर्धन इति प्रथिताभिधानः॥
लेकिन कुंतक, महिमभट्ट, क्षेमेन्द्र आदि आचार्यों के अनुसार कारिका भाग और वृत्ति भाग दोनों के प्रणेता आचार्य आनन्दवर्धन ही हैं। आचार्य आनन्दवर्धन भी स्वयं लिखते हैं-

इति काव्यार्थविवेको योऽयं चेतश्चमत्कृतिविधायी।
सूरिभिरनुसृतसारैरस्मदुपज्ञो न विस्मार्यः॥
यहाँ उन्होंने अपने को ध्वनि सिद्धान्त का प्रवर्तक बताया है। इसके पहले वाले श्लोक में प्रयुक्त ‘सहृदय’ शब्द किसी व्यक्तिविशेष का नाम नहीं, बल्कि सहृदय लोगों का वाचक है और कारिका तथा वृत्ति, दोनों भागों के रचयिता आचार्य आनन्दवर्धन को ही मानना चाहिए।

इस अनुपम ग्रंथ पर दो टीकाएँ लिखी गयीं- ‘चन्द्रिका’ और ‘लोचन’। हालाँकि केवल ‘लोचन’ टीका ही आज उपलब्ध है। जिसके लिखने वाले आचार्य अभिनव गुप्तपाद हैं। ‘चन्द्रिका’ टीका का उल्लेख इन्होंने ही किया है और उसका खण्डन भी किया है। इसी उल्लेख से पता चलता है कि‘चंद्रिका’ टीका के टीकाकार भी आचार्य अभिनवगुप्तपाद के पूर्वज थे।

आनन्दवर्धन– सहृदय हृदयहलादि शब्दार्थमयत्वमेय काव्यलक्षणम् (साभार)