वसंत पंचमी के दिन टिहरी राज महल में भगवान बद्रीविशाल के कपाट खुलने की तिथि हुई घोषित, जाने बद्रीनाथ रहस्य और महात्म्य

श्री बदरीनाथ धाम के कपाट 18 मई 2021 को प्रातः 4:15 को खुलेंगे । नरेंद्र नगर राज महल से बद्रीनाथ धाम के कपाट खुलने की तिथि सुनिश्चित हुई है जय बदरीविशाल ।

भगवान बदरीविशाल के कपाट 18 मई को ब्रह्म मुहूर्त में प्रातः 4•15 पर खुलेंगे ।दुत्तीय चरण की गाड़ू घड़ा (तेल कलश) यात्रा 29 अप्रैल को राजदरबार नरेंद्र नगर से प्रस्थान करेगी ।
भगवान बदरीविशाल सभी भक्तों का कल्याण करें ।

उत्तराखंड के विश्व प्रसिद्ध चार धाम यात्रा के प्रमुख धाम श्री बद्रीनाथ धाम के कपाट खोलने की घोषणा नरेंद्र नगर राज महल से हो गई है बद्रीनाथ धाम के कपाट 18 मई 4:15 पर को ब्रह्म मुहूर्त में खुलेंगे। महाराजा मनुजेंद्र शाह ने विश्व भर के तीर्थ यात्रियों को उत्तराखंड आमंत्रित किया है।  महाराजा मनुजेंद्र शाह , टिहरी राजवंश के महाराज ने कहा कि सदियों से टिहरी राजवंश यह परंपरा निभाता चला आ रहा है

जबकि गाडूघडी – 29 अप्रैल, भगवान बदरीनाथ जी के लिए तिल पिरोने का दिन सुनिश्चित हुई है 

बदरीनाथ मंदिर को बदरीनारायण मंदिर भी कहा जाता है। जो अलकनंदा नदी के किनारे उत्तराखंड राज्य में स्थित है। यह मंदिर बद्रीनारायण  के रूप बद्रीनाथ को समर्पित है। यह हिन्दुओं के चार धाम मेें से एक धाम है। ऋषिकेश से यह 294 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में स्थित है। ये पंच बदरी में से एक बद्री भी है। उत्तराखंड में पंच बदरी, पंच केदार तथा पंच प्रयाग पौराणिक दृष्टि से तथा हिंदू धर्म की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।

|| श्री बद्रीनाथ ||
भगवान श्री बद्री नारायण जी

धर्मस्य दक्षदुहितर्यजनिष्ठ मूत्र्या।
नारायणो नर ऋषिप्रवरः प्रशान्तः।
नैष्कम्र्य लक्षणामुवाच चचारकर्म
योऽद्यापि चास्त ऋषिवर्य निषेवितांघ्रिः।।

जो भारत का शिरोमुकुट है, जो समस्त पर्वतों का पति होने से गिरिराज कहलाता है उसी के एक उत्तुंग शिखर के प्रांगण में बद्रिकाश्रम या बदरीवन है। इन चर्म चक्षुओं से न दीखने वाला, वह एक उसी तरह बदरी का विशाल वृक्ष है, जिस प्रकार प्रयाग में अक्षयवट है। बदरी वृक्ष में लक्ष्मी का वास है, इसीलिये लक्ष्मीपति को यह दिव्य वृक्ष अत्यन्त प्रिय है। उसकी सुखद शीतल छाया में भगवान् ऋषि मुनियों के साथ सदा तपस्या में निरत रहते हैं। बदरी वृक्ष के कारण ही बदरी क्षेत्र कहलाता है और नर-नारायण का निवास स्थान होने से इसे नर-नारायण या नारायणाश्रम भी कहते हैं।

|| श्री बद्रीनाथ भगवान् का विग्रह ||

जन्मान्तरार्जित महादुरितान्तरायं,
लीलावतार रसिकं सुकृतोपलभ्यम्।
ध्यायन्नहो धरणि मण्डन पाद पद्मं,
त्वामागतोऽस्मि शरणां बदरीवनेऽस्मिम्।।

श्री बद्रीनाथ भगवान् का विग्रह एक सालिग्राम शिला के द्वारा प्रकट हुआ है।
समस्त भागवत पुराण सुनाने के अनन्तर
भगवान् शुकदेव ने राजा परीक्षित से स्पष्ट कह दिया-

कथा इमास्ते कथिता महीयर्सा
विताय लोकेषु यशः परेयुषाम्
विज्ञान वैराग्य विवक्षया विभो!
वचो विभूतीर्नतु पारमाथ्र्यम्।।
(भाग0 12 स्क0 पु0 3 अ0 14 श्लोक)

भगवान अनादि हैं, उनके नाम, रूप, लीला और धाम भी अनादि हैं। नर नारायण की लीला भी अनादि है। यह जो भगवान का विग्रह है जिसकी आज हम लोग बड़ी श्रद्धा से पूजा करते हैं यह भी अनादि है, और बद्री धाम भी अनादि है। फिर भी पूजा-पद्धति और आचार-व्यवहारों में समय समय पर परिवर्तन होते रहते है। उन परिवर्तनों का ही वर्णन पुराणों में है। उसमें कोई नवीनता नहीं, युग-युग में इसी तरह की भगवान की लीलाएँ सदा से चलती रही हैं सदा चलती रहेगी।
श्री बद्रीनाथ के सम्बन्ध में प्रायः
सभी पुराणों में विवरण मिलता हैं।
पुराणों के अनुसार पहिले बद्री बन में
भगवान की मूर्ति नहीं थी।
प्रत्यक्ष भगवान अपने स्वरूप से वहाँ
रहकर तपस्या करते थे।
उन्हें तपस्या में निरत देखकर नारद जी ने
उनसे पूछा, भगवान् आप तो त्रिलोकी के नाथ
जगत्पति ईश्वर हैं, आप किसका ध्यान करते हैं।

भगवान् ने हँसकर कहा-’’नारद! इस जगत को उत्पन्न करने वाली प्रकृति के कारण भूत हम ही है,
आत्मा ही पर तत्व है।
हम उस आत्मस्वरूप अपने आपका ही ध्यान करते हैं। सब लोग भजन-भोजन में लगे रहें उनकी शिक्षा के लिये ही हम तप करते हैं यह सुनकर नारदजी प्रसन्न हुए और वही रहकर नारदजी भगवान् की पूजा अर्चना करने लगे, इस क्षेत्र के प्रधान अर्चक-पुजारी श्रीनारदजी ही हैं, इसलिये इस क्षेत्र का नाम नारदीय क्षेत्र भी है । श्रीमदभगवत में जहाँ पञम स्कन्ध में
सप्त-द्वाप और नव वर्षों का वर्णन है।
वहाँ प्रत्येक द्वीपों में भगवान की पृथक-पुथक उपास्य मूर्तियाँ बताई हैं और उन द्वीपों में पृथक पृथक
प्रधान अर्चक पृथक मन्त्रों से अपने
उपास्य देव की पूजा करते हैं।

जैसे हरिवर्ष में नृसिंह उपास्य हैं,
और प्रहलादजी उस वर्ष के प्रधान अर्चक हैं।

रम्यकखण्ड में मत्स्य भगवान उपास्य हैं,
और मनु उपासक हैं।

हिरण्मयखण्ड में कूर्म भगवान उपास्य है,
और अर्यमा प्रधान उपासक हैं।

पुरूष खण्ड में श्री रामचन्द्र भगवान उपास्य हैं,
और हनुमानजी प्रधान अर्चक हैं।

इसी प्रकार इस भारतवर्ष में
भगवान नर-नारायण उपास्य और
नारदजी उनके प्रधान उपासक या अर्चक हैं।
वे भारतीय प्रजा के साथ
नर नारायण रूप भगवान की
पाञरात्र विधि से उपासना करते हैं।

पाञरात्र पूजा पद्धति नारद जी को कैसे प्राप्त हुई इसका विस्तार से वर्णन नारद पुराण, वराह पुराण, विष्णु धर्मोतर पुराण तथा अन्य पुराणों में हैं।

श्री भगवान् का वर्तमान विग्रह :-

पुराकृतयुगस्यादौ सर्वभूत हिताय च।
मूर्तिमान्भगवांस्तत्रतपोयोग समाश्रिताः।।
त्रेतायुगेहिऋषिगणौ योगाभ्यासैक तत्परः।
द्वापरे समनुपाप्ते ज्ञान निष्ठोहि दुर्लभः।।
(स्कन्ध0 वै0 बदरी0 म0 अ0 3-4-5, श्लो0)

पहिले सत्ययुग में भगवान् मूर्तिमान् होकर
तपस्या करते थे।
त्रेता से योगाभ्यासी ऋषियों दर्शन होते थे।
द्वापर आने पर ज्ञाननिष्ठ मुनियों को भी
भगवान् के दर्शन दुर्भभ हो गये
अर्थात् उन्हें भी भगवान् दिखाई नहीं दिये।

श्री भगवान् पहिले अपने साक्षात् रूप से बदरिकाश्रम में निवास करते थे। जब भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन का अवतार ग्रहण करने जाने लगे तब ऋषियों ने कहा प्रभो! आप ही तो हमारे अवलम्ब हैं।
आप इस क्षेत्र को त्याग कर न जाँय,
एक रूप से आप यहाँ निवास करें
और एक रूप से आप अवतार धारण करें।
भगवान् बोले- कलियुग मे मैं साक्षात् रूप से नहीं रह सकता! नारद शिला के नीचे अलकनन्दा में मेरी एक दिव्य मूर्ति है उसे निकालकर तुम लोग स्थापित करो। उसे जो कोई दर्शन करेगा उसे
मेरे साक्षात् दर्शन का फल प्राप्त होगा।
ब्रह्मादि देवताओं ने नारदकुण्ड से वह मूर्ति निकाली। मूर्ति शालिग्राम शिला में बनी हुई ध्यानमग्न चतुर्भुज बड़ी ही भव्य थी। देवताओं ने विश्वकर्मा से मन्दिर बनवाया और नारद जी उसके प्रधान अर्चक नियुक्त हुए।

|| श्री बद्रीनाथ भगवान् का विग्रह ||

जन्मान्तरार्जित महादुरितान्तरायं,
लीलावतार रसिकं सुकृतोपलभ्यम्।
ध्यायन्नहो धरणि मण्डन पाद पद्मं,
त्वामागतोऽस्मि शरणां बदरीवनेऽस्मिम्।।

हिन्दुओं के चार धामों में से एक बद्रीनाथ धाम भगवान विष्णु का निवास स्थल है। यह भारत के उत्तरांचल राज्य में अलकनंदा नदी के बाएं तट पर नर और नारायण नामक दो पर्वत श्रेणियों के बीच स्थित है। गंगा नदी की मुख्य धारा के किनारे बसा यह तीर्थस्थल हिमालय में समुद्र तल से 3,050 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। आओ जानते हैं इसके 10 रहस्य।

बद्रीनाथ मंदिर
बद्रीनाथ धाम चार धामों में से एक है। इस धाम के बारे में यह कहावत है कि ‘जो जाए बदरी, वो ना आए ओदरी’ यानी जो व्यक्ति बद्रीनाथ के दर्शन कर लेता है, उसे पुनः माता के उदर यानी गर्भ में फिर नहीं आना पड़ता। शास्त्रों में बताया गया है कि मनुष्य को जीवन में कम से कम एक बार बद्रीनाथ के दर्शन जरूर करने चाहिए।

 

अलकनंदा 
ब्रदीनाथ के चरण पखारती है अलकनंदा। सतयुग तक यहां पर हर व्यक्ति को भगवान विष्णु के साक्षात दर्शन हुआ करते थे। त्रेता में यहां देवताओं और साधुओं को भगवान के साक्षात् दर्शन मिलते थे। द्वापर में जब भगवान श्री कृष्ण रूप में अवतार लेने वाले थे उस समय भगवान ने यह नियम बनाया कि अब से यहां मनुष्यों को उनके विग्रह के दर्शन होंगे।

 
बद्रीनाथ को शास्त्रों और पुराणों में दूसरा बैकुण्ठ कहा जाता है। एक बैकुण्ठ क्षीर सागर है जहां भगवान विष्णु निवास करते हैं और विष्णु का दूसरा निवास बद्रीनाथ है जो धरती पर मौजूद है। बद्रीनाथ के बारे में यह भी माना जाता है कि यह कभी भगवान शिव का निवास स्थान था। लेकिन विष्णु भगवान ने इस स्थान को शिव से मांग लिया था।
 

गोमुख 
चार धाम यात्रा में सबसे पहले गंगोत्री के दर्शन होते हैं यह है गोमुख जहां से मां गंगा की धारा निकलती है। इस यात्रा में सबसे अंत में बद्रीनाथ के दर्शन होते हैं। बद्रीनाथ धाम दो पर्वतों के बीच बसा है। इसे नर नारायण पर्वत कहा जाता है। कहते हैं यहां पर भगवान विष्णु के अंश नर और नारायण ने तपस्या की थी। नर अगले जन्म में अर्जुन और नारायण श्री कृष्ण हुए थे। 

 
यमुनोत्री मंदिर 
बद्रीनाथ की यात्रा में दूसरा पड़ाव यमुनोत्री है। यह है देवी यमुना का मंदिर। यहां के बाद केदारनाथ के दर्शन होते हैं। मान्यता है कि जब केदारनाथ और बद्रीनाथ के कपाट खुलते हैं उस समय मंदिर में एक दीपक जलता रहता है। इस दीपक के दर्शन का बड़ा महत्व है। मान्यता है कि 6 महीने तक बंद दरवाजे के अंदर इस दीप को देवता जलाए रखते हैं।

नृसिंह मंदिर जोशीमठ 
जोशीमठ स्थित नृसिंह मंदिर का संबंध बद्रीनाथ से माना जाता है। ऐसी मान्यता है इस मंदिर में भगवान नृसिंह की एक बाजू काफी पतली है जिस दिन यह टूट कर गिर जाएगी उस दिन नर नारायण पर्वत आपस में मिल जाएंगे और बद्रीनाथ के दर्शन वर्तमान स्थान पर नहीं हो पाएंगे।
 

बद्रीनाथ तीर्थ का नाम बद्रीनाथ कैसे पड़ा यह अपने आप में एक रोचक कथा है। कहते हैं एक बार देवी लक्ष्मी जब भगवान विष्णु से रूठ कर मायके चली गई तब भगवान विष्णु यहां आकर तपस्या करने लगे। जब देवी लक्ष्मी की नाराजगी दूर हुई तो वह भगवान विष्णु को ढूंढते हुए यहां आई। उस समय यहां बदरी का वन यानी बेड़ फल का जंगल था। बदरी के वन में बैठकर भगवान ने तपस्या की थी इसलिए देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को बद्रीनाथ नाम दिया। 

 
सरस्वती मंदिर 
यह है सरस्वती नदी के उद्गम पर स्थित सरस्वती मंदिर जो बद्रीनाथ से तीन किलोमीटर की दूरी पर माणा गांव में स्थित है। सरस्वती नदी अपने उद्गम से महज कुछ किलोमीटर बाद ही अलकनंदा में विलीन हो जाती है। कहते हैं कि बद्रीनाथ भी कलियुग के अंत में वर्तमान स्थान से विलीन हो जाएगी और इनके दर्शन नए स्थान पर होंगे जिसे भविष्य में बद्री के नाम से जाना जाता है।
 

 
बद्रीनाथ 
यह है बद्रीनाथ का भव्य नजारा। मान्यता है कि बद्रीनाथ में भगवान शिव को ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति मिली थी। इस घटना की याद दिलाता है वह स्थान जिसे आज ब्रह्म कपाल के नाम से जाना जाता है। ब्रह्मकपाल एक ऊंची शिला है जहां पितरों का तर्पण श्राद्घ किया जाता है। माना जाता है कि यहां श्राद्घ करने से पितरों को मुक्ति मिलती है।
 
 
बद्रीनाथ के पुजारी शंकराचार्य के वंशज होते हैं, जो रावल कहलाते हैं। यह जब तक रावल के पद पर रहते हैं इन्हें ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। रावल के लिए स्त्रियों का स्पर्श भी पाप माना जाता है।