धर्मान्तरण की दुकानों पर ताले लगे बिना लोकतंत्र कैसे बहाल रह सकता है?

चुपके चुपके सांठगांठ करने वाले व्यक्ति , जिनकी निजी जिंदगी भी बेहद उल्झी हुई हो, राजनीतिक खानदान से होने के उपरांत राजनीति का “र” भी नहीं जानता हो, दो नम्बर के धन्धे बाजों एक बड़ी जमात उसे देश पर बतौर प्रधानमंत्री थोपने के लिए उद्दत है । इसके लिए कल तक कुत्तों जैसे लड़ने वाले राजनीतिक चाल बाजों को एक किया जा रहा है। यह भारतीय समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा को तोड़ने की कोशिश तो है ही, देश को वापस आतंक के साये में धकेलने की साजिश भी हो सकती है। हमारा देश पिछले 4 सालों में ही बम धमाके, गैस और खाद की लाइन भूल गया है , गैस देने वाले घर घर आते हैं सब्सिडी खाते में आती है, जिस फोन पर मिस कॉल करने के पैंसे बमुश्किल होते थे, उससे हजारों गुना बेहतर फोन पर अब लोग दिन भर नेट चलाते हैं, बहुत सारे काम घर बैठे बैठे ही हो जाते हैं, समय बचता है, बहुत सारी चीजें ऑनलाइन होने से काफी हद तक भ्रष्टाचार खत्म खत्म हुआ है। ये बड़ा बदलाव है। लेकिन कुछ लोग अभी भी एक परिवार की गुलामी से बाहर आने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं, अनुभवी नेताओं के बावजूद आज की कांग्रेस एक परिवार की परिक्रमा बन कर रह गई है, अब यह लाल बहादुर शास्त्री इंदिरा गांधी के जमाने की कांग्रेस तो रही नहीं, राजीव उस कांग्रेस के अंतिम पुरोधा थे, उसके बाद तो बस घोटालों की बाढ़ सी चालू हो गई थी। अब जाकर 4 साल से कुछ ब्रेक लग रहा है। फिर भी कुछ लोग पूछते हैं मोदी ने क्या किया? अगर कुछ नहीं किया तो जीडीपी 7% तक कैसे बढ़ी? देश विश्व की इतनी बड़ी आर्थिकी कैसे बना? आतंकवादियों और पाकिस्तान को इतना बेचैन पहले कभी देखा? गया, पादरी और कादरी के राजनीतिक वोट  फतवे कभी जारी हुए? क्योंकि अब इनकी धर्मान्तरण की दुकानों पर निरंतर ताले लग रहे हैं विदेशी फंडिंग के चोर दरवाजे बंद हो रहे हैं। जो लोग धर्म के मार्ग पर चलने वाले राजनीतिक  विरोध का ठेका लिए बैठे हैं, उन्होंने कभी बड़ी संख्या में हो रहे धर्मान्तरण पर एक शब्द नहीं बोला। इसी कारण देश में शरिया अदालतों और अलग देश मांगने वालों का दुस्साहस बढ़ रहा है,  ये राजनीतिक अधर्म नहीं तो और क्या है? कल ही प्रधानमंत्री का एक साहसिक बयान आया है “हार स्वीकार है लेकिन सांप्रदायिकता की राजनीति नहीं करूंगा” , इसी से समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी सही और इमानदारी के ट्रैक पर चल रहे हैं । झोला उठा कर चल देने का साहस एक संत ही कर सकता है, देश के लुटेरे नहीं। यही साहस आज देश के सभी राजनीतिक दलों को दिखाने की जरूरत है।