उत्तराखण्ड सचिवालय में पत्रकारों पर रोक आपातकाल जैसा फैसला

ओ पी पांडे 

उत्तराखण्ड सचिवालय में पत्रकारों  पर रोक आपातकाल जैसा फैसला…लेकिन विरोध के स्वर क्यों नहीं  ?

उत्तराखंड सचिवालय में पत्रकारों के प्रवेश को लेकर जिस तरह की खबर आ रही है कतई हैरान करने वाली नहीं  हैं, और मैं सच कहूं तो बिल्कुल भी नहीं  हूं, मैने पत्रकार संगठन में सहभागिता के दौरान जो महसूस किया उससे यह पक्का हो गया था कि यह सब ही होगा, राज्य निर्माण के बाद अधिसंख्य पत्रकार भी राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के नेताओं की तर्ज पर राज्यविरोधी संगठनों के साथ खड़े हो गए सबका एक उद्द्येश्य किसी मंत्री नेता संग मिलकर कुछ काम हो जाएं, राज्य मिल गया है अब सीधा फायदा पाने का समय है । होना तो चाहिए था कि आखिर जिस कलम की धार के बल पर राज्य की स्थापना हुई उसके निर्माण में कलम और निखर कर एक बेहतर राज्य स्थापित करवाने में और मुखरता दिखाए, लेकिन भाई लोग सत्ता की मलाई चाटने में लग गए ? उससे साफ हो गया था कि राज्य हित की लड़ाई कही और चली जाएगी और हुआ भी वही । अलग अलग तरीके से सत्ता से मेलजोल के रास्ते देखे जाने लगे राज्य में नए अखबार चैनल अवतरित हुए जिनमे कई लड़का पत्रकार खोते गए उनकी कलम की धार हल्की कर दी गई । पत्रकार संगठनों से उन्होंने मुह मोड़ लिया और धीरे धीरे पत्रकार संगठन अप्रसांगिक से लगने लगे । उधर राजधानी में चाटुकारिता पत्रकारिता पर किस कदर हावी हो रही थी तब पता चला जब हम कई मित्र पत्रकार संगठन के विस्तार हेतु देहरादून गए । एक आवाज पर किसी का किसी हद तक साथ देने वाले पत्रकार साथी कन्नी काट रहे, जब संगठन सिर्फ पत्रकारिता दिवस पर नेताओं  से नजदीकी बढ़ाने का एकमात्र प्रयोज्य बन गया हो ? तब सब होना लाजमी ही लगता है इन्हीं  सब बातों को अभी तक राज्य में सत्तारूढ़ नेतृत्व ने नजदीक से महसूस किया है वो जानते हैं  एक ही शहर में उन्हें तीन तीन कार्यकमों में शिरकत करनी है मेरा ही क्यों हम जैसे अधिकतर की हालत तब पतली हो जाया करती है जब नेताजी मंच से ही पत्रकारों को धमका तक दे रहे हैं कि आप लोग सरकार के कार्य को ठीक ढंग से पेश नही करते है ? जिसका परिणाम होता है कि आपकी हम सहायता नही कर पाते हैं । एक कार्यक्रम में तो एक मंत्री ने यहां तक कह दिया कि आपको हम विज्ञापन ना दें तो आपको अखबार छोड़िए घर चलाना मुश्किल हो जाएगा ? सब कलमकार सुनते रहे ? 
यही उत्तराखंड के कलमकारों की असलियत हो गई है ? इस आदेश के जारी होने के इतना समय बीत जाने तक कोई प्रतिरोध कही दिखता ही नही ? सोशल मीडिया के अलावा कही भी कोई हलचल चिंगारी नहीं है ? मैं आस्वस्त हूँ सरकार ने बड़ी चालाकी से यह कदम उठाया है ठीक वैसे ही जैसे शाम होते ही आदमखोर निकल पड़ता है किसी शिकार पर । वह इंतजार करता है गांव के लोगों के सोने का । सुनसानी का । वही सुनसानी संगठनों पर भी पड़ी है । यूं कहें तो नींद में है राज्य का कलमतंत्र । गर जागा होता तो इस छोटी लड़ाई के लिए अभी तक कोई निर्णय ले चुका होता ? उन बेचारे बेतनभोगी असहाय पत्रकारों से यह उम्मीद भी शायद बेमानी होगा कि वह संगठन में आकर प्रतिरोध को कंधा दें उन्हें तो मालिकान कब बाहर का रास्ता दिखा दें पता नही ? सैकड़ों  पत्रकारों वाले राज्य में मजीठिया आयोग की शिफारिश लागू करवाने की लड़ाई में उत्तराखंड अकेला राज्य है जहाँ सिर्फ आधा दर्जन ही पत्रकार श्रम विभाग की दहलीज तक पहुच पाए हैं  ? उसमे भी आधे सेवानिवृत ।
हमारे पत्रकारों की संघर्ष की प्रवर्ति कम हो रही है यह चिंता का विषय है उनके लिए नहीं  समाज के लिए भी । उनका मूल स्वरूप बदलना राज्य देश और समाज के लिए घातक होगा इतना जान लेना जरूरी है । हो सकता है सरकार कल अपने निर्णय को वापस ले ले लेकिन सत्ता ने धमका दिया है और आपने सह लिया है यह भी खतरनाक ही है । होना यह चाहिए कि सरकार की मंशा क्या थी ? ऐसी क्या खबर है जिसे सरकार आमजन तक पहुचने से बचाना चाहती है । अब इस पर खूब लिखा जाना चाहिए , यह भी तो एक संघर्ष का तरीका है ।(फोटो विवरण साभार दीपक बैंजवाल)

नीरक्षीर विवेक और विवेचना के लिए हम उस चर्चित पत्र को भी दे रहे हैं, ताकि पता चले  वो कौन सी खबर है जिसे गोपनीय रखा जाना राज्य हित में जरूरी है।

इधर कांग्रेस के पूर्व मंत्री दिनेश अग्रवाल ने प्रेसवार्ता का आयोजन कर राज्य की त्रिवेंद्र सरकार द्वारा सचिवालय में पत्रकारों के प्रवेश पर लगाई गई पाबंदी पर आपत्ति जताते हुए कहा कि राज्य सरकार अपनी मर्जी के अनुसार खबरें चलाना चाहती है. साथ ही दिनेश अग्रवाल ने ये भी कहा कि पत्रकारों पर लगी पाबंदी की कांग्रेस आलोचना करती है.